वैष्णव शिष्टाचार भाग 1
प्रिय पाठक,
साधु का संग करने से पूर्व, यह आवश्यक है कि हम कुछ सिद्धांतों से अवगत हों एवं धर्मानुकूल आचरण का अनुशीलन करके स्वयं को उन सर्वश्रेष्ठ साधु-पुरुषों की संगति के लिए योग्य बनाऍं। ऐसा करने से हम अत्यंत सहजता से गुरु तथा गौरांग की कृपा के पात्र बन सकते हैं। वैष्णव समाज के इन सिद्धांतों तथा मर्यादाओं को “वैष्णव-आचरण” कहा जाता है। यदि कोई वैष्णव-आचरण का पालन नहीं करता, तो महाप्रभु तथा पूर्ववर्ती आचार्य उससे कदापि प्रसन्न नहीं होते। श्रीचैतन्य चरितामृत [अंत्य लीला ४.१२९-१३०] में स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्रील सनातन गोस्वामी के समक्ष इसकी पुष्टि की कि वैष्णव-आचरण का पालन और रक्षण करना भक्त का सर्वश्रेष्ठ गुण या दूसरे शब्दों में भक्त का आभूषण है। यदि कोई व्यक्ति शिष्टाचार के नियमों का उल्लंघन करता है, तो लोग उसका परिहास करेंगे जिसके परिणाम स्वरूप वह इस लोक तथा परलोक दोनों में विनष्ट हो जाएगा।
अत: हमें पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट वैष्णव-आचरण का अवश्य पालन करना चाहिए। श्रील सनातन गोस्वामी एवं श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी जैसे अनेक आचार्यों ने अपने ग्रंथों में वैष्णव-आचरण को सूचिबद्ध किया है। किंतु कलियुग में इन सभी निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन कर पाना संभव नहीं है। वर्तमान आचार्य, सभी पूर्ववर्ती आचार्यों के प्रतिनिधि होते हैं। वे हमें स्थान, काल और परिस्थिति के अनुसार कुछ सिद्धांत प्रदान करते हैं। अतएव हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम उन सिद्धांतों का दृढ़तापूर्वक पालन करें। शास्त्र हमें कृष्ण-प्राप्ति की विधि का सारतत्व प्रदान करते हैं। किंतु शास्त्र का सार हमें परंपरा के माध्यम से प्राप्त होता है और परंपरा का सार, केवल वर्तमान आचार्य के माध्यम से ही प्रकट होता है। श्रीमद्-भागवतम् [१०.२.३०-३१] में देवतागण श्रीकृष्ण को अपनी प्रार्थनाएँ अर्पित करते समय भी यही पुष्टि करते हैं।
अपने तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद इसका उल्लेख कुछ इस प्रकार करते हैं – यह भक्ति-पथ महान भक्तों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। यह पथ केवल उन परम सिद्ध वैष्णवों के लिए ही नहीं, अपितु सभी जीवों के अनुशीलन हेतु एक उपयुक्त पथ है। उन महान भक्तों ने, न केवल अज्ञानता से निकलने के पथ को प्रकाशित किया है, अपितु उन्होंने इस मार्ग पर अग्रसर होना भी अत्यंत सहज बना दिया है। इस तरह सभी को इस दिव्य पथ पर चलने का सुअवसर प्राप्त होता है – उन्हें भी जिनके लिए यह मार्ग महाजनों द्वारा सुलभ बनाया गया है और उन परम दयाल भक्तों को भी जो श्रीकृष्ण के चरणों में पूर्णतया समर्पित हैं। अगले श्लोक में देवतागण भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं – “जब आचार्यगण, अज्ञानता के इस भयावह भवसागर को तरने के लिए आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, तो वे अपने पीछे अपनी वह विधि छोड़ जाते हैं जिससे वे स्वयं उसे पार करते हैं। चूँकि आप अपने अन्य भक्तों पर अत्यंत कृपालु रहते हैं अतएव उनकी सहायता करने के लिए आप इस विधि को स्वीकार करते हैं।” श्रील प्रभुपाद आगे अपने तात्पर्य में वर्णन करते हैं – “अज्ञान के सागर को पार करने के लिए भगवान के चरणकमलों की नौका बनाने की उपयुक्त विधि आचार्य द्वारा बतलाई जाती है और यदि पालनकर्ता इस विधि का दृढ़तापूर्वक पालन करता है, तो वह भगवद्कृपा से गंतव्य तक अवश्य पहुँच जाता है।”
इसलिए हमें आचार्यों द्वारा प्रकाशित वैष्णव-शिष्टाचार का पालन करना चाहिए। मानव समाज में तथाकथित आध्यात्मिक प्रचारकों का व्यवहार कपटता पर आधारित है, परंतु वास्तविक वैष्णवों का व्यवहार सदैव सरलता और उनकी स्वाभाविक स्थिति पर आधारित होता है। तथाकथित मानव समाज के सिद्धांतों का पालन करके हम वैष्णव-शिष्टाचार का पालन नहीं कर सकते। मानव समाज का नीति-विशेष व्यवहार निश्चित रूप से देखने में तो बहुत सुंदर प्रतीत होता है, किन्तु सत्य तो यह है कि वह केवल बाह्य रूप से अत्यधिक आकर्षक एवं अभिवादन करता हुआ दिखाई पड़ता है, जबकि आंतरिक रूप से वह ईर्ष्या और शत्रुता के दुर्भाव से परिपूर्ण होता है। वैष्णव समाज में हमारा व्यवहार स्वाभाविक होता है, अतः उस समाज में मानव समाज की नीतिज्ञ आचरण का अनुगमन करना एक गंभीर अपराध है, जो हमारे भक्ति-जीवन में महान अवरोधक बनता है।
यद्यपि हम वैष्णव-आचरण का पालन तो करते हैं, किंतु फिर भी हमारे हृदय में कुछ मात्रा में कपट अवश्य रहता है, जिसके फलस्वरूप दिन-प्रतिदिन हमारे हृदय में कई प्रकार के अनर्थ उगने लगते हैं। सरल हृदय से वैष्णव-शिष्टाचार का पालन किए बिना, किसी अन्य विधि द्वारा अविचल श्रद्धा का स्तर प्राप्त कर पाना कदापि संभव नहीं है। अतएव हम वैष्णव-शिष्टाचार के कुछ सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे:
- हमें गुरुदेव के नाम को प्रेमपूर्वक तथा भक्ति भाव से उच्चारित करना चाहिए। उनका नाम लेने से पूर्व, हमें 'ॐ विष्णुपाद' अवश्य जोड़ना चाहिए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि हमें गुरुदेव के नाम का भक्तिपूर्ण भाव से उच्चारण करना चाहिए। यदि हमारी आचार्य के प्रति भक्ति व दृढ़ श्रद्धा नहीं है, तो कृष्ण के प्रति हमारी तथाकथित भक्ति मात्र कृत्रिमता या भावुकता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
- हमें इस संसार के लोगों द्वारा प्रदत्त किसी भी भौतिक उपाधि को स्वीकार नहीं करना चाहिए, अपितु हमें समाज में स्वयं को सदा कृष्ण-दास के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर महाराज वर्णन करते हैं कि यदि किसी व्यक्ति को यह अटूट विश्वास हो जाता है कि वह श्रीकृष्ण का नित्य दास है, तो उसके जीवन के सभी कष्टों का बड़ी सहजता से निवारण हो जाएगा।
- जब भी हम प्रार्थना, कीर्तन या महिमागान करें, तब हमें सर्वप्रथम गुरुदेव का, उसके पश्चात वैष्णवों का, पंचतत्त्व का और अंत में राधा-कृष्ण का गुणगान अवश्य करना चाहिए। अपने शुद्ध-भक्त का गुणगान श्रवण करके भगवान अतिशय प्रमुदित हो जाते हैं। आदि पुराण में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “मेरे भक्तों की महिमा स्वयं मेरी महिमा से कई गुना अधिक है।” यद्यपि कृष्ण से श्रेष्ठ कोई नहीं है, किंतु फिर भी कृष्ण अपने शुद्ध तथा अनन्य भक्त को स्वयं से भी ऊँची पद्वी प्रदान करते हैं। इससे कृष्ण की महिमा और अधिक मधुर, उदार एवं आस्वादनीय हो जाती है। कृष्ण अर्जुन, द्रौपदी, सुदामा और गोपियों के कारण और अधिक महान हो गए। ऐसे महान शरणागत भक्त श्रीकृष्ण की शोभा को बढ़ाते हैं और साथ ही कृष्ण की कृपा से वे भी और अधिक यशस्वी बन जाते हैं। अतएव हमें श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए उनके शुद्ध-भक्त का गुणगान करना चाहिए।
- हमें कभी भी देवताओं की निंदा नहीं करनी चाहिए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर महाराज ने हमें देवताओं को अपना प्रणाम अर्पित करने का निर्देश दिया है क्योंकि वे कृष्ण के सेवक हैं। इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण शिष्टाचार यह है कि किसी भी जीव को किसी प्रकार का कष्ट, क्लेश या उत्पीड़न नहीं देना चाहिए। कृष्ण सभी जीवों के हृदय में परमात्मा रूप में विद्यमान हैं। यदि कोई अन्य जीव हमारे लिए समस्या उत्पन्न कर रहा है, तो वह हमारे पूर्व कर्मों के कारण है। वास्तव में वह व्यक्ति हमारा बंधु है क्योंकि वह हमारे पूर्व कर्मों के भार को नष्ट कर रहा है। परंतु बद्ध-अवस्था में सभी परिस्थितियों को सहन कर पाना निश्चय ही सहज नहीं होता। हम नूतन कर्म उत्पन्न करना नहीं चाहते क्योंकि ऐसा करने से हम अपने कर्मानुसार पुन: एक नए शरीर को धारण करने के लिए बाध्य हो जायेंगे। अत: हमें हर एक जीव को, यहाँ तक कि निम्न-योनि के जीवों को भी सम्मान देना चाहिए।
- यदि किसी व्यक्ति ने गले में तुलसी माला (कण्ठी) धारण की हुई है और उसके माथे पर तिलक है, तो हमें उसे अपना प्रणाम अर्पित करना चाहिए। यद्यपि वह किसी अन्य संप्रदाय का हो या एक शुद्ध-भक्त न हो, किंतु फिर भी हमें उसे प्रणाम करना चाहिए और उसका आदर करना चाहिए क्योंकि उसने तिलक धारण किया है। श्रीमद्-भागवतम [११.२९.१५] में कृष्ण उद्धव को उपदेश देते हैं – “मनुष्य को चाहिए कि वह अपने संगियों द्वारा किए गए उपहास की तनिक भी परवाह न करते हुए, देहात्म बुद्धि एवं उसके साथ लगी चिंता को त्याग दे। उसे कुत्तों, चाण्डालों, गौवों तथा गधों के समक्ष भी भूमि पर दंड के समान गिर कर नमस्कार करना चाहिए। जब तक मनुष्य सारे जीवों के भीतर मुझे देख पाने की क्षमता उत्पन्न नहीं कर लेता तब तक उसे चाहिए कि वह अपनी वाणी, मन तथा शरीर के कार्यों द्वारा इस भक्ति-विधि से मेरी पूजा करता रहे।”
- यदि कोई वैष्णव अत्यंत दूरी से हम से भेंट करने आ रहे हों, तो जितना तक संभव हो पाए हमें उनके उतना समीप जाकर उन्हें प्रणाम करना चाहिए और उनका हृदय से स्वागत करना चाहिए। श्रील जीव गोस्वामी अपने भक्ति संदर्भ [१३५ अनुछेद] में वर्णन करते हैं – यदि कोई वैष्णव का दर्शन करने के उपरांत भी उनका स्वागत नहीं करता, तो कृष्ण बारह वर्षों तक उसकी कोई भी सेवा स्वीकार नहीं करते। वैष्णव का दर्शन करके यदि कोई हर्षोल्लासित नहीं होता, तो यह भी एक वैष्णव अपराध है। इस संदर्भ में कोई यह प्रश्न पूछ सकता है, “यदि हम किसी वैष्णव के दोष देखते हैं, तो फिर हम उसका सम्मान कैसे कर सकते हैं?” श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इसका उल्लेख श्रीमद्-भागवतम [७.७.३०] की अपनी टीका में अत्यंत स्पष्ट रूप से करते हैं, जिसका वर्णन श्रील प्रभुपाद ने भी अपने तात्पर्य में किया है, “वास्तव में साधु को अपने आचरण में संत जैसा होना चाहिए। जब तक वह आदर्श आचरण में दृढ़ नहीं रहता उसका साधु पद पूर्ण नहीं है।” अतएव एक साधु-वैष्णव को आदर्श आचरण का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर वर्णन करते हैं कि यदि किसी व्यक्ति ने वैष्णव परंपरा में दीक्षा प्राप्त की है, तो उसे एक वैष्णव के रूप में सम्मान देना हमारा कर्तव्य है। इसका अर्थ यह है कि हमें उन दीक्षित वैष्णव की सेवा करनी चाहिए तथा उनका स्तवन भी करना चाहिए। किंतु यदि उनका आचरण शिष्टाचार के अनुसार नहीं है, तो हमें उनका संग नहीं करना चाहिए। हमारे गुरुदेव सरल शब्दों में कहा करते थे, “प्रणाम करो और दूर रहो।”
अगले लेख में हम वैष्णव आचरण के कुछ अन्य विषयों पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे।
आपका सेवक व शुभचिंतक
हलधर स्वामी
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