गोवर्धन पूजा

 

आज के पावन दिवस पर समस्त वैष्णवगण अन्नकूट महोत्सव का आयोजन करते हैं जिसमें वे हर्षोल्लास सहित गिरिराज गोवर्धन की आराधना करते हैं। गोवर्धन-पूजा हेतु सभी भक्तगण अनेक प्रकार के पकवान तथा भरपूर मात्रा में गिरि-गोवर्धन को अन्न का भोग अर्पित करते हैं। वृंदावन में सब भक्त इस अवसर पर हर्षोन्माद के साथ संकीर्तन करते हुए गिरि-गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं। इस महान उत्सव का आयोजन विश्वभर में सभी वैष्णव मंदिरों में, विशेष रूप से सभी इस्कॉन केंद्रो में महाआडम्बर के साथ किया जाता है।

भक्त तथा भगवान की कृपा प्राप्त कीजिए
सर्वप्रथम मैं गिरि-गोवर्धन का महिमागान करूँगा और तत्पश्चात श्रील प्रभुपाद द्वारा रचित 'कृष्ण' पुस्तक से भगवान कृष्ण की गोवर्धन लीला की व्याख्या करूँगा, जो दशम स्कंध में वर्णित विवरण पर आधारित है, जिसमें भगवान कृष्ण ने व्रजवासियों की इंद्र के प्रकोप से रक्षा की थी।
मैं सभी भक्तों से विनम्र निवेदन करूँगा कि वे अत्यंत धैर्यपूर्वक एवं एकाग्रचित्त होकर कृष्ण-कथा का श्रवण करें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो आपको गिरि-गोवर्धन और भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त नहीं होगी। कथा के दौरान किसी भी प्रकार का  विघ्न नहीं होना चाहिए।
इस कथा के उपरांत हम सब गिरि-गोवर्धन की परिक्रमा करके उनकी एवं श्रीकृष्ण की आरती करेंगे तथा अन्नकूट महोत्सव के उपलक्ष्य में उन्हें विभिन्न प्रकार के भोग अर्पित करेंगे। तदुपरांत सभी भक्तों को प्रसाद वितरित होगा। अतएव आज के महोत्सव पर आप सभी प्रसन्नचित्त होकर भक्त तथा भगवान की कृपा प्राप्त कीजिए। गिरिराज-गोवर्धन भगवान के सर्वोत्तम भक्त हैं और श्रीकृष्ण परम भगवान हैं।

चटक पर्वत – गिरि-गोवर्धन
जब महाप्रभु पुरुषोत्तम क्षेत्र - जगन्नाथ पुरी धाम में निवास कर रहे थे, तब वे विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया करते थे क्योंकि उन्हें वे स्थल वृंदावन से अभिन्न दिखाई पड़ते थे। जगन्नाथ वल्लभ बग़ीचा का दर्शन करते ही महाप्रभु को वृंदावन का स्मरण होता था। इसी प्रकार पुरी समुद्र का दर्शन करके महाप्रभु को यमुना का स्मरण होता था और फलत: वे उसमें छलाँग लगा दिया करते थे। महाप्रभु ने ये सभी अद्भुत लीलाएँ प्रकट की हैं।

इसी प्रकार, एक दिन महाप्रभु समुद्र में स्नान करने के लिए जा रहे थे। तभी उनकी दृष्टि एक चटक-पर्वत पर पड़ी। यदि आप पुरी गए होंगे, तो आपने यह स्थान अवश्य देखा होगा। चटक-पर्वत टोटा-गोपीनाथ मंदिर और श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर द्वारा स्थापित पुरुषोत्तम गौड़ीय मठ के मध्य स्थित है। जैसे ही महाप्रभु ने उस पर्वत का दर्शन किया, उन्हें आभास हुआ कि गिरि-गोवर्धन उनके समक्ष इस रूप में प्रकट हुए हैं और उन्होंने तत्क्षणात भागवतम के दशम स्कंध से एक श्लोक का उच्चारण किया जो गोपियों द्वारा गिरि-गोवर्धन की स्तुति में कहा गया था:

हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो
यद् रामकृष्णचरणस्परशप्रमोद:।
मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत्
पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलै:॥
[श्रीमद्-भागवतम 10.21.18]

“यह गोवर्धन पर्वत समस्त भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। सखियों, यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम के साथ ही उनकी गौवों, बछड़ों तथा ग्वालबालों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं – पीने का पानी, अति मुलायम घास, गुफाएँ, फल, फूल तथा तरकारियों – की पूर्ति करता है। इस तरह यह पर्वत भगवान का आदर करता है। कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर गोवर्धन पर्वत अत्यंत हर्षित प्रतीत होता है।”

भगवान के प्रिय भक्त भगवान के ही समान होते हैं
श्रीमद्-भागवतम अमल-पुराण (पुराणम अमलं) है। चूँकि चैतन्य महाप्रभु एक प्रमाणिक आचार्य हैं इसलिए हम गिरिराज-गोवर्धन का दर्शन एक महान भगवद्-भक्त के रूप में करते हैं, भगवान के रूप में नहीं। कुछ भक्तों की यह भ्रांत धारणा होती है कि गिरिराज सवयं श्रीकृष्ण हैं, जिसके चलते वे गिरिराज-गोवर्धन की पूजा भगवान कृष्ण की भाँति करते हैं और मयूर-पंख एवं बाँसुरी से गिरिराज का श्रृंगार करते हैं। परंतु श्रीमद्-भागवतम यह प्रतिपादित करता है कि गिरिराज-गोवर्धन भगवान नहीं हैं, अपितु सभी भगवद्-भक्तों में सबसे प्रमुख भक्त हैं। और चूँकि इस श्लोक का उच्चारण स्वयं महाप्रभु ने किया है, इसलिए हम गिरिराज का भगवान के रूप में दर्शन न करके उन्हें एक अत्यंत श्रेष्ठ भक्त के दृष्टिकोण से देखते हैं। भगवान के प्रिय भक्त भगवान के ही समान होते हैं। इस प्रार्थना का उच्चारण हम गुरुवष्टक में भी करते हैं:

साक्षाद-धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर
उक्तस तथा भाव्यत एव सद्भि:।
किंतो प्रभोर य: प्रिय एव तस्य
वंदे गुरो: श्री-चरणार्विंद ॥
[श्री श्री गुरुवष्टक 7]

“श्री भगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्रीगुरुदेव को स्वयं श्री भगवान् ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी प्रमाणित शास्त्रों ने माना है और सारे महाजनों ने इसका पालन किया है। भगवान् श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे प्रमाणित प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥”
श्रीगुरु या भगवान के अत्यंत प्रिय-भक्त भगवान के ही समान पूज्य हैं। भगवान कृष्ण के इस भौतिक संसार में चार विस्तार हैं:


भागवत, तुलसी, गंगाय, भक्त जने ।
चतुर्धा विग्रह कृष्ण एइ चारि सने ॥
[चैतन्य भागवत मध्य-लीला 22.81]

भागवत, गंगा, भक्त और तुलसी भगवान कृष्ण के चार विस्तार हैं, (क्योंकि तुलसी भगवान को अत्यंत प्रिय हैं) यद्यपि गिरिराज भगवान कृष्ण के ही विस्तार हैं, फिर भी हम उन्हें भगवान के एक अत्यंत प्रिय भक्त, हरि-दास-वर्य के रूप में सेवा करते हैं किसी अन्य दृष्टिकोण से नहीं।

महाप्रभु चटक-पर्वत का दर्शन करके मूर्छित हो गए
चटक-पर्वत का दर्शन करते ही महाप्रभु ने इस श्लोक का उच्चारण किया और उनके दिव्य शरीर में अद्भुत प्रेम-उन्माद का भाव प्रकट हो गया तथा सभी सात्त्विक विकार दिखाई देने लगे। वे वायु की गति से उस चटक पर्वत की दिशा में दौड़े, किंतु तभी उनके दिव्य शरीर में स्तम्भ का सात्त्विक विकार प्रकट हो गया और इस कारण वे स्तम्भ की भाँति वहीं रुक गए, जिसके पश्चात वे एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा पाए। फलतः वे मूर्छित होकर भूमि पर गिर गए। स्वरूप दामोदर गोस्वामी के नेतृत्व में अन्य सभी भक्तों ने महाप्रभु के कर्णों में हरे कृष्ण महामंत्र - हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम हरे हरे का उच्च स्वर में उच्चारण करना आरंभ किया और कुछ समय पश्चात महाप्रभु अपनी बाह्य-चेतना में पुन: लौट आए।
इस प्रकार महाप्रभु सदैव, दिन-रात प्रेम-उन्माद में रहा करते थे। वे कभी आंतरिक चेतना में, तो कभी बाह्य-चेतना में रहते थे और इस कारण से वे स्नान तथा प्रसाद बेसुध अवस्था में स्वीकार करते थे क्योंकि उनके भाव तथा चेतना में निरंतर उतार-चढ़ाव होते रहते थे। जब महाप्रभु भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने जाते थे, तो वे द्वारपाल का हाथ पकड़ कर उससे निवेदन करते थे, “कृपया मेरे हृदय के स्वामी, मेरे प्राणेश्वर का दर्शन करने में मेरी सहायता कीजिए।” यह महाप्रभु की अद्भुत लीला है। चटक-पर्वत का दर्शन करके, महाप्रभु को वृंदावन में गिरि-गोवर्धन का स्मरण हुआ और उन्होंने यह व्याखयान दिया कि गिरिराज हरि-दास-वर्य हैं, अर्थात् वे भगवान के अत्यंत प्रिय भक्तों में से एक प्रमुख भक्त हैं।

श्री गोवर्धन-वास-प्रार्थना-दशकम
अब मैं श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी द्वारा रचित श्री-गोवर्धन-वास-प्रार्थना-दशकम का गान करूँगा, जो गिरिराज-गोवर्धन का महिमागान है।


निज-पति-भुज-दण्ड-छत्र-भावं प्रपद्य
प्रति-हत-मद-धृष्टोद-दण्ड-देवेंद्र-गेर्व।
अतुल-पृथुल-शैल-श्रेणि-भूप! प्रियं मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम॥1॥
“हे गोवर्धन! आप वे छाता बन गए थे जिसे भगवान्‌ कृष्ण ने अपने हाथों में थामा या (पकड़ा था)! इस प्रकार श्रीकृष्ण ने देवताओं के राजा इन्द्र का महत्त्व घटाया था, जो अपने महान घमंड के मद में चूर था। आप समस्त विशाल पर्वतों के अतुलनीय राजा हो, कृपया मुझे अपने निकट रहने की अनुमति दीजिए।"

प्रमद-मदन-लीला: कंदरे कंदरे ते
रचयति नव-यूनोर द्वंद्वम अस्मिन्न अमंदम।
इति किल कलनार्थं लग्नकस तद-द्वयोर मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम॥2॥

“हे गोवर्धन! श्रीश्री राधा-कृष्ण, तरुण दिव्य युगल जोड़ी, ने आपकी प्रत्येक गुफा के अंदर वैभवपूर्ण, उच्छृंखल, प्रेमपूर्ण क्रीड़ाएँ की हैं, इसलिए मैं उन्हें, वहाँ देखने के लिए बहुत अधिक उत्सुक हो गया हूँ। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए।”


अनुपम-मणि-वेदी-रत्न-सिंहासनोर्वी-
रुहझर-दरसानुद्रोणि-संघेषु रंगै:।
सह बल-सखिभि: संखेलयन स्व-प्रियं मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम ॥3॥

“हे गोवर्धन! अत्यधिक हर्षोल्लास की स्थिति में कृष्ण, आपके अद्वितीय रत्नजड़ित मंडपों एवं सिंहासनों में, आपके वृक्षों की छाया में, आपकी गुफाओं में और घाटियों में, बलराम एवं ग्वाल बालों के साथ खेलते हैं। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए।”

 

रस-निधि-नवयूनो: साक्षिणीम दान-केलेर
द्युति-परिमल-विद्धां श्याम-वेदीं प्रकाश्य।
रसिक-वर-कुलानां मोदम आस्फालयन मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम ॥4॥

“हे गोवर्धन! आप राधा और कृष्ण की दान- क्रीड़ा (जिसमें कृष्ण गोपियों से, उनके सिर पर रख कर ले जा रही घी के बदले में कर वसूल करते हैं। ) के साक्षी हो जो मधुर अमृत रसों का सागर है। आप वैभव एवं सुगन्ध से पूर्ण नील वर्ण के धरातल का प्रदर्शन करके, भक्तों के अमृत रसों की प्रसन्नता में वृद्धि कर देते हो। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए।”


हरि-दायितम अपूर्वं राधिका-कुण्डम आत्म-
प्रिय-सखम इह कण्ठे नर्मणालिंग्य गुप्त:।
नव-युव-युग-खेलास तत्र पश्यन रहो मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम ॥5॥

“हे गोवर्धन! आप अपने प्रिय मित्र श्रीराधाकुण्ड का स्नेहपूर्वक एवं गोपनीय रूप से आलिंगन करते हो, वह स्थान जो आपको और भगवान्‌ हरि को अत्यन्त प्रिय है। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए और वहाँ की तरुण दिव्य युगल जोड़ी की घनिष्ट लीलाओं का दर्शन करवाइये।”

स्थल-जल-तल-शष्पैर भूरुह-छायया च
प्रतिपदम अनुकालं हंत सम्वर्धयन गा:।
त्रि-जगति निज-गोत्रं सार्थकं ख्यापयन मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम ॥6॥

“हे गोवर्धन! आप गायों को भूमि, जल, घास और अपने वृक्षों की छाया सफलतापूर्वक निरन्तर देकर, अपना नाम गोवर्धन, गौओं के सरंक्षक व पालनकर्ता, सार्थक करते हो। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए।”


सुर-पति-कृत-दीर्घ-द्रोहतो गोष्ठ-रक्षां
तव नव-गृह-रूपस्यांतरे कुर्वतैव।
अघ-बह-रिपूणोच्चैर दत्तमान! द्रुतं मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम ॥7॥

“हे गोवर्धन! अघासुर और बकासुर के शत्रु, श्रीकृष्ण द्वारा आपकी महिमा एवं यश में वृद्धि हो जाती है, जब उन्होंने वर्षा से ब्रजवासियों की रक्षा की थी और शीघ्रतापूर्वक अपना नया आश्रय के रूप में प्रयोग करके इन्द्र को पराजित किया था। कृपया मुझे अपने निकट रहने की अनुमति दीजिए!


गिरि-नृप! हरि-दास-ध्रेणि-वर्येति-नामा-
मृतम इदम उदितं श्री-राधिका-वक्त्र-चंद्रात।
व्रज-नव-तिलकत्वे क्ल्प्त! वेदै: स्फुटं मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम ॥8॥

“हे गोवर्धन! पर्वतों के राजा! चूँकि, हरि के श्रेष्ठ, सबसे अच्छे सेवक के रूप में आपके नाम का अमृत रस, श्रीमती राधारानी के मोती सदृश मुख से निस्सारित (उत्पन्न) हुआ है, जैसा कि वैदिक शास्त्र श्रीमद्‌भागवतम्‌ (10.21.18) द्वारा भी प्रदर्शित हुआ है, आप व्रज के नवीन या नए तिलक कहलाते हो। कृपया मुझे अपने समीप वास करने की अनुमति दीजिए।”

निज-जन-युत-राधा-कृष्ण-मैत्री-रसाक्त-
व्रज-नर-पशु-पक्षि-व्रात-सौख्यैक-दात:।
अगणित-करुणत्वान माम उरी-कृत्य तांतं
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम॥9॥

“हे गोवर्धन! श्रीश्रीराधाकृष्ण एवं उनके पार्षदों को, केवल आप ही प्रसन्नता प्रदान करने वाले हो, जो सदा मैत्री भाव में व्रज के लोगों, पशुओं व पक्षियों से घिरे रहते हैं। कृपया दया करके मुझे स्वीकार कीजिए और अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए।”


निरुपधि-करुणेन श्री शचि-नंदनेन
त्वयि कपटि-शठो ‘पि त्वत-प्रियेनार्पितो ‘स्मि।
इति खलु मम योग्यायोग्यतां माम अगृह्णन
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम॥10॥

“हे गोवर्धन! यद्यपि मैं नीच व धोखेबाज हूँ, फिर भी अहैतुकी दया से पूर्ण श्री शचीनन्दन ने मुझको तुम्हें समर्पित कर दिया है। इसलिए यह मत विचार करो कि मैं योग्य हूँ या अयोग्य और मुझे स्वीकार कीजिए। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए।”


सभी भक्तों में सर्वप्रमुख
ऊपर प्रस्तुत इन दस श्लोकों के अतिरिक्त श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी गिरिराज गोवर्धन का महिमानगान करते हुए एक अंतिम श्लोक की रचना करते हैं:

रसद-दशकम अस्य श्रील गोवर्धनस्य
क्षिति-धर-कुल-भर्तुर य: प्रयत्नाद अधीते।
स सपदि सुख-दे ‘स्मिन वासम आसाद्य साक्षाच
चुभ-द-युगल-सेवा-रत्नम आप्नोति तूर्णम॥

"कोई भी जो, दिव्य रसों को प्रदान करने वाले, पर्वतों के राजा श्रीगोवर्धन की इन दस श्लोको का पाठ करके ध्यानपूर्वक, प्रशंसा करता है, वह शीघ्रता से गोवर्धन के समीप वास करने के स्थान को प्राप्त कर लेगा, गोवर्धन जो प्रसन्नता प्रदान करने वाले हैं, और वह श्रीश्रीराधा-कृष्ण की दिव्य युगल जोड़ी की शुभ, मंगलमय प्रेमपूर्ण सेवा रूपी बहुमुल्य रत्न को प्राप्त करेगा।"


गिरिराज गोवर्धन श्री श्री राधा-कृष्ण को अतिप्रिय हैं। वे उनके महान सेवक हैं और इसी कारण वे हरि-दास-वर्य कहलाते हैं, अर्थात् वे सभी भक्तों में सर्वप्रमुख भक्त हैं। उनकी कृपा द्वारा प्राप्त भक्तिमय सेवा एक अमूल्य रत्न है। कोई भी व्यक्ति यदि इन दश श्लोकों का प्रेमपूर्वक, पूर्ण विश्वास और शुद्ध-भक्ति से पाठ करता है, जो श्री गोवर्धन-वास-प्रार्थना-दशकम के नाम से विख्यात है, वह निश्चित ही भक्ति-रस प्राप्त करेगा और अत्यंत सरलतापूर्वक गिरिराज गोवर्धन के चरणों में निवास हेतु स्थान प्राप्त करेगा।
कृष्ण के प्रिय-भक्त स्वयं उनके समान पूज्य हैं, साक्षाद् हरि। अत: गोवर्धन भी कृष्ण के समान पूज्य हैं। यही गौड़ीय सिद्धांत का निष्कर्ष है।

प्रश्नोत्तर
भक्त: क्या यही हमारी शिक्षा है?
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: हाँ, यही हमारी शिक्षा है। जैसा कि मैंने कथा में भी उल्लेख किया था कि कृष्ण के इस भौतिक जगत में चार विस्तार हैं: भागवत, तुलसी, गंगा और भक्त। भगवान के अत्यंत प्रिय भक्त भी उन्हीं के विस्तार हैं। आपको इस विषय को तत्त्व-विचार के आधार पर समझना चाहिए, आपात-विचार के आधार पर नहीं।
भक्त: हम देखते हैं कि जो भक्त गोवर्धन के निकट निवास करते हैं, वे उनकी आराधना मोरे-पंख एवं बाँसुरी के साथ करते हैं। क्या यह विधि गलत है?
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: हाँ। एक भक्त कभी मोरे-पंख या बाँसुरी धारण नहीं करता है, क्योंकि वह कृष्ण नहीं अपितु कृष्ण का नित्य दास है। इसी कारणवश महाप्रभु ने भागवत के उस श्लोक का उच्चारण किया जिसमें गोवर्धन को हरि-दास-वर्य से संबोधित किया गया है। वे कृष्ण-भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं, परंतु स्वयं कृष्ण नहीं हैं। फिर वे इन वस्तुओं को धारण कैसे कर सकते हैं?
भक्त: तो क्या वे सभी भक्त गलत विधि का अनुसरण कर रहे हैं?
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: निश्चित रूप से!

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