हमारा अंतिम गंतव्य
प्रिय पाठकगण,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम प्रत्येक एकादशी पर स्वयं के शुद्धिकरण हेतु तथा अपने हृदय में गुरु और कृष्ण की सेवा के प्रति इच्छा जागृत करने के लिए विभिन्न विषयों पर चर्चा करते हैं। सर्व-शक्तिमान श्रीकृष्ण को भूल जाने के कारण हम, तटस्था शक्ति की जीवात्माएँ, कृष्ण से भी अधिक शक्तिशाली बनने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके फलस्वरूप हमारे हृदय में भोग करने की कामनाएँ उत्पन्न होती हैं। हमारी वैधानिक स्थिति के अनुसार हम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के भोग्य वस्तु हैं। परंतु जब हम भोक्ताभिमान विकसित कर लेते हैं, तब हमारे पास माया का अनुगमन करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रह जाता। एक बार माया द्वारा आकर्षित और जकड़े जाने पर, हमारी आध्यात्मिक शक्ति समाप्त हो जाती है और हम अपने बल पर भगवद्धाम में प्रवेश करने में असमर्थ हो जाते हैं। जैसे ही एक बद्ध-जीव इस भौतिक जगत में जन्म लेता है, वह माया के त्रिगुण रूपी पाश में बंध जाता है। सभी महाजनों का यही कथन है कि जब एक जीव इस भौतिक जगत में आता है, तो वह पूर्णतया माया के नियंत्रण में कार्यरत रहता है। भगवान का अंश होने के कारण, जीव इस भौतिक वातावरण में सर्वथा असंतुष्ट रहता है। केवल भगवद्धाम लौटकर ही वह पूर्ण रूप से संतुष्ट हो सकता है।
माया द्वारा आकृष्ट (भ्रमित) होने के कारण बद्ध-जीव यह जानने में अक्षम रहता है कि वह वस्तुत: किस प्रकार शांति प्राप्त कर सकता है। दूसरे शब्दों में वह आध्यात्मिक जगत के संदेश से पूर्णतया अपरिचित रहता है। भौतिक जगत में उसकी अवस्था एक गरम तवे पर रहने के समान होती है। उसकी दयनीय स्थिति को देखकर हमारे सुहृद एवं बंधु, श्रीकृष्ण अपने विश्वस्त प्रतिनिधियों [वैकुण्ठ के परिकरों] को आध्यात्मिक जगत के संदेश के साथ भौतिक धरातल पर भेजते हैं। वे परम करुणामय साधु-गुरु-वैष्णव ही हमारे लिए उस संसार का संदेश लाते हैं, जैसे श्रील प्रभुपाद हमारे लिए भगवद्धाम लौटने का संदेश लाए। वे हमें उस दिव्य जगत से अवगत कराने के लिए ज्ञान प्रदान करते हैं। एक बद्ध-जीव वैकुण्ठ के परिकरों को समझने में असमर्थ है। तो फिर बद्ध-जीव उनके द्वारा प्रदत्त संदेश पर किस प्रकार अपना विश्वास विकसित कर सकता है? वह कई जन्मों से इस तरह दुख और कष्ट झेल रहा है, मानो वह कोई बेघर व निराश व्यक्ति हो। बद्ध-जीवों की ऐसी दशा देखकर कृष्ण अपने नित्य-पार्षदों को इस भौतिक संसार में भेजते हैं। परंतु अंधा होने के कारण बद्ध-जीव कृष्ण के पार्षदों को समझने में असमर्थ रहता है। जो व्यक्ति जन्म से अंधा हो वह कुछ नहीं देख सकता, अत: उसके पास नेत्रयुक्त व्यक्ति की आज्ञा का पालन करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं बचता। यदि वह व्यक्तिगत प्रयास द्वारा कुछ प्राप्त करने की कोशिश करता है, तो वह निश्चित ही विफल रहेगा। एक जीव, जो माया द्वारा बद्ध और मोहित है, वह जन्म से अंधे व्यक्ति के समान है। ऐसी स्थिति में जीव अपने प्रयासों द्वारा तथाकथित शांति और सुख प्राप्त करने की व्यर्थ ही कोशिश करता रहता है। अत: उसके लिए वैकुण्ठ के परिकरों का अनुगमन करने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं बचता।
भगवान की व्यवस्था द्वारा एक बद्ध-जीव उनके नित्य-परिकरों के संपर्क में आता है। सरल हृदय वाले जीव भजन-कीर्तन द्वारा कृष्ण के प्रति स्वाभाविक श्रद्धा एवं रुचि जागृत कर लेंगे। किंतु दुर्भाग्यशाली जीव वैकुण्ठ से अवतरित परिकरों पर सदैव संशंकित रहेंगे। यद्यपि एक सरल हृदय वाला सौभाग्यशाली जीव, जिसके आध्यात्मिक जीवन में भगवान के शुद्ध-भक्तों की संगति से रुचि उत्पन्न हो गई है, अभी भी माया के आकर्षण से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हुआ है। जब कोई जीव शुद्ध-भक्त की कृपा प्राप्त कर और अधिक सौभाग्यशाली बन जाता है, तब वह इस भौतिक जगत से निराश हो जाता है। किंतु तब भी वह इतना दुर्बल होता है कि वह अपने प्रयास पर आध्यात्मिक जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। जब वह अपने बल पर भगवद्धाम में प्रवेश करने का प्रयास करता है, तो माया उसे इस प्रकार पीछे खींचती है कि वह फिर कभी भगवद्धाम जाने का प्रयास तक नहीं करता। ऐसी स्थिति में हमें किसी ऐसे व्यक्तित्व की सहायता की आवश्यकता होती है जो माया से भी अधिक शक्तिशाली हो और बद्ध-जीव को उसकी बद्ध-अवस्था से मुक्त करने में सक्षम हो। कृष्ण के अतिरिक्त कोई भी माया से अधिक शक्तिशाली नहीं है। केवल वे ही एक जीव का उद्धार कर सकते हैं। अत: उनकी इच्छा तथा व्यवस्था से वे अपने निजी जन को यहाँ भेजते हैं। उनके निजी जन उनके ही समान शक्तिशाली होते हैं। इसलिए हम उन्हें ‘साक्षाद हरि’ से संबोधित करते हैं। वे एकमात्र हमारे उद्धार हेतु ही अवतीर्ण होते हैं, इसलिए हमें उनके आश्रय की निर्विवाद आवश्यकता है।
यद्यपि हम उनका आश्रय प्राप्त करने की आकांक्षा करते हैं, किंतु इतनी दीर्घ अवधि तक माया के संग में रहने के कारण, हम भगवद्धाम लौटने की इच्छा भी नहीं करते। जब माया देखती है कि बद्ध-जीव भगवद्धाम लौटने का इच्छुक नहीं है, उस समय वह अपनी चाल से उसे या तो भोगी, या मुक्ति-कामी, या मायावादी या फिर एक छद्म भक्त बना देगी जो वास्तव में साधु-गुरु के प्रति अपराधी होगा। आरम्भ में माया द्वारा प्रताड़ित होने के कारण हम वैकुण्ठ के परिकरों का आश्रय स्वीकार करते हैं, जो सदैव हमें यही उपदेश देते हैं कि भौतिक संसार हमारे निवास हेतु उपयुक्त स्थान नहीं है। उनके संग से हम में अल्प मात्रा में भगवद्धाम जाने की इच्छा जागृत होती है, किंतु कुछ समय के पश्चात हम अपना निर्णय बदल देते हैं। हमें समझना चाहिए कि जब हम एक शुद्ध-भक्त का अनुसरण करते हैं, तो हमारा स्वभाव, मनोभाव और इच्छा, तीनों शुद्ध-भक्त के समान ही होनी चाहिए। जब हम कृष्णलोक की ओर अपनी यात्रा आरंभ करते हैं, तब तत्क्षण कृष्ण के परिकर हमें सावधान करते हुए यह उपदेश देते हैं कि, “तुम लाभ, पूजा और प्रतिष्ठा की पालकी में बैठकर गोलोक वृंदावन नहीं जा सकते।” इन सूक्ष्म इच्छाओं से हमारी यात्रा रुक जाती है। कभी-कभी हम कहते हैं, “गुरुदेव अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा मुझे भी अपने साथ ले चलिए।” यह कपट का एक अन्य रूप है क्योंकि अनेकों अवांछित वस्तुओं से घिरे रहते हुए भी हम भगवद्-परिकरों की कृपा की याचना कर रहे हैं।
यदि हमारी गोलोक वृंदावन जाने की इच्छा है, तो हमें वैकुण्ठ के परिकरों का पूर्ण रूप से, शत-प्रतिशत अनुसरण करना होगा। आंशिक रूप से अनुसरण करने से यह संभव नहीं है। जब हम गुरु के समक्ष उनका सच्चा सेवक बनने की इच्छा से प्रार्थना एवं क्रंदन करेंगे, तब उनकी कृपा से हमारे हृदय में आचार्य का अद्भुत चरित्र प्रकट होगा जिसकी सहायता से हमारी सूक्ष्म अवांछित वासनाएँ विनष्ट हो जाएँगी। जब उन अवांछित इच्छाओं पर यह दिव्य प्रतिबिम्ब नित्य प्रकट रहेगा और साथ ही सौभाग्यवश हम गुरु-कृपा प्राप्त करेंगे – तब हमारी इंद्रियाँ, मन एवं बुद्धि सभी वैकुण्ठ के उन परिकरों का अनुगमन करने के लिए तैयार हो जाएँगी। गुरु इस भौतिक जगत में बद्ध-जीवों को गोलोक वृंदावन की ओर उन्मुख करने हेतु प्रकट होते हैं। भौतिक संसार में एक शुद्ध-भक्त द्वारा प्रकट की गई लीलाएँ, गोलोक वृंदावन की ओर यात्रा करने का दृष्टांत आदर्श है। उनके शब्द गोलोक वृंदावन के संदेश हैं। इसलिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने हमें सचेत किया है, “शुद्ध-भक्त के शब्दों को हवा में नहीं जाने देना चाहिए, उन अमूल्य वचनों को पुस्तकों के रूप में जीवित रखना चाहिए।” श्रील प्रभुपाद के पाश्चात्य जगत के शिष्यों का वास्तव में यही श्रेय है। उन्होंने एक शुद्ध-भक्त के प्रत्येक शब्द को जीवित रखा है जो भविष्य में असंख्य जीवात्माओं की रक्षा करेंगे।
केवल श्रीगुरु की कृपा से ही जीव की कृष्ण को प्रसन्न करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति जागृत हो सकती है। भले ही कोई अपनी साधना में अत्यन्त गंभीर हो, किंतु कृष्ण के निजी जन की कृपा प्राप्त किए बिना उसके लिए कृष्ण के साथ अपना नित्य संबंध स्थापित कर पाना संभव नहीं है। साधना का वास्तविक अर्थ क्या है? शारीरिक आसक्ति या भौतिक भोग का परित्याग करके जब हम कृपा के लिए प्रार्थना एवं याचना करते हैं, उसे ही साधना कहते हैं। यद्यपि श्रीगुरु हमें बारंबार यही उपदेश प्रदान करते हैं, किंतु तब भी हम सावधान तथा गंभीर नहीं होते। इसके विपरीत, कभी-कभी जब कुछ सरल भावुक भक्त हमारी प्रंशसा कर देते हैं तब हम प्रार्थना करने के बजाय सोचने लगते हैं, “अब मैं अनर्थ-मुक्त हो गया हूँ।” यद्यपि अनेकों अनर्थ हमारे कार्यों में अपना कुटिल रूप तथा प्रभाव प्रकट करते हैं, परंतु फिर भी कुछ मूर्ख लोगों की झूठी प्रशंसा सुनकर हम स्वयं को उन्नत वैष्णव समझने लगते हैं। ऐसी अवस्था में हम एक शुद्ध-भक्त के जीवनचर्या का अनुकरण करना आरंभ कर देते हैं और साथ ही उनके शब्दों को भी दुहराने लगते हैं। यह कार्य भी गोलोक वृंदावन के पथ में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करता है।
हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि इस भौतिक जगत में हर किसी की यात्रा एक ही दिशा में और समान गति से नहीं होती है। कभी-कभी हमारी यात्रा अवरुद्ध हो जाती है, रुक जाती है या धीमी पड़ जाती है, किंतु गोलोक वृंदावन की ओर हमारी यात्रा शाश्वत है और इसे रोक पाना किसी भी कारक के लिए संभव नहीं है। चूँकि हमने शुद्ध-भक्त की कृपा प्राप्त नहीं की है, इसलिए हमें अपनी यात्रा में अनेक अवरोधों का सामना करना पड़ता है। जब भी साधना करने का हमारा प्रयास शारीरिक आसक्ति और मनगढ़ंत विचारों से परे नहीं जा पा रहा हो, तब हमें साधना के माध्यम से ही इस शरीर और मन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी होगी। जब हमारा शरीर और मन साधना करने में हमारा सहयोग नहीं करते, तो हमें शुद्ध-भक्तों की कृपा की याचना करनी चाहिए तथा एक साथ प्रयास और क्रंदन करते हुए साधना करनी चाहिए। कई बार हम साधु को दिए गए वचन या उनके समक्ष लिए हुए प्रण का पालन करने में विफल हो जाते हैं, किंतु यदि हम उस अवस्था में प्रयास और क्रंदन करना बंद कर देंगे, तब हमारा प्रण, जो साधु के साथ हमारा एक मज़बूत संबंध है, अनर्थों द्वारा नष्ट कर दिया जाएगा। शुद्ध-भक्तों को दिए गए वचनों को तोड़ने पर हमें अपने मन को शुद्ध-भक्तों के वचनों से ही बारंबार प्रताड़ित करना चाहिए और एक नए उत्साह और दृढ़ निश्चय के साथ पुन: वचन देना चाहिए। जब हम अपने प्रयास और प्रार्थनाऍं अत्यधिक गंभीरतापूर्वक करेंगे, तो यह शुद्ध-भक्त के हृदय को पिघला देगा जो सदैव हमारी सहायता करने हेतु तैयार रहते हैं। कभी-कभी हम प्रयास करते हैं, अर्थात् साधना करते हैं, किंतु कृपा के लिए क्रंदन नहीं करते, और कभी क्रंदन करते हैं किंतु प्रयास अर्थात् साधना नहीं करते। श्रील प्रभुपाद कहते हैं, “हम केवल अपनी निष्ठा द्वारा ही कृष्ण को आकर्षित कर सकते हैं।” कृपा प्राप्त करने के पश्चात गोलोक वृंदावन की हमारी यात्रा सुगम बन जाती है।
यात्रा को सुगम एवं एकाग्रपूर्ण करने के लिए वैकुण्ठ के परिकर शब्द-ब्रह्म के साथ अवतरित होते हैं। श्रीमान् महाप्रभु के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए शुद्ध-भक्त अपने अस्त्र, हरिनाम के साथ यहाँ प्रकट होते हैं। वर्तमान समय में यद्यपि हम श्रवण एवं कीर्तन कर रहे हैं, किंतु क्योंकि हमारी श्री श्री गुरु एवं गौरांग को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कामनाएँ हैं, इसलिए हमें हरिनाम के मुख्य फल के बजाय गौण फल प्राप्त हो रहे हैं। जब तक हम एक शुद्ध-भक्त द्वारा प्रदर्शित पथ का तथा उनके आदेशों का अपने तन, मन और वचन से निष्ठापूर्वक पालन नहीं करेंगे, तब तक शब्द-ब्रह्म अवतरित नहीं होंगे। शुद्ध-भक्तों द्वारा प्रदर्शित पथ, उनके आदेशों एवं उनके द्वारा निर्धारित विधि-विधानों का गंभीरतापूर्वक पालन करने से हम अनर्थों से मुक्त हो सकते हैं। जब तक इंद्रियाँ शब्द-ब्रह्म का अनुसरण नहीं करेंगी, तब तक वे अपना विषैले सर्प जैसा स्वभाव नहीं छोड़ेंगी, और इसलिए वे हमारी शत्रु बनी रहेंगी। यदि हम उपरोक्त अवरोह पथ का अनुसरण करते हैं, तभी हम अनर्थों और अपराधों से मुक्त हो सकेंगे। गुरु और कृष्ण हमारे सच्चे शुभचिंतक हैं और हम उनकी संपत्ति। इस तथ्य को समझना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हमारा एकमात्र चिंतन यही होना चाहिए कि, “मैं अपने गुरुदेव के प्रत्येक शब्द का अनुसरण किस प्रकार कर सकता हूँ?” जब भी यह शरीर तथा मन बाधा उत्पन्न करता है, तब हम न तो साधु-गुरु का अनुसरण कर पाते हैं और न ही हरिनाम का जप और फलत: हमारी सभी आध्यात्मिक क्रियाएँ रुक जाती हैं। इस स्थिति में हमें पुन: शुद्ध-भक्तों का संग करना चाहिए, उनसे कृष्ण-कथा का श्रवण करना चाहिए और गुरु तथा वैष्णवों की सेवा करनी चाहिए। ऐसा करने से ही हम अपनी यात्रा जारी रख सकते हैं।
हमें सदैव स्मरण रहना चाहिए कि स्थूल और सूक्ष्म शरीर, एवं मन गोलोक वृंदावन की हमारी यात्रा में सदा बाधाएँ उत्पन्न करते हैं। हमें विरजा नदी के परे जाना है, किंतु यदि हमारी चेतना सदैव शरीर और मन में ही फँसी रहती है, तो यह दर्शाता है कि हमारी भक्ति-लता अभी इस भौतिक ब्रह्माण्ड में ही स्थित है। तब हमें उपरोक्त प्रक्रिया का फिर से निष्ठापूर्वक पालन करना होगा। श्रील प्रभुपाद श्रीमद्-भागवतम [1.2.17] के अपने तात्पर्य में उल्लेख करते हैं:
“भगवान अपने भक्तों के साथ परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। जब भगवान देखते हैं कि भक्त उनकी सेवा में प्रवेश पाने के लिए पूर्ण निष्ठा से तत्पर है और फलस्वरूप उनके विषय में सुनने का इच्छुक है, तो वे भक्त के भीतर से इस तरह से कार्य करते हैं कि भक्त उनके पास सरलता से वापस चला जाये। भगवान हमारी अपेक्षा अधिक उत्सुक हैं कि हम उनके पास वापस जाएँ। किंतु हममें से अधिकांश भगवान के धाम में वापस नहीं जाना चाहते। केवल कुछ ही ऐसे हैं जो भगवान के पास वापस जाना चाहते हैं। किंतु जो कोई भी भगवद्धाम में वापस जाना चाहता है, श्रीकृष्ण सब तरह से उसकी सहायता करते हैं।
कोई भी व्यक्ति तब तक भगवान के धाम में प्रविष्ट नहीं हो सकता, जब तक वह समस्त प्रकार के पापों से मुक्त न हो जाए। भौतिक पाप हमारे द्वारा भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। ऐसी इच्छाओं से पिंड छुड़ा पाना बहुत कठिन है। भक्त के लिए भगवद्धाम वापस जाने के मार्ग में कामिनी तथा कंचन मुख्य बाधाएँ हैं।”
अत: हमें साधु, गुरु और वैष्णवों की कृपा प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक प्रयास करना होगा। उस निष्ठा के बिना स्त्री और धन की मजबूत पकड़ से मुक्त हो पाना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव है। नरोत्तम दास ठाकुर ने इसका वर्णन अपने गीत में किया है – मायारे करिया जय छाड़ाना न यय, साधु गुरु कृपा विना नाहिक उपाय । हमारी एकमात्र प्रार्थना केवल साधु और गुरु के चरणकमलों में स्थित रहने की है और एकमात्र निवेदन है कि वह हम पर सदा अपनी कृपा वर्षित करें ताकि हम गोलोक वृंदावन की अपनी यात्रा पर प्रगति कर सकें। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अपने गीत में इसका वर्णन किया है – ‘राधा कृष्ण बोलो, संगे चलो, एइ-मात्र भिक्षा चाइ’, “कृपया राधा और कृष्ण का नाम गाइए और हमारे साथ चलिए। हम केवल यही भिक्षा माँग रहे हैं।” यहाँ पर कोई प्रश्न पूछ सकता है कि भक्तिविनोद ठाकुर हमें अपने साथ कहाँ ले जाएँगे? जैसा कि हमने पहले भी बताया कि सभी आचार्य इस भौतिक धरातल पर हमें भगवद्धाम ले जाने के लिए अवतीर्ण होते हैं। हमारे गुरुदेव (श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज) प्रायः कहा करते थे कि यह भौतिक संसार एक भयानक स्थान है क्योंकि यहाँ भजन करने का पथ अवरोधों से भरा हुआ है। श्रील प्रभुपाद सदैव अपनी उँगली आकाश की ओर उठाकर कहते थे कि हम सभी को भगवद्धाम लौटना है। यह जगत सज्जन व्यक्तियों के निवास हेतु उपयुक्त स्थान नहीं है क्योंकि यहाँ अनेक ईर्ष्यालु व्यक्ति हैं जो हमारे भजन में बाधा उत्पन्न करते हैं। निष्कर्ष यह है कि हमारा गंतव्य स्थान गोलोक वृंदावन है और वहाँ जाने के लिए हमें तीव्र उत्कण्ठा विकसित करनी होगी।
दासानुदास
हलधर स्वामी
Add New Comment