महत कृपा
प्रिय पाठकगण,
श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की महती कृपा से, हम पूर्ववर्ती आचार्यों के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए एक अत्यंत गुरुत्वपूर्ण विषय पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे, जो वस्तुतः हमारे जीवन के परम लक्ष्य पर आधारित है।
कृष्ण-भक्ति के सम्पर्क में आने का सौभाग्य हमें केवल और केवल भक्तों की कृपा द्वारा प्राप्त होता है। श्रीगुरु एवं वैष्णवों की कृपा से ही हम आध्यात्मिक जीवन में जीवंत रहते हैं और इसी कारण से भक्ति-विधि में हमारे समस्त प्रयास भी शुद्ध-भक्त की कृपा प्राप्त करने पर ही केंद्रित रहते हैं। उनकी कृपा के बिना भौतिक संसार के विषाक्त चक्र से मुक्त हो पाना असम्भव है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अपने वैष्णव भजन में इस सिद्धांत की पुष्टि करते हैं: मायारे करिया जय छाड़ाना न जाय, साधु कृपा विना आर नाहिक उपाय – साधु-कृपा के अतिरिक्त महामाया के दुर्लंघ्य पाश से छूटने का कोई अन्य उपाय नहीं है। श्रीमन् महाप्रभु ने भी श्रील सनातन गोस्वामी को यही उपदेश दिया है, "शुद्ध-भक्त की कृपा बिना किसी को भक्ति-पद प्राप्त नहीं हो सकता। कृष्ण-भक्ति की बात जाने दें, मनुष्य भवबन्धन तक से नहीं छूट सकता"। [श्रीचैतन्य चरितामृत, मध्य लीला २२.५१] इस श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद हमें अतीव महत्त्वपूर्ण उपदेश देते हैं, "व्यक्ति की भौतिक स्थिति चाहे जो भी हो, उसे भक्त महात्मा के चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए और उन्हें समस्त मानव समाज का सर्वश्रेष्ठ शुभचिन्तक मानना चाहिए। हमें ऐसे महात्मा की शरण में जाना चाहिए और उनकी अहैतुकी कृपा की याचना करनी चाहिए"। केवल शुद्ध-भक्त की अहैतुकी कृपा से ही भक्ति-पद को प्राप्त किया जा सकता है, इसका कोई अन्य उपाय नहीं है। अतः हमारा यह जानना अति अनिवार्य है कि हम किस प्रकार महत कृपा अर्थात् एक शुद्ध-भक्त की कृपा से लाभांवित हो सकते हैं।
१. मनुष्य अपने जीवन-काल में पितृ-भक्ति, मातृ-भक्ति, देशभक्ति, यहाँ तक कि किसी देवी-देवता के प्रति भक्ति भी सहजता से प्राप्त कर लेता है, किन्तु श्रीकृष्ण के प्रति विशुद्ध एवं निष्काम भक्ति केवल महत कृपा द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। यदि कोई शुद्ध-भक्त के चरणों में आश्रित हुए बिना भक्तिमय गतिविधियों में संलग्न होता है, तो उसका वह तथाकथित साधन कृष्ण-भक्ति के विकास हेतु सहायक नहीं होगा, बल्कि मात्र एक प्रवञ्चना होगी।
२. शुद्ध-भक्त के द्वार पर सभी जीव भिक्षुक हैं। इस संदर्भ में एक नीतिकार ने उद्घोषित किया था, "संभवत: एक अधम व्यक्ति आपको बहुत कुछ देने में समर्थ हो सकता है लेकिन उसके समक्ष हाथ फैलाने से श्रेयस्कर है कि आप शुद्ध-भक्त से भिक्षा माँगें, भले ही वे देने में संकोच क्यों न करें"। उस अधम बद्धात्मा से भिक्षा प्राप्त करने में आपका क्या लाभ है? अतएव हमारी एकमात्र आस यह होनी चाहिए कि हम शुद्ध वैष्णव के द्वार पर एक वास्तविक भिक्षुक बनें। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपनी वैष्णव-गीतिका में स्पष्ट लिखते हैं: करुणा ना हइले, काँदिया काँदिया, प्राण ना राखिबो आर, "साधु-कृपा ही मेरे जीवन का एकमात्र सार है। यदि वे मुझे अपनी कृपा प्रदान नहीं करेंगे, तो मेरे इस जीवन का कोई मूल्य नहीं, यह व्यर्थ है! ऐसे में मेरा प्राण त्यागना ही बेहतर है"।
३. यदि हम शुद्ध-भक्त के द्वार पर एक वास्तविक भिक्षुक बनते हैं तो हमारे जीवन के समस्त क्लेश विदूरित हो जाऍंगे, न कोई झगड़ा होगा और न ही कोई वाद-विवाद। दूसरे शब्दों में हमारे जीवन में कलि के प्रवेश करने की कोई संभावना नहीं रहेगी। वस्तुतः कलि इतना बलवान है कि वह धर्म, व्रत, तपस्या और दान में भी विद्यमान रहता है। केवल इतना ही नहीं, वह भक्तिमय गतिविधियों में भी इर्ष्या और कलह के रूप में अपना प्रादुर्भाव सुनिश्चित कर देता है। अतः कई लोगों के मन में ये संशय उत्पन्न होता है, "यदि शुद्ध-भक्त उपस्थित हैं, तो इतने विवाद क्यों हैं? लोगों की ईर्ष्यात्मक मानसिकता का क्या कारण है?" इस प्रश्न का उत्तर यही है कि हम शुद्ध-भक्त से कृपा-भिक्षा नहीं माँग रहे हैं। हम गुरु-कृपा की अभिलाषा केवल इसलिए रखते हैं ताकि हम उनके जैसा बन सकें। दूसरे शब्दों में, हम स्वयं गुरु पद पर आसीन होना चाहते हैं। यही हमारी सभी समस्याओं का जड़ है। श्रीगुरु हमारे एकमात्र रक्षक और पालक हैं, उनकी अहैतुकी दया से ही हम उनके समस्त उपकरणों का उपभोग करते आए हैं, परन्तु फिर भी हमारे हृदय में उनके प्रति तनिक भी कृतज्ञता उत्पन्न नहीं हुई है। हमारे गुरुदेव (श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज) कहा करते थे, "साधु के पास कृपा एवं वञ्चना दोनों उपलब्ध हैं"। हम वञ्चना प्राप्त करते हैं क्योंकि हम स्वयं वञ्चक यानी धूर्त हैं। इसी कारणवश भक्त समुदाय में ईर्ष्या और कलह व्याप्त हो गया है।
४. वस्तुतः हम स्वयं ही उस दयनीय भिक्षुक की स्थिति में नहीं रहना चाहते जिसमें हमें कृपा-भिक्षा प्राप्त हो सके। हम विभिन्न बिन्दुओं पर विचार करते हैं और साधु को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से परखते हैं। यही हमारे भक्ति जीवन का महत्तम अवरोध है। यह ध्यान देने योग्य है कि मार्ग पर पड़ा एक भिक्षुक किस प्रकार अपनी भिक्षा-यात्रा पर जाने से पूर्व केवल भगवान पर निर्भर रहता है। वह नहीं जानता कि उसे कितनी धनराशि प्राप्त होगी, या फिर कौन दरिद्र है और कौन धनी। वह सरल हृदय से केवल श्रीकृष्ण पर निर्भर रहता है और कृष्ण उसके दैनिक भरण-पोषण की व्यवस्था कर देते हैं। उस भिक्षुक की एक ही योग्यता है कि वह भिक्षा माँगना जानता है, यह उसका पारंपरिक कार्य रहा है। ठीक ऐसे ही हमें भी एक भिक्षुक का भाव अंतर्निहित करना होगा। किन्तु कभी-कभी मार्ग के भिक्षुक दंभ प्रदर्शित करते हैं और अपनी प्राप्त भिक्षा से संतुष्ट नहीं होते। हमें ऐसा स्वभाव कदापि अन्तर्ग्रहण नहीं करना चाहिए। हमें प्रतिक्षण आशावान रहना चाहिए कि "एक दिन गुरुदेव मुझे अवश्य आत्मसात करेंगे"। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, "कृष्ण चेतना के मार्ग पर निराशावाद का प्रश्न ही नहीं उठता, सदा आशावान रहिए। सेवा करना एवं प्रार्थना करना ही हमारे आध्यात्मिक जीवन का मूल आधार है"।
५. यद्यपि हम हर प्रकार से तुच्छ हैं, फिर भी वैष्णवों को मापने की मनोवृत्ति व दुष्टाभ्यास हमारा एक चिरकालिक रोग रहा है। अतएव हम शुद्ध-भक्त के वास्तविक उपासक की स्थिति में नहीं हैं। यद्यपि शुद्ध-भक्त स्वभाव से कृपालु होते हैं, परंतु हमारी इस अपराध-प्रवृत्ति के कारण हम अनेक वर्षों तक अर्चन, निर्देशों का श्रवण व विधि-विधानों का पालन करने के बाद भी उनकी कृपा प्राप्त नहीं कर पाते। गुरुदेव कहा करते थे, "कृपा आपके शीश पर पहले से ही विद्यमान है, फिर आप उसके लिए भिक्षा क्यों माँग रहे हैं?"
६. श्रीगुरु के सान्निध्य में आने और उनकी सेवा करने के बाद भी यदि हम साधु-शास्त्र सम्मत मनोवृत्ति का पालन नहीं करते, तो हमें कृपा प्राप्त नहीं होगी और प्रत्युत हमारे भीतर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से निम्न अभिलाषाऍं स्फुरित होने लगेंगी। ऐसा हम श्रीरामचन्द्र पुरी के जीवन में देख सकते हैं।
श्रील जीव गोस्वामी अपनी विशिष्ट रचना श्रीभक्ति संदर्भ में कहते हैं, "शुद्ध-भक्त की कृपा प्राप्त कर लेने से जीव सहजता से कृष्ण प्रेम विकसित कर सकता है"। परन्तु यदि साधक का हृदय गुरु कृपा से वंचित है, तो उसके समस्त सुकर्म तथा ज्ञान ईर्ष्या रूपी आसुरी गुण से मिश्रित हो जाते हैं। फलतः उसका श्रीकृष्ण से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता और वह केवल निराकार ब्रह्म की सेवा कर रहा होता है। यह तथ्य एक कटु सत्य है। परन्तु महत कृपा से सभी आध्यात्मिक गतिविधियाँ परम सिद्ध और परम फलदायी हो जाती हैं।
७. यदि हम शुद्ध-भक्त के चरणकमलों में पूर्णतया शरणागत हो जाते हैं और उनकी दिव्य चरण धूलि के समक्ष अपने को तुच्छ मानकर उनके शासन में रहते हुए सेवा करते हैं, तो हम समस्त प्रकार के सौभाग्य से लाभान्वित होंगे। भजन का वास्तविक जीवन अथवा भजन की एकमात्र अनुकूल स्थिति शुद्ध-भक्त के चरण कमलों में अविचल श्रद्धा एवं पूर्ण समर्पण है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपनी वैष्णव-गीतिका में यह पुष्ट करते हैं: शुद्ध-भकत-चरण-रेणु, भजन अनुकूल – “केवल शुद्ध भक्तों की चरणरज ही भजन के अनुकूल है। शुद्ध भक्तों की सेवा ही परमसिद्धि है तथा प्रेमरूपी लता का मूल है।” यदि कोई शुद्ध-भक्त को अपना जीवनाधार और अपने प्राणों के रूप में स्वीकार नहीं करता, तो भले ही वह भजन में नियुक्त क्यों न हो, फिर भी उसे दौर्बल्य अनुभव होगा और उसके तथाकथित भजन में कोई शक्ति नहीं होगी। यदि कोई इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता, तो उसका आध्यात्मिक जीवन आपदाओं से घिर जाएगा। चूँकि गुरुदेव उसके विचारों का समर्थन करते हैं, इसलिए वह सोच सकता है कि वह उन्हें प्रसन्न कर रहा है और उनकी मनोवृति एवं इच्छाओं से भलीभाँति परिचित है। परिणामतः वह ये भी सोच सकता है कि वह गुरुदेव का अंतरंग शिष्य है, परंतु सत्य तो यह है कि वह गुरुदेव से कोसों दूर है और उनके साथ आंतरिक सम्बंध स्थापित नहीं कर पाया है। वह सदा मन की सीमाओं के भीतर विद्यमान रहते हुए अपनी मनोकल्पना के आधार पर कार्य करता है। ऐसा व्यक्ति शुद्ध-भक्त से केवल वञ्चना प्राप्त करता है।
यह हम श्रीरामचंद्र पुरी के दृष्टांत में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। उन्होंने श्री माधवेंद्र पुरी से दीक्षा प्राप्त की थी, जो भगवान के शुद्ध-भक्त और त्याग के प्रतिमूर्ति थे। बाह्य रूप से ऐसा अवश्य प्रतीत होता था कि उनका श्रीगुरु से घनिष्ट सम्बंध है और श्रीपाद माधवेंद्र पुरी की भौम लीला के कुछ अंतिम क्षणों में भी वे उनके साथ उपस्थित थे। परंतु फिर भी वे गुरु के वास्तविक दर्शन करने में विफल रहे। यदि किसी को शुद्ध-भक्त के दर्शन हो जाएँ, तो उसके हृदय में दुर्बलताएँ, अनर्थ और सांसारिक गुण कैसे टिक सकते हैं? वस्तुतः यदि कोई महत कृपा, या क्षण भर के लिए भी साधु संग कर लेता है, तो उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य केवल उसके वास्तविक स्वामी का अनुसरण करना, उन्हें प्रसन्न करना और कुक्कुर के भाँति उनके पीछे दौड़ना ही रह जाता है। ऐसा व्यक्ति महत-सेवा के प्रति अत्यंत सावधान व सचेत रहता है और उनकी प्रेममयी सेवा करना तथा उन्हें प्रसन्न करना ही उसका एकमात्र साधन एवं साध्य बन जाता है।
८. शुद्ध-भक्त की चरणरज इतनी शक्तिशाली है कि वह हृदय के मिथ्याभिमान अथवा अहंकार को नष्ट कर, साधक में दिव्य अथवा सद् अभिमान का विकास कर सकती है। अहंकारवश हम सोचते हैं कि, “मैं महान हूँ और मेरे गुरुदेव भी महान हैं।” परंतु जब हम महत कृपा से लाभान्वित होते हैं, तो हमारी अंतःचेतना परिवर्तित हो जाती है और तब हम दैन्य भाव से सोचते हैं, “मैं पतित तथा सर्वाधिक अधम हूँ और मेरे समान पतित अन्य कोई नहीं है। परंतु मेरे गुरुदेव इतने महान हैं कि कोई मानव, देवता या कोई भी व्यक्तित्व उनके सदृश नहीं।” इस विषय पर हमारे गुरुदेव ने एक अद्भुत प्रवचन दिया था, “मेरे गुरु के समान अन्य कोई नहीं।” यद्यपि हमारा भी यही कथन रहता है, परंतु हमारी भावना भिन्न होती है क्योंकि हम गुरु-कृपा के पात्र नहीं बन पाए हैं। इसीलिए हम गुरु सेवा के लिए किंचित्मात्र भी चिंतित नहीं रहते। हमें व्याकुलता नहीं होती कि हम किस प्रकार अपने गुरुदेव के लिए कुछ दायित्व लें, और न ही हम इसके लिए कभी क्रंदन करते हैं। उनकी सेवा में संलग्न होने के बजाय, हम केवल गहन निद्रा, सुस्वादु भोजन, और तीर्थ भ्रमण का आनंद लेने में व्यस्त रहते हैं। हम कभी विचार नहीं करते कि गुरुदेव को कैसे प्रसन्न किया जाए, प्रत्युत हम सदैव अपनी ही समस्याओं में उलझे रहते हैं।
९. यदि कोई महत-कृपा का पात्र बनता है, तो उसकी सभी भौतिक कामनाएँ विनष्ट हो जाएँगी। भौतिक संसर्ग में प्रत्येक जीव निराश, विक्षिप्त, या दूसरे शब्दों में अपनी लालसाओं के आक्षेप से त्रस्त रहता है, परंतु जिन साधकों को महत-कृपा प्राप्त होती है, वे हर परिस्थिति में धीर और आध्यात्मिक गतिविधियों में सर्वथा दृढ़ रहते हैं। इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं ध्रुव महाराज। प्रारम्भ में बालक ध्रुव की अनेक भौतिक इच्छाएँ थीं, किंतु जब नारद मुनि ने उन्हें स्वीकार किया, उपदेश दिया और उन पर अपनी कृपा वर्षित की, तो उन्होंने भगवान से किसी भौतिक वरदान की कामना नहीं की। यही महत-कृपा का स्वभाव है।
उदाहरण के लिए, श्री चैतन्य चरितामृत का यह प्रसंग उपयुक्त है – जब श्रीचैतन्य महाप्रभु जगदानंद पण्डित की भर्त्सना और श्रीपाद सनातन गोस्वामी के विवेक की प्रशंसा कर रहे थे तब सनातन गोस्वामी ने यह कभी नहीं कहा कि उन्हें वह बुद्धिमता श्रीमन् महाप्रभु की कृपा द्वारा प्राप्त हुई है, क्योंकि प्रतिष्ठा, सम्पत्ति व उच्च पद को प्राप्त करना श्रीकृष्ण की वास्तविक कृपा नहीं है। श्री चैतन्य चरितामृत में श्रील सनातन गोस्वामी की उक्तियाँ स्पष्ट उल्लेखित हैं, “हे प्रभु! आप जगदानंद को स्नेहमय सम्बन्धों का अमृत पिला रहे हैं और मेरी गौरव स्तुति करके आप मुझे नीम तथा निशिंदा का कटु रस पिला रहे हैं।”
हम श्रील रघुनाथ गोस्वामी के चरित्र में देख सकते हैं कि वे श्रीगौरांग महाप्रभु से सदा दूर रहते थे, तो क्या इसका अर्थ यह है कि उनका श्रीमन् महाप्रभु से गहन सम्बंध नहीं था? यह महत्वपूर्ण नहीं कि हम गुरु के निकट रहते हैं या दूर, महत्वपूर्ण यह है कि श्रीगुरु के प्रति हमारी क्या मनोभावना है। शिष्य भले ही गुरु के समीप हो, किंतु यदि वह गुरु के भाव को नहीं समझता और अनुकूल विधि से उनकी सेवा नहीं करता, तो वह गुरु से कोसों दूर है, जैसा कि हम श्रीरामचंद्र पूरी के उदाहरण में देख सकते हैं।
१०. कृष्ण एवं शुद्ध-भक्त की कृपा को ‘शौरी-कृपा’ कहा जाता है। शुद्ध-भक्त किन पर अपनी कृपा करेंगे, यह कौन जान सकता है? किंतु हमें उनकी अहैतुकी कृपा चाहिए। आचार्यगण कृपा के संबंध में एक अद्भुत उपमा प्रस्तुत करते हैं। इंद्रदेव समानरूप से वृष्टि करते हैं – समुद्र में, जहाँ जल की कोई आवश्यकता नहीं, तालाबों में, नदियों में, भूमि पर और यहाँ तक कि पर्वतों पर भी जहाँ जल की एक बूँद तक नहीं टिक सकती। अतः भले ही जल हर स्थान पर समानरूप से गिरता है, परंतु जल का संग्रहण पात्र की आकृति पर निर्भर करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शुद्ध-भक्त सभी पर अपनी कृपा-वृष्टि करते हैं, परंतु कृपा से लाभान्वित होना जीव के अधिकार या पात्रता पर निर्भर करता है।
इसी से सम्बंधित एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है, वर्षा होने पर यदि हम जल के संग्रहण हेतु विभिन्न आकारों के घड़े रखें तो वे अपने आकार के अनुसार जल एकत्रित करेंगे, किंतु यदि हम घड़ों का मुख गगन से विमुख, धरती माँ की ओर रखते हैं तो इसमें किसका दोष? इसके लिए कोई देवराज इंद्र को दोषी नहीं ठहरा सकता। ठीक इसी प्रकार साधु हमें दर्शन, कथा-श्रवण व सेवा का सुअवसर प्रदान करते हैं, किंतु यदि हमारा हृदय भौतिक भोग-विलास में संलिप्त रहता है, तो हम साधु की कृपा कैसे प्राप्त कर पाएँगे? इस स्थिति में दोष पूर्णतः हमारा है। यदि आप अपने ही हाथों से अपनी टाँगों को काट लें, तो इसके लिए आप किसे दोषी ठहराएँगे?
११. चूँकि हमारे पास कृपा के संग्रहण हेतु उपयुक्त पात्र नहीं है, इसलिए हमारी प्रार्थनाएँ गहन व गम्भीर होनी चाहिए। हमें प्रार्थना करनी चाहिए, “हे महाप्रभु! हे प्रभु नित्यानंद! हे गुरुदेव! कृपया मुझे न केवल कृपा प्रदान कीजिए, बल्कि कृपा संग्रह करने का प्रशिक्षण भी दीजिए। कृपया मेरे हृदय को एक सरल, कापट्य रहित पात्र बना दीजिए जो स्वच्छ एवं मधुर हो।”
अतएव निष्कर्ष में हम यह कह सकते हैं कि महत-कृपा के बिना हम अपने आध्यात्मिक जीवन में कृष्ण-प्रेम प्राप्त करने की यथोचित विधि का पालन नहीं कर सकते। यह पूर्णतया असम्भव है। इसलिए गुरुदेव कहा करते थे, “आपको कृपा के लिए हृदय से क्रंदन करना होगा”। महत-कृपा अत्यंत बलशाली है और वह असम्भव को सम्भव करने का सामर्थ्य रखती है।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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