कृष्ण-कृपा-श्री-मूर्ति

 

सपार्षद भगवद विरह जनित विलाप

(श्रील नरोत्तम दास ठाकुर कृत प्रार्थना से)

 

जे अनिलो प्रेमधन करुणा प्रचुर

हेनो प्रभु कोथा गेला आचार्य ठाकुर॥1

"जो दिव्य प्रेम का धन लेकर आये थे, और जो दया के भंडार थे, ऐसे अद्वैत आचार्य कहाँ चले गये?"

 

काहाँ मोर स्वरूप रूप काहाँ सनातन

काहाँ दास रघुनाथ पतित पावन॥2

"मेरे स्वरूप दामोदर और रूप गोस्वामी कहाँ हैं? सनातन गोस्वामी कहाँ है? पतितों के उद्धारक रघुनाथ दास कहाँ है?"

 

काहाँ मोर भट्ट जुग काहाँ कविराज

एक काले कोथा गेला गोरा नटराज॥3

"मेरे रघुनाथ भट्ट और गोपाल भट्ट कहाँ हैं, और कृष्णदास कविराज कहाँ हैं? महान नर्तक भगवान गौरांग अचानक कहाँ चले गए?"

 

पाषाणे कुटिबो माथा अनले पाशिबो

गौरांग गुणेर निधि कोथा गेले पाबो॥4

"मैं अपना मस्तक चट्टान में मार-मार कर फोड़ लूँगा और आग में प्रवेश कर जाऊँगा। सभी दिव्य गुणों की खान गौरांग महाप्रभु कहाँ मिलेंगे?"

 

से सब संगीर संगे जे कोइलो विलास

से संग पाईया काँदे नरोत्तम दास॥5

"गौरांग महाप्रभु तथा उनके लीला संगी भक्तों का संग न प्राप्त होने के कारण, नरोत्तम दास रो रहा है।"

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !

हरे राम हरे राम राम राम हरे हर !!

 

 वैष्णव जन्म एवं मृत्यु से परे होते हैं

मेरा सविनय निवेदन है कि उपस्थित सभी श्रोतागण वैष्णव ठाकुर श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी महाराज का जीवन चरित एवं महिमागान एकाग्रचित्त होकर श्रवण करें। हमें यह विदित होना चाहिए कि एक शुद्ध वैष्णव की एक साधारण जीव की भांति जन्म तथा मृत्यु नहीं होती चूँकि शुद्ध वैष्णव तो वस्तुतः जन्म तथा मृत्यु से परे होते हैं। जिस प्रकार भगवान प्रकट तथा अप्रकट होते हैं, ठीक उसी प्रकार उनके प्रिय भक्त, वैष्णव ठाकुर भी प्रकट तथा अप्रकट होते हैं।

 

कर्मबन्धनं जन्म वैष्णवानां विद्यते।

विष्णोरनुचरत्वं हि मोक्षमाहुर्मनीषिणः॥

"वैष्णवों का प्राकट्य कर्म के अधीन नहीं होता है। उनका आविर्भाव और तिरोभाव दिव्य है। विद्वत जन कहते हैं कि विष्णु भक्त सदैव भगवान की दिव्य सेवा में निमग्न रहते हैं और भौतिक प्रकृति के नियमों से सदैव मुक्त होते हैं।" (हरि-भक्ति-विलास, 10.113)

 

वैष्णवों का जन्म तथा मृत्यु कर्मबंधन के अधीन नहीं है। भगवान विष्णु के प्रिय पार्षद होने के कारण वे साधारण मनुष्य सदृश नहीं होते हैं। अतएव साधारण मनुष्यों के साथ उनकी तुलना करना एक जघन्य अपराध है।

 

महिमामण्डन का सुअवसर

वैष्णवों का प्राकट्य और अप्राकट्य, भगवान और उनके अवतारों के सदृश पूर्णतया दिव्य होता है। अतः वैष्णव आविर्भाव और तिरोभाव दिवस भगवद् आविर्भाव और तिरोभाव दिवस के ही समान अत्यंत कल्याणकारी होते हैं, क्योंकि यह मंगलप्रद पवित्र तिथियाँ हमें शुद्ध-भक्त की महिमा गायन करने का सौभाग्य प्रदान करती हैं। एक शुद्ध-वैष्णव की महिमा का गुणगान सर्वदा किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे वैष्णव इस ब्रह्मांड में अपनी अक्षय यश एवं कीर्ति प्रकाशित करने के उपरांत ही तिरोहित होते हैं। उनकी महिमा का यशोगान न केवल भौतिक जगत में, अपितु आध्यात्मिक जगत में भी गाया जाता है। जो कोई भी उनकी महिमा का गुणगान करता है, वह निश्चित ही उनकी कृपा का पात्र बनता है, और फलतः उसके सौभाग्य का उदय होता है।

 

श्रील प्रभुपाद ने श्रीचैतन्य महाप्रभु के मनोभीष्ट को पूरित किया

 

पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।

सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम॥

“इस पृथ्वी के प्रत्येक ग्राम और नगर में मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा।” (चैतन्य भागवत अन्त्य लीला ४.१२६)

 

चैतन्य महाप्रभु ने लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व यह भविष्यवाणी की थी, जिसे श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी महाराज ने पूर्ण किया। ऐसा अद्भुत और चमत्कारी कार्य अन्य कोई करने में सक्षम नहीं था। कृष्ण-शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन – श्री कृष्ण की शक्ति से संचारित हुए बिना कोई भी व्यक्ति केवल निजी प्रयासों द्वारा ऐसा अद्भुत कार्य संपन्न नहीं कर सकता। अतः श्रील प्रभुपाद पूर्ण रूप से भगवद्-शक्ति से आविष्ट थे, अन्यथा वे इस महान कार्य को कदापि पूर्ण नहीं कर सकते थे।

 

प्रिय भक्त की कृपा से

आज हमारे परम आराध्य गुरुदेव की महिमागान करने का शुभदिवस है। अतएव मैं कुछ भक्तों से श्रील प्रभुपाद जी की अतुलनीय महिमा का यशोगान करने का विनम्र आग्रह करता हूँ और अंतत: मैं भी प्रभुपाद जी की गुणावली का कीर्तिगान करूँगा। इसलिए, मैं आप सभी उपस्थित श्रोतागण से निवेदन करता हूँ कि आप सभी धैर्यपूर्वक भगवान के शुद्ध वैष्णव की महिमा का श्रवण कीजिए जिसके फलस्वरूप आप उनकी कृपादृष्टि के पात्र बनेंगे और तदुपरांत आपका कल्याण सुनिश्चित है।

 

श्रील प्रभुपाद की शिष्या मनोहरा माताजी ने बताया कि वह ईसाई धर्मावलम्बी थीं। परंतु प्रभुपाद से मिलने के उपरांत उन्हें ज्ञात हुआ कि परमेश्वर वास्तव में एक व्यक्ति हैं, कोई निर्गुण विचार नहीं, और उनका नाम श्रीकृष्ण है। प्रत्येक जीव का श्रीकृष्ण के साथ शाश्वत, पूर्ण एवं प्रेममय संबंध है। इस दुर्लभ मनुष्य जन्म का एकमात्र उद्देश्य [दुर्लभं मानुषं जन्म भग. 7.6.1] कृष्ण को समझना, कृष्ण का दर्शन प्राप्त करना, कृष्ण को प्राप्त करना और कृष्ण के साथ अपने विस्मृत संबंध को पुनः स्थापित करना है।

 

परन्तु इस स्थिति में विचारणीय विषय यह है कि हम श्रीकृष्ण के साथ अपने संबंध को पुनः स्थापित कैसे कर सकते हैं, जिससे हम चिरकाल से विस्मृत हैं? यह सम्बन्ध केवल कृष्ण के प्रिय भक्तों की कृपा के माध्यम से ही पुनः स्थापित हो सकता है। किंतु, शुद्ध भक्त का संग लाभ अत्यंत दुर्लभ होता है। केवल अतीव सौभाग्यशाली जीव ही शुद्ध भक्त के दर्शन लाभ करते हैं। सभी उनकी कृपा प्राप्त करके लाभान्वित नहीं हो पाते।

 

जब सौभाग्य उदित होता है

 

जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य दैवा-
दधर्मशीलस्य सुदु:खितस्य।
अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं
भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य॥

“जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान श्रीकृष्ण से विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुःखी हैं, उनपर कृपा करने के लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसार में विचरा करते हैं”। (श्रीमद् भागवतम ३.५.३)

 

हम अपने प्रारब्ध-कर्म वश कृष्ण से विस्मृत हो चुके हैं। फलस्वरूप हम इस भौतिक संसार में अनेकानेक योनियों में भ्रमण करते हुए त्रि:तापों से पीड़ित हैं। अतएव जीव की दयनीय अवस्था को देखकर करुणावश अहैतुकी कृपा करने के लिए श्रीकृष्ण के प्रिय जन, वैष्णव ठाकुर, इस धराधाम पर अवतरित होते हैं और सर्वत्र भ्रमण करते हुए समस्त पीड़ित जीवों पर अपनी कृपा वृष्टि करते हैं।

 

वैष्णव ठाकुर स्वाभाविक रूप से अत्यंत दयालु होते हैं; उनका दर्शन अत्यधिक मंगलप्रद होता है। जब जीव का परम सौभाग्य उदित होता है, केवल तभी उसकी भगवान के विशुद्ध वैष्णवों से भेंट होती है और उनकी कृपा प्राप्त करने पर ही जीव भगवान के नित्य सेवक के रूप में अपनी आत्मपहचान कर पाता है। भगवान कौन हैं? उन्हें कैसे प्राप्त किया जाए? इस दुर्लभ मानव योनि का वास्तविक लक्ष्य क्या है? और वह लक्ष्य किस साधन द्वारा प्राप्य है?

 

ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव।

गुरुकृष्ण - प्रसादे पाय भक्तिलता - बीज॥

“सारे जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में भ्रमण कर रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च गृह-मंडलों को जाते हैं और कुछ निम्न गृह मंडलो को जाते हैं। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक जीव अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सानिध्य प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त होता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है।” (चैतन्य चरितामृत मध्य 19.151)

 

जीव का इस भौतिक ब्रह्मांड से सम्बन्ध शाश्वत नहीं है। श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त क्षुद्र स्वतंत्रता के दुरुपयोग के परिणामस्वरूप ही जीव बारम्बार इस जन्म-मृत्यु के दुष्चक्र में विभिन्न प्रकार की योनियों में भटकता रहा है और मनुष्य, देवता, राक्षस, वृक्ष, लता, कृमि तथा कीड़े इत्यादि का रूप धारण करता रहा है। परन्तु जब जीव के परम सौभाग्य का उदय होता है, तो उसकी भेंट एक सद्गुरु से होती है। जिस भी जीवन में जीव को श्रीगुरु का दर्शन एवं उनका पारलौकिक संग प्राप्त होता, उसका वह जीवन शत-प्रतिशत सफल हो जाता है। यही एक जीव का परम सौभाग्य है।

 

श्रीगुरु-दर्शन

सद्-गुरु के दर्शन लाभ करने का वास्तविक अर्थ उनकी कृपा प्राप्त करना है। यदि गुरुदेव हम पर अपनी कृपादृष्टि डालते हैं, केवल तभी हम उनके वास्तविक महा-भागवत स्वरूप को समझ सकते हैं। यही हमारा परम सौभाग्य है, अन्यथा हम अत्यंत दुर्भाग्यशाली हैं। हम अपने इन भौतिक नेत्रों द्वारा गुरुदेव के वास्तविक स्वरूप का दर्शन नहीं कर सकते।

 

गुरु शब्द का अभिप्राय भारी है, लघु नहीं। सद्-गुरु का दर्शन प्राप्त होना ही जीव का वास्तविक सौभाग्य है। यहाँ गुरु-दर्शन का अभिप्राय रक्त, मांस तथा अस्थियों से निर्मित बाह्य शारीरिक दर्शन से नहीं है। गुरु-दर्शन का अर्थ है गुरु के वास्तविक स्वरूप का दर्शन करना, कि वे श्रीकृष्ण को कितने अधिक प्रिय हैं और उनके भीतर गौर-करुणा-शक्ति किस प्रकार संचारित हो रही है। अतः यह कोई भौतिक दर्शन नहीं अपितु पूर्ण रूप से आध्यात्मिक अथवा अप्राकृत दर्शन हैं। जो जीव यह अनुभव कर सकता है वास्तव में वही सौभाग्यशाली है।

 

गुरु अत्यंत कृपालु तथा सहिष्णु होने के कारण हमारे असंख्य अपराधों को क्षमा कर देते हैं। अतएव वे कृष्ण के अतिप्रिय एवं अंतरंग पार्षद होते हैं और मात्र श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धा, कृष्ण-कथा में रुचि, और कृष्ण-प्रेम का अमूल्य धन प्रदान करने हेतु इस धराधाम पर अवतीर्ण हुए हैं। यह दृष्टिकोण विकसित करना ही गुरु के वास्तविक दर्शन हैं। भौतिक जगत में अवतीर्ण होने के पीछे उनका एकमात्र संकल्प बद्धजीवों का उनकी पतित अवस्था से उद्धार करना है।

 

श्रीगुरु-दर्शन के पूर्व हम अभागे थे। जिस क्षण हमारी श्रीगुरुदेव से भेंट होती है, उसी क्षण हमारे सौभाग्य का उदय होता है अर्थात् हमें भौतिक बंधन से मुक्ति का मार्ग प्राप्त हो जाता है और जब हमारे समस्त भौतिक बंधन पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं, तभी हमें श्री गुरुदेव अथवा महा-भागवत के दर्शन करने का सुअवसर प्राप्त होता है। अतः जिसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वही सर्वाधिक भाग्यशाली है। करोड़ो ब्रह्मांडों में भटकने वाला अभागा जीव, केवल एक महा-भागवत, श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त के दर्शन मात्र से भाग्यशाली बन जाता है।

 

भौतिक जगत के निवासी राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से भेंट करना ही जीवन की सबसे महान सफलता है और ऐसे व्यक्तियों से भेंट होने पर वे स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली मानते हैं। परंतु यह वास्तविक सौभाग्य नहीं है। गुरु दर्शन द्वारा प्राप्त सौभाग्य वास्तविक सौभाग्य है और शब्दों के द्वारा उस महत्तम सौभाग्य का वर्णन कर पाना अत्याधिक कठिन कार्य है। चाहे कोई व्यक्ति पूर्व में कर्मी, ज्ञानी, भोगी अथवा त्यागी ही क्यों न रहा हो, परंतु सद्गुरु से भेंट होने के पश्चात वह भगवान श्रीकृष्ण का दास बन जाता है, जो कि जीव की वास्तविक स्थिति है। अतएव जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति ही जीव का वास्तविक सौभाग्य है।

 

जिस प्रकार सूर्यदेव का दर्शन केवल सूर्य के प्रकाश से ही संभव है, उसी प्रकार साधु, महाजन और वैष्णव ठाकुरों की अहैतुकी कृपा के द्वारा ही गुरु के वास्तविक दर्शन कर पाना संभव है, अन्यथा हमारे भौतिक नेत्रों द्वारा यह कदापि संभव नहीं।

 

जब परमात्मा शरीर धारण करते हैं

 

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो

मेधया बहुना श्रुतेन।

कठोपनिषद (1.2.23) में कहा गया है कि परमात्मा-तत्व को कर्मियों, ज्ञानियों, पंडितों या योगियों के प्रवचनों तथा व्याख्यानों द्वारा नहीं समझा जा सकता है। जब हृदय में उपस्थित चैत्य गुरु अथवा परमात्मा, शरीर धारण कर गुरु रूप में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं और अपनी दिव्य वाणी के माध्यम से ज्ञान प्रदान करते हैं, केवल तभी हम इस अचिंत्य परमात्मा-तत्व को समझ सकेंगे, अन्यथा नहीं। गुरु दर्शन एक नवीन जीवन के शुभारंभ तथा शुद्ध प्रबुद्धि के उदित होने का सूचक है। गुरु-कृष्ण प्रसादे पाय भक्ति-लता बीज - गुरु और कृष्ण की कृपा से ही भाग्यशाली जीव को भक्ति लता का बीज प्राप्त होता है (चैतन्य चरितामृत मध्य 19.151) ।

 

भक्ति लता का बीज

 

कृष्ण यदि कृपा करे कोन भाग्यवाने।

गुरु-अन्तर्यामि-रुपे शिखाय आपने॥

“कृष्ण प्रत्येक जीव के हृदय में चैत्य गुरु अर्थात अन्तःकरण में स्थित गुरु के रूप में स्थित हैं। जब वे किसी बद्धजीव पर दयालु होते हैं, तो वे उसे भीतर से परमात्मा के रूप में और बाहर से गुरु के रूप में भक्ति में प्रगति करने का उपदेश देते हैं” । (चैतन्य चरितामृत मध्य 22.47)

 

जब कृष्ण किसी भाग्यशाली जीव पर अपनी कृपा वृष्टि करते हैं, तो वे गुरु रूप में उसके समक्ष प्रकट होते हैं और उसे दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं। इसलिए गुरुदेव को कृष्ण-कृपा-श्री-मूर्ति कहा जाता है। गुरु ग्रहण करने का अर्थ श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करना है। गुरुदेव कृपा के मूर्तिमंत स्वरूप हैं। यदि किसी की गुरु से भेंट होती है, तो उसका भाग्योदय हो जाता है क्योंकि वह गुरु से भक्ति लता का बीज प्राप्त करता है। भौतिक सुख, मोक्ष, स्वर्ण, कामिनी, स्त्री, पूजा, यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सच्चा सौभाग्य नहीं है। मायाग्रस्त जीव इन्हीं वस्तुओं को प्राप्त करना अपना परम सौभाग्य मानता है, परंतु यह वास्तविक भाग्य नहीं है।

 

फिर यहाँ प्रश्न उठता है कि वास्तविक सौभाग्य आख़िर क्या है? वास्तविक सौभाग्य तो भक्ति लता का बीज प्राप्त करना है। भक्ति लता का बीज क्या है? शास्त्रीय अथवा अविचल श्रद्धा, अर्थात् साधु, शास्त्र, तथा गुरु के वचनों में अटूट विश्वास। दूसरे शब्दों में श्रद्धा का मूल बीज साधु-गुरु की कृपा ही है।

 

गुरु नित्य-सिद्ध भाव को अनावृत करते हैं

भक्ति-रसामृत-सिंधु (1.2.2) में वर्णन आता है, "नित्य-सिद्धस्य भावस्य प्राकट्यं हृदि साध्यता " सद्गुरु की कृपा से प्रेमा-भक्ति उत्पन्न होती है तथा उसमें वृद्धि होती है; उस अद्भुत कृपा के प्रभाव से श्रद्धा, रति, रुचि, प्रीति  नामक विभिन्न स्तर क्रमशः विकसित होते हैं। जीवेर स्वरूपे होय नित्य कृष्ण दास - जीव का वास्तविक स्वरूप कृष्ण का शाश्वत दास बनना है। वास्तव में, नित्य-सिद्ध भाव, प्रीति, प्रेम-भक्ति, जीव में विद्यमान तो है, परंतु वह आच्छादित है। तो फिर यह आवरण कैसे हटेगा और भक्ति कैसे प्रकट होगी?

 

जब आप श्रीगुरु की कृपा के पात्र बनेंगे, तो यह आवरण स्वतः हट जाएगा और भक्ति भी स्वतः आपके हृदय में प्रकट हो जाएगी। गुरुदेव ही जीव के हृदय में भक्ति को उज्ज्वलित करते हैं। अतः जो व्यक्तित्व ऐसा करने में सक्षम हैं, वही गुरु अथवा महाभागवत हैं। इस प्रकार गुरु की कृपा प्राप्त करने के उपरांत हमें भक्ति-लता का बीज प्राप्त होता है। अतएव गुरु हमें भौतिक बंधन से तथा हमारे समग्र कष्टों से मुक्त करने के उद्देश्य से इस धराधाम पर अवतरित हुए हैं। गुरु के दिव्य दर्शन करने पर हमारे हृदय में ऐसा ही भाव उदित होना चाहिए।

 

कृष्ण से तोमार, कृष्ण दिते पारो,

तोमार शकति आछे।

आमि त’ कांगाल, कृष्ण कृष्ण बलि’,

धाइ तव पाछे पाछे।।

(ओहे वैष्णव ठाकुर - श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)

"कृष्ण आपकी संपत्ति हैं चूँकि आपने उन्हें अपने हृदय में प्रेम रज्जु से बाँध लिया है। अतः केवल आप ही मुझे कृष्ण प्रदान करने में सक्षम हैं।"

 

हमें यह अटूट विश्वास होना चाहिए कि गुरु ही हमें कृष्ण-श्रद्धा, कृष्ण-रति, तथा कृष्ण-प्रेम प्रदान करेंगे। गुरु के दर्शन करने के उपरांत यह अविचल श्रद्धा हृदय में स्वतः जागृत होती है, भक्तिस्तु भगवद्भक्तसंगेन परिजायते [बृहन्-नारदीय पुराण 4.33]। गुरु की कृपा से भक्ति जाग्रत होती है। अन्यथा जो वस्तु पहले से ही विद्यमान नहीं है, वह पुनः प्रकट कैसे होगी? नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः, तत्त्वदर्शी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अस्तित्वहीन (भौतिक शरीर) का कोई स्थायित्व नहीं है, परंतु शाश्वत (आत्मा) में कोई परिवर्तन नहीं होता है [भगवद्गीता 2.16]। अतः यह भक्ति-धन जीव के हृदय में पहले से ही विद्यमान है, गुरुदेव केवल इसे पुनः प्रकाशित करते हैं। अतः गुरुदेव भौतिक धन में नहीं अपितु भक्ति-धन में समृद्ध हैं।

 

एक महान क्रांति

गुरु अवतरित हुए और उन्होंने अपने सुदुर्लभ दर्शन भी दिए, परंतु अगर तब भी हम उनका वास्तविक दर्शन नहीं कर सके, तो इससे महादुर्भाग्य और क्या हो सकता है? गुरु के दर्शन मात्र से जीव के हृदय में स्वतः ही समर्पण भाव उदित हो जाता है। गुरु से श्रवण करके, उनका संग करके, उनका स्पर्श पाकर और उनकी कथा सुनकर, एक नास्तिक व्यक्ति भी आस्तिक हो जाता है। उसके जीवन में एक महान क्रान्तिकारी परिवर्तन आता है और उसे एक नया जीवन प्राप्त होता है। उसके जीवन की दिशा पूर्णतया उलट हो जाती है – गुरु दर्शन से पूर्व वह भौतिक जगत की ओर उन्मुख था, परन्तु अब वह एकाग्रचित्त मन से कृष्ण की ओर उन्मुख हो जाता है।

 

श्रीगुरु का दर्शन जीवन में एक महान क्रांति लाता है। आप चाहे कुछ भी क्यों न हों – नास्तिक, वैज्ञानिक या दार्शनिक, किंतु यदि आपको सद्गुरु के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है, तो आपका जीवन पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाएगा। यही वास्तविक सौभाग्य है। भाग्यहीन जीव सद्गुरु के दर्शन से लाभान्वित नहीं हो सकते। इसलिए शास्त्र उल्लेख करते हैं: ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव, गुरुकृष्ण-प्रसादे पाय भक्तिलता - बीज  [चैतन्य चरितामृत मध्य 19.151]।

 

गुरुदेव की अहैतुकी कृपा की प्रथम वृष्टि

गुरुदेव अपने श्रीमुख से कृष्ण-कथा कहते हैं, अतः सर्वप्रथम आपको अपने कर्णों के माध्यम से गुरु के दर्शन करने चाहिए, न कि नेत्रों से। गुरुदेव आपके कर्णों के द्वार से श्रीकृष्ण को आपके हृदय में प्रवेश करवाते हैं। तदुपरांत कृष्ण का अलौकिक स्वरूप आपके हृदय में प्रकट होता है। परन्तु इससे पूर्व आपको सर्वप्रथम पवित्र नाम का ध्यानपूर्वक श्रवण करना होगा -

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

इस महामंत्र का आपके हृदय में प्रविष्ट करवाना ही श्रीगुरुदेव की अहैतुकी कृपा की प्रथम वर्षा है। शब्द-ब्रह्म, महामंत्र के रूप में अवतरित होता है और हमें हमारे मनोधर्म अथवा मानसिक अवधारणाओं से मुक्त करता है। इसका परिणाम तत्क्षण प्राप्त होता है।

 

ऐसे अनेकों गुरु मिल जायेंगे जो मंत्र-व्यवसायी हैं और मंत्र देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, "मुझे सौ डॉलर दो और मैं तुम्हें अभी कृष्ण दूँगा।” परन्तु, उनके द्वारा प्रदत्त मंत्र वास्तविक मंत्र नहीं है, केवल वर्णमाला के अक्षर हैं। व्यवसायी गुरुओं को केवल अपने प्रणाम और प्रणामी से प्रयोजन होता है। अतः आपको यह भलीभाँति समझना चाहिए कि वे कृष्ण देने में पूर्णतया असमर्थ हैं।

 

श्रील प्रभुपाद कृष्ण-दाता गुरु हैं

श्रील प्रभुपाद केवल मंत्र-दाता नहीं अपितु कृष्ण-दाता गुरु हैं – अर्थात् वे आपको कृष्ण देने हेतु इस भूलोक पर अवतीर्ण हुए थे। साथ ही वे आश्रय-दाता गुरु हैं अर्थात् वे समग्र विश्व को आश्रय प्रदान करने के लिए अवतरित हुए थे। उन्होंने हमें भक्तिमार्ग पर चलना सिखाया और वैकुण्ठ गामी इस मार्ग पर चलने के लिए अनेक सुन्दर व्यवस्थाएँ की। जिस प्रकार प्राथमिक स्कूल का शिक्षक एक बच्चे का हाथ पकड़कर उसे क-ख-ग लिखना सिखाता है, उसी तरह श्रील प्रभुपाद ने हमारा हाथ पकड़कर, हमें आध्यात्मिक जीवन का क-ख-ग सिखाया जो अन्य गुरु कभी नहीं सिखा सकते क्योंकि वे स्वयं इससे अपरिचित हैं।

 

अन्य गुरु केवल प्रणाम और प्रणामी में रुचि रखते हैं। इसलिए वे भक्तिमार्ग पर चलने और अन्यों का मार्गदर्शन करने की क्षमता से विहीन हैं। वस्तुतः वे स्वयं भगवद्धाम जाने योग्य नहीं हैं। वहीं श्रील प्रभुपाद ने श्रवणं, कीर्तनम, अर्चनं, और वन्दनं इत्यादि भक्ति वर्धक अत्यंत सुन्दर व्यवस्थाएँ की हैं जिसके द्वारा एक सामान्य व्यक्ति भी श्रीकृष्ण के प्रति अपनी विशुद्ध चेतना को जागृत कर सकता है। यही श्रील प्रभुपाद की यह अद्भुत अवदान एवं अहैतुकी कृपा है।

 

श्रील प्रभुपाद ने अनेकों व्यवस्थाएँ की

श्रील प्रभुपाद ने केवल मंत्र प्रदान करके अपने शिष्यों को वापस घर नहीं भेज दिया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व में सैकड़ों इस्कॉन मंदिरों और केंद्रों का निर्माण किया और साथ ही भक्तों के निवास तथा प्रसाद हेतु मंदिरों में सुन्दर व्यवस्थाएँ भी की। जो संन्यासी अथवा ब्रह्मचारी हैं, वे सदैव मंदिर में निवास करेंगे और सदा हरि-भजन में संलग्न रहेंगे। गृहस्थ-शिष्य भी समय-समय पर इस्कॉन मंदिर आकर साधु-वैष्णवों का संग करेंगे और उनसे हरि-कथा का श्रवण करेंगे।

 

इसके अतिरितक श्रील प्रभुपाद ने अनेकों उत्सवों की भी व्यवस्था की। प्रत्येक पखवाड़े में रविवार के दिन रविवारीय उत्सव होता है। इस्कॉन मंदिरों में वर्ष पर्यन्त उत्सव होते रहते हैं। गृहस्थों को कम से कम उत्सवों में तो अवश्य ही उत्साहपूर्वक भाग लेना चाहिए, विग्रह के दर्शन करने चाहिए, कृष्ण-कथा श्रवण करनी चाहिए और स्वादिष्ट कृष्ण-प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार क्रमशः आपका गुरु से सम्बन्ध स्थापित होगा और आप गुरु-संसार के एक सक्रिय सदस्य बन जायेंगे।

 

गुरु-संसार का अर्थ है कृष्ण-संसार, आध्यात्मिक जगत। वहाँ अनेक बृहद उत्सव, कीर्तन, आरती, अर्चना, इत्यादि नियमित रूप से अहर्निश चलते रहते हैं। कृपया उन सभी सेवाओं में भाग लीजिए। आपको अतिशय आनंद की अनुभूति होगी। सुंदर श्री-विग्रहों के दर्शन कीजिये, विग्रह के समक्ष कीर्तन तथा नृत्य कीजिए, कृष्ण-कथा का ध्यानपूर्वक श्रवण कीजिए और अमृतमय कृष्ण-प्रसाद का रसास्वादन कीजिए। तत्पश्चात आपका जीवन सफल हो जाएगा और आप सभी कष्टों से सदा के लिए मुक्त हो जाएँगे।

 

एकमात्र भिक्षा

श्रील प्रभुपाद संसार के प्रत्येक कोने में प्रचारकों को भेजते थे। कस्बों, गाँवों और घरों में वे लोगों के मध्य जाकर प्रचार करते हैं, "हमारे इस्कॉन मंदिर आइए। यहाँ रहिए, प्रसाद लीजिए, हरि-कीर्तन कीजिए - राधा कृष्ण बोलो, संगे चलो ऐ-मात्रा भीक्षा चाई  [गीतावली]। मैं एकमात्र यही भिक्षा माँग रहा हूँ, "राधा-कृष्ण बोलो और मेरे साथ चलो! मेरे साथ चलो! मेरे साथ चलो!"

 

गृहस्थ भक्त दिन-रात राधा-कृष्ण की सेवा नहीं कर सकते। परन्तु जब भी आपको अवसर मिले, मंदिर आइए, हरे कृष्ण का कीर्तन कीजिए, नृत्य कीजिए और कृष्ण-प्रसाद ग्रहण कीजिये। प्रभुपाद ने ये सभी व्यवस्थाएँ हमारे उद्धार हेतु की हैं। अतः श्रील प्रभुपाद केवल मंत्र-दाता गुरु ही नहीं अपितु आश्रय-दाता गुरु हैं। वे कृष्ण प्रदाता गुरु भी हैं और अपने समस्त शिष्यों का पूर्ण दायित्व लेते हैं।

 

कृष्ण-संसार में प्रवेश 

आपको देवताओं, मनुष्यों, माता-पिता, मानव–समाज के कई ऋण चुकाने हैं। आप इस ऋण को कैसे चुकाएंगे? आप ऋण मुक्त नहीं हो सकते हैं। किंतु आप गुरु संसार में आ सकते हैं और गुरु-संसार से कृष्ण-संसार में प्रवेश पा सकते हैं। यहाँ शुद्ध भक्ति विकसित करने के लिए अनेक सुन्दर व्यवस्थाएँ हैं, और भक्ति करके आप अपने ऋणों और दायित्वों से निश्चित रूप से मुक्त हो जाएंगे।

 

श्रील प्रभुपाद अत्यंत दयालु हैं। उन्होंने कभी भी गृहस्थों को हतोत्साहित नहीं किया। आप एक गृहस्थ हैं, अपने माया-संसार को एक तरफ रख दें। धीरे-धीरे गुरु-संसार में प्रवेश कीजिए। थोड़ा विलम्ब हो सकता है; फिर भी गुरु आपको नहीं छोड़ेंगे। वे आपकी शिखा पकड़कर आपको खींच लेंगे। यही सब प्रभुपाद की कृपा है। सोचिए, वे कितने दयालु हैं! श्री श्रीमद ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी महाराज एक महाभागवत, भगवतोत्तम हैं।

 

उन्होंने मार्ग प्रशस्त किया

श्रील प्रभुपाद ने अनेक उत्सवों का आयोजन किया, अनेक पुस्तकें, पत्रिकाएँ छापीं, सुंदर मंदिरों का निर्माण किया, नवद्वीप धाम-परिक्रमा और वृंदावन-धाम-परिक्रमा इत्यादि की व्यवस्था की। उन्होंने इस जगत के प्रत्येक कोने में, हर शहर और गाँव में प्रचारक भेजे, और कृष्ण भावना के विज्ञान का प्रचार–प्रसार करने की व्यवस्था की। उन्होंने पापी-तापी, अधम, श्रेष्ठ सभी के लिए कृष्ण भावना का द्वार खोला। यह उनकी अहैतुकी, अतुलनीय और असाधारण कृपा है

 

समस्त जीवों पर अपनी कृपा वृष्टि करना

आज उनके अविर्भाव दिवस पर यदि हम उनकी कृपा प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं, उनके दर्शन करते हैं, उनकी अमृत मय कथा सुनते हैं तो यह हमारे लिए अत्यंत मंगलमय होगा। हमारा जीवन सफल होगा और हम भौतिक बंधन से मुक्त हो जाएंगे। यही वास्तविक सौभाग्य है।

 

श्रील प्रभुपाद ने सभी जीवों पर अपनी कृपा वृष्टि की; अति भौतिकवादी व्यक्तियों पर, धनी व्यक्तियों पर और उन सभी पर भी जो चार नियमों का पालन नहीं कर सकते, जो बीड़ी–सिगरेट का सेवन करते हैं और मांस-मछली और शराब इत्यादि का सेवन करना नहीं छोड़ सकते। वे उन सभी से कहते थे, "कि यदि आपके पास धन है तो उस धन में से कुछ भाग इस्कॉन मंदिर में दान करें,  हम उस धन का उपयोग श्री कृष्ण की सेवा में करेंगे।" जिसके द्वारा उन सभी को उन्होंने इस्कॉन मंदिर की लाइफ मेंबरशिप (आजीवन सदस्यता) प्राप्त करने और भगवान की सेवा में जुड़ने का सुअवसर प्रदान किया। इस प्रकार लोगों को सुकृतियां प्राप्त होंगी और इसी जीवन में या अगले जीवन में वे निश्चित रूप से भक्त बनेंगे। अपनी  क्षमता के अनुसार आप इस मिशन को अवश्य स्वीकार करें। जितना अधिक आप समर्पित होंगे, आपको उतना ही अधिक लाभ प्राप्त होगा।

 

अतः आज श्रील प्रभुपाद जी के पवित्र आविर्भाव दिवस पर, मैं प्रार्थना करता हूँ, कि "श्रील प्रभुपाद हम सभी पर अपनी कृपा बरसाएँ।

 

श्रील प्रभुपाद जी महाराज की जय!

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