चरम लक्ष्य की प्राप्ति के सोपान
प्रिय पाठकगण,
अनेक योनियों तथा विभिन्न ब्रह्माडों में विचरण करने के उपरांत, जीव को भगवद्भक्तों का संग प्राप्त होता है, जिसके फलस्वरूप उस भ्रमणशील जीव का भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है [श्रीमद्-भागवतम १०.५१.५३]। इसलिए हम निश्चित रूप से अपने को सौभाग्यशाली मान सकते हैं, क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारी पूर्व जन्मों की कुछ संचित सुकृति है। यदि हमारे पास पूर्व संचित सुकृति नहीं भी है, तो शुद्ध-भक्त हमें यह सुकृति प्रदान करते हैं। जैसा कि श्रील प्रभुपाद ने कहा है, "मैं आपको सुकृति प्रदान कर रहा हूँ।" यह एक वास्तविक तथ्य है कि साधु हमें सुकृति प्रदान करते हैं।
श्रील गुरुदेव (श्री श्रीमद् गौर गोविन्द स्वामी महाराज) सदैव इस बिंदु पर बल दिया करते थे कि यदि कोई व्यक्ति सरल हृदय के साथ, निष्कपटतापूर्वक साधु एवं गुरु की सेवा करता है और उनकी आज्ञा का यथारूप पालन करता है, तो वह आध्यात्मिक जीवन में अत्यंत तीव्रता से प्रगति कर सकता है। भक्ति में अग्रसरित होने का अर्थ है साधु-कृपा से सुकृति अर्जित करना, जो जीव की आध्यात्मिक प्रगति में व कृष्णभावनाभावित होने में सहायक होंगी। यदि हमारे पास समुचित मात्रा में सुकृति नहीं होंगी, तो हम कभी भी साधु, हरिनाम, महाप्रसाद एवं श्रीकृष्ण में दृढ़ श्रद्धा विकसित नहीं कर पाएँगे। इसलिए महाप्रसाद के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए, हम प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व प्रसाद-सेवा-मंत्र का उच्चारण करते हैं।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर श्रीमद् भागवत [३.५.४५] के अपने भाष्य में तथा श्रील प्रभुपाद अपने तात्पर्य में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हैं कि जो भक्त अपराधी हैं, वे शुद्ध-भक्तों के रूप में भगवान की कृपा प्राप्त करने का सुअवसर खो बैठते हैं।
पाप कर्मो में संलिप्त एक सामान्य व्यक्ति साधारणत: साधु के प्रति अपराध नहीं करता, इसलिए वह एक शुद्ध-भक्त की उपस्थिति से तुरंत ही प्रभावित हो जाता है। यदि हमारी पूर्व जन्मों की संचित भक्ति-सुकृति पर्याप्त न हो और यदि हम पूर्ण रूप से सरल (निष्कपट) भी नहीं हों, तो हमारे लिए साधु एवं उनकी उन्नत स्थिति को समझ पाना कदापि संभव नहीं है। अतएव हमें भक्ति-उन्मुख-सुकृति प्रदान करने के उद्देश्य से ही श्रीकृष्ण अपने विश्वस्त प्रतिनिधि, एक शुद्ध-भक्त को अपने नित्य-धाम से इस भौतिक धरातल पर भेजते हैं। शुद्ध-भक्त इस जगत में ‘कृष्ण-संसार’ की उत्पत्ति करते हैं और अपने निर्देशन में हमें कृष्ण की सेवा में नियुक्त करके हमें सुकृति अर्जित करने का अवसर प्रदान करते हैं। तब हमें स्वयं से यह जिज्ञासा करनी चाहिए कि हमें एक शुद्ध-भक्त का आश्रय किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जब तक हम अपराध-रहित होकर शुद्ध-भक्त की शरण ग्रहण नहीं करते, तब तक हम जीवन का सर्वश्रेष्ठ लाभ प्राप्त नहीं कर सकते।
भगवद्-गीता [४.४३] में श्री गुरु की शरण ग्रहण करने की प्रक्रिया का इस प्रकार वर्णन किया गया है:
१. यदि हमारे पूर्व जन्मों के कुछ पुण्यकर्म संग्रहित हैं, केवल तभी संसार में दुख एवं कष्ट भोगते हुए हमारे मन में यह प्रश्न उठेगा, "मैं ये कष्ट क्यों भोग रहा हूँ?" यही ब्रह्म-जिज्ञासा कहलाती है। यद्यपि इस भौतिक संसार के सभी मनुष्य कष्ट पाते हैं, किंतु फिर भी वे अपने कष्टों के विषय में जिज्ञासा क्यों नहीं करते?
२. जब भी हम अपने कष्टों के मूल कारण को जानना चाहें, तब हमें अत्यंत गंभीरतापूर्वक भगवान से यह प्रार्थना करनी चाहिए, “हे प्रभु! कृपया मेरी सहायता कीजिए!”। भगवान, जो सभी के हृदय में परमात्मा रूप में विद्यमान हैं, भलीभाँति जानते हैं कि हमें किस प्रकार की सहायता की आवश्यकता है। हम इन असहनीय कष्टों से मुक्त होने का उपाय जानना चाहते हैं। परमात्मा बारंबार हमारी सहायता करते हैं, किंतु जैसे ही हमारी समस्या का निवारण होता है, हम भगवान को भूल जाते हैं और पुन: भौतिक सांसारिक विषयों के शिकार हो जाते हैं, जिसकी वजह से हमें फिर से कष्ट भोगने पड़ते हैं और हम पुन: विलाप करने पर विवश हो जाते हैं।
३. अंतत: हम इस जगत में निराश हो जाते हैं और अपने को निराश्रित अनुभव करने लगते हैं। फलस्वरूप हम अपने ही हाथों से अपने अश्रु पोंछ रहे होते हैं। हमें सांत्वना देने के लिए कोई नहीं होता। वास्तव में हमें केवल बाहरी कष्ट ही नहीं, अपितु हमारे हृदय के भीतर स्थित अतृप्त भौतिक वासनाओं से भी असह्य यंत्रणा प्राप्त होती है। बाह्यत: अनेकानेक भौतिक समस्याओं का सामना करने की पीड़ा, और भीतर एक अन्य प्रकार की वेदना – भौतिक भोग की तीव्र लालसा। वस्तुत: हमारी स्थिति काँच के जार में रखे एक अचार की भाँति है, क्योंकि जार के अंदर नमक और तेल है और बाहर चिलचिलाती धूप।
४. इन सभी परिस्थितियों का सामना करने के उपरांत भी हम भौतिक योजनाएँ बनाने में व्यस्त रहते हैं। कृष्ण हमारी इस प्रवृत्ति से भलीभाँति परिचित हैं। वे हमारे निंदनीय कार्यकलापों को भी अच्छी तरह से जानते हैं। जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चे का निरीक्षण करती हुई देखती है कि किस प्रकार उसका बच्चा कुछ मीठा खा रहा होता है और उस मीठी वस्तु पर लिपटीं चींटियाँ उसके बच्चे काटने लगती हैं जिसके चलते वह बच्चा दर्द से रोने लगता है, ठीक उसी प्रकार कृष्ण हमारी बद्ध दयनीय अवस्था और हमारी दुर्बलताओं को भलीभाँति जानते हैं। हमारे एकमात्र शुभचिंतक होने के कारण, वे हमारी दुर्बलता को अनदेखा कर, केवल हमारी सरलता और निष्ठा को महत्त्व देते हैं। प्रत्येक बद्ध जीव की कोई न कोई दुर्बलता होती है – किसी की भोजन के प्रति, किसी की निद्रा के प्रति, किसी की धन के प्रति अथवा किसी की नारी के प्रति, इत्यादि। फिर भी, कृष्ण हमारी निष्ठा और सरलता पर अधिक महत्त्व देकर हमारी सहायता करने के प्रबल इच्छुक हैं।
५. अनंत भौतिक इच्छाएँ होने के बाद भी, यदि हम कपट विहीन और निष्ठावान हैं, तो श्रीकृष्ण हम पर अपनी सर्वप्रथम कृपा की वर्षा करते हैं, जिससे हमारी समस्त भौतिक योजनाएँ और परियोजनाएँ पूर्णतया विफल हो जाती हैं।
(श्रीभगवान् ने कहा: “यदि मैं किसी पर विशेष रूप से कृपा करता हूँ, तो मैं धीरे-धीरे, उसे उसके धन से वंचित करता जाता हूँ। तब ऐसे निर्धन व्यक्ति के स्वजन तथा मित्र उसका परित्याग कर देते हैं। इस प्रकार वह एक के बाद एक अनेक कष्ट सहता है।” [श्रीमद-भागवतम १०.८८.८])
जब हम पूर्ण रूप से निर्धन अथवा कंगाल हो जाते हैं, तो हमें ऐसा लगता है जैसे हमारी श्वास ही रुक गई हो। उस स्थिति में हमें स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए – “हमारा वास्तविक सुहृद बंधु कौन है?” ऐसी परिस्थिति में हम एक के बाद एक अनेक तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करते हैं और इस प्रकार भौतिक इच्छाओं के लिए हमारी लालसा घटती जाती है।
६. ऐसी स्थिति में वह निष्कपट हृदय वाला व्यक्ति, कृष्ण की द्वितीय कृपा को प्राप्त करता है। इसका उल्लेख श्रीमद-भागवतम [१०.८८.९] में किया गया है:
“जब वह धन कमाने के अपने प्रयासों में विफल होकर मेरे भक्तों को अपना मित्र बनाता है, तो मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ।”
दीर्घ काल तक कष्ट सहने के उपरांत कृष्ण उस बद्ध जीव की पुकार सुनते हैं। फिर प्रभु ऐसी व्यवस्था करते हैं जिससे उस बद्ध जीव की भेंट एक साधु से होती है, जो उसे उस कष्टप्रद स्थिति से बाहर निकालने में सहायता प्रदान करते हैं।
७. सरल हृदय से साधुओं का संग करने पर एवं उनके मुखकमल से निरंतर हरि-कथा का श्रवण करने पर, वह सर्वप्रथम श्रद्धा विकसित करता है।
८. इस प्रकार वह धीरे-धीरे साधु के निकट आता जाता है और क्रमश: साधु के मनोभाव को समझने लगता है। फलतः वह साधु के माध्यम से कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रयास करने लगता है।
९. साधु की कृपापूर्ण संगति से उस बद्धात्मा के हृदय में कृष्ण को प्राप्त करने की तृष्णा उत्पन्न हो जाती है।
१०. अपनी इस आध्यात्मिक उत्कण्ठा को परिपूर्ण करने हेतु, वह कृष्ण-तत्त्व-वित साधु के चरण कमलों की शरण ग्रहण करके, उनसे हरि भजन करने की समुचित विधि के विषय में शिक्षा प्राप्त करता है।
११. इस अवस्था में भी बद्ध-जीव अपने अनर्थों के साथ संघर्ष कर रहा होता है। किन्तु, चौबीस घंटे शुद्ध-भक्त के दर्शन करने से एवं गुरु और गौरांग की प्रसन्नता हेतु सेवा करने से उसे धीरे-धीरे आलस्य, तंद्रा, प्रजल्प को छोड़ने में, वाणी पर नियंत्रण करने में एवं अन्य अनर्थों पर भी विजय प्राप्त करने में सहायता प्राप्त होती है।
१२. निष्कपट भाव से साधुसंग करने पर उसके हृदय से छल-प्रवृत्ति एवं लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा, इत्यादि की लालसा पूर्णतया समाप्त हो जाती है।
१३. एक शुद्ध-भक्त की संगति के बिना, निजी प्रयास के बल पर वह स्वयं के पूर्व संस्कारों अथवा पुरानी बुरी आदतों को बदल नहीं सकता। ऐसा करने के लिए बद्ध जीव के भीतर कोई विशेष शक्ति नहीं है और न ही वह भौतिक वस्तुओं के प्रति अपने मोह को त्यागने में तनिक भी सक्षम हैं। किंतु, एक शुद्ध-भक्त की अविच्छिन्न संगति उसके दुष्ट-स्वभाव को परिवर्तित करने की दिव्य-शक्ति से संचारित होती है।
१४. यदि वह सरल हृदय से एक शुद्ध-भक्त का अनुसरण करता है और सतत उनके पदचिह्नों पर चलते हुए श्रीकृष्ण की सेवा में संलग्न रहता है, केवल तभी वह आत्म-साक्षात्कार के अतिगुह्य वरदान से लाभांवित हो सकता है।
१५. एक शुद्ध-भक्त का निरंतर अनुसरण करते हुए, उनके मनोभाव और दिव्य चरित्र से परिचित होने के उपरांत, उसे स्वयं में भी ऐसी ही मनोवृत्ति को विकसित करने की आकांक्षा उत्पन्न करनी होगी। इस सर्वश्रेष्ठ मनोभाव को प्राप्त करने हेतु उसे सदैव साधु से उनकी अहैतुकि कृपा के लिए अतिनम्र भाव से याचना करनी होगी। किंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि वह निष्ठापूर्वक उनका अनुसरण करने का प्रयास करें।
१६. अतः उसे सदा उन्नत भक्तों के संग की अभिलाषा रखनी चाहिए।
इन सभी बिंदुओं का एक-एक करके पालन किया जाना चाहिए, जिससे हमें यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार एक शुद्ध-भक्त की शरण ग्रहण करनी चाहिए और तदुपरांत कैसे उनकी कृपा को उचित रूप से प्राप्त किया जा सकता है।
अंतत: हमें ऐसे कल्याणप्रद साधु के संग के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए, जो वास्तविक भक्तिमय मनोभाव को प्रदान करने में सक्षम हों।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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