भगवान का उद्देश्य विफल रहा

प्रिय पाठकों,

पिछले लेख में हमने एक शुद्ध भक्त की स्थिति पर चर्चा करने का प्रयास किया था। आज हम भौतिक संसार में उनकी उपस्थिति के महत्त्व तथा भगवान के अपने ही उद्देश्य में विफल होने पर चर्चा करेंगे।

शुद्ध भक्त इस संसार में या तो श्रीकृष्ण की इच्छा से आते हैं या फिर अपनी स्वतंत्र इच्छा से अनंत दुःखों से पीड़ित इस भौतिक जगत का उद्धार करने हेतु प्रकट होते हैं। इसलिए हम प्रतिदिन गुरुवाष्टकम् में श्री गुरुदेव से यह प्रार्थना करते हैं – 'त्राणाय कारूण्य'। गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत के अनुसार हम उन्हें 'भक्तावतार' कहते हैं। इसका प्रमाण श्री चैतन्य भागवत मध्य-लीला (१.२२०-२२१) तथा श्रीमद् भागवत (५.१९.२४) में प्राप्त किया जा सकता है।

एक शुद्ध भक्त का प्राकट्य न केवल भक्तों के लिए लाभदायक होता है, अपितु वह समस्त जीवों के लिए परम मंगलकारी होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे कृष्ण-शक्ति से आवेशित और संपूर्ण ब्रह्माण्ड का उद्धार करने की दिव्य-शक्ति से संचारित होते हैं। इसलिए एक वैष्णव कवि, देवकीनंदन दास ठाकुर ने अपनी वैष्णव वंदना में उल्लेख किया है – "ब्रह्माण्ड तारिते शक्ति धरे जने जने "। वे केवल हमारे उद्धार हेतु ही यहाँ, इस भौतिक धरातल पर अवतरित होते हैं। मेरे परम आराध्य गुरुदेव, श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज के शब्दों में, "बद्ध-आत्माओं की पीड़ा देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठता है।''

वास्तव में शुद्ध भक्त एक भव्य महल के भीतर, एक मिट्टी की झोपड़ी में अथवा राधा-कुण्ड में, कहीं भी निवास कर सकतें हैं और अत्यंत सहजता से भगवान की प्रेममयी सेवा तथा शुद्ध भजन संपादित कर सकते हैं। फिर वे अनेकों चुनौतियों का सामना करते हुए, कृष्ण भावनामृत का प्रचार करने हेतु विभिन्न देशों की यात्रा क्यों करते हैं? इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं इस्कॉन के संस्थापकाचार्य – श्रीकृष्णकृपामूर्ति ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद। हमारे गुरुदेव के शब्दों में, भगवान के शुद्ध भक्त सर्वत्र कृष्ण-संबंध का दर्शन करते हैं, किस प्रकार हर-एक जीव श्रीकृष्ण का अंश है। भौतिक प्रकृति के गुणों के प्रभाव के निमित्त होकर जीव ने इन्द्रियविषयों के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति विकसित कर ली है, जिस कारणवश वह अत्यधिक पीड़ित है। किंतु वह अपने दुखों के मूल कारण से अपरिचित है। वह सहायता चाहता है परंतु यह नहीं जानता है कि कौन उसकी सहायता कर सकता है। वह आंतरिक शांति प्राप्त करने के लिए अतिविकल रूप से लालायित है, परंतु वह यह नहीं जानता कि वह उसे कैसे, कहाँ और कब प्राप्त होगी? भौतिक संसार में अपनी इस दयनीय दशा के कारण वह कई जन्मों से क्रंदन करता आ रहा है, ठीक उसी तरह जिस तरह समुद्र के मध्य में बिना किसी नाव के फँसा हुआ व्यक्ति, भयावह तूफ़ान के समय सहायता के लिए क्रंदन करता है।

जीवों की ऐसी नम्र दशा को देखकर भगवान उनकी सहायता करने हेतु प्रकट होते हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी असीम करुणा से निम्नलिखित रूपों में प्रकट होते हैं:

१. उनके निजी-धाम के रूप में

२. उनके नित्य-परिकर के रूप में

३. उनकी नित्य संगिनी एवं अंतरंगा शक्ति श्रीमती राधारानी के रूप में

४. उनकी अनेकों रुचिकर लीलाओं के रूप में, जिनके माध्यम से वह सभी बद्ध आत्माओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। भगवान की विमोहक लीलाओं के प्रति रति उत्पन्न होने से बद्ध आत्मा की इंद्रियतृप्ति के प्रति आसक्ति क्रमशः समाप्त हो जाएगी।

५. उनके अवतार व्यास देव के रूप में, जिन्होंने इन सभी दिव्य मधुर लीलाओं की ग्रंथ रूप में रचना की है।

६. वे स्वयं अपने श्रीविग्रह रूप में अवतरित होते हैं। भगवान केवल अपनी प्रकट लीलाओं के समय ही नहीं, अपितु अप्रकट होने के उपरांत भी, बद्ध जीवात्माओं पर कृपा करने के लिए और उनके साथ संबंध स्थापित करने के लिए अर्चा-अवतार के रूप में प्रकट होते हैं।

७. क्योंकि बद्ध जीव कृष्ण के साथ अपने नित्य संबंध को भूल चुका है, अतः न तो उसके पास कोई आध्यात्मिक शक्ति है और न ही कोई ज्ञान है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जीव को भगवान के साथ अपने इस शाश्वत संबंध का कोई विचार तक नहीं है। वह ठीक उसी प्रकार दुर्बल है, जिस प्रकार एक रोग ग्रस्त व्यक्ति में स्वस्थ एवं पौष्टिक भोजन को पचाने की शक्ति नहीं होती।

 

भले ही भगवान जीव की सहायता करने हेतु विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं, किंतु बद्धजीव की दृष्टि उनके दिव्य रूप का दर्शन इसके विपरीत ढंग से ही करती है:

१. भगवान के नित्य निवास, धाम के प्रति उसकी दृष्टि ऐसी होती है मानो वह धाम नहीं, कोई भौतिक स्थान हो। (चैतन्य चरितामृत आदि लीला ५.२०)।

२. भगवान एवं उनके पार्षदों के प्रति उसकी मर्त्यबुद्धि होती है, अतएव वह भगवान के नित्य संगी को एक सामान्य मनुष्य के सदृश मान बैठता है। (भगवत गीता ५.२०)।

३. अपनी भोग प्रवृत्ति के कारण बद्धजीव कृष्ण की लीलाओं का अनुकरण करने लगता है और वह श्रीकृष्ण की ही भाँति प्रत्येक वस्तु का भोग करने की इच्छा रखता है, जिस कारण से वह इन समस्त लीलाओं को काल्पनिक मान बैठता है।

४. व्यास देव द्वारा लिखित सभी निर्देशों एवं लीलाओं को पढ़कर भी बद्ध जीव अज्ञानता के कारण स्वयं को अपनी भावना सहित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के प्रति समर्पित नहीं कर पाता है। कभी-कभी वह स्वयं को ही भगवान घोषित कर बैठता है और भगवान की भाँति भोग करना चाहता है। साथ ही वह स्वयं को एक महान व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने हेतु,अपना मंतव्य भी प्रदान करना चाहता है।

५. विग्रह दर्शन करने पर वह सोचता है, "यह तो बस लकड़ी या पत्थर के बने एक पुतले हैं। न तो ये कुछ खाते हैं और न ही कुछ बोलते हैं।"

 

परन्तु जब बद्ध आत्मा की सहायता करने हेतु भगवान का यह उद्देश्य विफल हो जाता है, तो फिर भगवान एक नई चाल चलते हैं, जिसके विषय में हम अगले लेख में चर्चा करेंगे।

 

आपका सेवक एवं शुभचिंतक

हलधर स्वामी

 

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