अंधापन दूर करना
प्रिय पाठकगण,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम महाजनों द्वारा प्रदर्शित पथ का स्मरण कर रहे हैं। शारीरिक चेतना से ग्रस्त होने के कारण संपूर्ण ब्रह्माण्ड विमोहित है। श्रीब्रह्मा से लेकर क्षुद्र चींटियाँ तक, सभी जीव शारीरिक सुख-सुविधाओं की खोज में लगे हुए हैं। श्री प्रह्लाद महाराज के अनुसार इस सुख का आस्वादन करना किसी चबाई हुई वस्तु को पुन: चबाने के समान है। बद्ध-जीव प्रत्येक क्षण, न केवल भौतिक सुख की खोज में व्यस्त है, अपितु वह विभिन्न युक्तियों द्वारा उस सुख का आस्वादन करने के प्रयास में भी प्रवृत्त है। आविष्कार अथवा खोज का नाम देकर वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इंद्रिय सुख की ही खोज कर रहा है। यदि आप इस मानव समाज में इन्द्रियतृप्ति के विविध साधनों की खोज में नहीं लगे हुए हैं, तो आपको एक निकम्मा व्यक्ति समझा जाएगा। यहाँ सभी का हृदय इंद्रिय भोग की भीषण अग्नि से प्रज्ज्वलित है और जो व्यक्तिगण उस अग्नि में घी डालने का कार्य करते हैं, उन्हें ही समाज द्वारा ‘महाजन’ की उपाधि दी जाती है। वे जनसमूह को इस प्रकार आकृष्ट कर लेते हैं कि उन्हें पुरस्कृत होने के लिए पूर्णतः योग्य व्यक्ति तथा समाज के सबसे बड़े पण्डित एवं विद्वान के रूप में देखा जाता है। पूरा मानव समाज उनके विचारों को बिना किसी तर्क-वितर्क के, यथारूप ग्रहण कर लेता है क्योंकि उन व्यक्तियों ने इंद्रिय-भोग को बढ़ावा देने के अपने अतुलनीय योगदान से सभी को वशीकृत कर लिया है। उनके मतानुसार समस्त वैदिक ज्ञान, काल्पनिक अथवा मिथक कथा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
वहीं दूसरी ओर, जिन महान आत्माओं ने अपना पूरा जीवन वास्तविक आध्यात्मिक आनंद का वितरण करने के लिए समर्पित कर दिया है, उन्हें समाज द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। प्रह्लाद महाराज को स्वयं उनके पिता द्वारा प्रताड़ित किया गया, देवकी और वसुदेव को कंस द्वारा प्रताड़ित किया गया और महाप्रभु के अंतरंग अनुयायियों को समाज के तथाकथित नेताओं द्वारा प्रताड़ित किया गया। हमारी परंपरा में हम प्रचार के माध्यम से श्रोताओं के हृदय में क्रांति उत्पन्न कर उन्हें परिवर्तित करना चाहते हैं। हम श्रोताओं के हृदय में भौतिक इच्छाओं के प्रवाह को रोकना चाहते हैं और उनके हृदय में वैराग्य का एक ऐसा मज़बूत बाँध बनाना चाहते हैं कि भौतिक इच्छाओं की तरंगे उनकी बुद्धि व चेतना को स्पर्श न कर सकें। वर्तमान समय में, ‘वैराग्य’ शब्द को सुनने मात्र से ही इस जगत के लोग इतना घबरा जाते हैं कि वे उन सभी सज्जनों पर आघात करना चाहते हैं जो वैराग्य का प्रचार करते हैं, जिस प्रकार एक सर्प किसी सर्प-पकड़ने वाले पर आघात करता है। वे सुखोपभोग की भावना में इतने तल्लीन हैं कि वे आहार, निद्रा, भय और मैथुन की अपनी प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहते हैं। वे उसे नियंत्रित भी नहीं करना चाहते, तो फिर घटाने का तो कहना ही क्या? उनके दृष्टिकोण से वास्तविक प्रचारकगण, जो इंद्रिय-तृप्ति को नियंत्रित करने की शिक्षा प्रदान करते हैं, वे मूर्ख तथा धूर्त हैं। अतः वे सही चेतना में तभी स्थित हो पायेंगे जब उनका शरीर दुर्बल या अक्षम हो जाएगा और उन्हें भयंकर व्याधियाँ झेलनी पड़ेंगी।
यद्यपि वैष्णवी माया-देवी ऐसे भोगी व्यक्तियों के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने के लिए उन्हें अनेक प्रकार से दण्डित करती हैं, किंतु फिर भी अपने अंधेपन के कारण वे अपने कष्टों के मूल कारण को पहचानने में असमर्थ रहते हैं। जो व्यक्ति जितना अधिक भोग करता है, वह उतना ही अधिक अंधा होता जाता है। अपनी भोग-प्रवृत्ति के कारण वह कभी आत्म-तत्त्व के विषय में जिज्ञासु नहीं होता। भोग-प्रवृत्ति से उत्पन्न अंधापन बाह्य अंधेपन, जन्मांध, से भी अधिक घातक है। जन्मांध व्यक्ति को दृष्टि प्रदान करना सभी के लिए एक असंभव कार्य है, किंतु उस अंधे व्यक्ति के जीवन में एक सकारात्मक गुण यह है कि वह एक अनुयायी बनना चाहता है क्योंकि वह समझ जाता है कि उसके लिए अपने प्रयास से कुछ देख पाना संभव नहीं है। परंतु जो व्यक्तिगण भौतिक भोग के कारण अंधे हो जाते हैं, वे अनुयायी नहीं बनना चाहते, अपितु दूसरों को अपना अनुयायी बनाना चाहते हैं। उनके जीवन का प्रत्येक सोपान असंख्य कठिनाइयों से भरा रहता है, किंतु फिर भी कोई उन्हें उनकी चेतना से अवगत नहीं करा सकता। वास्तव में किसी भी प्रकार की गहरी एवं गूढ़ आसक्ति, मनुष्य को अंधा बना देती है, भले ही वह व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में सक्रिय ही क्यों न हो। उदाहरणार्थ भरत महाराज का जीवन। भरत महाराज जैसे महान पुरुष, जिन्हें भगवान का स्नेह प्राप्त था, उन्हें भी अपने पद से नीचे आना पड़ा। जब महाराज भरत का यह हाल हुआ तो भला जो भौतिक भोग में आसक्त हैं और आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़े हुए नहीं हैं, उनका तो कहना ही क्या? श्रील शुकदेव गोस्वामी की दृष्टि से श्रीमद्-भागवतम् [5.8.20] में भरत महाराज मृग के वियोग में विलाप कर रहे थे, “वह मृग राजकुमार के तुल्य है। वह कब लौटेगा? वह कब अपनी मनोहर क्रीड़ाएँ दिखायेगा? वह कब मेरे आहत-हृदय को पुनः शांत करेगा? अवश्य ही मेरे पुण्य शेष नहीं हैं, अन्यथा अब तक वह मृग अवश्य लौट आया होता।” इसी श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद वर्णन करते हैं: “अपने प्रबल स्नेह के कारण राजा छोटे से हिरण को राजकुमार मान बैठा। यह मोह कहलाता है। मृग की अनुपस्थिति के कारण चिंतावश राजा ने पशु को इस प्रकार संबोधित किया मानो वह उसका पुत्र हो। स्नेह के वशीभूत होने पर किसी को कुछ भी कह कर पुकारा जा सकता है।” भरत महाराज का जीवन चरित्र हमारे लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शिक्षण है और इससे हम देख सकते हैं कि वे हिरण के प्रति अपने प्रबल स्नेह के कारण अंधे हो गए थे। उनकी सहायता करने के लिए वहाँ कोई नहीं था क्योंकि वह एकांत स्थान पर थे और भक्तों के संग से वंचित थे।
परंतु हमारे पास साधु का संग करने का स्वर्णिम अवसर है। हम उनसे अपनी समस्याओं का मूल कारण जान सकते हैं। परंतु हमारी भौतिक उपाधियों एवं योग्यताओं के कारण कर्मी लोग हमें प्रशंसा व प्रतिष्ठा देते हैं, जिसके फलस्वरूप हम अपने जीवन की दु:खद घटनाओं का विश्लेषण नहीं कर पाते। इतिहास में हम अनेकोंअनेक उदाहरण देख सकते हैं जिसमें निम्नस्तरीय व्यक्तियों का जीवन भगवद्भक्तों के संग से अकस्मात परिवर्तित हो गया। वहीं दूसरी ओर हम बहुत से ऐसे ज्ञानियों का उदाहरण भी देख सकते हैं जिनका जीवन शुद्ध-भक्तों के निरंतर संग के बाद भी परिवर्तित नहीं हुआ और वे दिव्य दृष्टि विकसित करने में विफल रहे।
हम मृगारी और रत्नाकर के उदाहरण से देख सकते हैं, जो पतित अवस्था में थे, किंतु नारद मुनि के संग मात्र से उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई। वहीं धृतराष्ट्र निरंतर विदुर और भीष्म का संग कर रहे थे किंतु इन महाजनों के ज्ञान से भी वह अपना हृदय परिवर्तन न कर सके। वह व्यासदेव के पुत्र थे। महाभारत से पूर्व उन्होंने व्यासदेव से निवेदन किया, “मैं महाभारत देखना चाहता हूँ, अत: आप कृपया मुझे युद्ध देखने की शक्ति प्रदान करें।” व्यासदेव ने कहा, “नहीं, तुम नहीं देख सकते। यदि तुम्हारी देखने की ही इच्छा है, तो तुम संजय के माध्यम से युद्ध का दर्शन करो।” यहाँ एक प्रश्न उठता है कि संजय को व्यासदेव की कृपा प्राप्त हुई परंतु धृतराष्ट्र उस कृपा से वंचित रह गए, इसका क्या कारण था? वह जन्म से अंधे थे; अत: वह बाह्य दृष्टि से विहीन तो थे ही, परन्तु अपने अयोग्य पुत्र धुर्योधन से अत्यंत आसक्त होने के कारण वह अपनी आंतरिक दृष्टि भी खो चुके थे। यद्यपि वह विदुर और भीष्म से निरंतर दिव्य उपदेशों का श्रवण कर रहे थे किंतु तब भी वह अपनी आसक्ति से मुक्त न हो सके। जो व्यक्ति भौतिक भोगों में लिप्त रहना चाहता है, उसके हृदय में अंधेपन के साथ-साथ कापट्य भी उदित हो जाता है। धृतराष्ट्र के साथ भी ऐसा ही हुआ। अक्रूर के समक्ष भी धृतराष्ट्र ने अत्यंत शठता पूर्ण व्यहार किया। श्रीमद्-भागवतम् [10.49.27] में उल्लेख प्राप्त होता है, “फिर भी, हे भद्र अक्रूर, क्योंकि मेरा अस्थिर हृदय अपने पुत्रों के स्नेह से पक्षपातयुक्त है इसलिए आपके ये मोहक शब्द हृदय में स्थिर नहीं टिक पाते, जिस तरह बिजली बादल में स्थिर नहीं रह सकती।” एक अन्य वार्तालाप में उन्होंने कहा, “मेरा क्या दोष है? मुझे पता है कि धर्म क्या है किंतु मेरे पास उसका पालन करने की शक्ति नहीं है और मुझे पता है कि अधर्म क्या है किंतु उसका परित्याग करने की मेरे पास शक्ति नहीं है। कृष्ण मेरे हृदय में भी स्थित हैं और वे जिस दिशा में मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं, मैं उसी दिशा में जा रहा हूँ। इसमें मेरा क्या दोष है?” क्योंकि वह सरल नहीं थे, इसलिए व्यासदेव ने उन्हें अपनी कृपा प्रदान नहीं की। अत: भौतिक भोग से हमारे हृदय में भौतिक आसक्ति का उदय होता है। यह आसक्ति जितनी प्रगाढ़ होती जाती है, उतने ही हम कपटी और ईर्ष्यालु होते जाते हैं।
ऐसे दृष्टिहीन व्यक्तियों की सहायता कौन कर सकता है? इनका उद्धार केवल एक शुद्ध-भक्त की अहैतुकी कृपा से ही संभव है। हाँलाकि विदुर ने निराश होकर हस्तिनापुर का परित्याग कर दिया था, किंतु मैत्रेय से कृपा प्राप्त करने के पश्चात वे पुन: अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को कृपा प्रदान करने के इच्छुक हुए। यद्यपि वे उस समय वानप्रस्थ आश्रम का पालन कर रहे थे, किंतु फिर भी वे अपने भाई को शिक्षा प्रदान करने पुनः हस्तिनापुर लौटे। उन्होंने अपने मोहग्रस्त भाई धृतराष्ट्र को उनकी अस्थायी व पराधीन स्थिति से अवगत कराया। श्रीमद्-भागवतम् [1.13.14] में श्रील प्रभुपाद अपने तात्पर्य में वर्णन करते हैं, “विदुर वहाँ पर विशेष रूप से धृतराष्ट्र को प्रबुद्ध करने तथा उन्हें उच्चतर आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त कराने के उद्देश्य से ही आये थे। प्रबुद्ध व्यक्तियों का यह कर्तव्य है कि वे पतितात्माओं का उद्धार करें और विदुर इसी उद्देश्य से आये थे।” यद्यपि वे अनुज थे, किंतु फिर भी धृतराष्ट्र के हृदय में वैराग्य उत्पन्न करने हेतु उन्होंने धृतराष्ट्र पर वाक-दण्ड प्रयुक्त किया। श्रीमद्-भागवतम् [1.13.23] में यह वर्णन प्राप्त होता है, “ओह! प्राणी में जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! निश्चय ही आप एक घरेलू कुत्ते की भाँति रह रहे हैं और भीम द्वारा दिये गये जूठन को खा रहे हैं।”
श्रील प्रभुपाद उल्लेख करते हैं, “साधु को चाहिए कि वह गृहस्थों को जीवन के कटु सत्य के बारे में बताए, जिससे वे इस भौतिक अस्तित्व के संकटपूर्ण अनिश्चित जीवन के विषय में सचेत हो सकें।” तात्पर्य के अंत में श्रील प्रभुपाद वर्णन करते हैं, “विदुर जैसे साधु ऐसे अंधे व्यक्तियों को सावधान करने के लिए तथा शाश्वत जीवन बिताने के लिए भगवद्धाम जाने में सहायता करने के लिए होते हैं। एक बार वहाँ जाकर कोई इस दुखमय संसार में वापस नहीं आना चाहता। अतएव हम सोच सकते हैं कि महात्मा विदुर जैसे साधु पुरुषों को कितना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने के लिए सौंपा जाता है।” हमारे गुरुदेव कहा करते थे, “साधु एक वैद्य की तरह है। उनके उपदेश इतने शक्ति-संपन्न होते हैं कि वे व्यक्ति की चेतना को बलपूर्वक जागृत अवस्था में ले आते हैं।” यही बात श्रील प्रभुपाद श्रीमद्-भागवतम् [1.13.29] के तात्पर्य में वर्णित करते हैं, “इसके बावजूद, अपने जीवन की विफलताओं के होते हुए भी, उन्होंने आदर्श साधु के प्रतीक समान भगवान् के शुद्ध भक्त के शक्तिशाली उपदेशों से आत्म-साक्षात्कार में सर्वाधिक सफलता प्राप्त की।" जब ऐसे साधु हमारा उपचार करेंगे, केवल तब हम इस अंधेपन से मुक्त हो सकते हैं। उनका विशेष उपहार यही है कि वे आंतरिक दृष्टि प्रदान कर आपके हृदय को दिव्य ज्ञान से प्रकाशित करते हैं जिसे अन्य शब्दों में 'प्रज्ञ-चक्षु' यानि आत्मनिरीक्षणयुक्त ज्ञान भी कह सकते हैं। इसलिए हम प्रतिदिन गुरु-पूजा में यह प्रार्थना करते हैं, ‘चक्षु दान दिलो येइ’। हम श्रीमद्-भागवतम् [11.26.34] में भी देख सकते हैं जब कृष्ण उद्धव से कहते हैं, “मेरे भक्तगण दिव्य चक्षु प्रदान करते हैं जबकि सूर्य केवल बाह्य दृष्टि प्रदान करता है और वह भी तब जब वह आकाश में उदय हुआ रहता है। मेरे भक्तगण ही मनुष्य के पूज्य देव तथा असली परिवार हैं; वे प्रत्येक की आत्मा हैं और वे मुझसे अभिन्न हैं।”
हम महाराज चित्रकेतु के उदाहरण से देख सकते हैं कि किस प्रकार वह गृहस्थ जीवन में डूबे हुए थे। किंतु अंगिरा और नारद मुनि ने उन्हें दिव्य ज्ञान से प्रबुद्ध कराया। कुंतीदेवी अपनी प्रार्थना में उल्लेख करती हैं, “अज्ञानता के कारण भौतिक इच्छाएँ जागृत होती हैं। इन इच्छाओं से भौतिक योजना का उदय होता है। फिर उस योजना के अनुसार कार्य करने से जीव कर्म-बंधन में फँस जाता है जिसके परिणाम स्वरूप उसे पुन: एक शरीर प्राप्त करना पड़ता है। यही भौतिक जीवन है।” [श्रीमद्-भागवतम् 1.18.35]। इस भौतिक जीवन का अंत कब होता है? जब कोई व्यक्ति शुद्ध-भक्त द्वारा प्रबुद्ध होता है और उनकी अहैतुकी कृपा प्राप्त कर लेता है, तभी यह संभव हो पाता है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि कृपा अत्यंत शक्तिशाली है, वह असंभव को भी संभव बना देती है। श्रीमद्-भागवतम् के इस प्रसंग में यह स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत है कि कैसे साधु की अहैतुकी कृपा प्राप्त करने पर एक अत्यधिक आसक्त व्यक्ति कृष्ण-प्रेम से उन्मत्त हो गया। वही चित्रकेतु, जो अपने परिवार और विशेष रूप से अपने पुत्र में अत्यधिक आसक्त थे, अंगिरा और नारद की कृपा प्राप्त करके कृष्ण में आसक्त हो गए और शरीर-परिवर्तित किए बिना, उसी शरीर में गंधर्वों के राजा बन गए। उस स्थिति में यद्यपि वे अनेक सुंदर अपसराओं द्वारा घिरे रहते थे, किंतु फिर भी उनका मन चौबीस घंटे केवल भगवान का गुणगान करता था। नारद मुनि ने राजा चित्रकेतु के अंधेपन को समाप्त करने की इच्छा से ही उन्हें उपदेश दिया था, और इसलिए उन्होंने कहा, “हे राजन, जिस शव के लिए तुम शोक कर रहे हो उसका तुमसे और तुम्हारा उसके साथ क्या संबंध है? तुम कह सकते हो कि इस समय तुम पिता हो और वह पुत्र है, किंतु क्या तुम सोचते हो कि यह संबंध पहले भी था? क्या सचमुच अब भी यह संबंध है? क्या यह भविष्य में भी बना रहेगा?” उसी श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद उल्लेख करते हैं, “ये अस्थायी संबंध न तो भूतकाल में थे और न भविष्य में रहेंगे। अत: वर्तमान समय में ये तथाकथित संबंध छलावा है।”
यह अरुचिकर अथवा कड़वा सत्य एक बद्ध चेतनशील जीव के अंधेपन को विनष्ट कर देता है। यदि कोई जागृत अवस्था में न हो और इन्द्रिय-भोग का आदी हो, परंतु यदि वह सरल स्वभाव का है, तो वह संभवतः एक शुद्ध-भक्त की अहैतुकी कृपा प्राप्त कर सकता है। यदि वह साधु का संग करता है और सरल भाव से उनकी सेवा करता है, तो यह अहैतुकी कृपा उसकी दृष्टीहीनता को पूर्णतया समाप्त कर देगी।
निष्कर्ष में हम यह कह सकते हैं कि जाने-अंजाने में हमारी भोगने की प्रवृत्ति रहती है जिसके परिणामस्वरूप हम अंधे हो जाते हैं। हमारा यह अंधापन कृष्ण को प्राप्त करने के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है। किंतु यदि हम सरल हैं, तब हमारी भक्ति-जीवन में प्रगति करने की आशा रहती है। साधु-गुरु की सेवा करके यदि हम उनकी कृपा प्राप्त कर लेतें हैं तो हम आध्यात्मिक स्तर तक उन्नत हो सकते हैं।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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