पुस्तक वितरण
पुस्तक वितरण
“मुझे यह जानकर विशेष आनंद प्राप्त हुआ कि हमारी पुस्तकों और पत्रिकाओं के वितरण में आपके द्वारा वितरित पुस्तकों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसी तरह आगे बढ़ते रहो, अधिक से अधिक पुस्तक वितरण करो। जब भी कोई व्यक्ति कृष्ण के विषय में कुछ ठोस (यथारूप) जानकारी पढ़ता है, तो उसका जीवन किसी न किसी तरह अवश्य परिवर्तित होता है। ये ग्रंथ ही वह मज़बूत नींव हैं जिस पर हमारा प्रचार आंदोलन खड़ा है, इसलिए मैं चाहता हूँ कि जहाँ तक संभव हो ये ग्रंथ संसार के सभी व्यक्तियों के लिए उपलब्ध हों। अतः कृपया इसके लिए भरपूर प्रयास करें।” (श्रील प्रभुपाद का दामोदर को पत्र, 3 दिसंबर 1971)
“मुझे यह जानकर अत्यधिक खुशी हुई कि आप इन ग्रंथों तथा पत्रिकाओं का अद्भुत रूप से वितरण कर रहे हैं। जितना अधिक हम पुस्तक वितरण करेंगे, उतना हम निजी कृष्ण भावनामृत में प्रगति करेंगे, और उतना ही हम दूसरों को अधिकाधिक ठोस (शुद्ध) जानकारी प्रदान करने में सहायता कर सकेंगे कि वे कैसे अपने मानव जीवन का लाभ उठा कर परम सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए मैं चाहता हूँ कि अब आप इन पुस्तकों एवं ग्रंथों का वितरण अधिक से अधिक बढ़ाएँ।” (श्रील प्रभुपाद का कुलशेखर के लिए 20/1/72 को पत्र)
“हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि कृष्ण से संबंधित एक पुस्तक के वितरण का अर्थ है कि हम अपनी कृष्ण भावनामृत में एक कदम आगे बढ़ गए हैं।” (श्रील प्रभुपाद का विष्णुजन महाराज के लिए 4 अप्रैल 1971 को पत्र)
मुझे सभी अच्छे समाचार सुनकर अत्यंत हर्ष हुआ, विशेष रूप से कि आप अधिक से अधिक ग्रंथ-वितरण करना चाहते हैं। यही सर्वश्रेष्ठ प्रचार है; प्रत्येक ग्रंथ का वितरित होना प्रचार के प्रभाव को दर्शाता है और हमारी ठोस प्रगति को इंगित करता है। अत: निजी इंद्रिय-सुख हेतु नहीं, अपितु कृष्ण की इंद्रियों को आनंद प्रदान करने के लिए अपने देश में अधिक से अधिक ग्रंथ-वितरण करने का प्रयास कीजिए और इस निष्काम प्रयास द्वारा यह आंदोलन नि:संदेह सफल होगा। जैसे ही कोई निजी सुख हेतु प्रयास करेगा, वैसे ही वह आध्यात्मिक जीवन के सभी क्षेत्रों में विफल हो जाएगा।”
[श्रील प्रभुपाद का कुरुक्षेत्र के लिए 23/11/72 को पत्र]