हमारे आध्यात्मिक जीवन में चुनौतियाँ

 

प्रिय पाठकगण,

श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की महती कृपा से हम भजन-सम्बंधित विभिन्न विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। विशेषतया इस लेख में हम आध्यात्मिक जीवन में आने वाली विविध बाधाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।

अनेकों ब्रह्माण्डों में विचरण करने के उपरांत, केवल कुछ भाग्यशाली जीवों को ही श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति शरणागत होने का अवसर प्राप्त होता है। इस असीम भगवत्कृपा के बाद भी, अपनी स्वतंत्र मानसिकता, पूर्व कर्म, या असत-संग के कारण हम विधि-भक्ति की विहित गतिविधियों को अपने जीवन में नहीं उतार पाते। अतः कई वर्षों तक इस‌ सर्वमंगलप्रद पद्धति का अनुशीलन करने के उपरांत भी, हम श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति दृढ़ आसक्ति अथवा उनसे गहन सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते। परिणामतः, हम अपने को एक मध्य-स्थिति में उलझा हुआ पाते हैं जिसमें न तो हमारी इस पद्धति को तिरस्कृत करने की इच्छा होती है और न ही इसे पूर्ण हृदय से स्वीकारने की। यद्यपि इस स्थिति में हम माया के विभिन्न प्रलोभनों को भोगना तो नहीं चाहते, परन्तु साथ ही हमारे हृदय में श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की सेवा में नियुक्त होने की भी किंचित्मात्र उत्कण्ठा नहीं होती। यह मध्यवर्ती स्थिति भक्तों के लिए अत्यंत भयानक व अनिष्टकारी है। श्रीमद्भागवतम् [३.७.१७] इस तथ्य की पुष्टि करता है, “निकृष्टतम मूर्ख तथा समस्त बुद्धि के परे दिव्य पद पर स्थित रहने वाले दोनों ही सुख भोगते हैं, जबकि उनके बीच के व्यक्ति भौतिक क्लेश पाते हैं।”

शरणागति तथा भक्तिमय सेवा में हमारा किन-किन बाधाओं से सामना होता है?

 

१. गुरु-पाद पद्म को स्वीकारने के बाद भी अपनी स्वतंत्रता बनाये रखना अर्थात् मन के दासत्व में कार्य करना हमारे आध्यात्मिक जीवन में एक महान अवरोध है। इस स्थिति में हमारी समस्त आध्यात्मिक क्रियाऍं मात्र एक नाट्य-प्रदर्शन के समान होती हैं। गुरु पादपद्म के प्रति हमारा समर्पण भौतिक कामनाओं एवं कापट्य से रहित होना चाहिए। वस्तुतः हमारे हृदय में स्वाभाविक रूप से तनिक भी श्रद्धा नहीं है, अतः आध्यात्मिक जीवन में बलवन्त अथवा अविचलित होने के लिए साधु-भक्तों का संग करना अनिवार्य है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के अनुसार, शुद्ध-भक्त की अहैतुकि कृपा से भाग्यशाली जीव के हृदय में श्रद्धा उदित होती है, जिसकी स्वाभाविक विशेषता है श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग को प्रसन्न करने की तीव्र लालसा। प्रारम्भतः श्रवण के माध्यम से हमारे हृदय में श्रद्धा का बीज अंकुरित होता है और अविचल श्रद्धा रखते हुए शुद्ध-भक्त की वाणी का श्रवण करने से हमारे हृदय की समस्त अशुद्धियाँ विनष्ट हो जाती हैं। केवल तभी हम समझ पाते हैं कि यह स्वतंत्र मानसिकता हमारे लिए कितनी घातक है।

 

२. यद्यपि हम शास्त्रज्ञ हैं और गुरु-तत्त्व से भी परिचित हैं, फिर भी हम श्रीगुरु को सुख प्रदान करने की तत्परता एवं यथोचित मनोवृत्ति विकसित करने में पूर्णतया विफल रहते हैं। हम शास्त्रों के मर्म से अवगत हैं: यस्यप्रसादाद्‌ भगवदप्रसादो…..यस्य देवे परा भक्ति  इत्यादि और हम इन विषयों का प्रचार भी करते हैं। हम दूसरों को इन तत्त्वों पर उपदेश तो ऐसे देते हैं मानो हम इन सिद्धांतों में पारंगत हों। किन्तु सत्य तो यह है कि हम अपने ही दैनिक जीवन में इस ज्ञान का अनुसरण नहीं कर रहे हैं और दुर्भाग्यवश स्वयं को श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा में संलग्न नहीं कर रहे हैं।

 

३. श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग को प्रसन्न करने हेतु हमें अपने आंतरिक भाव को परिपक्व करना होगा, अर्थात् हमें श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग को अपने जीवन के प्राणाधार के रूप में स्वीकार करना होगा।‌ उनकी सेवा में समर्पित हुए बिना यह देह मृत समान है। इसलिए गुरुदेव सदैव कहा करते थे, “सेवा कभी मत छोड़ना।”

बाह्य तौर पर, अपनी दैनिक साधना के साथ-साथ हम आध्यात्मिक कार्य या सेवा करने का भी प्रयास करते हैं, किन्तु उनका यथार्थ प्रयोजन है श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति शास्त्र सम्मत आंतरिक भाव विकसित करना। दूसरे शब्दों में, जब हमारी अन्तश्चेतना श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति एकनिष्ठ हो जाती है, तब हमें आध्यात्मिक संतुष्टि का अनुभव होना प्रारम्भ होता है। यदि श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति गहन आसक्ति न हो, तो हमारा यह जीवन व्यर्थ है क्योंकि श्रीगुरु एवं श्रीकृष्ण को प्रसन्न करना ही जीवन का वास्तविक प्रयोजन है। इसलिए उनकी प्रसन्नता का अनुभव करना ही हमारे सुख का एकमात्र कारण होना चाहिए।

 

४. कभी-कभी हम गुरुदेव की सेवा में इतने प्रवृत्त होते हैं कि हमें श्रवण, कीर्तन तथा शास्त्र अध्ययन तक का समय नहीं मिल पाता। उस स्थिति में  हम स्वयं की भर्त्सना करने लगते हैं, “मैं अपना समय व्यर्थ ही गंवा रहा हूँ चूँकि मेरे पास निजी साधन-भजन के लिए किंचित मात्र भी समय नहीं है। मैं केवल इस तथाकथित सेवा में व्यस्त हूँ जो भौतिक कर्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अतएव मुझे अपना ध्यान शुद्ध-भक्ति पर केंद्रित करना चाहिए।” ऐसे विचार हमारे मन में आक्षेप करने लगते हैं और हम अपने मन एवं बुद्धि के अनुसार केवल बाह्य रूप से आध्यात्मिक कार्य करते हैं। इस स्थिति में हमें प्रेम और आत्मीयता से साधु-गुरु की सेवा करने की इच्छा नहीं होती। क्यों? क्योंकि मन हमें प्रोत्साहन देता है कि साधु-गुरु सेवा में कोई स्वतंत्रता नहीं है।

 

५. प्रेम और आत्मीयता रहित भाव से हम कुछ दिनों तक तो सेवा कर लेते हैं, परंतु फिर हम सोचने लगते हैं, “श्रवण तथा कीर्तन में मग्न होना इस तथाकथित सेवा से श्रेष्ठ है।” हम उन कुछ दिनों तक सेवा केवल इसलिए करते हैं ताकि हम प्रचार का दिखावा करके संसारी पूजा एवं प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें। फलस्वरूप हम अपने वास्तविक प्रयोजन से पूर्णतया विस्मृत हो जाते हैं, अर्थात् हम श्रीगुरु एवं श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए उनकी प्रेममयी सेवा में संलग्न होना भूल जाते हैं, जिसके कारण हमारा तथाकथित भजन नामाक्षर के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता।

यह स्थिति ‘भक्ताभास’ कहलाती है। यद्यपि हम भली-भाँति जानते हैं कि हमारा हृदय और मन श्रीगुरु एवं श्रीकृष्ण में स्थिर नहीं रहता अपितु  हर क्षण इधर-उधर भागता रहता है, तथापि हम स्वतंत्र भजन करने की प्रचेष्टा करते हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर पुष्टि करते हैं, “हम एक से चौंसठ माला तक मनका तो फेरते हैं, किन्तु हमारे हृदय में भक्ति-रसार्णव की एक बिन्दु भी नहीं होती।” हमारा भजन इसी श्रेणी के अन्तर्गत आता है। परन्तु इस भावना से भजन करना अधिक समय तक संभव नहीं हो पाता, और अंततोगत्वा हम हताश हो जाते हैं।

 

६. हताश हो जाने पर हम अपने सम्प्रदाय के अन्तर्गत सभी भक्तों और गुरुजनों का दोषदर्शन करना चाहते हैं। अंततः हम सोचते हैं कि, “एक छोटी सी भजन-कुटीर में रहकर निर्जन-भजन करना श्रेष्ठ है।” अतः हम सामान बाँधकर एकांत स्थान पर जाने का निश्चय कर लेते हैं। कभी-कभी हम अपने इन प्रस्तावों को लेकर गुरु से अनुमति माँगने जाते हैं, वरन् कई बार हम गुरु एवं अन्यों की परवाह किए बिना स्वेच्छा से निर्णय लेने लगते हैं। ऐसे में हम श्रीगुरु एवं वरिष्ठ भक्तों की उपेक्षा कर, अपनी मनोवांछा से एकांत स्थान पर रहने लगते हैं। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के अनुसार ऐसा करना मात्र प्रवञ्चना है, यानि ऐसा करके हम दूसरों को तो छलते ही हैं, साथ ही हम भी अपने मन द्वारा ठगे जाते हैं चूँकि हम यह भूल जाते हैं कि भक्ति-अधिकार केवल और केवल एक शुद्ध-भक्त की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।

 

७. कभी-कभी हम सोचते हैं, “मैं कोई विद्वान नहीं हूँ, अपितु एक मजदूर की भाँति कार्य करता हूँ। अन्य सभी भक्त प्रचारक अथवा विद्वान हैं, इसलिए समाज उनका आदर करता है और सब उनकी सहायता भी करते हैं। किंतु जब मैं वृद्ध हो जाऊँगा तो मेरा क्या होगा? मेरी सहायता कौन करेगा? अतएव बेहतर होगा कि मैं यह सेवा छोड़कर, शास्त्र अध्ययन करना प्रारंभ कर दूँ।” जब हम ऐसी मानसिकता विकसित कर लेते हैं, तब हम अपनी वास्तविक सम्पत्ति, यानि श्रीगुरु एवं श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा का तिरस्कार कर देते हैं और हमारे हृदय में भक्ति की बजाय प्रतिष्ठा की भयावह कामना निवास करने लगती है। परिणामस्वरूप, हमारे भीतर श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की सेवा में प्रवृत्त होने की गंभीरता अथवा निष्ठा नहीं रहती, इसके विपरीत हम गुप्त या सूक्ष्म रूप से इन्द्रियतृप्ति में लग जाते हैं और उसे ही सेवा मान बैठते हैं। इस प्रकार सेवा करने से हमारे हृदय में सेवा के प्रति सत्यनिष्ठा की जगह भेदभावपूर्ण वृत्ति विकसित हो जाती है और हम अन्वेषण करने लगते हैं, “क्या मेरी सेवा अन्य सेवाओं से निम्न है, या फिर महान्?” फलतः हमारे हृदय में विभिन्न अनर्थों का उदय होता है, विशेष रूप से कपटता और मिथ्या प्रतिष्ठा की लालसा का।

 

८. कभी-कभी हमारे मन में विचार आता है, “जब तक मैं वैष्णव साहित्य विषेशज्ञ नहीं बन जाता, तब तक मैं भजन कैसे कर पाऊँगा? मेरी सेवा सदैव शास्त्र अध्ययन में विघ्न उत्पन्न करती है। अतः सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उत्तम यही होगा कि मैं माधुकरी माँगकर अपना भरण-पोषण करूँ और अपना पूरा ध्यान शास्त्र अध्ययन पर केंद्रित कर दूँ।” फलस्वरूप हम अपनी सेवा छोड़ देते हैं। ऐसा करके हम अपने जीवन में सभी प्रकार की विपदाओं को आमंत्रित करते हैं। सिद्धांत के नाम पर हम श्रौत पंथा में व्यस्त तो हो जाते हैं, किन्तु ज्ञान प्राप्त करने की बजाय तर्क पंथा में प्रवेश कर जाते हैं, जिसमें सम्मिलित होकर हमारा हृदय कठोर होने लगता है और हम श्रीगुरु एवं श्रीकृष्ण के प्रति अपनी श्रद्धा खो बैठते हैं।

 

९. सामान्यतः हम साधु-गुरु के निर्देशों की अवज्ञा करते हैं और उनकी शिक्षाओं को महत्त्व नहीं देते। इस उपेक्षात्मक मनोवृत्ति के कारण, हम बाह्य तौर पर तो अत्यंत कुशलतापूर्वक सेवा करते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर शारीरिक माँगों के साथ संघर्ष कर रहे होते हैं। कई तरह के विचार तथा पूर्व अनुभूतियाँ हमारे मन में हस्तक्षेप करती हैं और हमारी मति को अलग-अलग दिशाओं में खींच कर ले जाती हैं। यद्यपि हमें श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की सेवा करके अपनी अन्तश्चेतना को उन्नत करने का दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है, परन्तु हम उसके लिए प्रेरित व उत्साहित नहीं होते और साथ ही हरि-कथा के प्रति हमारी रुचि भी क्षीण होती जाती है। चूँकि हम साधु-गुरु की आज्ञाओं का पालन नहीं करते, इसलिए हमारे भीतर आध्यात्मिक गतिविधियों का प्रतिपादन करने की संकल्प शक्ति विनष्ट हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप  हमें अपने आध्यात्मिक जीवन में सब कुछ काल्पनिक अनुभव होने लगता है। अंततः हम एक ऐसी स्थिति में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ हम इतने हतोत्साहित हो जाते हैं कि हमें आशा की कोई किरण दिखाई नहीं पड़ती। फलत: हम भक्ति के इस आत्मकल्याणकारी पथ को छोड़ देते हैं।

 

१०. कुछ दिनों तक साधु-गुरु से हरि कथा श्रवण करने के उपरांत, कभी-कभी गुरुदेव कृपापूर्वक हमें प्रचार करने का आदेश देते हैं। परन्तु हम श्रीगुरु के मनोभाव को समझने में अक्षम होने के कारण स्वयं को एक ‘श्रवण दास’ से उच्च कोटि का भक्त समझने लगते हैं। दूसरे शब्दों में, हमारी यह विचारधारा परिपक्व होने लगती है कि अब गुरुदेव से हरि-कथा श्रवण करने की कोई आवश्यकता नहीं है और हम यह मान लेते हैं कि गुरुदेव की कथा मेरे लिए नहीं, अपितु उन भक्तों के लिए है जिन्हें प्रचार करने का आदेश नहीं मिला है। श्रील प्रभुपाद कहा करते थे कि, “श्रवण-विधि कृष्णभावनामृत को समझने का मूलभूत सिद्धान्त है” और श्रील गुरुदेव कहते थे, “यह श्रवण पद्धति शाश्वत है”। ऐसे में, कोई प्रश्न कर सकता है कि, “जब श्रवण करना कृष्णभावनामृत के लिए मूल सिद्धांत एवं शाश्वत पद्धति है, तो गुरुदेव ने मुझे प्रचार करने का आदेश क्यों दिया है?”

इसका यथार्थ उत्तर यह है कि, ताकि हम प्रचार के माध्यम से भगवान और उनके प्रिय भक्तों का महिमागान करके श्रीगुरु एवं श्रीकृष्ण को प्रसन्न कर सकें। एक वास्तविक शिष्य तत्त्व को अनुकूल भाव से समझता है और सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक साक्षात्कार कर लेता है। यदि हम सोचें कि, “मुझे शास्त्रों का ज्ञान है, इसलिए साधु-गुरु से हरि-कथा श्रवण करने की कोई आवश्यकता नहीं है” तो ऐसी निकृष्ट मानसिकता के चलते हमारे हृदय में अनर्थ विकसित होने लगते हैं।

 

११. यदि हम सेवोन्मुखी भाव से हरि-कथा का प्रचार करते हैं, तो वह हमारे भजन के लिए अत्यंत सहायक होगा। परन्तु यह जानना महत्वपूर्ण है कि यदि प्रचार को श्रीगुरु से प्रतिदिन श्रवण करने का सुअवसर न मानकर हम दूसरों को शिक्षा देने की भावना रखते हैं तो यह घातक मनोवृत्ति एक प्रचारक के लिए कदापि ठीक नहीं। वास्तविक प्रचार तो एक प्रचारक के मुख से श्रवण करना है क्योंकि यथार्थक प्रचारक केवल वही प्रचार करते हैं जो उन्होंने साधु एवं शास्त्र से सुना है। प्रचारकों का आंतरिक भाव यही रहना चाहिए। यही वास्तविक श्रवण पद्धति है। अतएव एक प्रचारक हर दिन प्रचार करने की अभिलाषा रखता है, ताकि वह अपने प्राणप्रिय गुरुदेव एवं परम्परा-आचार्यों के श्रीमुख से हरि-कथा का आस्वादन कर सके।

 

दासानुदास

हलधर स्वामी

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