मै शिष्य हूँ या गुरु ?
प्रिय पाठकों,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा से हम अपने शुद्धिकरण हेतु विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। भक्ति पथ पर हम किसी भी परिस्थिति में श्रवण-कीर्तन का त्याग नहीं कर सकते क्योंकि यही हमारा जीवन है। इस लेख में हम अपने दैनिक आध्यात्मिक जीवन संबंधी विषयों पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे। हम अपने आध्यात्मिक जीवन में प्रतिदिन अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हैं। यद्यपि हम बहुत कुछ जानते हैं, लेकिन व्यवहार में हम किसी भी चुनौती का सामना या समाधान करने में असमर्थ रहते हैं। कई चुनौतियों को व्यक्त करना भी कठिन होता है। अब हम उस गंभीर समस्या पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हर कोई इस समस्या से जूझ रहा है, अपितु यह मेरे स्वयं के शुद्धिकरण एवं सुधार के लिए है।
भक्तों का संग एवं शास्त्रों का अध्ययन करने के उपरांत हम आध्यात्मिक गुरु को स्वीकार करने का निर्णय लेते हैं, किंतु उन्हें स्वीकार करने से पहले, हम उनसे श्रवण करते हैं। अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए, वरिष्ठ वैष्णवों से सलाह-परामर्श करके तथा विभिन्न प्रकार से उनको परखने के उपरांत, हम उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार करने का निर्णय लेते हैं। प्रारंभिक अवस्था में हमें उनसे कोई समस्या नहीं होती और हम पूरे उत्साह के साथ सेवा तथा अपने अन्य आध्यात्मिक कार्य संपादित करते हैं। किंतु जैसे ही हम आध्यात्मिक कार्यकलापों में थोड़े अनुभवी हो जाते हैं, वैसे ही हमें विभिन्न भक्तों एवं सामान्य जनों से प्रतिष्ठा एवं धन प्राप्त होने लगता है। केवल इतना ही नहीं, लोग हमारे पास अपनी समस्याओं के लिए परामर्श माँगने भी आने लगते हैं और हम उन्हें वह सुझाव देते हैं, जो हमने साधु-गुरु से श्रवण किया है अथवा उनसे सीखा है। फलस्वरूप जब यह लोग हमारे परामर्श का पालन कर समस्या का समाधान करने में सफल हो जाते हैं, तो उनके हृदय में हमारे प्रति श्रद्धा विकसित होती है। तदुपरांत वह समान्यत: हमारे साथ गुरु की तरह व्यवहार करने लगते हैं। यद्यपि हमने गुरुदेव की कृपा से यह योग्यता प्राप्त की है, परन्तु हम न तो गुरुदेव के प्रति कृतज्ञ रहते हैं और न ही हृदय में गुरुदेव के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हैं। परिणामस्वरूप, हम दिन-प्रतिदिन इस मिथ्या सम्मान को स्वीकार करने लगते हैं, जो हमारे हृदय को दूषित करता जाता है और हम इस बात को पूरी तरह से भूल जाते हैं कि वास्तव में हम शिष्य बनने के भी योग्य नहीं हैं। जितने अधिक भक्त हमारा अनुसरण करते हैं, उतना अधिक हम उनके भावुक व्यवहार (एक शिष्य के समान व्यवहार) से दूषित होते जाते हैं। इस अवस्था के कारण, भक्ति-मार्ग में हमारी स्थिति असुरक्षित हो जाती है। इस अवस्था में हमारे हृदय में स्थित मिथ्या अहंकार हमारी आध्यात्मिक चेतना को ढक लेता है और इसका लक्षण यह है कि हम इस तथ्य से विस्मृत हो जाते हैं कि हम एक बद्धात्मा हैं। साथ ही हमारा पागल मन हमें यह सोचने के लिए बारंबार प्रेरित कर रहा होता है कि "मैं एक शुद्ध वैष्णव हूँ"। अतएव इस स्थिति में हम नरक के लिए अपना रास्ता स्वयं तैयार कर रहे होते हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने भजन में इसी बात का उल्लेख करते हैं:
आमि त’ वैष्णव’, ए बुद्धि हइले,
अमानि ना ह’ब आमि
प्रतिष्ठाशा आसि’, हृदय दूषिबे,
हइब निरयगामि
यदि मेरी ऐसी बुद्धि हो जाएगी कि “मैं वैष्णव हूँ”, तो मैं कदापि अमानि नहीं रह पाऊँगा तथा दूसरों से प्रतिष्ठा प्राप्त करने की आशा से मेरा हृदय दूषित हो जाएगा, जिसके फलस्वरूप मैं नरकगामी हो जाऊँगा।
ऐसी स्थिति में हम साधु-गुरु को सम्मान नहीं दे सकेंगे। कितनी पतित अवस्था है ये! यहाँ तक कि हम श्रीगुरु के प्रति अपनी स्वाभाविक अनुरक्ति भी खो बैठेंगे तथा भयानक आध्यात्मिक रोगों से ग्रस्त हो जाएँगे। अब हम इन जीर्ण रोगों के विषय में चर्चा करेंगे:
१. हम अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेशों का पालन, उनकी प्रसन्नता या उनकी कृपा प्राप्त करने अथवा अपने शोधन हेतु नहीं करते, अपितु हमारा मनोभाव बिल्कुल इसके विपरीत रहता है। हमारी भावना सदैव यही रहती है कि “मैं अपने आध्यात्मिक गुरु की आज्ञा का यथारूप पालन कर रहा हूँ, अत: मैं अब सभी प्रकार से परिपूर्ण हो गया हूँ”। किंतु महान होने के इस मनोभाव के साथ कोई भी गुरु एवं गौरांग की सेवा नहीं कर सकता। सेवा का अर्थ है विनम्र स्वभाव। यदि हम विनम्र स्वभाव विकसित करने में असमर्थ रहते हैं तो हमारी सेवाएँ, गुरु आज्ञा का पालन करना एवं अन्य सभी आध्यात्मिक प्रक्रियाएँ हमें शुष्क प्रतीत होती हैं। गुरु के शब्दों का अनुसरण करना विनम्रता का प्रतीक है। भौतिक पथ पर, निर्देशों का पालन विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है, जैसे कि दंभ के साथ, प्रतिस्पर्धा के साथ, ईर्ष्या के साथ और अन्य तरीकों से। किंतु आध्यात्मिक पथ पर हमें सर्वप्रथम विनम्र बनना होगा, तभी हम गुरु, साधु एवं शास्त्रों का पालन एवं अनुसरण कर सकेंगे। इसके बिना हम अपने आध्यात्मिक जीवन में सदैव समस्याओं का सामना करते रहेंगे। श्रील प्रभुपाद श्रीमद्-भागवतम ७.९.८ के अपने तात्पर्य में वर्णन करते हैं कि "विनीत हुए बिना आध्यात्मिक जीवन में प्रगति कर पाना अत्यंत कठिन है"।
२. हम गुरुदेव की पूजा इसलिए कर रहे हैं ताकि हमें दूसरों से पूजा व सम्मान मिल सके अर्थात् सभी लोग हमें गुरुदेव का प्रिय सेवक समझकर हमारा सम्मान करें। यद्यपि बाह्य रूप से हम सेवा करने में पूर्णतया दक्ष हैं किंतु हमारा आंतरिक भाव बिल्कुल विपरीत है। दूसरे शब्दों में, कार्यकलाप आध्यात्मिक हैं परंतु भावना भौतिक। गुरु एवं कृष्ण हमारे भाव को ग्रहण करते हैं, न कि बाह्य कार्यकलापों को।
३. गुरुदेव की आज्ञा को केवल शिष्टाचारवश स्वीकार करना – "हम प्रमुख शिष्य हैं और श्रीगुरु के समक्ष हमारी प्रशंसा हुई है। यद्यपि वास्तव में हमारे गुरु में अनेक दोष हैं, फिर भी हम उनके दोषों के विषय में कैसे ही कुछ कह सकते हैं, क्योंकि यदि हम कुछ कहेंगे तो सभी भक्त हमारा परिहास करेंगे"। इस मनोदशा में हम गुरुदेव की पूजा कर रहे होते हैं, परंतु हमारे हृदय में उनके प्रति कोई प्रेम व स्नेह नहीं रहता।
४. एक शिष्य के रूप में हमारा कर्तव्य है कि हम अपने आध्यात्मिक गुरु को उचित सम्मान दें, परंतु हमारा मन हमेशा यही चाहता है कि गुरुदेव मेरी प्रशंसा करें, मुझे अपने प्रिय शिष्य के रूप में प्रदर्शित करें और यदि ऐसा संभव नहीं हो पाता, तो हम कुछ ऐसी व्यवस्था करते हैं जिससे कि हम गुरुदेव के नाम पर स्वयं का प्रचार कर सकें। हम इतनी पतित अवस्था में हैं कि सेवक भगवान, गुरुदेव को सम्मान देने के बजाय, हम उनसे सम्मान की आशा रखते हैं। यह कपट का विस्तृत रूप तथा श्री गुरु के चरणकमलों में एक अक्षम्य अपराध है।
५. इस अवस्था में साधु-गुरु के साथ हमारा व्यवहार पाखण्ड पर आधारित रहता है। बाह्य रूप से श्री गुरु के समक्ष हम उनकी ‘जी हुजूरी’ करते हैं, अर्थात् गुरुदेव जो भी कहते हैं, हम उस सब में हाँ-हाँ करते रहते हैं। लेकिन अंदर से हम कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं होते। यद्यपि हम गुरुदेव की कुछ आज्ञाओं का पालन करते हैं, किंतु वह भी सेवा भाव व उनकी प्रसन्नता हेतु नहीं, बल्कि विद्रोह भावना के साथ होता है।
६. उस अवस्था में हम अपनी भावनाओं अथवा मनोभाव को दूसरों के समक्ष व्यक्त नहीं कर सकते। इसीलिए हम एक और कपटी व्यक्ति को ढूँढते हैं ताकि हम उसके साथ साधु-गुरु की परियोजनाओं में त्रुटियों की चर्चा कर सकें।
७. यदि हमें ऐसा व्यक्ति नहीं मिलता तो हम यह आँकने लगते हैं कि कौन निश्छल है? अर्थात् कौनसा भक्त अंधे की भाँति हमारा अनुसरण करता है। प्रतिदिन विभिन्न आध्यात्मिक समस्याओं पर चर्चा करके हम उसे प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। जब वह खुद को दुर्बल व असहाय समझने लगता है और सहायता के लिए हम पर निर्भर हो जाता है, तब हम साधु-गुरु के प्रति उसके विश्वास को पूरी तरह से नष्ट कर देते हैं।
८. आजकल हम आध्यात्मिक वातावरण में नहीं बल्कि धोखेबाज एवं संदिग्ध व्यक्तियों से घिरे हुए हैं। हमें स्मरण रहना चाहिए कि इन दोनों श्रेणियों के व्यक्ति आध्यात्मिक पथ के अनुयायी नहीं हैं। वे हमारे आध्यात्मिक जीवन को नष्ट करने के लिए केवल कुछ समय के लिए हमसे जुड़ते हैं, लेकिन हम मूर्खतापूर्वक सोचने लगते हैं कि वे हमारे अनुयायी हैं।
९. उस अवस्था में हमारा मन साधु-गुरु की किसी भी बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा मन किसी से कुछ भी सुनना नहीं चाहता बल्कि वह हमेशा दूसरों को उपदेश देने के लिए ही तत्पर रहता है। मिथ्या अहंकार के कारण हमारा मन, ग्रहण करने की शक्ति खो देता है, इसलिए हम जोड़-घटाव के आदी हो जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि जब साधु-गुरु हमें कोई निर्देश देते हैं, तो यह भूल कर कि भक्ति योग का प्रमुख सूत्र आदेशों को 'यथारूप' पालन करना है, हम उसमें कुछ जोड़ते अथवा घटाते हैं।
१०. उस स्थिति में हम गुरु और कृष्ण के आनंद के विषय में नहीं सोचते। बाह्य रूप से सेवा चलती है, श्रवण-कीर्तन होता है, परंतु हमारा पूरा ध्यान इस बात पर रहता है कि कैसे महान बना जाए अथवा कैसे साधु-गुरु की सत्ता को हथियाया जाए।
११. जब दूसरे लोग हमें हमारे ज्ञान के लिए सराहते हैं तो हमारे अंदर यह लालसा प्रकट होती है कि कैसे अधिक से अधिक शास्त्रों का अध्ययन किया जाए तथा लोगों के समक्ष नवीन कहानियों एवं दर्शन को प्रस्तुत किया जाए। हम गुरु एवं गौरांग की सेवा तथा सुख पर बल नहीं देते अपितु नई-नई जानकारियाँ प्रस्तुत करके निश्चित ही गर्वित होते हैं। कभी-कभी हम परंपरा की शिक्षाओं को स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं होते। यद्यपि हम सार्वजनिक रूप से साधु-गुरु के नाम को और उनके प्रति अपने समर्पण को प्रस्तुत कर रहे होते हैं, परंतु आंतरिक रुप से मिथ्या अहंकार ने हमारी चेतना को ढका होता है इसलिए उनके प्रति हमारी तथाकथित भक्ति का कोई मूल्य नहीं रहता, क्योंकि साधु-गुरु हमारी आंतरिक भावनाओं को जानते हैं।
१२. ऐसी मनोदशा में गुरु-गौरंग के प्रति हमारी निर्भरता शून्य हो जाती है। हमें लगने लगता है कि हम स्वयं की आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों मार्गों में सहायता कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भूल जाते हैं कि गुरु एवं गौरांग ही हमारे वास्तविक रक्षक एवं पालक हैं। इसके ठीक विपरीत, हम कृत्रिम रूप से अपनी और दूसरों की सुरक्षा करने हेतु सदैव तैयार रहते हैं।
१३. हम कितनी भी उन्नत अवस्था में क्यों न हों, परंतु आध्यात्मिक जीवन में हर पग पर हमें श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा, स्नेह एवं सुरक्षा की आवश्यकता होती है। किंतु ऐसी अवस्था में हम इस बिंदु पर इतना ज़ोर नहीं देते। मन हमें इस प्रकार से धोखा देता है कि हम इस विषय पर सोच भी नहीं पाते।
१४. हम अपने जीवन में जो भी उपलब्धियाँ प्राप्त करते हैं, वह एकमात्र श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा से ही प्राप्त होती हैं। परन्तु उस अवस्था में इस अकाट्य सत्य की अनुभूति करने की भी कोई गुंजाइश नहीं रहती। सोचने की बात तो दूर, हमारा मन तो साधु-गुरु से निर्देश प्राप्त करने के उपरांत भी इसे मानने को तैयार नहीं होता।
१५. श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, भक्त की इस स्थिति को अपने शरणागति के भजन में इस प्रकार व्यक्त करते हैं :
गर्हित आचारे, रहिलाम
मो ना करिनु साधु-संग
लय साधु-वेश आने उपदेशी
ए बोड़ो मायार रंग
“घृणित कार्यों में लीन रहते हुए मैंने कभी साधुओं का संग नहीं किया। अब मैं साधु का वेश धारण करके, दूसरो को निर्देश देने की भूमिका निभाता हूँ। यह माया का कितना बड़ा मज़ाक है।”
माया हमें अनेक परिस्थितियों में धकेल रही है। किंतु हास्यस्पद तो यह है कि माया हमें इस प्रकार से ठगना चाहती है कि हमें इस बात का आभास भी न हो कि उसने हमें ठग लिया है। यदि हमारे हृदय में गुरु-गौरांग के प्रति स्वभाविक स्नेह, भक्ति एवं सरल भाव नहीं है तो इसका अर्थ है कि हम माया द्वारा छले जा रहे हैं। माया के प्रबंध से हम गुरु-गौरांग के प्रति प्रेमपूर्ण भाव के अतिरिक्त सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। वह इतनी सहजता से हमें सरल बनने नहीं देगी। माया का सबसे बड़ा वरदान यह है कि वह हर क्षण हमारे मन को प्रभावित करती है तथा चौबीसों घंटे यह अनुभव करवाती है कि हम सबसे महान हैं और हमारे जैसा कोई नहीं। परंतु साधु-गुरु की कृपा इसके ठीक विपरीत है। वह कृपा हमें चौबीसों घंटे यह अनुभव करवाती है कि "मुझ जैसा पतित और कोई नहीं है। मुझे अहैतुकी कृपा चाहिए।" इस अवस्था में हम सदैव अपनी पतित अवस्था को देखते हुए हृदय के भीतर क्रंदन करते रहते हैं।
गुरु-कृष्ण की अहैतुकी कृपा के बिना, यदि हम मिथ्या अभिमान से प्रभावित हो रहे हैं, तो हम एक अत्यंत मूल्यवान गुण – ‘प्रार्थना भाव’ को खो देंगे। यदि हमारे हृदय में वास्तविक प्रार्थना का भाव उत्पन्न नहीं होगा, तो गुरु एवं गौरांग के साथ हमारा संबंध स्थापित होना कैसे संभव हो पाएगा?
इसीलिए श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘शरणागति’ के एक भजन में लिखते हैं:
तोमार किंकर, आपने जानिब,
‘गुरु’ अभिमान त्यजि’
तोमार उच्छिष्ट, पद-जल-रेणु,
सदा निष्कपटे भजि॥
“आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिए कि मैं आध्यात्मिक गुरु होने के मिथ्या अभिमान का परित्याग कर अपने को आपका दास मान सकूँ, तथा आपके उच्छिष्ट एवं चरणामृत को निष्कपट रूप से ग्रहण कर पाऊँ।”
निजे श्रेष्ठ जानि’, उच्छिष्टादि दाने,
ह’बे अभिमान भार
तार्इ शिष्य तव, थाकिय सर्वदा,
ना लइब पुजा का’र॥
“अपने को श्रेष्ठ (गुरु) मान कर अपना उच्छिष्ट दूसरों को प्रदान करने पर अहंकार से बोझिल होने के कारण मेरा सर्वनाश हो जाएगा। अतः आप ऐसी कृपा कीजिए कि मैं सदैव आपका शिष्य हो कर रहूँ तथा किसी से भी पूजा-प्रतिष्ठा ग्रहण न करूँ।”
अतः संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि जब तक हम एक सद्-शिष्य की मनोवृत्ति विकसित नहीं कर लेते, तब तक भक्ति के क्षेत्र में हमारी स्थिति कदापि सुरक्षित नहीं है। कृत्रिम रूप से गुरु भाव धारण करना केवल पाखण्ड ही नहीं, अपितु निश्चित तौर पर यह श्री श्री गुरु एवं गौरांग के चरणकमलों में एक गंभीर अपराध भी है।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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