कृपया मेरे हृदय को शुद्ध करें
प्रिय पाठकगण,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम आचार्यों द्वारा प्रदत्त महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं का श्रवण कर अपनी आध्यात्मिक चेतना विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस लेख में हम आदि गुरु ‘श्रीबलदेव’ की महिमागान करने के इच्छुक हैं। श्रीकृष्ण की इच्छा से योगमाया ने देवकी की सातवीं संतान (गर्भ) को रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया। वह सातवीं संतान ‘प्रथम मूल संकर्षण’ कहलाती है। मूल संकर्षण के वैकुण्ठ-विस्तार को ‘महा-संकर्षण’ और पाताल लोक में विस्तार को ‘शेष’ नाम से जाना जाता हैं। यद्यपि शेष नाग के हज़ारों फन हैं, किंतु केवल अपने एक फन से ही उन्होंने संपूर्ण ब्रह्माण्ड को सरसों के दाने की भाँति उठा रखा है। श्रीशेष देव एक अत्यंत दक्ष वक्ता हैं। सनक आदि जैसे महान संत उनसे श्रीमद्-भागवतम का श्रवण करते हैं। यद्यपि वे अपने हज़ारों मुखों से कृष्ण की महिमा गाते हैं, फिर भी वे भगवान की महत्ता का वर्णन अभी तक समाप्त नहीं कर पाये हैं।
श्रीशेष-देव की कृपा से एक जीव निपुण वक्ता बनता है। तीन प्रमुख नामों में से ‘श्रीबलदेव’ नाम अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। वह बल के देवता हैं। इस शरीर के पोषण हेतु हमें भोजन की आवश्यकता होती है ताकि हम अपने भौतिक कार्य करने के लिए बल प्राप्त कर सकें। परंतु श्री श्री गुरु एवं गौरांग तथा हरिनाम प्रभु की सेवा करने के लिए हमें आध्यात्मिक बल की आवश्यकता है। वह बल हमें एकमात्र बलदेव से ही प्राप्त होता है। श्रीबलदेव का एक अन्य नाम राम है क्योंकि वे भक्तों के हृदय की दुर्बलताओं को नष्ट कर उन्हें प्रेम प्राप्ति में सहायता करते हैं। श्रीबलदेव आदि गुरु एवं संधिनी-शक्ति के स्वामी हैं। उनकी कृपा प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति श्री श्री राधा-गोविंद के प्रति प्रेम विकसित नहीं कर सकता। इसलिए श्रील नरोत्तम दास ठाकुर वर्णन करते हैं:
हेनो निताइ बिने भाई, राधा-कृष्ण पाइते नाइ
दृढ़ करि धरो निताइर पाय
नित्यानंद प्रभु की कृपा प्राप्त किए बिना, जो श्रीबलदेव से अभिन्न हैं, कोई भी श्री श्री राधा-कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए हमें नित्यानंद प्रभु के चरणकमलों को दृढ़तापूर्वक पकड़ना होगा।
क्योंकि श्रीबलदेव प्रभु संधिनी-शक्ति के स्वामी हैं, इसलिए वे हमें कृष्ण को प्राप्त करने का पथ दिखलाते हैं। एक व्यक्ति निजी बल द्वारा इस पथ को नहीं पहचान सकता। एक बद्ध-जीव का अपने बल पर कृष्ण को प्राप्त करने का प्रयास निरर्थक है। ऐसा करना आरोह पंथा कहलाता है। इस पंथा का अनुसरण करने वाले व्यक्ति, जिनकी ब्रह्म को प्राप्त करने की इच्छा है, निश्चित रूप से अंधकार में गिर जाएँगे या मायावादी बन जाएँगे। बलदेव सर्व-शक्तिमान हैं। उन्हीं से हमें सभी प्रकार की भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है।
बलराम का एक अन्य नाम बलभद्र भी है। उनसे शक्ति प्राप्त करने के उपरांत हमारा जीवन मंगलमय हो जाएगा। जब श्रील प्रभुपाद ने न्यू मायापुर [फ्रांस] में श्री श्री कृष्ण-बलराम की स्थापना की, तब उन्होंने सभी को आश्वस्त करते हुए कहा था कि यहाँ विराजित श्रीबलराम यूरोप के सभी भक्तों को आध्यात्मिक बल प्रदान करेंगे। हमें आध्यात्मिक बल की आवश्यकता है, किंतु अपने भीतर भौतिक इंद्रिय-तृप्ति की इच्छा विकसित करने के कारण हम अत्यंत गंभीर रोगग्रस्त अवस्था में हैं। हम इतने दुर्बल हैं कि हम अपने भौतिक जीवन में भी अग्रसर नहीं हो पा रहे हैं। आध्यात्मिक जीवन का तो कहना ही क्या? कोई पूछ सकता है कि हमें बलराम से बल कैसे प्राप्त हो सकता है? श्रील प्रभुपाद श्रीमद्-भागवतम [७.१५.४५] के अपने तात्पर्य में इसका उत्तर प्रदान करते हैं:
“जब कोई कृष्ण के उपदेश रूपी तलवार को पकड़ने के लिए गुरु और कृष्ण की सेवा करता है, तो बलराम उसे बल देते हैं। बलराम नित्यानंद हैं। ब्रजेंद्रनंदन येइ, शची-सुत हैल सेइ, बलराम हइल निताइ । यह बल अर्थात् बलराम तथा श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ आता है और ये दोनों इतने कृपालु हैं कि इस कलियुग में कोई भी सुगमता से उनके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर सकता है।”
जब तक हम बलराम के प्रकाश-विग्रह, श्रीगुरु की सेवा नहीं करेंगे, तब तक आध्यात्मिक बल प्राप्त कर पाना कदापि संभव नहीं है और बल प्राप्त किए बिना भौतिक आसक्ति से मुक्त हो पाना असंभव है। इसलिए नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं,
आर कबे निताइ-चाँदेर करुणा हइबे।
संसार-वासना मोर कबे तुच्छ हइबे।।
श्रील प्रभुपाद भी उपरोक्त श्लोक (श्रीमद्-भागवतम ७.१५.४५) के अपने तात्पर्य के अंत में वर्णन करते हैं, “अतएव हमें बलराम से प्राप्त हुए बल द्वारा कृष्णभावनामृत के शत्रुओं को जीतना चाहिए।”
जब तक कोई बलराम द्वारा संचारित शक्ति से संपन्न नहीं होता, तब तक वह कृष्ण-प्रेम के अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। बलराम अत्यधिक दयालु होने के कारण अपने बल को विभिन्न रूपों में विभाजित कर देते हैं। वे अपने बल को अपने भक्तों या प्रतिनिधियों द्वारा तीन रूपों में वितरित करते हैं। हम इस विषय को विस्तार से श्रीचैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला (१६.६०-६२) में पढ़ सकते हैं, “भक्त के चरणों की धूल, भक्त के चरणों का प्रक्षालित जल तथा भक्त द्वारा छोड़ा गया शेष भोजन – ये तीन अत्यंत शक्तिशाली वस्तुएँ हैं। इन तीनों की सेवा से मनुष्य को कृष्ण-प्रेम का परम लक्ष्य प्राप्त होता है। सारे प्रमाणिक शास्त्रों में बारंबार इसकी घोषणा की गई है। यह भगवान कृष्ण की सबसे बड़ी कृपा है। कालिदास इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।”
गुरुदेव श्रीबलराम के प्रकाश-विग्रह हैं। श्रीगुरु की कृपा प्राप्त किए बिना कोई भी आत्म-बल प्राप्त नहीं कर सकता। कृष्ण से पूर्व श्रीबलराम का प्राकट्य यह दर्शाता है कि कृष्ण-दर्शन और कृष्ण-सेवा से पूर्व श्रीबलराम का दर्शन और उनकी सेवा करना अत्यंत आवश्यक है। इसी कारणवश श्रीबलराम के प्रकाश-विग्रह, श्रीगुरु, हमें आध्यात्मिक बल प्रदान करने हेतु इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं। कृष्ण-दर्शन और कृष्ण-सेवा से पहले प्रत्येक व्यक्ति को गुरु-दर्शन प्राप्त होना चाहिए और उसे गुरु-सेवा करनी चाहिए जो बलराम के दर्शन और उनकी सेवा से अभिन्न है। केवल तभी वह कृष्ण का दर्शन करने की योग्यता प्राप्त कर सकता है।
हमारा हृदय अनर्थयुक्त है, इसलिए हम न तो कृष्ण का दर्शन कर सकते हैं और न ही उनकी सेवा कर सकते हैं। इन सभी अनर्थों को नष्ट करने के लिए श्रीबलराम की कृपा या उनके बल की निर्विवाद रूप से आवश्यकता है। इसी कारण से श्रीबलराम ने ऐसी विभिन्न लीलाएँ प्रकट की हैं जिनमें उन्होंने कई असुरों का वध किया। यह सभी असुर साधक के हृदय में उपस्थित अनर्थों के प्रतीक हैं। इन लीलाओं से साधक यह शिक्षा प्राप्त कर सकता है कि श्रीबलराम ने किस प्रकार असुर रूपी अनर्थों का विनाश किया है। यह सभी असुर व्रजभूमि में अनेक समस्याएँ खड़ी कर रहे थे। उसी प्रकार यह सभी असुर रूपी अनर्थ व्रज-भजन में महान बाधक हैं। श्रीबलराम ने अपनी बाल्य-लीलाओं में, विशेष रूप से, धेनुकासुर का वध किया जो उनके समक्ष एक गधे के रूप में आया था। हमारे जीवन में धेनुकासुर हमारी स्थूल एवं अशुद्ध बुद्धि को दर्शाता है। स्थूल एवं अशुद्ध बुद्धि के कारण हम तत्त्व समझने में असमर्थ रहते हैं। हम स्वयं को शरीर मान बैठते हैं और इसी अविद्या के आधार पर अपने सभी कार्य करते हैं। धेनुकासुर हमारे जीवन के इन सभी अनर्थों का प्रतीक है और इसी कारण श्रीबलराम ने उसका वध किया।
श्रीगुरु, जो श्रीबलदेव के प्रकाश-विग्रह हैं, उनकी कृपा से हम सभी अनर्थों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हम प्रतिदिन गुरु-पूजा में प्रार्थना करते हैं:
प्रेम-भक्ति याँहा हइते, अविद्या विनाश जाते
वेदे गाय जाहार चरितो
यहाँ अविद्या का अर्थ है अनर्थ। गुरुदेव, जो बलदेव के प्रकाश-विग्रह हैं, उनकी कृपा से कोई भी जीव इन सभी अनर्थों को पार कर सकता है। श्रीबलराम ने व्रज में प्रलम्बासुर का भी वध किया था। प्रलम्बासुर सहजिया-संप्रदाय का प्रतीक है। हमारी दुर्बलताओं के कारण हम परंपरा और आचार्यों का अनुसरण नहीं करते, अपितु हम सभी नियमों का परित्याग कर, सामान्य जनता से तुच्छ लाभ, पूजा और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा से खुद को एक उन्नत वैष्णव साबित करने के लिए महान भक्तों की नकल करते हैं। इस भौतिक संसार में कष्ट भोगने का एकमात्र कारण है भौतिक वस्तुओं के प्रति हमारी अत्याधिक आसक्ति। केवल इतना ही नहीं, बल्कि हम अपने आध्यात्मिक जीवन में अपने अनर्थों द्वारा भी उत्पीड़ित किए जाते हैं। हमें एक शीतल आश्रय तथा इस प्रचंड भौतिक ताप से राहत की आवश्यकता है। हम इस तथ्य से भलीभाँति परिचित हैं कि यह भौतिक संसार दुःखालय है, किंतु तब भी हम अपनी आसक्तियों के कारण इसका परित्याग नहीं कर पाते और साथ ही हम ऐसा आश्रय प्राप्त करना चाहते हैं जिससे हमें इन भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल सके। अतः हमारी एकमात्र इच्छा शीतल आश्रय प्राप्त करना है, जो वास्तव में केवल बलराम या नित्यानंद प्रभु के चरणकमलों में ही प्राप्त होता है।
एक बार एक भक्त ने हमारे गुरुदेव (श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज) से पूछा कि श्रीबलदेव श्वेत वर्ण के क्यों हैं? श्रील गुरुदेव ने उत्तर में कहा, “श्रीबलराम ही नित्यानंद प्रभु हैं। नित्यानंद राम के चरणकमल करोड़ों चंद्रमाओं के समान सुशीतल और कृपालु हैं। चंद्रमा का प्रकाश श्वेत वर्ण का होता है जो कृपा और शीतलता का प्रतीक है और हम भी इसी की खोज कर रहे हैं। अत: शीतलता और कृपा की हमारी खोज नित्यांद प्रभु या श्रीबलराम के चरणकमलों को प्राप्त करने पर पूर्ण हो जाएगी।”
गुरुदेव कहा करते थे, “श्रीबलराम के हाथ में हल है और कृष्ण के हाथ में वंसी। सर्वप्रथम कर्षण (जुताई) की आवश्यकता है जिससे सभी मलीन अवांछित खरपतवार (इच्छाएँ) हृदय से निकल जाएँ। हमारा हृदय रूपी खेत अच्छे से बलराम के हल द्वारा जोता जाना चाहिए ताकि वह उपजाऊ बन सके, केवल तभी उसमें भक्ति-लता के बीज का रोपण संभव होगा। खेत अर्थात् हमारा हृदय बंजर नहीं होना चाहिए, अन्यथा उसमें भक्ति-लता का बीज कभी प्रतिफलित नहीं होगा। जब बलराम के हल द्वारा उचित कर्षण करने से हमारी हृदय-भूमि उपजाऊ बन जाए, तब उसमें भक्ति-लता के बीज का रोपण किया जाना चाहिए। जब वह बीज अंकुरित होगा और आप प्रेम-भक्ति विकसित करेंगे, तब आप कृष्ण की वंशी से आकर्षित होंगे। कृष्ण की वंशी आकर्षण का प्रतीक है।”
कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि बलदेव किस प्रकार अपने हल द्वारा हमारे हृदय को जोतेंगे? श्रील गुरुदेव कहते थे, “हृदय-भूमि को जोतने का अर्थ है वैधी-भक्ति के नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करना। गुरु आपको विधि और निषेध दोनों प्रदान करेंगे। गुरु द्वारा प्रदत्त नियमों का पालन करने से, प्रतिदिन सोलह माला का जप, इत्यादि करने से, अनर्थ-उपसम, अर्थात् अवांछित जंगली घास रूपी अनर्थों का विनाश होगा, और फलस्वरूप हमारा हृदय-क्षेत्र उपजाऊ बनेगा। तब गुरु उस भूमि में भक्ति-लता का बीज रोपण करेंगे। उनके मार्गदर्शन में आप श्रवणम् और कीर्तनम् में संलग्न होंगे और कृष्ण-कथा का श्रवण करेंगे। क्रमश: आप राग-मार्ग-भक्ति विकसित कर गुरु के मार्गदर्शन में प्रेम प्राप्त करेंगे। तब आपको कृष्ण के दर्शन होंगे और तब आप कृष्ण की सर्वाकर्षक वंसी की मधुर ध्वनि से स्वत: आकर्षित हो जाएँगे। हमारा लक्ष्य आकर्षण है, परंतु उसके लिए कर्षण यानि जोता जाना अति अनिवार्य है। भुवनेश्वर के इस कृष्ण-बलराम मंदिर का यही अर्थ है, कर्षण और तत्पश्चात आकर्षण।”
अत: पूर्ववर्ती आचार्यों के मतानुसार श्रीबलराम की कृपा प्राप्त किए बिना कृष्ण-प्राप्ति असंभव है। श्रील गुरुदेव भी इसकी पुष्टि करते हैं, “वसुदेव के छह पुत्रों का कंस द्वारा वध होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वे पाँच इन्द्रिय विषयों – शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध, और छठा, इस दुष्ट मन के प्रतिनिधि हैं। जब तक इन छहों का नाश नहीं होगा, तब तक कृष्ण-प्राप्ति असंभव है क्योंकि तब तक आपका हृदय शुद्ध-सत्त्व में स्थित नहीं हो सकेगा, तो फिर वहाँ कृष्ण कैसे प्रकट होंगे? अतएव भगवान बलराम के प्रकट होने से पूर्व इन छह पुत्रों का वध हो गया था। भक्ति जीवन के इन छह शत्रुओं का जब वध हुआ तभी भगवान बलराम माता देवकी के गर्भ में प्रकट हुए।”
कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि इन छह शत्रुओं का वध कैसे किया जाए? आचार्यगण इसका वर्णन करते हैं कि जब साधक एक प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में साधना करता है, तो क्रमश: इन छहों शत्रुओं का वध हो जाता है। इसके चलते उसके हृदय में भौतिक भोग की सभी अभिलाषाएँ धीरे-धीरे समाप्त हो जाएँगी और साधक उच्चतर आस्वादन प्राप्त करेगा।
अतः निष्कर्ष यह है कि जब तक श्रीबलराम के प्रकाश-विग्रह, श्रीगुरु, अपनी अहैतुकी कृपा वर्षित नहीं करेंगे, तब तक इन अनर्थों से मुक्त हो पाना असंभव है। हम अपने बल पर इन अनर्थों से मुक्त नहीं हो सकते और इनसे मुक्त हुए बिना हम कृष्ण की सेवा तथा उनका दर्शन कैसे प्राप्त करेंगे? अतएव उनकी कृपा ही हमारा एकमात्र आश्रय है।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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