नाम संकीर्तन एवं श्रीगौरसुंदर

 

प्रिय पाठकगण,

श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की महती कृपा से हम परम्परा-आचार्यों की विलक्षण शिक्षाओं का स्मरण कर रहे हैं। आज हम परम उदार अवतार, श्रीगौरसुंदर तथा पतितात्माओं के प्रति उनकी अद्वितीय कृपा-करुणा पर ध्यान केंद्रित करेंगे। श्रीमान् महाप्रभु परमेश्वर के अवतार स्वरूप नहीं, अपितु श्रीकृष्ण की भाँति असंख्य विस्तारों के उद्गम अथवा अवतारी हैं। यद्यपि वे प्रत्यक्षतः पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण हैं, तथापि उन्होंने भक्त की भूमिका स्वीकार की है। भगवान के इस अद्वितीय अवतार में भक्त-भाव की प्रधानता है। श्रीमद् भागवतम् [११.५.३२] में उल्लेख है: कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम् यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः – कलियुग में सर्वाधिक बुद्धिमान, धर्मपरायण तथा सौभाग्यवान जीव श्रीमान् चैतन्य महाप्रभु के भजन में प्रवृत्त रहते हैं। प्रेम पुरुषोत्तम भगवान श्रीमान् महाप्रभु की सर्वोत्कृष्ट विशेषता यह है कि उनकी जिह्वा पर प्रेमनाम निरंतर स्फुरित होता रहता है। उनकी समस्त दिव्य इंद्रियाँ प्रत्येक क्षण श्रीकृष्ण प्रेमरस माधुरी में निमग्न रेहती हैं, तथापि प्रेमावेश में अभिभूत वे सदा उद्विग्न रहते हैं कि किस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के पवित्र नाम, अनुपम रूप तथा रसात्मक लीलाओं का सतत आस्वादन किया जाए।

 

श्रीशचि तनयाष्टकम में श्रीगौरांग महाप्रभु के विशुद्ध भाव का अत्यंत मनोरम वर्णन है: जल्पितनिजगुणनामविनोदं तं प्रणमामि च श्रीशचीतनयम् – प्रेम पुरुषोत्तम भगवान श्रीगौरांग महाप्रभु अपने ही परम आस्वाद्य दिव्य गुणों तथा पवित्र नामों की चर्चा और महिमामंडन करने में आनंदातिरेक का अनुभव करते हैं। वे साक्षात् श्रीकृष्ण हैं, परंतु उनका शारीरिक वर्ण श्याम नहीं, अपितु द्रवित सुवर्ण के सदृश गौर है। श्रीगौरसुंदर के आनंदचिन्मय स्वरूप के दर्शन मात्र से ही समूचे जीवात्माओं के हृदय में श्रीश्यामसुन्दर का सच्चिदानंदमय स्वरूप स्वाभाविकतया प्रकट हो जाता है। श्रीगौरांग महाप्रभु कदापि अकेले प्रकट नहीं होते। उनके अङ्ग, श्रीनित्यानंद प्रभु एवं अद्वैत आचार्य और उपाङ्ग, श्रील श्रीवास ठाकुर के नेतृत्व में सम्पूर्ण भक्त समुदाय भी उनके संग आविर्भूत होता है। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के अन्य अवतारों के विपरीत, वे कभी चक्र, बाण तथा धनुष धारण नहीं करते। उनका एकमात्र शस्त्र है हरिनाम सङ्कीर्तन जिसके माध्यम से वे पतितात्माओं को बिना योग्यता विचारे सर्वाधिक ईप्सित वस्तु, प्रेम-धन मुक्तहस्त होकर वितरित करते हैं। भौतिक धरातल पर उनके प्रकट होने का यही प्रयोजन है।

 

परंतु कोई प्रश्न कर सकता है कि श्रीगौरसुंदर की वास्तविक सेवा, प्रेम नाम सङ्कीर्तन, किस प्रकार किया जाए? इसके लिए हमें अधोलिखित बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा:

 

१. हमें एक गौर-प्रिय-जन के साथ अपना सम्बंध स्थापित करना होगा। जब उनके साथ हमारा सम्बंध सुदृढ़ हो जाएगा और हमारे हृदय में अटूट निष्ठा उदित हो जाएगी कि यही आध्यात्मिक जीवन का सर्वाधिक आवश्यक सिद्धांत है, तभी अग्रिम चरण पर अग्रसर होना सम्भव है।

 

२. हमें श्रीगौरांग महाप्रभु के प्रिय भक्त के मार्गदर्शन में, अविचल श्रद्धा के साथ तथा ध्यानपूर्वक हरिनाम सङ्कीर्तन करना होगा।

 

३. हमें हरिनाम सङ्कीर्तन बिना किसी क्षुद्र प्रच्छन्न प्रयोजन के, केवल और केवल श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की प्रसन्नता हेतु करना होगा, यही यथार्थ सङ्कीर्तन अथवा श्रीगौरसुंदर की वास्तविक सेवा का आशय है।

 

४. जो श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के साथ प्रेमपूर्ण तथा उत्तम सम्बंध स्थापित कर लेते हैं, केवल वही हरिनाम सङ्कीर्तन करने के पात्र हैं। वहीं, यदि गौरकृपामूर्ति श्रीगुरु एवं महावदान्य स्वरूप श्रीगौरसुंदर के साथ आपकी घनिष्टता नहीं है, तो नाना प्रकार के वाद्ययंत्रों पर विविध प्रकार की सुर-शैलियाँ अतिशय प्रवीणता के साथ बजाते हुए भी आप वास्तविक सङ्कीर्तन से अनभिज्ञ रहेंगे।

 

५. यदि हम अन्य अभिलाषाओं से ग्रस्त हैं तो हमारे लिए वास्तविक सङ्कीर्तन करना कदापि सम्भव नहीं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ गीतावली में इस तथ्य की पुष्टि करते हैं, “भोग-मोक्ष-वाञ्छा छाड़ि’ हरिनाम गाई रे (शुद्ध-सत्व ह’ये रे) [’हरि’ बोलो, ‘हरि’ बोलो, ‘हरि’ बोलो भाई रे]।” यथार्थ सङ्कीर्तन तभी संभव है जब हम काय-मन-वचन से पूर्णतया शरणागत होकर प्रेम से तथा श्रद्धापूर्वक श्रीकृष्ण के पवित्र नाम, रूप, गुण, प्रसिद्धि, कृत्यों एवं लीलाओं के कीर्तन में प्रवृत्त रहते हैं। वस्तुतः इस प्रकार का सङ्कीर्तन श्रीगौरसुंदर को सर्वाधिक आनंद प्रदान करता है।

 

६. श्रीगौरसुंदर एवं उनके प्रियस्त भक्तों के प्रति स्नेह और आत्मीयता का भाव ही वास्तविक संकीर्तन की एकमात्र कूँजी है। यदि हम उपर्युक्त प्रत्येक चरण का निष्कपटतापूर्वक पालन करें, तो काम, क्रोध, लोभ व अन्य अनर्थ क्रमशः क्षीण हो जाएँगे और विनम्रता, अमानिना, मान-देन, आनुगत्य, श्रद्धा, रुचि एवं अन्य भक्ति गुणों में वृद्धि होगी।

 

श्रीगौरांग ही वेदों के रचयिता, रक्षक एवं पालक हैं। अपनी अहैतुकी करुणावश उन्होंने कलि-काल के असंस्कारी जीवों के समक्ष सम्पूर्ण वेदों का सारतत्व वितरित किया है। वेदों के अत्यंत गहनतम विभाग में स्थित, इस अमूल्य सारतत्व का अन्वेषण करना सर्वाधिक दुर्लभ है, परंतु श्रीगौरांग महाप्रभु ने हमें वह अत्यंत सहजतापूर्वक, भेंट स्वरूप प्रदान किया है। अतएव, श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ श्रीचैतन्य चरितामृत [आदि-लीला, १-४] में उल्लेख करते हैं कि सम्पूर्ण वैदिक-साहित्य का सारतत्व, जो ‘श्रीकृष्ण प्रेम’ के नाम से विख्यात है, इसके पूर्व कभी भी लोगों को नहीं दिया गया था। उदाहरणार्थ, भौंरा पुष्पों के अत्युत्तम सौंदर्य से आकृष्ट नहीं होता, उसका ध्यान पुष्पों के अंतर्भाग में स्थित रमणीय मधु की ओर केंद्रित रहता है। वह पुष्पों के मनमोहक सौंदर्य द्वारा तनिक भी भ्रमित नहीं होता क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि मधु कहाँ विद्यमान है और उसका आस्वादन किस प्रकार किया जाता है। इस प्रकार श्रीगौरसुंदर एवं उनके अनुयायी वैदिक-साहित्य के सारतत्व से पूर्णतः परिचित हैं, वे उस भौंरे की तरह हैं जो सदैव अमृतमय मधु के लिए लालायित रहता है। जो व्यक्तिगण श्रीमान् महाप्रभु के अनुगामी नहीं हैं, अथवा गौड़ीय परम्परा प्रणाली को सहृदय स्वीकार नहीं करते हैं, वे केवल वेदों के तथाकथित बाह्य सौंदर्य का आनंद लेने में व्यस्त रहते हैं। इस कारणवश वे श्रीकृष्ण प्रेम रूपी दिव्य मधु का आस्वादन नहीं कर पाते।

 

कलि-पावन अवतार श्रीगौरसुंदर कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड तथा योग पद्धति के सारतत्व को एकत्र कर ध्यान, तप एवं शुष्कत्याग की प्रक्रिया को तिरस्कृत करते हैं। केवल इतना ही नहीं, वे माधुर्य प्रेम के समग्र रसों का सार भी संग्रह करते हैं जो ब्रह्मा तथा शिव के लिए भी अत्यंत दुष्प्राप्य है। तदुपरांत वे इसे पात्र-अपात्र का विचार किए बिना मुक्तहस्त होकर वितरित करते हैं। परंतु हम इतने दुर्भाग्यशाली तथा विषयनिष्ठ हैं कि हम उस सर्वोत्कृष्ट सम्पदा के प्रति रुचि विकसित नहीं कर रहे हैं। समुद्र रूपी शास्त्र का मंथन करके श्रीगौरसुंदर ने अमृत-रूप गुह्य निधि श्रीकृष्ण प्रेम सर्वप्रथम अपने प्रियस्त अनुगामियों को वितरित किया, ठीक उसी प्रकार जैसे मोहिनी मूर्ति ने सर्वप्रथम सुरजनों को अमृत पान कराया था।

 

एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि, संकीर्तन करने के लिए सर्वप्रथम उचित मनोभाव को समझना और उसे अंतर्निहित करना अनिवार्य है। हरिनाम संकीर्तन का जीवन श्रीहरि, श्रीगुरु तोषण तथा वैष्णव तोषण है। अतः सभी परिस्थितियों में हमें यह मनोवृत्ति विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए, जिसके लिए हमें प्रभु से इस प्रकार प्रार्थना करनी होगी, “हे प्रभु, आप जिस भी पथ पर मुझे मार्गदर्शित करेंगे मैं उसी पर जाऊँगा, आप मुझसे जो भी सेवा करवाना चाहेंगे, मैं वही करूँगा। प्रत्येक क्षण मुझे आपके सर्वमंगलकारी मार्गदर्शन की आवश्यकता है। मैं आपके निर्देशानुसार कार्य करने के लिए सर्वदा तत्पर हूँ। अपने आध्यात्मिक जीवन के प्रत्येक पद पर मैं आप पर निर्भर रहना चाहता हूँ, क्योंकि मैं हर दृष्टि से दुर्बल हूँ। जीवन के हर कदम पर मुझे आपकी सहायता, मार्गदर्शन, शक्ति, तथा शुभदृष्टि की आवश्यकता है। मुझमें आपके मनोभाव को समझने का सामर्थ्य नहीं। अतः आप मेरी सेवा से संतुष्ट हैं या नहीं, मैं नहीं जानता। मैं अर्चन, कीर्तन, अथवा अन्य भक्तिमय सेवाओं का प्रतिपादन करने के भी योग्य नहीं। अंततः आप ही परम भगवान व सर्वोच्च नियंता हैं, अतः कृपया मेरी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करें। जब भी मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ, अपनी अल्प स्वतंत्रता का सदुपयोग कर आपको प्रसन्न करने की वांछा करता हूँ, तब मेरी भोगोन्मुख स्वतंत्रता हर समय अवरोध उत्पन्न करती है। मैं आपके चरणार्विंद में शरणागत होना चाहता हूँ, परंतु कपटता मुझे ऐसा करने की अनुमति प्रदान नहीं कर रही है। जब मैं अपनी दुर्दशा देखता हूँ, तो मुझे अत्यंत असहाय अनुभव होता है, परंतु आपकी सर्वोत्कृष्ट स्थिति का विचार करने मात्र से मैं आशान्वित हो जाता हूँ। इस प्रकार से मैं विष एवं अमृत, दोनों का एक ही समय पर पान कर रहा हूँ। कृपया मेरी स्थिति पर विचार कीजिए और तदनुसार जो भी मेरे लिए लाभप्रद है उसकी व्यवस्था कर दीजिए।” जब हम यह मनोभाव विकसित करते हैं, तभी श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की प्रसन्नता हेतु संकीर्तन करना सम्भव हो पाता है।

 

हमें कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड द्वारा श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के मनोभाव को समझने की आवश्यकता नहीं। उनका मनोभाव किसी तर्क, वितर्क, अथवा विद्वता द्वारा नहीं समझा जा सकता, वह तो एकमात्र विशुद्ध हरिनाम संकीर्तन द्वारा स्वतः प्रकाशित होता है। वस्तुतः योग, यज्ञ एवं पुण्यकर्म शुद्ध भक्ति के विविध अवरोध हैं। श्रीगौरांग महाप्रभु के प्रिय भक्तों की संगति से संपुष्ट होकर ही वास्तविक नाम संकीर्तन में संलग्न होना सम्भव है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा स्वरचित वैष्णव गीतिका में यथार्थ संकीर्तन में प्रवृत्त होने के लक्षण अतीव सुंदरता से चित्रित करते हैं: मृदंग-वाद्य, शुनिते मन, अवसर सदा याचे गौर-विहित, कीर्तन शुनि, आनंदे हृदय नाचे – “मेरा मन मृदंग की ध्वनि श्रवण करने के लिए सदैव लालायित रहता है। भगवान गौरचंद्र की मधुर लीलाओं का वर्णन करने वाले प्रामाणिक कीर्तनों को सुनकर मेरा हृदय आनंद में भावविभोर होकर नृत्य करने लगता है।” [शुद्ध-भकत-चरण-रेणु]

 

श्रीगौरसुंदर एवं गौर-प्रिय-जन द्वारा संस्तुत कीर्तन पद्धति में अपने विचारों का संयोजन करने की आवश्यकता नहीं है। हरि-कीर्तन के प्रत्येक चरण में श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की प्रसन्नता पर मनन करना ही भक्ति है। अनेक व्यक्ति हरिनाम का जप तथा कीर्तन करने ले लिए योग्य हैं, किन्तु वास्तविक संकीर्तन का शुभारंभ करने के लिए एक महन्त-गुरु की आवश्यकता होती है। यदि कोई व्यक्ति महन्त-गुरु के मार्गदर्शन में संकीर्तन करता है, तो श्रीचैतन्य महाप्रभु उससे अधिक प्रसन्न होते हैं, बजाय उन लोगों से जो एकान्त स्थान में निवास करते हुए भजन करते हैं।

 

संकीर्तन का वास्तविक अर्थ संगीत विद्वान एवं वैदिक-साहित्य में पटु होना, अथवा विभिन्न टीकाओं को कंठस्थ कर तदनुसार प्रचार करना नहीं है। यदि हम परम्परा आचार्यों के आनुगत्य में हरिनाम संकीर्तन करते हैं, तो हम स्वतः ही हज़ारों व्यक्तियों को आकर्षित कर लेंगे। बिना उचित मनोभाव के श्रीकृष्ण को आकर्षित करना असंभव है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य से पूर्व ग्रंथावतार श्रीमद् भागवतम विद्यमान थे, अनेकानेक आश्रम एवं प्रचारक थे, भक्ति-योग के ये सभी उपकरण उपलब्ध थे, व्रजभूमि, लीला स्थलियाँ, एवं व्रजवासी भी थे, परंतु व्रजभूमि का विशुद्ध एवं यथार्थ भाव प्रकट नहीं हुआ था। तब कीर्तन भी हुआ करता था, परंतु श्रीगौरसुंदर द्वारा प्रवर्तित श्रीगोलोक वृंदावन का महाधन, प्रेम नाम संकीर्तन प्रकाशित नहीं हुआ था। किंतु, श्रीगौरसुंदर द्वारा श्रीहरिनाम संकीर्तन के प्रवर्तन से गोलोक वृंदावन का भाव वास्तविक गौड़ीय अनुगामियों को प्रकाशित होने लगा। षड्-गोस्वामी श्रीचैतन्य महाप्रभु के सम्पर्क में आए और उनके निर्देशानुसार उन्होंने अपने निष्काम तथा विशुद्ध प्रेम से श्रीकृष्ण के नाम, विग्रह, एवं लीलाओं को प्रकाशित किया। ग्रंथों की रचना एवं कीर्तन के द्वारा उन्होंने श्रीकृष्ण को इस धरा पर प्रकट किया। केवल श्रीमती राधारानी एवं उनकी नित्य सहचरियाँ ही श्रीगोलोक वृंदावन के भाव से परिचित हैं, अतः व्रजभाव को प्रकट करने का सामर्थ्य भी केवल उन्हीं में है। श्रीगौरसुंदर ने प्रणयिनी श्रीराधिका का भाव अंगीकार किया है, और षड्-गोस्वामी श्रीमती राधारानी की मञ्जरियाँ हैं। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अपने सुप्रसिद्ध वैष्णव गीत में इस तथ्य की पुष्टि करते हैं: एइ छय गोसाइ जबे ब्रजे कोइला वास, राधा-कृष्ण नित्यलीला करिल प्रकाश। [हरि हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः] जब तक कोई षड्-गोस्वामियों का वास्तविक अनुयायी नहीं बन जाता, तब तक आध्यात्मिक परिवेश में प्रवेश करना संभव नहीं है। जब श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनुगामियों द्वारा हरिनाम संकीर्तन प्रकाशित होता है, तब व्यक्ति के हृदय में एक असाधारण प्रवृत्ति या स्वभाव का उदय होता है, जिसके चलते वह प्रतिक्षण श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग को अधिक से अधिक प्रसन्न करने हेतु उद्विग्न रहता है। यह मनोवृत्ति गौड़ीय वैष्णवों की गुह्य निधि है। इस अवस्था में ही यह साक्षात्कार कर पाना संभव होता है कि श्रीहरिनाम प्रभु स्वयं श्रीकृष्ण से अभिन्न है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर उल्लेख करते हैं: नारद मुनि, बजाय वीणा, राधिकारमण नामे, नाम अमनि, उदित हय भकत गीत सामे – जब नारदमुनि वीणा वादन करते हैं तो उससे राधिका-रमण नाम अवतरित होता है और भक्तों द्वारा किये जा रहे कीर्तन मैं तत्क्षणात प्रकट हो जाता है।

 

श्रीचैतन्य महाप्रभु का वास्तविक अनुयायी ही प्रेम-नाम संकीर्तन में संलग्न होने में समर्थ है। अभक्त, श्रद्धाहीन, तथा भोगी व्यक्ति संकीर्तन करने के अधिकारी नहीं हैं। जो साधक रसिक, सरल, कापट्यरहित, और श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति आसक्त हैं, केवल उन्हें ही वास्तविक संकीर्तन में प्रवृत रहने का अधिकार है। प्रारंभिक स्तर पर हमें वैष्णवों की एवं भक्ति, भक्त और भगवान के प्रति श्रद्धावान व्यक्तियों की संगति में संकीर्तन करना प्रारम्भ करना चाहिए। संकीर्तन ऐसे भक्तों के संग में अधिक शक्तिशाली होता है, जिनकी श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति अविचल श्रद्धा होती है, जो भगवद्भक्ति के प्रति दृढ़ होते हैं एवं समस्त प्रकार की अन्य अभिलाषाओं से मुक्त होते हैं। किंतु जब कोई शुद्ध भक्त संकीर्तन करते हैं, तब वे अपने शुद्ध नाम कीर्तन द्वारा श्रीकृष्ण की शक्ति एवं कृपा वितरित करते हैं। अतः जब हम गौर-प्रिय-जन के श्रीमुख से हरिनाम संकीर्तन का श्रवण करते हैं, तब हमारे हृदय में पवित्रता निहित होती है। इस प्रक्रिया में न केवल कृष्ण के प्रति हमारी आसक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाएगी, बल्कि हम पापपूर्ण कार्यों के साथ-साथ अन्य कामनाओं को भी त्याग देंगे।

 

कोई कीर्तन श्रवण करता है, कोई संकीर्तन श्रवण करता है, तो कोई महा-संकीर्तन श्रवण करता है। किंतु इन सभी से उत्कृष्ट है शुद्ध भक्त के मुखकमल से प्रवाहित शुद्ध-नाम-कीर्तन का श्रवण करना, जो महा-महा-संकीर्तन कहलाता है। जब शुद्ध भक्त इस संसार में उपस्थित होते हैं, उनकी उपस्थिति महा-महा-उचाव के परिवेश को निर्मित करती है। श्रील प्रभुपाद की उपस्थिति ने भी भक्तों के हृदय में ऐसी ही भावनाएँ उत्पन्न की थीं। उनके प्रिय शिष्य, जिनसे हम संस्मरण का श्रवण करते हैं, उन्होंने इस अप्राकृत परिवेश का अनुभव किया है।

 

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि जब हम श्रीगुरु और श्रीगौरांग की प्रसन्नता हेतु नाम संकीर्तन में प्रवृत्त होते हैं, जब हम सदैव उनकी संगति की आकांक्षा रखते हैं और गौरसुन्दर की प्रेममयी सेवा में संलग्न रहते हैं, तो श्रीगौरसुन्दर अत्यंत प्रसन्न होते हैं।

 

दासानुदासः

हलधर स्वामी

 

 

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