श्री श्री राधा गोपाल जिउ

श्री श्री राधा गोपाल जीऊ
प्रस्तुत जानकारी ‘गोपाल जीऊ – श्रील गौर गोविंद स्वामी के प्राणप्रिय विग्रह’ में से उद्धृत कुछ विशेष भाग हैं। श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज गिरी परिवार की एक कन्या के गर्भ से प्रकट हुए थे और बाल्यकाल से ही गोपाल के लिए विभिन्न प्रकार की सेवाएँ करते थे। उनके पूरे जीवन में जब भी संभव होता, वह गोपाल का दर्शन करने अवश्य जाते। उन्होंने अपने दिव्य शरीर का एवं इस संसार का त्याग भी गोपाल की एक अत्यंत सुंदर तस्वीर का दर्शन करते हुए किया था। इतना ही नहीं, उनके अंतिम शब्द भी यही थे, “गोपाल”।
प्रारंभिक वर्ष
गदेईगिरी ग्राम पूर्व-मध्य उड़ीसा के जगतसिंहपुर ज़िले में स्थित है। भारत के अन्य छोटे गाँवों की भाँति यह भी एक शान्तिपूर्ण स्थान है जहाँ के अधिकतर कच्चे घर भूसे की छत से ढके तथा मिट्टी द्वारा निर्मित कुटिया हैं। ग्राम के निवासी अपने पूर्वजों की भाँति सरल जीवन व्यतीत करते हुए प्रतिदिन स्थानीय कुण्ड में स्नान करते हैं, गायों की देखभाल करते हैं और गोबर के उपलों पर अपना भोजन पकाते हैं। उनकी जीविका के मुख्य साधन चावल की खेती और पीतल के बर्तन बेचना हैं। प्रायः ग्राम के प्रत्येक घर के आँगन में तुलसी का पवित्र पौधा दिखाई देता है और हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन सुनाई देता है: हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । गदेईगिरी गाँव के ग्रामवासी प्रभु गोपाल के प्रति पूर्णत: समर्पित हैं। इस गाँव की लंबे समय से चल रही प्रथा यह है कि बाग में जो भी पहला फल अथवा फूल उगता है, वे उसे लाकर गोपाल के विग्रह को अर्पित करते हैं, और माना जाता है कि ऐसा करने से वे पेड़ एवं लताएँ प्रचुर मात्रा में फल-फूल प्रदान करती हैं!
गदेईगिरि ग्राम की स्थापना
गदेईगिरी ग्राम का नाम इसके स्थापक श्रीमन् गदाईगिरी के नाम पर रखा गया था, जो सत्रहवीं शताब्दी में मिदनापुर ज़िले से यहाँ विस्थापित हुए थे। एक व्यापारी होने के कारण वह नियमित रूप से इस क्षेत्र में बर्तन तथा कांस्य (काँसे) की वस्तुएँ बेचने आते थे।
वह एक सरल तथा साधु-प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। प्रतिदिन प्रात:काल जल्दी उठकर वह कीर्तन करते और तत्पश्चात थोड़ा चिड़ा-पानी पाने के बाद वह घर-घर जाकर पीतल के बर्तन बेचते। संध्या होने पर वह जिस भी गाँव में होते, वहीं रात्रि व्यतीत करते और स्थानीय लोगों के साथ उनके दैनिक कीर्तन एवं श्रीमद्-भागवतम के अध्ययन में भाग लेते।
शीघ्र ही वह एक अच्छे कीर्तनकार और भक्त के रूप में प्रसिद्ध हो गए और स्थानिक विग्रहों (श्री बलदेव जीऊ, श्री वृन्दावनबिहारी जी, श्री श्री राधा मदनमोहन जीऊ व श्री दधी बमन जीऊ) की प्रसन्नता हेतु उन्हें विभिन्न उत्सवों के संकीर्तन में भाग लेने के लिए बारंबार आमंत्रित किया जाने लगा।
गदाईगिरी की साधु-प्रवृत्ति की सराहना करते हुए ज़मीनदार ने उन्हें भूमि का कुछ क्षेत्र भेंट करने का प्रस्ताव रखा। इसके कुछ समय पश्चात ही गदाईगिरी की भेंट एक नागा-संन्यासी से हुई। वह गदाईगिरी के सुशील व्यवहार व उत्तम चरित्र से अत्यधिक प्रसन्न हुए।
एक दिन गदाईगिरी उन संन्यासी के साथ वन में भ्रमण कर रहे थे कि अचानक उन दोनों को विभिन्न प्रकार के पंछियों की मृदु बोली के साथ-साथ वेणु, नुपुर तथा शंख की ध्वनि सुनाई दी।
नागा-साधु ने उनसे कहा, “जहाँ ऐसी मंगल ध्वनियाँ सुनाई देती हैं, वहाँ कृष्ण स्वयं उपस्थित होते हैं। जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ उनकी संगिनी, भाग्य लक्ष्मी भी उपस्थित होती हैं। यह एक पवित्र तथा कीर्तिमय स्थान है। तुम यहाँ एक घर बनाकर यहीं निवास करो और स्वयं को पूर्ण रूप से भगवान की सेवा में संलग्न कर लो। यहाँ तुम्हारी सभी इच्छाएँ तत्क्षणात पूर्ण होंगी।”
जब गदाईगिरी ने ज़मीनदार को यह बतलाया, तब ज़मीनदार ने उन्हें ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा भेंट किया, जिसमें खेती करने का हिस्सा भी सम्मिलित था। नागा-साधु द्वारा निर्दिष्ट जंगल के एक छोटे से हिस्से में गदाईगिरी ने एक घर तथा एक छोटे से मंदिर का निर्माण किया, जहाँ उन्होंने ‘दधी बमन’ के विग्रह स्थापित किए।
जब भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलदेव और बहन सुभद्रा की अनुपस्थिती में पूजे जाते हैं, तब वे ‘पतित पवन’ या ‘दधी बमन’ कहलाते हैं।
बर्तनों का अपना व्यापार छोड़, गदाईगिरी पूर्ण रूप से भजन-कीर्तन में मग्न हो गए। अनेक परिव्राजक साधु तथा संन्यासी उनके कीर्तन में भाग लेने लगे। धीरे-धीरे कई लोग उस स्थान पर स्थायी रूप से रहने आ गए और फलत: उस स्थान पर गदेइगिरी नामक एक गाँव बस गया।