गुंडीचा मार्जन लीला का रहस्य
आज के दिन श्रीमन महाप्रभु ने गुंडिचा मंदिर को स्वच्छ करने की लीला अर्थात "गुंडीचा मार्जन" संपन्न किया, और कल रथ-यात्रा है।
जब महाप्रभु पुरी में निवास करते थे, तो वे रथ यात्रा से पहले गुंडीचा मंदिर का बाहर और भीतर से मार्जन करते थे। वे कैसे मार्जन करते थे? वे ऐसा क्यों करते थे? उनका उद्देश्य क्या था? गुंडिचा मार्जन का तत्व या रहस्य क्या है? यह सब महाप्रभु ने अपने आचरण से सिखाया। इसलिए, विशेष रूप से आज, हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि महाप्रभु इस लीला के माध्यम से क्या सिखाना चाहते थे? महाप्रभु की कृपा प्राप्त कर अपना जीवन सफल बनाने के लिए, यह समझना आवश्यक है। इस मानव जीवन का उद्देश्य कृष्ण-प्रेम विकसित करके कृष्ण को प्राप्त करना है।
हमारा एकमात्र आश्रय
श्रीमन् महाप्रभु हमें शुद्ध प्रेम भक्ति और कृष्ण प्राप्ति का मार्ग सिखाने के लिए आए थे। इस दुर्लभ मानव जन्म का यही एक मात्र उद्देश्य है। अन्यथा, मानव जीवन व्यर्थ है। कृष्ण ने आपको इसी जन्म में उनको प्राप्ति करके जीवन यात्रा सफल बनाने, और वापस भगवद धाम में जाने का सुअवसर दिया है। भौतिक संसार अत्यंत कष्टमय है; "पदे पदे विपदम्" - यहाँ हर कदम पर विपदाएँ है। यह एक मायिक जगह है, और भगवान की भ्रामक शक्ति, माया, सभी जीवों को यहाँ मोहित करके वशीकृत कर लेती है।
इस संसार में बद्ध आत्माएं कुरुपिनी माया की ओर स्वतः आकर्षित होती हैं, जो स्वयं को अति सुंदर, आकर्षक युवती के रूप में प्रस्तुत करती है। वह सत्य को असत्य, असत्य को सत्य, सुख को दुःख, दुःख को सुख, आश्रय को मिथ्या आश्रय और मिथ्या आश्रय को आश्रय के रूप में प्रस्तुत करती है। माया बद्ध जीव प्रत्येक असत वस्तु को सत वस्तु के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। जीव का एकमात्र आश्रय कृष्ण तथा साधुओं-वैष्णवों के चरण कमल है, लेकिन माया इसे असत के रूप में प्रस्तुत करती है। इसलिए माया बद्ध जीव, माया को ही वास्तविक आश्रय समझता है, और सोचता है कि साधु-संग और कृष्ण के चरण कमलों में कोई सुख नहीं है। बद्ध जीव को दृढ विश्वास होता है कि भौतिक या इंद्रिय सुख ही एकमात्र वास्तविक सुख और आनंद है। उसको कभी भान भी नहीं होता कि भौतिक सुख वास्तव में दुःख और कष्ट का कारण है। श्रीमद् भगवद्गीता (5.22) में कृष्ण कहते हैं:
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
संस्पर्शजा भोगा अर्थात क्षणिक इंद्रिय सुख; आद्यन्तवन्त: अर्थात इस क्षणिक सुख का आदि और अंत निश्चित है। प्रारम्भ में अल्प सुख और आनंद अनुभव हो सकता है, परन्तु अंततः दु:खयोनय, असीमित दुख है। न तेषु रमते बुधः - जो वास्तव में विद्वान हैं, जो आध्यात्मिक विज्ञान को समझते हैं, वे क्षणिक भौतिक इंद्रिय सुख के पीछे नहीं भागते। वे भलीभाँति जानते हैं कि भौतिक सुख असीमित दु:खों के साथ आता है। वे जानते हैं कि वास्तविक सुख और आनंद शाश्वत है, और कृष्ण के चरण कमल ही एक ऐसी जगह हैं जहाँ शाश्वत सुख और आनंद उपलब्ध है। महाजन, गौर-प्रिय जन, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा है,
“अशोक अभय अमृत अधार
तोमार चरण-द्वय
तहाँते एकान्त विश्राम लभिया
छारिनु भवेर भय”
(शरणागति, १६)
"हे प्रभु, आपके चरण कमल वे आश्रय हैं जहाँ भय, दुःख, और मृत्यु के लिए जगह नहीं है।" आपका शाश्वत धाम अमृतमय है। जो जीव पूर्ण रूप से समर्पित है, वह सभी भौतिक ताप, दुखों, और मृत्यु से मुक्त हो जाता है। इसलिए, कृष्ण के चरण कमल और शुद्ध भक्त का संग ही वास्तविक आश्रय है। ऐसे शुद्ध भक्तों का हृदय कृष्ण के लिए सुखमय सिंहासन होता है, और वे कृष्ण को अपने हृदय में बाँध लेते हैं। शुद्ध भक्त के हृदय में किंचितमात्र भी भौतिक वासना या मुक्ति की कामना नहीं होती है, इसलिए कृष्ण को वहाँ अनंत सुख मिलता है। प्रेमी भक्त कृष्ण की प्रेममयी सेवा में निरंतर लगा रहता है, वह केवल कृष्ण के सुख और आनंद के बारे में ही चिन्तन करता है। श्रीमन महाप्रभु ने गुंडीचा मार्जन लीला द्वारा यही सिखाया है।
रथ-यात्रा से एक दिन पूर्व, भक्तगण गुंडीचा मार्जन उत्सव मनाते हैं जिसमे गुंडीचा मंदिर को बाहर और भीतर से स्वच्छ करते हैं ताकि धूल का एक छोटा कण भी न बचे। महाप्रभु ने स्वयं यह लीला सम्पादित किया और हमें भी करने का निर्देश दिया है।
आपका हृदय कृष्ण के यथोचित आसन होना चाहिए
गुंडीचा मार्जन लीला का रहस्य (तत्व) क्या है? गंभीर भक्त, जो अपने हृदय में कृष्ण को विराजमान करना चाहते हैं, उन्हें इस लीला तत्व को समझना चाहिए और इसका अनुपालन करना चाहिए। सर्वप्रथम, आपका हृदय निर्मल होना चाहिए अर्थात भौतिक विचार और भौतिक कामनायें लेशमात्र भी नहीं होनी चाहिए। जब हृदय निर्मल और स्फटिक की तरह कान्तिमय हो जाएगा, तब कृष्ण आपके हृदय में सहर्ष विराजमान होंगे।
महाप्रभु ने अपने वस्त्र से मंदिर का मार्जन किया
रथ-यात्रा से एक दिन पहले महाप्रभु भक्तों के साथ गुंडीचा मंदिर गए। हरे कृष्ण मन्त्र का जप करते हुए, उन्होंने सभी को पहले मंदिर के बाह्य प्रांगण की, फिर मदिर के अंदर की सफाई में नियुक्त किया। उन्होंने मंदिर परिसर को कांटों, कंकड़, धूल, सूखी घास और अन्य उपोत्पाद से पूर्ण रूप से साफ कर दिया। भक्तगण इंद्रद्युम्न सरोवर से पानी ला रहे थे। वे झाड़ू से सफाई कर रहे थे और हर कोई अपने द्वारा इकट्ठा की गई गंदगी का ढेर बनाता था। महाप्रभु यह देखने आते थे कि किसका ढेर सबसे बड़ा है। फिर महाप्रभु उनकी प्रशंसा करते थे। परन्तु, जिनका ढेर बहुत छोटा था और जिन्होंने ठीक से सफाई नहीं की थी, उन्हें महाप्रभु फटकारते थे। यही महाप्रभु की लीला है।
उसके बाद भक्तों ने मंदिर को अंदर से झाड़ू, ब्रशों तथा प्रचुर पानी द्वारा अच्छी तरह साफ किया। महाप्रभु ने स्वयं अपने योग-पट् से फर्श को साफ किया, जिससे वह स्फटिक की तरह चमकने लगी। अपने वस्त्र से ही महाप्रभु ने जगन्नाथ, बलदेव, और सुभद्रा देवी के सिंहासन को साफ किया। धूल, गंदगी का छोटा सा कण भी साफ किया, अन्यथा भगवान वहाँ विराजमान नहीं होंगे।
चार प्रकार के अनर्थ
जो व्यक्ति कृष्ण को अपने हृदय में विराजमान करने के लिए अति उत्सुक और गंभीर है, तथा साथ ही गुंडीचा मार्जन लीला के रहस्य को समझना चाहता है, उसे सर्वप्रथम अपने हृदय को भौतिक इच्छाओं से रहित करना होगा। जब उसका हृदय निर्मल और शांत होगा, तब वहाँ कृष्ण विराजमान होंगे। यही शिक्षा देने के लिए, महाप्रभु ने सभी कंकड़, कांटे, घास, धूल और कूड़े को साफ किया। ये सब हृदय में स्थित अनर्थों के समान हैं। "गिरेचे नाना अनर्थरे भाई" - हे मेरे भाई, आप अनेक अनर्थों से घिरे हुए हो।
भौतिक कामनायें
चार प्रकार के अनर्थ क्या हैं?
भक्त: भौतिक इच्छाएं, हृदय की दुर्बलता, अपराध और तत्व-भ्रम।
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: अनर्थ चार प्रकार के होते हैं। प्रथम, भौतिक कामनाएं। भौतिक कामनाएं दो प्रकार की होती हैं - भुक्ति काम और मुक्ति काम। मुक्ति अर्थात मोक्ष की इच्छा, और भुक्ति अर्थात इस जीवन में तथा अगले जीवन में भौतिक सुख और आनंद की इच्छा। यह पहला अनर्थ है।
हृदय-दौर्बल्य
दूसरा अनर्थ है हृदय-दौर्बल्य। हृदय की दुर्बलता क्या है?
भक्त: भक्त कभी गम्भीरतापूर्वक साधना करता है, लेकिन कभी-कभी वह साधना करने में असमर्थ रहता है। कभी वह अपने पारिवारिक संबंधों को त्यागने की कोशिश करता है, तो कभी और आसक्त हो जाता है।
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हृदय दौर्बल्य वास्तव में कुटिनाटि या कपटता है। कपटी व्यक्ति, जो ईर्ष्या या मात्सर्यता से ग्रसित है, कभी भी सरल नहीं हो सकता है। कपटी और ईर्ष्यालु व्यक्ति, जो लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा इत्यादि के लिए लालायित रहता है, वह कभी कृष्ण से नहीं जुड़ सकता है। अपितु वह कृष्ण के अतिरिक्त समस्त वस्तुओं, कृष्णेतर शक्ति, से जुड़ा होता है। ये हृदय दौर्बल्य है।
अपराध
तृतीय अनर्थ है अपराध। अपराध मुख्यतया चार प्रकार के होते हैं: नाम अपराध, वैष्णव अपराध, स्वरूप अपराध, और अन्य अपराध जैसे सेवा-अपराध इत्यादि। दस नाम अपराध भी तृतीय अनर्थ के अंतर्गत आते हैं।
तत्व-भ्रम
चतुर्थ अनर्थ है तत्व भ्रम। सत्य या तत्व के बारे में भ्रम होना। स्वतत्व भ्रम, कृष्ण तत्व भ्रम, साध्य-साधन तत्व भ्रम, वीर तत्व भ्रम। जीव तत्व, कृष्ण तत्व, साध्य-साधन तत्व या कई अन्य तत्वों के बारे में व्यक्ति भ्रमित हो सकता है। इसे तत्व-भ्रम कहते हैं। जब तक इन अनर्थों से जीव पूर्णतः मुक्त नहीं हो जाता, तब तक उसका हृदय निर्मल नहीं होगा।
श्रद्धा ही आधार है
श्रील रूप गोस्वामी भक्ति-रसामृत-सिंधु (१.४.१५) में कहते हैं -
आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया।
ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्तत्तो निष्ठा रुचिस्ततः॥
महाप्रभु की शिक्षा है कि साधु, शास्त्र, गुरु और कृष्ण के वचनों में जीव की अटूट श्रद्धा तथा दृढ़ विश्वास होना। । जैसे मजबूत नींव के बिना कोई भवन खड़ा नहीं हो सकता, वैसे श्रद्धा के बिना आपका कोई आधार नहीं है।
तत्पश्चात, दूसरा सोपान है साधु-संग अर्थात गुरु स्वीकार करना, गुरु- पदाश्रय। गौर प्रिय जन और शुद्ध भक्त के चरण कमलों में शरण लेना चाहिए। ऐसे वैष्णव गुरु, साधु से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
तृतीय सोपान है श्रद्धा लाभि जीव करे सद गुरु विचार। शुद्ध वैष्णव का संग करना और विनम्र भाव से उनके मुख कमल से श्रवण करना। उनके वाक्यों पर पूरा विश्वास और तत्पश्चात पूर्ण रूप से उनके प्रति समर्पण होना चाहिए। साधु तत्वदर्शी होते हैं; वे जीव-तत्व, कृष्ण-तत्व और साध्य-साधन-तत्व के बारे में बोलते हैं। वे सत्य के साक्षी और सत्य को जानने वाले होते हैं।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
(भगवद्गीता ४.३४)
इस श्लोक में भक्ति प्रक्रिया का वर्णन है। प्रथम स्तर है "प्रणिपात", अर्थात समर्पण। "शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् " (भगवद्गीता २.७); बिना समर्पण और विनम्रता के आप श्रवण नहीं कर पाएंगे और न ही आपमें श्रद्धा विकसित होगी। यदि आप विनम्र नहीं है, अपितु अभिमानी हैं, स्वयं को अति बुद्धिमान और सर्वज्ञ समझते हैं, तो आप समर्पण नहीं कर सकते। यदि ऐसा व्यक्ति कथा श्रवण करता है, तो यह कथा उसके कर्ण रंध्रों में प्रवेश नहीं करेगी क्योंकि उसमें श्रद्धा नहीं है। वह सोचता है, "मैं बेहतर जानता हूँ। मैं सर्वज्ञ हूँ।"
अतः सर्वप्रथम समर्पण करें और तत्पश्चात पूर्ण विश्वास के साथ श्रवण करें। फिर उस गुरु, आचार्य, वैष्णव, साधु की सेवा करें, परिप्रश्नेन सेवा। सेवा द्वारा गुरु को प्रसन्न करने के उपरांत, विनम्रता पूर्वक प्रश्न करें। आपके मन में अनेक संदेह और भ्रांतियां हैं, इसलिए आपको विनम्रता पूर्वक प्रश्न पूछना चाहिए। प्रामाणिक साधु-गुरु-महाजन, गुरु-शिष्य परंपरा में आते हैं और गौरांग-प्रिय-जन हैं, अतः उनके कथन को स्वीकार करें और अपने जीवन में आचरण करें। तब आपको लाभ होगा। अन्यथा, श्रद्धा के बिना, आप कुछ नहीं प्राप्त कर सकते हैं। आप शरणागत भी नहीं हो सकते हैं। हरि कथा आपके कर्णों में कभी प्रवेश नहीं करेगी, क्योंकि आपका आधार नहीं है।
शुद्धीकरण प्रक्रिया
"आदौ श्रद्धा ततः साधु-संग" अर्थात गुरु, साधु के चरण कमलों की शरण लेना। तब, गुरु आपको भजन क्रिया सिखाएंगे। भजन अर्थात नौ प्रकार की भक्ति के माध्यम से कृष्ण की सेवा करना है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(श्रीमद भागवतम ७.५.२३)
भजन-क्रिया का अर्थ है गुरु के मार्गदर्शन में प्रेममयी सेवा करना। गुरु स्वयं भजन करके व्यवहारिक रूप से आपको भजन करना सिखाते हैं। महाप्रभु की परम्परा में, गुरु सिर्फ सैद्धांतिक रूप से व्याख्यान नहीं देते हैं, बल्कि वे व्यावहारिक शिक्षक हैं। इस प्रकार, गुरु के मार्गदर्शन में सेवा करने से अनर्थ-निवृत्ति होती है। अन्यथा, सेवा के बिना अनर्थों से मुक्त होने का तो प्रश्न ही नहीं है।
महाप्रभु, गुंडीचा मार्जन लीला द्वारा हमें यह भजन प्रक्रिया सिखाते हैं। सर्वप्रथम, आपको अपना हृदय निर्मल और शुद्ध बनाना चाहिए अर्थात समस्त अनर्थों से मुक्ति। यदि आपके हृदय में किंचित भी अशुद्धता है, तो कृष्ण वहाँ विराजमान नहीं होंगे। इसलिए, आपको अपने हृदय को कृष्ण के विराजने के लिए उपयुक्त स्थान बनाना होगा। हृदय में अन्यविलास अनर्थ भी होते हैं। भौतिक सुख की इच्छा, मुक्ति की इच्छा इत्यादि। अन्यविलासी व्यक्ति कभी भक्ति के मार्ग पर नहीं चल सकता, अपितु वह कर्म, ज्ञान या योग, अष्टांग योग: आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान,धारणा और समाधि के मार्ग पर चलता है। श्रील रूप गोस्वामी ने कहा है,
अन्याभिलाषिता शून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् ।
अनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा॥
(भक्ति-रसामृत-सिंधु १.१.११)
मन में कोई अन्य विचार जैसे भौतिक सुख, मुक्ति कामना, योग सिद्धियों (अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामवासिता) इत्यादि नहीं होना चाहिए। अनुकूल्येन कृष्णानु, भक्त को केवल कृष्ण की प्रेममयी सेवा में अनुरत होना चाहिए। उसे केवल कृष्ण को सुख और आनंद देने के बारे में चिंतन करना चाहिए। स्वयं के लिए कुछ भी कामना नहीं करना चाहिए। यही है अन्याभिलाषिता शून्यं, अनुकूल्येन कृष्णानु। जहाँ अन्यविलास हैं, ऐसे दूषित और अशुद्ध हृदय में कृष्ण कभी प्रकट नहीं होंगे।
महाप्रभु ने गुंडीचा मार्जन लीला के माध्यम से यह उपदेश दिया। अन्यविलास में भौतिक संसार में सुख भोगने की इच्छा भी शामिल है। इस इच्छा की तुलना उन कांटों, पत्थरों और कंकड़ों, सूखे घास से की जाती है जिन्हें महाप्रभु ने गुंडीचा परिसर से दुरित किया। ऐसी इच्छायें आपके हृदय को तीर की भाँति चुभेंगी। इन अशुद्धियों का मार्जन करके हृदय शांत और स्थिर होता है।
हृदय दर्पण को स्वच्छ करें
कुछ लोग स्वर्ग लोक में सुखोपभोग के लिए अनेक धार्मिक कृत्य करते हैं जैसे देवताओं की पूजा, विभिन्न यज्ञ इत्यादि। स्वर्ग लोक में अपार भोग है। ये सब कामनाएं, अन्यविलास या धूलकणों के समान हैं। इसलिए महाप्रभु ने गुंडीचा मंदिर को ऐसे साफ़ किया कि धूल का एक कण भी न बचा। यह कार्य महाप्रभु ने स्वयं किया और साथ ही अपने सभी भक्तों से भी करवाया। उन्होंने सारी गंदगी परिसर से अति दूर फेंक दी, क्योंकि तेज हवा के झोंके से गंदगी और धूल पुनः मंदिर में आ सकती थी। गंदगी और धूल हृदय रूपी दर्पण को ढक लेती है और धूल धूसरित दर्पण में कोई प्रतिबिंब नहीं दिखता। चेतोदर्पणमार्जनं, चेतः का अर्थ है चित्त, हृदय; इसलिए हृदय दर्पण को स्वच्छ करने के उपरांत ही स्पष्ट प्रतिबिंब दिखेगा। हृदय दर्पण में लाखों जन्मों से धूल आच्छादित है। इसे जप द्वारा ही पूर्णतः स्वच्छ किया जा सकता है: हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। आश्रय लइया भजे अर्थात गुरु के शरणागत होकर अपराध रहित शुद्ध भजन करने से हृदय साफ हो होता है। अन्यथा, हृदय में अधिकाधिक अशुद्धियाँ जमा होती जाएँगी।
भक्ति से हृदय शुद्ध होता है
अभक्त सोचते हैं कि कार्मिक कृत्यों द्वारा वे अपने हृदय को शुद्ध कर सकते हैं, परन्तु यह उनका भ्रम है। उदाहरणार्थ, गजराज नदी में स्नान करता है। परन्तु वह नदी से बाहर आते ही, अपने शरीर पर पुनः धूल छिड़क लेता है। अतः हस्ति स्नान का क्या लाभ? कर्म द्वारा हृदय को शुद्ध करना, हस्ति-स्नान के समान है, इससे कोई लाभ नहीं है। केवल भक्ति द्वारा ही हृदय शुद्ध होता है। कर्म, ज्ञान, योग से हृदय शुद्धि संभव नहीं है। जब आपका हृदय निर्मल, कांतिमय और शांत हो जाता है, तब यह कृष्ण के विराजने के लिए उपयुक्त आसान हो जाता है। यही हम सबके लिए महाप्रभु की शिक्षा है। नरोत्तम दास ठाकुर ने इसे एक बहुत ही सुंदर गीत द्वारा बताया है "वैष्णवर हृदये सदा गोविंदा-विश्राम"; "भगवान कृष्ण उस भक्त, उस वैष्णव के हृदय में विश्राम करते हैं, जिसका हृदय पूरी तरह से शुद्ध और निर्मल है।"
यदि कोई कर्म, ज्ञान या योग मार्ग का अनुसरण करता है, तो वह कृष्ण के शरीर को अति तीक्ष्ण भाले से भेदन करता है। कर्म, ज्ञान, योग से आप अपने हृदय को शुद्ध नहीं कर सकते, केवल भक्ति द्वारा ही हृदय शुद्ध होता है। यह तीक्ष्ण भेदन, सूखे घास, धूल और कंकड़ के समान है जिसे महाप्रभु और उनके भक्तों ने साफ़ करके दूर फेंक दिया।
लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा
संभव है की मार्जन के उपरांत भी कुछ छोटे-छोटे धब्बे रह जाएं। ये छोटे-छोटे धब्बे हैं: कुटिनाटी, प्रतिष्ठा, नाम, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और सम्मान की लालसा, जीव-हिंसा, ईर्ष्या, और कापटय। जो प्रतिष्ठा अभिलाषी हैं, नाम, प्रसिद्धि और सम्मान चाहते हैं, वे साधुओं की संगति छोड़कर निर्जन-भजन के लिए एकांत स्थान पर चले जाते हैं। वास्तव में, वे मासूम लोगों को धोखा देते हैं क्योंकि लोग उन्हें महान साधु समझते हैं, "ओह, एक महान साधु, निर्जन-भजन कर रहा है!"
ऐसे व्यक्तियों को आम लोगों से थोड़ा बहुत सम्मान तो प्राप्त हो सकता है, लेकिन वह गुरु और गौरांग, कृष्ण के संदेश का प्रचार करने के लिए सामने नहीं आता। ऐसा तथाकथित "साधु" एकांत स्थान में रहकर निर्जन-भजन करता है। मासूम लोगों के समक्ष वह स्वयं को एक महान साधु के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन वह केवल उन्हें धोखा दे रहा है। यह प्रतिष्ठा का लक्षण है।
उनका हृदय अनर्थों से भरा हुआ है
एकांतवासी तथाकथित साधु निषिद्धाचार (अवैध स्त्री सम्बन्ध, नशा, मांसाहार, और जुँआ) का पालन नहीं करता है। वह दम्भपूर्वक कहता है, "मैं एक महान साधु हूँ, क्या तुम मुझे नहीं जानते? मैं भगवान शिव के समान शक्तिवान हूँ जिन्होंने समुद्रव्यापी जहर पी लिया था। मुझे निषिद्धाचार, नियमों और विनियमों का पालन करने की क्या आवश्यकता है? मैं आग की तरह सब कुछ पचाकर राख कर सकता हूँ।
साधारण मनुष्य भी सोचते हैं कि वह महान साधु है, वह समस्त निषिद्ध वस्तुओं को भस्म कर सकता है और वैष्णव उसके सामने तुच्छ हैं। वह कुछ भी कर सकता है जैसे चरस पीना, यौन सुख भोगना, नशा करना, शराब पीना और सोचना कि "मैं अब इंद्र हूँ!" सामान्य लोग ऐसे ढोंगी द्वारा ठगे जाते हैं यही उनका आचरण है और मूर्ख लोग उसकी चापलूसी और उसका सम्मान कर सकते हैं, "ओह, यह साधु कितना महान है, और ये अन्य लोग (वैष्णव) इतने उन्नत नहीं हैं"। उनके ऊपर अनेक प्रतिबंध हैं, मांसाहार नहीं, मछली नहीं, जुआ नहीं, नशा नहीं और अवैध सेक्स नहीं। लेकिन आप इतने महान हैं कि आप सब कुछ पचाकर राख कर सकते हैं। मैं भी ऐसा बनना चाहता हूँ!" इस तरह उस ढोंगी को एक महान साधु के रूप में देखा जाता है।
परन्तु, हमें ज्ञात होना चाहिए कि यह सब बकवास है। यह निषिद्धाचार है, जो हृदय-दुर्बल्य अनर्थों की श्रेणी में आता है। त्रि-संग- कर्मी, ज्ञानी और अन्यविलासी कृष्ण-अभक्त होते हैं। ऐसे लोग भक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। वे कृष्ण को अपने हृदय में नहीं बैठा सकते। उनका हृदय इन सभी घृणित, गंदे अनर्थों से पूरी तरह भरा हुआ है।
कीर्तनाख्या भक्ति करनी चाहिए
महाप्रभु ने बार-बार अपने भक्तों द्वारा पानी डालकर झाड़ू से सफाई करवाई। तत्पश्चात, उन्होंने कपड़े से मंदिर परिसर को पोंछा ताकि एक भी धब्बा न रह जाए। भगवान जगन्नाथ का सिंहासन स्फटिक की तरह चमक रहा था, और मंदिर शांत और स्वच्छ और निर्मल था। मंदिर मार्जन करते समय, महाप्रभु और भक्त एक साथ उच्च स्वर में संकीर्तन कर रहे थे- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम रामा राम हरे हरे। इसे कीर्तनाख्या भक्ति कहते हैं। श्रील जीव गोस्वामी ने भक्ति-संदर्भ (१७३) में वर्णन किया है - यद्यपि अन्या भक्ति: कलौ कर्तव्या, तदा कीर्तनाख्या भक्ति-संयोगेनैव। यद्यपि कलियुग में आठ प्रकार की भक्ति का वर्णन है, परन्तु वे सब कीर्तनाख्या भक्ति के संग में ही करनी चाहिए। इसके बिना सिद्धांत को नहीं समझा जा सकता।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
[चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 17.21]
“इस कलियुग में आत्म-साक्षात्कार के लिए भगवान के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है, अन्य कोई उपाय नहीं है।”
अतः प्रत्येक व्यक्ति को हरिनाम का आश्रय लेकर सदा हरि- संकीर्तन करना चाहिए: हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। अन्यथा कलियुग में भक्ति विकसित करने का अन्य कोई उपाय नहीं हैं। केवल हरे कृष्ण संकीर्तन ही एकमात्र उपाय है।
महाप्रभु द्वारा दंड
गुंडिचा मंदिर मार्जन के समय महाप्रभु प्रत्येक भक्त की सफाई का निरीक्षण कर रहे थे। भक्त ने कितनी गंदगी इकट्ठी की है? महाप्रभु व्यक्तिगत रूप से भक्तों को सिखा रहे थे, "ऐसे करो। इस तरह पॉलिश करो, पानी डालो, और झाड़ू लगाओ। पुनः पानी डालो, और पोंछो। यहाँ एक धब्बा रह गया है, इस क्षेत्र को पुनः साफ करो।" अच्छा साफ करने वाले भक्त की महाप्रभु प्रशंसा करते थे, और अगर भक्त ने सफाई ठीक से नहीं किया है तो वे उन्हें शोधनार्थ दंड देते थे। कभी-कभी महाप्रभु भक्त का हाथ पकड़कर उसे दिखाते थे कि कैसे सफाई करनी है।
महाप्रभु एक व्यावहारिक शिक्षक थे, और वे भक्तों को समस्त अनर्थों से रहित होने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। इस तरह मार्जन के उपरान्त हृदय सिंहासन भगवान कृष्ण के आसित होने के लिए उपयुक्त स्थान बन जाता है। अन्यथा कृष्ण कभी नहीं बैठेंगे। संभवत कुछ भक्त अपने सभी अनर्थों से पूरी रहित नहीं हुए होंगे। यदि आपने ७५%, साफ किया है, तो २५% शेष रहता है, लेकिन यह शत-प्रतिशत स्वच्छ होना चाहिए; एक छोटा धब्बा भी नहीं रहना चाहिए। यदि हृदय १००% स्वच्छ नहीं है तो महाप्रभु दंड देते हैं। कैसा दंड ? हरि, गुरु और वैष्णव की सेवा करना। जब साधु-गुरु-वैष्णव आपको दंड देते हैं, और यदि आप दंड को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं और तब आपको उनकी कृपा प्राप्त होगी, और आप पूरी तरह से शुद्ध हो जाएंगे।
भगवन्नाम में अटूट विश्वास विकसित कीजिए
आर क’बे निताइचाँदेर करुणा होईबे
संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हबे
विषय छाड़िया कबे शुद्ध ह’बे मन
कबे हाम हेरबो श्रीवृंदावन
[नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित गौरांग बोलिते हबे/लालसामयी प्रार्थना गीत 1]
"मुझे नित्यानंद प्रभु की अहैतुकी कृपा कब प्राप्त होगी और मेरा हृदय भौतिक भोग की इच्छा से मुक्त हो जाएगा, और वहाँ धूल का एक कण भी नहीं होगा? 'विषय छाड़िया कबे शुद्ध हबे मन। कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन॥' कब मेरा मन पूर्णतः शुद्ध होगा? भौतिक भोग की इच्छा का लेशांश भी नहीं रहेगा। तभी मैं वृन्दावन में प्रवेश पा सकता हूँ और कृष्ण की दिव्य लीलाओं का दर्शन कर सकता हूँ। अन्यथा संभव नहीं है।" हरिनाम जप के माध्यम से महाप्रभु हमें यही सिखा रहें हैं।
नाम्नैव प्रादुरासीद अवतारति
परे यत्र तं नौमि गौरम
(श्री चैतन्यचंद्रामृत ११)
हम उन गौरांग महाप्रभु को प्रणाम करते है, जिन्होंने "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे" के माध्यम से बिना किसी भेदभाव के सभी को कृष्ण-प्रेम का उपहार दिया है। भगवान के पवित्र नाम में अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। कृष्ण के नाम और स्वयं कृष्ण में कोई भेद नहीं है, "अभिन्नत्वान् नामनामिनो: "। कृष्ण परम दयालु हैं, परन्तु कृष्ण का पवित्र नाम कृष्ण से भी अधिक दयामय है। यह नाम की विशेष कृपा है, और इसमें पूर्ण विश्वास, अटूट श्रद्धा होनी चाहिए, "दृढ़-श्रद्धा"। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर, हरि-नाम-चिंतामणि में लिखते हैं:
नामे दृढ़ हइले नाहि हय पापे मति।
पूर्व-पाप दग्ध हय चित्त शुद्ध अति॥
[हरिनाम चिंतामणि 9.4]
"यदि आप पवित्र नाम के जप में दृढ और अटूट श्रद्धा रखते हैं, और कृष्ण के इस पवित्र नाम में पूर्ण रूप से आश्रित हैं, तो आपके मन में भौतिक भोग की इच्छा कभी भी प्रवेश नहीं करेगी। आपके मन में किसी पापपूर्ण गतिविधि का विचार नहीं आएगा। पूर्व जन्मों के सभी पाप कर्म समूल नष्ट हो जाएंगे, और आपका हृदय पूरी तरह शुद्ध हो जाएगा।"
कृष्ण रक्षा-कर्ता एक मात्र बली जाने।
जीवने पालन-कर्ता कृष्ण एक माने॥
(हरि-नाम-चिंतामणि ९.११)
"कृष्ण ही मेरे पालक हैं, कृष्ण ही मेरे रक्षक हैं, अन्य कोई नहीं।" ऐसी अटूट श्रद्धावान व्यक्ति प्रति क्षण पवित्र नाम का जप और स्मरण करता रहता है।
जब आपका हृदय निर्मल हो जाता है
अहंमम बुद्ध्यासक्ति ना राखे हृदये।
दीनभावे नाम लय सकल समये॥
[हरिनाम चिंतामणि 9.12]
शुद्ध चित्त वाला व्यक्ति "मैं" और "मेरा" के संदर्भ में नहीं सोचता। "जनस्य मोहोऽयमहं ममेति" (श्रीमद भागवतम ५.५.८) - मैं महान हूँ, यह मेरा है, और वह मेरा है। यह शरीर, परिवार, स्त्री, बच्चे, बैंक बैलेंस, जमीन और संपत्ति इत्यादि मेरा है। यह मात्र कोरा भ्रम है।
बल्कि, शुद्ध चित्त व्यक्ति सोचता है, सब कुछ कृष्ण का है। कृष्ण मेरे शाश्वत स्वामी हैं, और मैं उनका शाश्वत सेवक हूँ। मैं कृष्ण का हूँ और यह शरीर कृष्ण की संपत्ति है और यह कृष्ण की सेवा के लिए है, न कि मेरे सुख के लिए। शुद्ध भक्त "मैं" और "मेरा" की अवधारणा से पूर्णतः मुक्त होता है। वह दिन-रात विनम्रता पूर्वक जप करता रहता है, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। अपनी इस नाम जप में दृढ़ता के कारण उसे नाम प्रभु की कृपा प्राप्त होती है, जो कृष्ण से भी अधिक दयालु है। पवित्र नाम में उसकी दृढ़ और अटूट श्रद्धा कभी भी डगमगाती नहीं है। उसके दृढ़ मन पूरी तरह से पवित्र नाम में रमा हुआ है और कभी कृष्ण से विचलित नहीं होता है। वह नामासक्त होता है और कभी कृष्ण को नहीं भूलता, और उसके मन में अन्य भौतिक विचार नहीं आता है। उसे महाप्रभु और उनके प्रिय भक्तों की कृपा प्राप्त होती है, परिणामस्वरूप वह शीघ्र ही कृष्ण-प्रेम विकसित कर लेता है और कृष्ण को प्राप्त कर लेता है। अंततः वह अपने मानव जन्म में पूर्णता प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में, जब आपकी चेतना और मन निर्मल होते हैं, आपका हृदय निर्मल होता है और उसमें जरा सी भी अशुद्धता नहीं होती है; तब कृष्ण वहां निवास करते हैं।
यही गुंडीचा मार्जन लीला का रहस्य है। कल रथ यात्रा होगी, हम कृष्ण को गुंडीचा मंदिर अर्थात अपने शुद्ध हृदय में विराजित करेंगे। अतः आज आप सभी को अपना हृदय शुद्ध करना चाहिए, ताकि कृष्ण वहाँ प्रकट हो सकें। अन्यथा आप रथ-यात्रा में भाग नहीं ले पाएंगे। जगन्नाथ कभी आपके हृदय में प्रकट नहीं होंगे।
प्रश्नोत्तर
भक्त: महाराज, आपने कहा, "जिनका हृदय पूर्णरूप से स्वच्छ नहीं हैं, उनको महाप्रभु दंड देते हैं कि उन्हें हरि, गुरु और वैष्णव की सेवा करनी चाहिए।" लेकिन जिनका हृदय स्वच्छ है उनको क्या करना चाहिए? क्या भक्ति प्रक्रिया सबके लिए एक सामान नहीं है?
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: जिनका हृदय शत प्रतिशत शुद्ध है, वे बाहर जाकर प्रचार करेंगे और दूसरों में कृष्णभावनामृत का समावेश करने में उनकी सहायता करेंगे। वह कभी संकोच नहीं करता या बहाना नहीं करता की, "मैं आज बीमार हूँ या बहुत कमजोर हूँ, मैं नहीं कर सकता।" यही वास्तविक जीवन है, अन्यथा वह एक शव है। केवल लोहार की धौंकनी की तरह सांस लेता है।
वह व्यक्ति निरंतर हर जगह प्रचार करेगा। [स्वयं के बारे में] मैं इस वृद्ध शरीर में भी शिथिल नहीं हूँ। मैं अभी-अभी पहुँचा हूँ, और तुरंत ही दूसरी जगह जाना पड़ा क्योंकि वहाँ हमारा एक कार्यक्रम था और लोग इंतजार कर रहे थे। परन्तु, यह बहुत उत्साहवर्धक है। यही वास्तविक जीवन है। प्रत्येक व्यक्ति शुद्ध कृष्ण कथा सुनना चाहता है, और आप जहाँ भी शुद्ध कथा कहते हैं, हर कोई आकर्षित होता है क्योंकि कृष्ण सर्व-आकर्षक हैं। जब आप वासनारहित शुद्ध कृष्ण-कथा कहते हैं, तो आपको ऐसा आनंद और उत्साह आता है कि थकान का अनुभव ही नहीं होता। प्रचार कार्य के लिए बिना विश्राम और भोजन प्रसाद के घंटों यात्रा कर सकते हैं। एक बार, हम एक दूरवर्ती पहाड़ में स्थित देश में गए। कार अनेक पहाड़ियों के ऊपर और चारों ओर घूम रही थी। वहाँ कई निराश और हतोत्साहित प्रभुपाद के शिष्य थे। मैं वहाँ प्रवचन देने गया था। महाप्रभु की यही शिक्षा है।
भक्त २: गुरु महाराज, हम श्रद्धा में वृद्धि हेतु विधि-विधान का पालन करते हैं, परन्तु कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है कि श्रद्धा रंचमात्र भी नहीं है।
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: ऐसा क्यों?
भक्त २: जैसा आपने कहा, "कुछ भक्त निराश होकर श्रद्धा खो देते हैं"।
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: इसका एकमात्र कारण यह है कि वे हरि, गुरु और वैष्णव के अनुशासन को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। मैंने वर्णन किया था कि महाप्रभु ने उन भक्तो को दंड दिया जिनके अनर्थ शत प्रतिशत मार्जित नहीं हुए थे। सबके लिए शोधन प्रक्रिया यही है कि हरि, गुरु और वैष्णव की सेवा करना। तब हरि, गुरु और वैष्णव आपको अनुशासित करेंगे। यदि आप इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं तो आपको कृपा, प्रेरणा, और उत्साह प्राप्त होगा। निराश होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह पूर्ण आशाओं से युक्त मार्ग है।
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