गौरांग महाप्रभु का भाव

 

एइ आज्ञा कइल यदि चैतन्य-मालाकार।

परम आनंद पाइल वृक्ष-परिवार॥

[श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ९.४७]

 

अनुवाद

वृक्ष के वंशज (श्री चैतन्य महाप्रभु के भक्त) महाप्रभु से यह प्रत्यक्ष आदेश पाकर अत्यंत प्रसन्न थे।

 

तात्पर्य

यह श्री चैतन्य महाप्रभु की इच्छा है कि ५०० वर्ष पूर्व नवद्वीप में संकीर्तन आंदोलन के परोपकारी कार्यों का जो सूत्रपात किया गया था, वह सारे मनुष्यों के हित में सारे विश्व में फैले। दुर्भाग्यवश चैतन्य महाप्रभु के ऐसे अनेक तथाकथित अनुयायी हैं, जो मंदिर बनवाने, अर्चाविग्रह का प्रदर्शन करने, कुछ धन एकत्र करने तथा उसका उपयोग खाने और सोने के लिए करने में ही सन्तुष्ट रहते हैं। उनके द्वारा संसार-भर में श्री चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय के प्रचार का प्रश्न ही नहीं उठता। किंतु ऐसा करने में अक्षम होते हुए भी यदि कोई अन्य व्यक्ति उसे करता है, तो वे ईर्ष्या करते हैं। यह स्थिति है महाप्रभु के आधुनिक अनुयायियों की। कलियुग इतना प्रबल है कि इससे महाप्रभु के तथाकथित अनुयायी भी प्रभावित हो जाते हैं। कम-से-कम महाप्रभु के अनुयायियों को भारत से बाहर जाकर उनके सम्प्रदाय का विश्वभर में प्रचार करना चाहिए, क्योंकि यही चैतन्य महाप्रभु का उद्देश्य है। चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों को जी-जान से उनकी इच्छा पूरी करने के लिए वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु और रास्ते में पड़े तिनके से अभी अधिक विनीत बनना चाहिए।

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येइ याहाँ ताहाँ दान करे प्रेम-फल।

फलास्वादे मत्त लोक हइल सकल॥

[श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ९.४८]

 

अनुवाद

भगवत्प्रेम का फल इतना स्वादिष्ट होता है कि भक्त इसका विश्वभर में जहाँ कहीं भी वितरण करते हैं, और जो इस फल का आस्वादन करता है, वह तुरंत मदोन्मत्त हो उठता है।

 

तात्पर्य

यहाँ पर महाप्रभु द्वारा वितरित किये गये अद्भुत फल का वर्णन हुआ है। हमें इसका व्यावहारिक अनुभव है कि जो इस फल को ग्रहण करता है और उसे सच्चे मन से चखता है, वह इसके पीछे तुरंत दीवाना हो जाता है और महाप्रभु के उपहार हरे कृष्ण महामंत्र से मदोन्मत्त होकर अपनी सारी बुरी आदतें छो‌ड़ देता है। श्री चैतन्य-चरितामृत की सारी उक्तियाँ इतनी व्यावहारिक हैं कि कोई भी इनको परख सकता है। जहाँ तक हमारी बात है, हम तो भगवत्प्रेम के महान फल को महामंत्र – “हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे” – के कीर्तन के माध्यम से वितरित करने की सफलता के प्रति पूर्णतया आश्वस्त है।

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[वैष्णव गीत: एमन शचिर नंदन विने

श्रील प्रेमानंद दास ठाकुर द्वारा विरचित]

एमन शचीर नंदन विने

‘प्रेम बलि नाम’, अति-अद्भुत, श्रुत हइत का’र काने ?

 

श्रीकृष्णनामेर, स्वगुण महिमा, केवा जानाइत आर ?

वृंदाविपिनेर, महा मधुरिमा, प्रवेश हइत का’र ?

 

केवा जानाइते, राधार माधुर्य, रसयश चमत्कार ?

तार अनुभाव, सात्त्विक विकार, गोचर छिल वा का’र ?

 

व्रजे जे विलास, रास महारास, प्रेम परकीय तत्त्व

गोपीर महिमा, व्यभिचारी सीमा, का’र अवगति छिल एत?

 

धन्य कलि धन्य, निताइ-चैतन्य, परम करुणा करि

विधि-अगोचर, जे प्रेम-विकार, प्रकाशे जगतभरि

 

उत्तम अधम, किछु ना बाछिल, याचिया दिलेक कोल

कहे प्रेमानंदे, एमन गौरांगे, अंतर धरिया डोल

 

[वैष्णव गीत: भज गौरांग कह गौरांग]

 भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे।

जे जन गौरांग भजे, सेइ हय आमार प्राण रे॥

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

 

[वैष्णव गीत: सखि केवा सुनाइल श्याम

 श्रील चंडी दास द्वारा विरचित]

 सखि, केवा शुनाइल श्यामनाम

कानेर भितर दिया, मरमे पशिल गो

आकुल करिल मोर प्राण

 

न जानि कतेक मधु, श्यामनामे आछे गो

वदन छाड़िते नाहि पारे

जपिते जपिते नाम, अवश करिल गो

केमन पाइब, सइ, तरे

 

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कृष्णनाम-महामंत्रेर एइ त’स्वभाव।

येइ जपे, तार कृष्ण उपजये भाव॥

[श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.८३]

 

प्रेमार स्वभावे करे चित्त-तनु क्षोभ।

कृष्णेर चरण-प्राप्त्ये उपजाय लोभ॥

[श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.८७]

 

सेइ कृष्ण-नाम कभु गाओयाय, नाचाय।

गाहि, नाचि नाहि आमि आपन-इच्छाय॥

[श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.९६]

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

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भक्ति मार्ग में ईर्ष्या का कोई स्थान नहीं है

साधक को यह भलीभाँति आत्मसात कर लेना चाहिए कि भक्ति-पथ पर ईर्ष्यालु होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे परम आराध्य गुरुदेव, श्रील प्रभुपाद जी अत्यधिक व्यथा और दुख के साथ इस सम्बंध में यह व्यक्त करते हैं: "दुर्भाग्यवश चैतन्य महाप्रभु के ऐसे अनेक तथाकथित अनुयायी हैं, जो मंदिर बनवाने, अर्चाविग्रह का प्रदर्शन करने, कुछ धन एकत्र करने तथा उसका उपयोग खाने और सोने के लिए करने में ही सन्तुष्ट रहते हैं। उनके द्वारा संसार-भर में श्री चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय के प्रचार का प्रश्न ही नहीं उठता। किंतु ऐसा करने में अक्षम होते हुए भी यदि कोई अन्य व्यक्ति उसे करता है, तो वे ईर्ष्या करते हैं। यह स्थिति है महाप्रभु के आधुनिक अनुयायियों की।” [तात्पर्य, श्री चैतन्य चरितामृत आदि-लीला ९.४७]

 

वास्तव में, ऐसे व्यक्ति श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनुयायी नहीं, अपितु कलि के अनुयायी हैं - ‘कलि चेला’। महाप्रभु की परम्परा में मात्सर्य का कोई स्थान नहीं है। श्री चैतन्य महाप्रभु के वास्तविक भक्त कभी किसी जीव से ईर्ष्या नहीं करते।

 

भगवत्प्रेम का फल

भगवत्प्रेम का फल इतना सुमधुर है कि जहाँ कहीं भी भक्त इसका वितरण करता है, सभी इसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। जो व्यक्ति इस दिव्य प्रेम फल का आस्वादन केवल एक बार भी कर लेता है, वह इसके अलौकिक रस में पूर्णतया उन्मत्त हो जाता है और चाहकर भी इसे त्याग नहीं पाता। मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य भगवत्प्रेम की प्राप्ति है और परम वदान्य श्री चैतन्य महाप्रभु इस दुर्लभ प्रेमधन को हरे कृष्ण महामंत्र के सहज व सर्वोत्कृष्ट माध्यम से प्रदान करने हेतु करुणावश अवतीर्ण हुए हैं -

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

 

श्रील प्रभुपाद जी, चैतन्य चरितामृत आदि लीला ९.४८ के तात्पर्य में स्पष्ट करते हैं कि, "हमें इसका व्यावहारिक अनुभव है कि जो इस फल को ग्रहण करता है और उसे निष्ठा से चखता है, वह इसके पीछे तुरंत पागल हो जाता है और महाप्रभु प्रद्दत्त उपहार “हरे कृष्ण” महामंत्र से मदोन्मत्त होकर अपनी सारी बुरी आदतें छो‌ड़ देता है" । अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस शुद्ध 'हरे कृष्ण' नाम जप से उत्पन्न मधुर रस का आस्वादन करना चाहिए।

 

महाप्रभु भेदभाव नहीं करते हैं

महाप्रभु महा-वदान्य, अद्भुत औदार्य व परम कारुण्य विग्रह हैं क्योंकि उन्होंने पात्र तथा अपात्र का विचार किए बिना कृष्ण-प्रेम को यत्र-तत्र, सर्वत्र, यहाँ तक कि जगाई और मधाई जैसे सर्वाधिक पतितों को भी मुक्तहस्त से प्रदान किया है – अपामर विततर। 

 

उत्तम अधम, किछु ना बाछिल, याचिया दिलेक कोल।

कहे प्रेमानंदे, एमन गौरांगे, अंतर धरिया डोल॥

 

कोई उत्तम हो या अधम, महाप्रभु बिना भेदभाव के सभी को यह प्रेम प्रदान करते हैं। प्रत्येक जीव को अंगीकार कर वे सभी पर अपनी कृपा वृष्टि करते हैं। यह महाप्रभु की असीम दया है। महाप्रभु के प्रिय भक्त, प्रेमानंद दास कहते हैं, "गौरहरि बद्धजीवों के प्रति अत्यंत उदार हैं, अतः आप उन्हें अपने हृदय में विराजमान करें – कहे प्रेमानंदे, एमन गौरांगे, अंतर धरिया डोल।"

 

महाप्रभु को हृदय में विराजित करें

हरि: पुरटसुंदरद्युतिकदम्बसंदीपित:।

सदा हृदयकंदरे स्फुरतु व: शचि-नंदन:॥

[श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला १.४]

 

श्रील रूप गोस्वामीपाद कहते हैं, “श्रीमती शचिदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों।” महाप्रभु के मुख कमल से निर्गत विशुद्ध "हरे कृष्ण" नाम रूपी प्रेम प्रवाह पूरे विश्व को अप्लावित कर देता है। उनकी महती अनुकम्पा से सभी जीव आनंदपूर्वक प्रेम-नाम रूपी तरङ्ग में डूब जाते हैं और इसका आस्वादन करते हैं। महाप्रभु द्वारा स्थापित प्रेम-नाम संकीर्तन का यह अद्भुत प्रभाव है कि वह निकृष्टतम व्यक्तियों को भी वैष्णव पद तक ले जाकर भगवत्प्रेमी बना सकता है। यहाँ "प्रेम" शब्द नाम संकीर्तन के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है।

 

महाप्रभु के अतिरिक्त और कौन?

 प्रेम-नामाद्भुतार्थ: श्रवण पथगत: कस्य नाम्नां महिम्न:।

को वेत्ता कस्य वृंदावनविपिनमहा माधुरीषु प्रवेश:॥

को व जानाति राधां परमरसचमत्कारमाधुर्यसीमाम।

एकश चैतन्यचंद्र: परमकरुण अया सर्वम आविश्चकार॥

[श्रीचैतन्य चंद्रामृत १३०]

 

प्रबोधानंद सरस्वतीपाद अपनी काव्यरचना, श्रीचैतन्य-चंद्रामृत में वर्णन करते हैं, "यदि गौरांग महाप्रभु इस जगत में अवतरित नहीं होते, तो श्रीमती राधारानी की अपार महिमा का प्रचार कौन करता? यदि वे भौतिक धरातल पर नहीं आए होते, तो प्रेम-रस की अंतिम सीमा, समस्त जगत के समक्ष कैसे प्रकट होती? वस्तुतः केवल महावदान्य, अद्भुत उदार, चैतन्य चंद्र, ही भगवत्प्रेम द्वारा भगवत्धाम पुनर्गमन का सर्वश्रेष्ठ साधन प्रदान कर सकते हैं, एकश चैतन्यचंद्र: परमकरुण अया सर्वम आविश्चकार।

 

महाप्रभु के अतिशय प्रिय भक्त, श्रील प्रेमानंद दास ने भी इसी आशय के साथ अपने गीत में उल्लेखित किया है:

 

एमन शचिर नंदन विने

‘प्रेम’ बलि नाम, अति-अद्भुत, श्रुत हइत कार काने?

श्री-कृष्ण-नामेर, स्वगुण महिमा, केवा जानाइत आर?

वृंदाविपिनेर, महा मधुरिमा, प्रवेश हइत कार?

 

शचीनंदन गौरांग के अतिरिक्त, ऐसा कौन है जो हमें अद्भुत प्रेम-नाम की महिमा से अवगत कराता? 'हरे कृष्ण' महामंत्र के कीर्तन का इतना अद्भुत प्रभाव है कि जो व्यक्ति केवल एक बार भी इसका आस्वादन कर ले वह कृष्ण-प्रेम में उन्मत्त हो जाता है। केवल श्रीमती राधारानी ही इस प्रेम-रस की पराकाष्ठा का आस्वादन करने में समर्थ हैं, अतः जिन्होंने इस राधा भाव को अंगीकृत किया है, ऐसे शचीसुत गौरांग महाप्रभु के अतिरिक्त इसका प्रचार कौन कर सकता है? 

 

केबा जनाइत राधार माधुर्य रस यशः चमत्कार?

तार अनुभाव, सात्त्विक विकार गोचर छिल वा कार?

व्रजे ये विलास रस महारास प्रेम परकीय तत्त्व

गोपीर महिमा, व्यभिचारी सीमा, कार अवगति छिल एत?

 

केवल श्री चैतन्य महाप्रभु के अवतार द्वारा ही अत्यंत गुह्य विषय इस प्रकार प्रकाशित हुए कि उन्हें सामान्य जन भी समझ सके। 'हरे कृष्ण' महामंत्र का मुख्य फल शुद्ध-प्रेम है। व्रज-प्रेम, रस-लीला, प्रेम परकीय, गोपियों की महिमा आदि अति गुह्यतम तत्त्वों को अब श्रीमन महाप्रभु की अद्वितीय कृपा द्वारा समझा जा सकता है। यदि व्रजराज श्रीकृष्ण, मादनाख्या महाभावमयी श्रीमती राधिका के भाव को अंगीकार कर, श्रीमन महाप्रभु के रूप में अवतीर्ण न हुए होते तो इन पारलौकिक गूढ़तम तत्त्वों को समझ पाना अत्यंत दुष्कर होता। अतः गौरांग महाप्रभु अद्भुत कारुण्य, अद्भुत वदान्य तथा अद्भुत औदार्य विग्रह हैं। वे उत्तम और अधम, अपराधी तथा निर्दोष में विचार किए बिना सभी को स्वीकार कर प्रेम प्रदान करते हैं। इसलिए प्रेमानंद दास कहते हैं, ऐसे अद्भुत उदार गौरांग को अपने हृदय में विराजमान कर निरंतर उनके दिव्य नामों का कीर्तन कीजिए:

 

भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांगेर नाम रे।

जे जन गौरांग भजे, सेइ हय आमार प्राण रे॥

 

नाम जप का फल कृष्ण प्रेम है

 कृष्णनामे ये आनंदसिंधुआस्वादन।

ब्रह्मानंद तार आगे खातोदकसम

[चैतन्य चरितामृत, आदि लीला ७.९७]

 

तत्त्ववस्तु – कृष्ण, कृष्णभक्ति, प्रेमरूप।

नामसंकीर्तन – सब आनंदस्वरूप

[चैतन्य चरितामृत, आदि लीला १.९६]

 

यदि आप कृष्ण के शुद्ध नाम का कीर्तन करते हैं तो आप स्वतः ही प्रेमानंद के अगाध सागर में डूब जायेंगे और प्रतिक्षण उस मधुर अमृतमय रस से प्रमत्त रहेंगे। यह कोई मनोधर्म नहीं, अपितु शास्त्रों द्वारा प्रमाणित तत्त्व है। इस अवस्था में साधक को निराकार ब्रह्मानंद, कृष्ण प्रेम के समक्ष अत्यंत तुच्छ प्रतीत होता है। हरे कृष्ण महामंत्र के कीर्तन से जिस दिव्य आनंद सिंधु का आस्वादन होता है, उसकी तुलना में निर्विशेष ब्रह्म के साक्षात्कार से प्राप्त होने वाला आनंद (ब्रह्मानंद) पोखर के अल्प छिछले जल के समान है। श्रीकृष्ण ही परम सत्य और शुद्ध प्रेम में प्रकट होने वाली उनके प्रति प्रेममयी भक्ति पवित्र नाम के सामूहिक कीर्तन द्वारा प्राप्त की जाती है, जो समस्त आनंद का सार है। यह प्रेम-नाम-संकीर्तन की असामान्य विशिष्टता है।

 

संकीर्तन बहुभिर मिलित्वा, यत कीर्तनं तद एव संकीर्तनम।

[भक्ति-सन्दर्भ, अनुच्छेद २६९]

 

जब गौरांग महाप्रभु के प्रिय भक्त एक साथ सामूहिक रुप से हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करते हैं, तो इसे संकीर्तन कहा जाता है:

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

 

जिस प्रकार कृष्ण सर्वाकर्षक हैं, उसी प्रकार अपराध रहित शुद्ध नाम भी सर्वाकर्षक है। परन्तु इस प्रेम-नाम-संकीर्तन में इतना अद्वितीय सामर्थ्य है कि यह सर्वाकर्षक कृष्ण को भी आकृष्ट कर लेता है। प्रेम-नाम संकीर्तन से उत्पादित प्रेम-रस एक मदिरा के समान है। परन्तु यह मदिरा भौतिक नहीं, अपितु अलौकिक है। जब प्रेमी भक्तगण इस मदिरा के मद में उन्मत्त होकर झूमते हुए नृत्य करते हैं, तो कृष्ण भी उनके साथ नाचते हैं। अतः कृष्ण भी प्रेम नाम संकीर्तन से आकर्षित होकर भक्तों के मध्य नृत्य करने लगते हैं और इस संकीर्तन के प्रभाव से कृष्ण की सभी दिव्य लीलाएँ स्वत: प्रकट हो जाती हैं। कृष्णेर समग्र लीला नामे विद्यमान – श्रील भक्तिविनोद ठाकुर हरिनाम चिंतामणि में पुष्ट करते हैं कि, "शुद्ध नाम भजन की अवस्था में, नाम के उच्चारण मात्र से ही कृष्ण का सर्व आकर्षक श्यामसुंदर रूप साधक के समक्ष प्रकट हो जाता है और फलस्वरूप वह उनके दिव्य स्वरूप का साक्षात् दर्शन करता है। इस स्थिति में उसे भगवान की सभी दिव्य अलौकिक लीलाएँ दृष्टिगोचर हो जाती हैं। अतः समस्त दिव्य लीलाएँ इस पवित्र नाम में सन्निहित हैं, क्योंकि शुद्ध नाम कृष्ण से सर्वथा भिन्न नहीं है। यही गौड़ीय वैष्णव तत्त्व है।

 

राधा-भाव

यदि कोई भाग्यशाली जीव परम पवित्र "हरे कृष्ण" महामंत्र के संकीर्तन से उत्पादित उस अमृतमय रस का आस्वादन करता है, तो उसकी पिपासा अथवा लालसा कभी शांत नहीं होती, अपितु और अधिक बढ़ती जाती है। वह उस प्रेम-रस का आस्वादन करने के लिए अधिकाधिक व्याकुल होता जाता है। वह परमानंद में इतना विभोर हो जाता है कि उसे अपने सुध-बुध का तनिक भी आभास नहीं रहता। वास्तव में, यह अचिंत्य स्थिति अवर्णनीय है।

दिव्य माधुर्य रस की पराकाष्ठा श्रीमती राधारानी द्वारा प्रदर्शित की जाती है तथा उनका शुद्ध परिपक्व प्रेम अन्य सभी के प्रेम को पार कर जाता है। अतः यही राधा-भाव कहलाता है। श्रीमती राधारानी की प्रेमाभक्ति की तीव्रता, आनंदातिरेक का सर्वोच्च स्वरूप है। इस दिव्य प्रेम के माध्यम से वे भगवान के गुणों का आस्वादन करने में अप्रतिम हैं। इसी कारण से भगवान ने श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में राधारानी का भाव ग्रहण करना स्वीकार किया। वे सर्वोत्कृष्ट राधा-भाव और श्रीमती राधारानी की अंगकांति को अंगीकृत कर भौतिक धरातल पर प्रकट हुए हैं। श्रीमती राधारानी सदैव श्रीकृष्ण का नितांत चिंतन करती हैं। वे सदा कृष्ण-विरह की तीव्र वेदना अनुभव करती हैं जिसे विप्रलंब-भाव भी कहते हैं। इसी प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु भी विप्रलम्भ जनित उन्माद के भाव में रहते थे। वे विरह के लक्षणों को प्रकट करते हुए निरंतर करुण पुकार एवं प्रलाप करते थे। महान वैष्णव कवि चंडीदास की कृतियों में राधा-भाव का अत्यंत मनोरम वर्णन है-

 

सइ केवा शुनाइल श्यामनाम

कानेर भितर दिया, मरमे पशिल गो

आकुल करिल मोर प्राण

 

राधारानी अपनी अंतरंग सखियों-विशाखा एवं ललिता से कहती हैं, “हे सखी! मुझे श्यामसुंदर के इस मधुर एवं अमृतमयी नाम का श्रवण किसने कराया? जब से यह नाम कर्ण रंध्रों में प्रविष्ट होकर मेरे हृदय में स्थापित हुआ है, तब से मेरा हृदय विक्षुब्ध है और मैं निरंतर क्रंदन कर रही हूँ – आकुल करिल मोर प्राण ।”

 

ना जानि कतेक मधु श्यामनाम आछे गो।

वदन छाड़िते नाहि पारे

 

“श्यामनाम की मधुरता मैं व्यक्त नहीं कर सकती क्योंकि इसकी मधुरता से मैं अनवगत हूँ। परन्तु, मेरे होष्ठ ‘श्याम’, ‘हरि’, ‘कृष्ण’, ‘राम’ आदि नामों का उच्चारण त्याग नहीं पा रहे हैं।”

 

जपिते जपिते नाम, अवश करिल गो।

केमन पाइब, सइ, तरे

 

“इस अमृतमय नाम का जप करने से मैं मदोन्मत्त हो गयी हूँ, जिसके कारण मेरा हृदय अब कृष्ण प्राप्ति के लिए तड़प रहा है और मैं अधीरता से अत्याधिक अभिभूत हो रही हूँ, किंतु अब उनके दर्शन व उनका संग प्राप्त करने में कौन मेरी सहायता करेगा?”

यह है श्रीमती राधारानी का भाव।

 

नाम जप से प्रेम स्वतः प्रकट होता है

महाप्रभु कहते हैं -

 कृष्णनाममहामंत्रेर एइ त ’ स्वभाव

येइ जपे, तार कृष्ण उपजये भाव ।।

[श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ७.८३]

"यह हरे कृष्ण महामन्त्र का स्वभाव है कि जो भी इसका कीर्तन करता है, उसमें तुरंत ही कृष्ण के लिए प्रेमपूर्ण भाव उत्पन्न हो जाता है।"

 

प्रेमेर स्वभाव करे चित्त-तनु क्षोभ।

कृष्णेर चरणप्राप्त्ये उपजाय लोभ

[श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ७.८७]

“भगवत्प्रेम की यह विशेषता है कि स्वभाववश यह मनुष्य के शरीर में दिव्य लक्षण उत्पन्न करता है और उसे भगवान् के चरणकमलों की शरण प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक लोभी बना देता है”।

 

जब मनुष्य में कृष्ण प्रेम विकसित हो जाता है, तो उसका हृदय स्वभावतः व्याकुल बना रहता है। जिस प्रकार विशाल तरंगों के उठने पर समुद्र उद्विग्न हो जाता है, उसी प्रकार शुद्ध प्रेम के उत्पन्न होने पर साधक का हृदय विक्षुब्ध हो उठता है और उसमें श्रीकृष्ण के चरणकमलों को प्राप्त करने की लालसा अधिकाधिक बढ़ती जाती है।

 

सेइ कृष्णनाम प्रभु गाओयाया, नाचाय।

हासि, नाचि नाहि आमि आपन-इच्छाय

[श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ७.९६]

 

श्रीचैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "मुझे अपने गुरु के वचनों पर दृढ़ निष्ठा है, अतएव मैं एकांत में तथा भक्तों के संग में सदैव भगवन्नाम का कीर्तन करता हूँ। भगवान कृष्ण के पवित्र नामों से उत्पन्न प्रेमानंद ही मुझे गायन, नृत्य व क्रंदन करने के लिए विवश करता है। भगवन्नाम का कीर्तन करने से मैं उन्मत्त-सा हो गया हूँ, अतः मैं स्वभाववश हँसने, रोने, और भूमि पर लोटने लगता हूँ। कृपया ऐसा न सोचें कि मैं जान-बूझकर ऐसा करता हूँ। यह स्वतः होता है (अधीनस्थ भाव)। मैंने कभी दिखावे के लिए कीर्तन तथा नृत्य नहीं किया है।"

 

कलियुग का वरदान

महाप्रभु कहते हैं कि कलियुग में पवित्र नाम के जप से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं-

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

 

कलेर दोषनिधे राजन्न

अस्ति हि एको महान गुण:।

कीर्तनाद एव कृष्णस्य

मुक्तसंग: परं व्रजेत

[श्रीमद भागवतम १२.३.५१]

 

यद्यपि कलियुग अत्यंत पतित युग है और दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक महान् गुण है - कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्तसंग: परं व्रजेत, केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य सहजतापूर्वक भवबंधन से मुक्त हो जाता है। इतना ही नहीं, शुद्ध नाम कीर्तन से जीव सुदुर्लभ भगवत्प्रेम, दिव्य धाम और श्रीकृष्ण की नित्य प्रेममयी सेवा प्राप्त करता है। यही कलियुग का महान वरदान है।

 

कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञा: सारभागिन:।
यत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते॥

[श्रीमद भागवतम ११.५.३६]

 

परीक्षित महाराज उच्चकोटि के भक्त थे और कलियुग के महत्व से अभिज्ञ थे। महाराज परीक्षित ने सोचा 'यदि मैं कलि का वध कर दूँगा, तो जीवों को यह वरदान प्राप्त नहीं हो सकेगा।' कलियुग चारों युगों में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इस पतित युग में केवल कृष्ण-संकीर्तन ही द्वारा सर्वोच्च सिद्धि अर्थात् कृष्ण-प्रेम प्राप्त किया जा सकता है। इसी कारणवश महाराज परीक्षित ने कलि का वध नहीं किया।

परन्तु, केवल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के ही असंख्य नामों से ही परम सिद्धि प्राप्त हो सकती हैं, उनके अंशो के नाम से नहीं। 

 

एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।

[श्रीमद भागवतम १.३.२८]

 

मर्यादा पुरुषोत्तम  श्रीराम, नृसिंह, वामन इत्यादि कृष्ण के अंश अथवा अंश के अंश (कला) हैं। अतः कृष्ण नाम ही सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला है, इसका कोई अन्यत्र उपाय नहीं है। यही समस्त शास्त्रों का मत है। हरि, कृष्ण, तथा राम, कृष्ण के ही नाम हैं। भगवत्प्रेम केवल हरे-कृष्ण महामंत्र के संकीर्तन द्वारा ही प्राप्य है, जो श्रीचैतन्य महाप्रभु का अद्वितीय अवदान है।

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

 

विप्रलम्भ भाव का प्राकट्य

स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभु ‘हरे कृष्ण’ महामंत्र का कीर्तन करते थे। इन नामों के जप से श्रृंगार रस के दोनों भाव: सम्भोग (मिलन) तथा विप्रलंभ (विरह) एक साथ प्रकट होते हैं। महाप्रभु के स्वरूप एवं कीर्तन में संभोग और विप्रलंभ दोनों भाव उपस्थित हैं। कलियुग में भगवत्प्राप्ति का साधन अत्यंत सरल है, इस पतित युग में जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एकमात्र नाम-साधन पर्याप्त है। किंतु इसके लिए श्रीगौरांग महाप्रभु की कृपा और गौर-प्रिय-जन का आश्रय स्वीकार करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। गौर-प्रिय-जन  कृष्ण-नाम का जप करते हुए सदैव प्रेम में अभिभूत रहते हैं। यदि आप ऐसे विरले शुद्ध-वैष्णव के आश्रय में रहते हुए हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं तथा उनके अधीन रहकर व वैष्णव अपराध से विरत होकर उनके आदेशों को यथानुरूप पालन करते हैं, तो आपको निस्संदेह इसी जीवनकाल में श्रीकृष्ण की चरण-सेवा प्राप्त हो जाएगी।

 

गौर और कृष्ण अभिन्न हैं

श्रीगौरांग महाप्रभु तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है, वे अभिन्न हैं। श्रीकृष्ण ही हेमवर्णीय गौर हैं और गौर ही षट् ऐश्वर्यपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण हैं, उनमें केवल भाव का ही अंतर है। भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमती राधारानी के दिव्य स्वरूपों के मिलन का परिणाम ही श्रीचैतन्य महाप्रभु का स्वरूप है। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किंतु उन्होंने स्वयं को अनादि काल से पृथक कर रखा है। कलियुग में रसास्वादन के प्रयोजन से स्वयं श्रीकृष्ण ही श्रीमती राधारानी के भाव एवं अंगकांति को अंगीकार कर इस पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं क्योंकि श्रीमती राधिका कृष्ण-प्रेम-स्वरूपा हैं। गौर और कृष्ण में यही एकमात्र अंतर है, अन्यथा उन्में कोई भेद नहीं है।

 

श्रीचैतन्य चरितामृत में वर्णन है -

‘नंद-सुत’ बलि’ याँरे भागवते गाइ।

सेइ कृष्ण अवतीर्ण चैतन्य-गोसाईं॥

[श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला २.९]

“जिन्हें श्रीमद्-भागवत नन्द महाराज के पुत्र के रूप में बतलाता है, वही भगवान चैतन्य के रूप में इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं।”

 

जो व्रजेंद्र-नंदन अर्थात् नंद महाराज के पुत्र हैं, वही शचि-सुत हैं। अतएव हम उन कृष्ण-स्वरूप श्रीमन् गौरांग महाप्रभु को प्रणाम करते हैं – राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण स्वरूपम्

 

श्रीचैतन्य चंद्रामृत में श्रील प्रबोदधानंद सरस्वती कहते हैं: एकीभूतं वपुर अवतु वो राधया माधवस्य – अर्थात् श्रीचैतन्य महाप्रभु श्रीमती राधिका भाव से युक्त स्वयं राधा तथा माधव के सम्मिलित स्वरूप हैं। गौर: को’पि व्रजहि विरहिणीभावमग्नश चकास्ति – श्रीगौरांग महाप्रभु राधा-भावनाभावित हैं। जिस प्रकार श्रीमती राधारानी को कृष्ण विरह की तीव्र वेदना होती है, उसी प्रकार श्रीगौरांग महाप्रभु भी विप्रलंभ रस में सदैव उद्विग्न रहते हैं। गौर तथा कृष्ण के भाव में यही एकमात्र भिन्नता है, अन्यथा उनमें कोई अंतर नहीं है। भगवान चैतन्य का उद्देश्य दिव्य प्रेम में कृष्ण-माधुर्य का आस्वादन करना है। अत: वे स्वयं को कृष्ण मानने की परवाह नहीं करते, क्योंकि वे तो श्रीमती राधारानी का पद चाहते हैं। अतएव गौरांग महाप्रभु के भाव को विक्षुब्ध मत कीजिये। यह अत्यंत पीड़ादायक है। उनके मनोभाव को समझने का प्रयास कीजिये।

 

साक्षाद राधामधुरिपुरवपुर भाति गौरांगचंद्र:  अर्थात् श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में राधा और कृष्ण, दो वपुः एकीकृत हैं। अतः कृष्ण ही गौर हैं और गौर ही कृष्ण हैं। गौर-लीला ही कृष्ण-लीला है तथा कृष्ण-लीला ही गौर-लीला है। तत्त्वतः उनमें कोई अंतर नहीं है। जिस प्रकार नाम तथा नामी अभेद है, उसी प्रकार गौर-तत्त्व और कृष्ण-तत्त्व भी अभिन्न हैं। परन्तु श्रीगौरांग महाप्रभु कृष्ण से अधिक दयालु हैं, पूर्वस्मात परम एव हंत करुणं । श्रीगौरांग महाप्रभु कृपा वैशिष्ट्य तथा आस्वदान वैशिष्ट्य हैं। वे स्वयं के नामामृत का आस्वादन करते हैं।

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

 

महाप्रभु बिना भेदभाव के प्रेम वितरित करते हैं

गौर और कृष्ण के मध्य एक भेद यह भी है कि वह इस प्रेमामृत का बिना किसी भेदभाव के सर्वत्र वितरण करते हैं, चूँकि वह अद्भुत रूप से दयालु तथा उदार हैं। वह सर्वदा प्रेम-रसास्वादन में उन्मत्त रहते हुए सम्पूर्ण विश्व को भी उन्मादित कर देते हैं। इसको महा-मादक प्रेम-फल कहते हैं।

 

येइ याहाँ ताहाँ दान करे प्रेम-फल।

फलास्वादे मत्त लोक हइल सकल॥

(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ९.४८)

“भगवत्प्रेम का फल इतना स्वादिष्ट होता है कि भक्त इसको जहाँ कहीं भी बाँटता है, विश्वभर में कहीं भी, जो इस फल का आस्वादन करता है, वह तुरंत मदमस्त हो उठता है”।

 

भगवत्प्रेम रूपी फल का यही स्वभाव है कि यदि आपने एक बार भी इस प्रेम फल को चख लिया, तो आप प्रेम में मदोन्मत्त हो जाओगे। इस प्रकार गौर स्वयं को और साथ ही सम्पूर्ण विश्व को मदोन्मत्त कर देते हैं। यही गौरांग महाप्रभु का विशेष लक्षण है। इसलिए श्रील रूप गोस्वामी महाप्रभु को प्रणाम करते हैं -

 

नमो महा-वदान्याय कृष्ण-प्रेम-प्रदाय ते।

कृष्णाय कृष्ण-चैतन्य-नाम्ने गौर-त्विषे नमः॥

 

“हे परम दयालु अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का उदारता से वितरण करते हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।”

 

भगवान के कोई भी अन्य अवतार कृष्ण प्रेम प्रदान नहीं करते, यहाँ तक कि स्वयं कृष्ण भी प्रेम प्रदान नहीं करते हैं। परंतु जब वे श्री गौरांग महाप्रभु के रूप में अवतरित होते हैं, तो वे मुक्तहस्त से  पात्र-अपात्र का विचार किए बिना कृष्ण-प्रेम का वितरण करते हैं, जिसे अन्य युगों में प्राप्त कर पाना अत्यंत दुर्गम था।

 

कृष्णनाममहामंत्रेर एइ त’ स्वभाव।

येइ जपे, तार कृष्ण उपजाये भाव॥

(श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ७.८३)

"यह हरे कृष्ण महामन्त्र का स्वभाव है कि जो भी इसका कीर्तन करता है, उसमें तुरंत ही कृष्ण के लिए प्रेमपूर्ण भाव उत्पन्न हो जाता है।"

 

कृष्ण प्रेम प्राप्त कर व्यक्ति मदोन्मत्त हो जाता है और उसकी कृष्ण प्राप्ति की लालसा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। जैसा कि राधारानी ने चित्रित किया है, "सेई केबा शुनैला श्याम-नाम" - "हे सखी, मुझे यह सुमधुर अमृतमय श्याम नाम किसने सुनाया? यह मेरे कर्ण रंध्रों से प्रविष्ट होकर हृदय की गहराईयों में बस गया है। यह सुरम्य नाम मेरे हृदय को व्याकुल कर देता है, जिसके अक्षय प्रभाव से मैं सदा उन्माद में पागल तथा मदमत्त रहती हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि अब मैं श्यामसुंदर के बिना जीवित नहीं रह सकती हूँ। मेरे हृदय में श्यामसुंदर को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करने की लालसा जाग्रत हो गयी है। मैं श्यामसुंदर को कैसे प्राप्त कर सकती हूँ?" 'हरे कृष्ण' मंत्र का जप करने का यह अद्भुत परिणाम है।

 

हमारा यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम शुद्ध-नाम का जप नहीं करते इसलिए हमारे भीतर यह भाव विकसित नहीं हो रहा है। महाप्रभु अत्यंत दयालु, उदार और कृष्ण-प्रेम-प्रदाता हैं। परंतु हम अत्यंत दुष्ट हैं क्योंकि हममें प्रेम-प्राप्ति के लिए रंचमात्र भी उत्कंठा नहीं है -

 

नाम्नामाकारि बहुधा निजसर्वशक्तिस-

तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।

एतादृशि तव कृपा भगवन ममापि

दुर्दैवम इदृशम इहाजनि नानुराग:॥

(श्री चैतन्य महाप्रभु, शिक्षाष्टकं श्लोक 2)

 

“हे प्रभु, हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है, अतः आपके अनेकों नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविंद, जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं। आप अत्यंत कृपामय हैं, अत: आपने कृपावश अपने इन नामों में अपनी समस्त शक्तियाँ निवेशित कर दी हैं जिनके स्मरण व कीर्तन के लिए कोई कठोर नियम भी नहीं है। किसी भी स्थान, परिस्थिति तथा काल में कोई भी व्यक्ति नाम जप कर सकता है क्योंकि नाम जप करने में किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है।

हे प्रभु, यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित जीवों पर अतिशय दया करते हैं, किंतु मैं ऐसा दुष्ट हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय भी अपराध करता हूँ। यद्यपि आप मुक्तहस्त से प्रेम प्रदान करते हैं, फिर भी मैं अभागा इसे प्राप्त नहीं कर पा रहा क्योंकि मुझमे नाम के प्रति आकर्षण उत्पन्न नहीं हुआ है और मेरी नाम जप में किंचित्मात्र भी रुचि नहीं है, नानूरागः

 

भगवान के ऐसे उदार स्वरूप का उल्लेख किसी अन्य युग में नहीं सुना गया – यदि गौर न होइतो, तबे कि होइतो, केमोन धरित दे?  यदि गौरांग महाप्रभु अवतरित नहीं हुए होते, तो क्या आप कृष्ण प्रेम प्राप्त कर सकते थे? तब भगवन्नाम की महिमा का प्रचार कौन करता?

हरे कृष्ण।

धन्यवाद!

  

 

 

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