नृसिंह चतुर्दशी - भगवान श्रीनृसिंह देव का आविर्भाव दिवस

 

 

दशावतार स्त्रोत्र

(श्रील जयदेव गोस्वामी विरचित गीत गोविन्द से उद्धृत)

प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं,

विहितवहित्रचरित्रमखेदम् ।

केशव धृतमीनशरीर, जय जगदीश हरे ॥१॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने मछली का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! वेदों को, जो प्रलय के अशांत समुद्र में डूबे हुए थे, रक्षा प्रदान करने के लिए आपने एक विशाल मछली के रूप में नाव की भूमिका निभाई।

 

क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे,

धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे ।

केशव धृतकच्छपरूप जय जगदीश हरे ॥२॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने कछुए का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! दिव्य कछुए के रूप में अपनी विशाल पीठ पर मंदार पर्वत को धारण किया और क्षीरसागर के मंथन में देव-दानवों की सहायता की। विशाल पर्वत को धारण करने से आपकी पीठ पर एक चक्र का चिह्न बन गया, जो अत्यंत सुंदर है।

 

वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना,

शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना ।

केशव धृतसूकररूप, जय जगदीश हरे ॥३॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने शूकर रूप धारण किया है! आपकी जय हो! पृथ्वी, जो ब्रह्मांड के तल पर गर्भोदक महासागर में डूबी हुई थी, आपने चंद्रमा के एक गड्ढे की भाँति अपने नथुनों के ऊपर उठाकर उसे उसके मूल स्थान पर स्थापित किया।

 

तव करकमलवरे नखमद्भुतश‍ृङ्गं,

दलित हिरण्यकशिपुतनुभृङ्गम् ।

केशव धृतनरहरिरूप, जय जगदीश हरे ॥४॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने आधे नर, आधे सिंह का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! जिस प्रकार कोई सरलता से अपनी अँगुलियों के बीच एक भौंरे को मसल देता है उसी प्रकार आपने भौंरे जैसे असुर हिरण्यकशिपु को अपने हस्तकमलों के सुंदर तीक्ष्ण नाखूनों से विदीर्ण कर दिया ।

 

छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन,

पदनखनीरजनितजनपावन ।

केशव धृतवामनरूप, जय जगदीश हरे ॥५॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने बौने-ब्राह्मण का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! हे अद्भुत बौने, अपने तीन विशाल पगों से आपने महाराज बलि को छला और अपने चरणार्विंद के नाखून से बह निकले गंगाजल से आप सम्पूर्ण जगत के प्राणियों का उद्धार करते हैं।

 

क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं,

स्नपयसि पयसि शमितभवतापम् ।

केशव धृतभृगुपतिरूप, जय जगदीश हरे ॥६॥

"हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने भृगुपति [परशुराम] का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! कुरुक्षेत्र में आपने आसुरी राजाओं का वध करके पृथ्वी को उनके रक्त से स्नान करवाया। आपके द्वारा विश्वभर के पाप धूल गए और आपने जीवों को भौतिक जगत के ताप से राहत दी।

 

वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं,

दशमुखमौलिबलिं रमणीयम् ।

केशव धृतरामशरीर, जय जगदीश हरे ॥७॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के भगवान! हे भगवान हरि, जिन्होंने रामचन्द्र का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! लंका के युद्ध में आपने दस सिर वाले असुर रावण का वध किया और उसके सिरों को इंद्र सहित दस दिशाओं के देवताओं को एक आनंददायक भेंट के रूप में वितरित किया। इस असुर से पीड़ित वे सभी दीर्घ काल से इस कार्य की प्रतीक्षा कर रहे थे।

 

वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभं,

हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम् ।

केशव धृतहलधररूप, जय जगदीश हरे ॥८॥

"हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे बलराम, हे हल धारण करने वाले हरि! आपकी जय हो! अपने श्वेत रंग के शरीर पर आप नवीन नीरद के समान नीले रंग के वस्त्र पहनते हैं। ये वस्त्र उन यमुना नदी के सुंदर गहरे रंग के समान हैं, जो आपके हल के प्रहार से अत्यंत भयभीत रहती हैं।

 

निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं,

सदयहृदयदर्शितपशुघातम् ।

केशव धृतबुद्धशरीर, जय जगदीश हरे ॥९॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने बुद्ध का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! हे दयालु हृदय वाले बुद्ध, आपने वैदिक यज्ञों के नियमों के अनुसार होने वाली निष्पाप पशुओं की हत्या को रोका।

 

म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालं,

धूमकेतुमिव किमपि करालम् ।

केशव धृतकल्किशरीर, जय जगदीश हरे ॥१०॥

हे केशव! हे ब्रह्मांड के स्वामी! हे भगवान हरि, जिन्होंने कल्कि का रूप धारण किया है! आपकी जय हो! आप कलियुग के अंत में एक धूमकेतु के समान प्रकट होते हैं और अपने हस्तकमलों में भयंकर तलवार द्वारा दुष्ट म्लेच्छों का विनाश करते हैं।

 

श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारं,

श‍ृणु सुखदं शुभदं भवसारम् ।

केशव धृतदशविधरूप, जय जगदीश हरे ॥११॥

हे केशव! हे विश्वेश्वर! हे हरि! आपने इन दस विभिन्न अवतारों को धारण किया है! आपकी जय हो! हे पाठकों, कृपया कवि जयदेव द्वारा विरचित इस स्तोत्र का श्रवण करे, जो परम उत्तम, सुख एवं सौभाग्य प्रदान करने वाला है और इस कलियुग में सर्वश्रेष्ठ है।

 

जय नृसिंहदेव!

जय नरहरि!

जय प्रह्लाद महाराज!

भगवान नृसिंहदेव की जय!

भगवान नृसिंहदेव शुभ आविर्भाव तिथि की जय!

भक्त प्रह्लाद की जय!

भक्त प्रवर प्रह्लाद महाराज की जय!

समवेता भक्तवृंद की जय!

गौर प्रेमानंदे हरि हरिबोल!

 

मंगलाचरण

 

ऊँ अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।

चक्षुर उन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:॥

“मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आँखें खोल दीं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।”

 

श्रीचैतन्य मनोभीष्टं स्थापितं येन भूतले ।

स्वयं रूप: कदा मह्यं ददाति स्वपदांतिकम॥

“श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छापूर्ति के लिए प्रचार अभियान की स्थापना की है?”

 

वंदे अहं श्रीगुरो: श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून वैष्णवांश च

श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथानवितं तं सजीवम।

साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं

श्रीराधाकृष्णपादान सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश च॥

“मैं अपने गुरु तथा समस्त वैष्णवों के चरणकमलों को नमस्कार करता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके अग्रज सनातन गोस्वामी एवं साथ ही श्रील रघुनाथदास, श्रील रघुनाथभट्ट, श्रील गोपालभट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के चरणकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान श्रीकृष्णचैतन्य तथा भगवान नित्यानंद के साथ-साथ अद्वैत आचार्य, गदाधर, श्रीवास तथा अन्य पार्षदों को सादर प्रणाम करता हूँ। मैं श्रीमती राधारानी तथा श्रीकृष्ण को श्रीललिता तथा श्रीविशाखा सखियों सहित सादर नमस्कार करता हूँ।”

 

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते ।

गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ॥

हे कृष्ण! आप करुणा के सागर है। आप दुखियों के सखा तथा सृष्टी के उद्गम हैं। आप गोपियों के स्वामी तथा राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

 

तप्त-कांचन गौरांगी राधे वृन्दावनेश्वरी ।

वृषभानु सुते देवी, प्रणमामि हरी प्रिये ॥

मैं राधारानी को प्रणाम करता हूँ जिनकी शारीरिक काँति पिघले सोने के सदृश है, जो वृन्दावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानू की पुत्री हैं और भगवान् कृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं।

 

वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिंधुभ्य एव च ।

पतितानाम् पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥

मैं भगवान के उन समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ जो सब की इच्छा को पूर्ण करने के लिए कल्पतरु के सामान है, दया के सागर है तथा पतितों का उद्धार करने वाले हैं।

 

नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते ।

कृष्णाय कृष्णचैतन्यनाम्ने गौरत्विषे नमः॥

हे परम करुणामय अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं|

 

श्रीकृष्णचैतन्य प्रभुनित्यानंद ।

श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादिगौरभक्तवृंद॥

“मैं श्रीकृष्णचैतन्य, नित्यानंद प्रभु, श्रीअद्वैत, गदाधर, श्रीवास एवं महाप्रभु की परंपरा के अन्य सभी भक्तों को अपना सादर प्रणाम अर्पित करता हूँ।”

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

 

वागीशा यस्य वदने लक्ष्मीर्मस्य च वक्षति।

यस्यास्ते हदये संवित् तं नृसिंहमहं भजे ॥

"मैं भगवान नृसिंह देव की पूजा करता हूँ, जिनके मुखकमल में वाक्पटुता के अधिष्ठाता आचार्य निवास करते हैं, जिनके वक्ष पर लक्ष्मीजी विराजती हैं, और हृदय में चेतना की दिव्य शक्ति निवास करती हैं।" (श्रील श्रीधर स्वामी द्वारा प्रार्थना)

 

नृसिंह प्रणाम

 

नमस्ते नरसिंहाय प्रह्लादाह्लाद-दायिने।

हिरण्यकशिपोर्वक्षः-शिला-टङ्क-नखालये॥

"मैं प्रह्लाद महाराज को आनंदित करने वाले नृसिंह भगवान को प्रणाम करता हूँ, जिनके नख असुरराज हिरण्यकश्यप के पाषाण सदृश वक्ष के ऊपर छैनी के समान प्रहार करते हैं।"

 

इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो यतो यतो यामि ततो नृसिंहः।

बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥

"श्री नृसिंह भगवान सर्वत्र हैं। मैं जहाँ भी गमन करता हूँ, वहाँ भगवान नृसिंह उपस्थित हैं। वे हृदय के भीतर भी है और बाहर भी। मैं समस्त सृष्टि के स्रोत, परम आश्रय, श्री नृसिंह भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ।"

 

तव कर-कमल-वरे नखम्‌ अद्‌भुत-श्रृंङ्गम्‌

दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम्‌

केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥

"हे केशव! हे विश्वेश्वर! हे हरि! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। जिस प्रकार कोई सहजता से अपने नाखूनों के बीच भौंरे को कुचल देता है, उसी तरह आपके सुंदर कमल सदृश हाथों के विशाल, नुकीले नाखूनों ने भौरे जैसे असुर हिरण्यकशिपु के शरीर को विदीर्ण कर दिया। आपकी जय हो!"

 

नृसिंह चतुर्दशी

भगवान श्रीनृसिंह देव का आविर्भाव दिवस

 

वागीशा यस्य वदने लक्ष्मीर्मस्य च वक्षति।

यस्यास्ते हदये संवित् तं नृसिंहमहं भेजे॥

"मैं भगवान नृसिंह देव की पूजा करता हूँ, जिनके मुख में वाणी के अधिष्ठाता आचार्य निवास करते हैं, जिनकी वक्ष पर लक्ष्मीजी विराजती हैं, और जिनके हृदय में चेतना की दिव्य शक्ति निवास करती हैं।" (श्रील श्रीधर स्वामी द्वारा प्रार्थना)

जय श्री नृसिंहदेव भगवान् की जय!

 

अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरे: सत्त्वनिधेर्द्विजा: ।

यथाविदासिन: कुल्या: सरस: स्यु: सहस्रश: ।।

[श्रीमद्-भागवतम 1.3.26]

“हे ब्राह्मणों, भगवान के अवतार उसी तरह असंख्य हैं, जिस प्रकार अक्षय जल के स्रोत से निकलने वाले (असंख्य) झरने।” 

 

मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहंस-

राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतार:।

त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेष

भारं भुवो हर यदूत्तम वंदनं ते ॥

[श्रीमद्-भागवतम 10.2.40]

“हे परम नियंता, आप इसके पूर्व अपनी कृपा से सारे विश्व की रक्षा करने के लिए मत्स्य, अश्व, कच्छप, नृसिंहदेव, वराह, हंस, भगवान रामचंद्र, परशुराम का तथा देवताओं में से वामन के रूप में अवतरित हुए हैं। अब आप इस संसार का उत्पातों को ख़त्म करके अपनी कृपा से पुन: हमारी रक्षा करें। हे यदुश्रेष्ठ कृष्ण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।”

 

यह प्रार्थना देवताओं द्वारा परम भगवान कृष्ण को अर्पित की गई है जब कृष्ण कंस के बंदीगृह में देवकी के गर्भ से प्रकट होने वाले थे। "हे यदुश्रेष्ठ, आपने असंख्य अवतार लिए हैं यथा मत्स्य; कूर्म; वराह; हयग्रीव; नृसिंह, हंस, वामन, बलराम, रामचंद्र, बुद्ध, कल्कि आदि। आप इन समस्त नानाविध लीला-अवतारों के माध्यम से भौतिक जगत में राक्षसों का विनाश करते हैं, जो धरती माँ के लिए कष्टदायी होते हैं। अतः अपने इन अवतारों के माध्यम से आप धरती माँ को कष्टों से मुक्त करते हैं। हम सभी बारंबार आपको प्रणाम करते हैं।"

 

तीन परावस्थ-अवतार

 

लघु-भागवतामृत [5.16] में श्रील रूप गोस्वामी वर्णन करते हैं:

 

परावस्थ अवतार षाड्गुण्यं परिपूरितम

छः प्रकार के ऐश्वर्य होते हैं:  वीर्य (शक्ति), ऐश्वर्य (धन), दिव्य यश, श्री (सौंदर्य), ज्ञान, और वैराग्य (त्याग)। भगवान के तीन परावतार - नृसिंह, रामचंद्र और कृष्ण, इन छह ऐश्वर्यों से परिपूर्ण हैं। यद्यपि ये तीनों परावस्थ अवतार हैं, फिर भी कृष्ण परम भगवान हैं। लघु-भागवतामृत में, बिल्वमंगल ठाकुर जी के कथनों का उदाहरण देते हुए श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं:

 

सन्तववतारा बहवः पुष्करनाभस्य सर्वतो भद्राः ।

कृष्णादन्यः कोवा लतास्वपि प्रेमदो भवति ॥

लघु-भागवतामृत [5.37]

यद्यपि भगवान् के असंख्य मंगलमय अवतार हैं, किन्तु कृष्ण परम भगवान हैं, जो एक अधम व्यक्ति को भी सुदुर्लभ प्रेम प्रदान करते हैं। पूर्व वर्णित तीन परावस्थ अवतारों में से केवल कृष्ण ही प्रेम प्रदान करते हैं। यह कृष्णावतार की उत्कृष्ट विशेषता है। भगवान् राम और नृसिंह देव ने अनेक राक्षसों का वध किया किंतु उनमें से किसी को भी मुक्ति प्राप्त नहीं हुई। उनका पुनः राक्षस या नास्तिक के रूप में जन्म हुआ। परन्तु जिनका वध स्वयं भगवान कृष्ण ने किया अथवा जिन्होंने कुरुक्षेत्र युद्ध में कृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन पाकर अपने प्राणों का त्याग किया, वे सभी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो गए। कृष्ण अति सुंदर हैं, वह समस्त सौंदर्य के स्रोत हैं। वे माधुर्यक-निलय हैं अर्थात अत्यंत मधुर एवं उदारता के मूर्तिमंत स्वरूप हैं। अतः कृष्ण अत्यंत सुदंर, मधुर और उदारचरित भी हैं।"

 

कंस को भय-अवतार के रूप में जाना जाता है।

सारांश यह है कि किसी भी तरह कृष्ण का चिंतन करें; मन को कृष्ण में स्थिर करें। यदि कोई कृष्ण के प्रति प्रेम विकसित करता है, तो वह स्वाभाविक रूप से निरंतर कृष्ण का चिंतन कर सकेगा। क्योंकि, जब तक कोई व्यक्ति अतिप्रिय न हो, यह मूढ़ मन उसके प्रति चिंतन नहीं कर सकता। कृष्ण ही एकमात्र प्रेम के विषय हैं। वे परमप्रिय हैं। अतः कृष्ण के प्रति प्रेम विकसित करें, तत्पश्चात ही आप दिन-रात, सतत कृष्ण का चिंतन कर सकेंगे।

 

अनेक राक्षस, विशेष रूप से कंस, कृष्ण से अत्यंत भयभीत रहते थे। कंस रात-दिन कृष्ण का चिंतन करता था, लेकिन उसका चिंतन भय के कारण था। इसलिए कंस को भय-अवतार के रूप में जाना जाता है। यद्यपि, किसी भी तरह से जिन्होंने श्रीकृष्ण का चिंतन किया, उन्हें मुक्ति-पथ ही प्राप्त हुआ।

 

हिरण्यकशिपु ने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया।

कूर्म अवतार के बाद चक्षुष मन्वन्तर में नृसिंह भगवान् प्रकट हुए। श्रीमद् भागवतम् के सातवें स्कंध में, नृसिंह अवतार की कथा वर्णित है।

 

यस्त्वया मंदभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वर:।:

क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात स्तम्भे न दृश्यते।।

[श्रीमद्-भागवतम 7.8.12]

“अरे अभागे प्रह्लाद! तूने सदैव मेरे अतिरिक्त किसी अन्य परम पुरुष का वर्णन किया है, जो हर एक के ऊपर है, हर एक का नियंता है तथा जो सर्वव्यापी है। लेकिन वह है कहाँ? यदि वह सर्वत्र है, तो वह मेरे समक्ष के इस खंभे में क्यों उपस्थित नहीं है?” 

 

प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु ने सार्वजनिक रूप से घोषित कर दिया कि वही भगवान है। "भगवान कौन है? मैं ही भगवान हूँ। क्या वह (विष्णु) भगवान हैं और मुझसे श्रेष्ठ है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया, "परम भगवान ही भगवान हैं। न तो कोई उनके समान है और न ही कोई उनसे श्रेष्ठ। वे सर्वव्यापक हैं।" हिरण्यकशिपु ने पुनः प्रश्न किया, "क्या वह वहाँ (स्तम्भ में) है?" असुरराज हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद महाराज एक नैसर्गिक वैष्णव थे। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को राजनीति, कुटिलता, तर्क-वितर्क और शाषन करने की रीति इत्यादि निरर्थक विषय सिखाने के लिए षण्ड और अमर्क नामक दो शिक्षकों को नियुक्त किया था। साम, दान, वेद और दंड-नीति शासक वर्ग के मूल सिद्धांत हैं। कभी-कभी वे साधारण लोगों को कुछ दान आदि वितरित करके उन्हें अपने नियंत्रण में करते हैं, तो कभी उन्हें दंडित करके अपने अधीन करते हैं।  कभी-कभी वे दो पक्षों के मध्य शास्त्रार्थ करवाते हुए वाद-विवाद करते हैं, और तीसरे पक्ष को विजयी घोषित करते है। यह सभी कूटनीति के विभिन्न प्रकार हैं। इसलिए हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद महाराज को इन समस्त गुणों को सिखाने हेतु षण्ड और अमर्क नामक दो शिक्षकों को नियुक्त किया। किन्तु, प्रह्लाद महाराज जन्म से ही वैष्णव थे। अपनी माता के गर्भ में ही उन्हें नारद मुनि से हरि कथा श्रवण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था।

 

यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के बालक थे, फिर भी वह सदैव परमेश्वर के विषय में चर्चा किया करते थे। उन्होंने अपने सहपाठियों, जो राक्षस पुत्र थे, को भक्ति के विषय में शिक्षण प्रदान कर रहे थे। उनके दो शिक्षकों को इस बात का बोध हुआ, "अरे, सभी राक्षस पुत्र भगवान विष्णु के भक्त बन रहे हैं। यह तो एक महान संकट है। यह क्या हो रहा है?" इसलिए षण्ड और अमर्क ने तुरंत हिरण्यकशिपु को सूचित किया, अन्यथा उन्हें शिरश्छेदित कर दिया जाता। "यह बालक हमारे द्वारा प्रदत्त शिक्षा को ग्रहण नहीं कर रहा है। वह सर्वदा भगवान विष्णु का चिंतन करता है। इसका अनुगमन करके अन्य राक्षस पुत्र भी विष्णु भक्त बन रहे हैं।"

 

हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र को बुलाया और उसे अपनी गोद में बैठाकर प्यार से पीठ थपथपाते हुए प्रश्न किया, "पुत्र, गुरुकुल में तुमने क्या सीखा?" उत्तर में, जब प्रह्लाद भगवान कृष्ण एवं विष्णु के बारे में बोलने लगे, तो हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हो उठा, "यह तुम क्या बोल रहे हो? (क्या विष्णु परम भगवान है?) मैं ही भगवान हूँ, क्या विष्णु मुझसे अधिक श्रेष्ठ है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया, "विष्णु ही परम भगवान हैं। (विष्णु से अतिरिक्त अन्य कोई श्रेष्ठ नहीं है और ना ही कोई उनकी समानता कर सकता है) । वे सर्वव्यापक हैं। अतएव, आपके लिए श्रेयष्कर होगा कि आप भी विष्णु की शरण ग्रहण करें।" यह सुनकर, हिरण्यकशिपु और अधिक क्रोधित हो गया। "क्या वह मुझसे श्रेष्ठ है? क्या वह सर्वव्यापी है? क्या वह प्रत्येक स्थान पर उपस्थित है? क्या वह इस स्तंभ में भी है?"

 

भगवान् श्री नृसिंहदेव अवतरित हों!

 

सोऽहं विकत्थमानस्य शिर: कायाद्धरामि ते ।

गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.8.13]

“क्योंकि तुम इतना अधिक अनर्गल प्रलाप कर रहे हो अतएव अब मैं तुम्हारे शरीर से तुम्हारा शिर छिन्न कर दूँगा। अब मैं देखूँगा कि तुम्हारा परमाराध्य ईश्वर तुम्हारी रक्षा किस तरह करता है। मैं उसे देखना चाहता हूँ।”

 

विनाश का समय आ गया है। आसुरी प्रवृत्ति के लोगों का विनाश आवश्यक है। अतः हे नृसिंहदेव! प्रकट होकर राक्षसों का वध कीजिए! उसके पश्चात ही विश्व में शांति होगी। यही नृसिंहदेव की कृपा है। इसलिए दीर्घकाल तक अनपेक्षित जलप्रलय आएगा। समस्त पैदावार नष्ट हो जाएँगे और तत्पश्चात अन्न का अभाव होगा। यही विनाश का लक्षण है।

 

भगवान कोई भी रूप धारण कर सकते हैं

 

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मन:।

अद‍ृश्यतात्यद्भ‍ुतरूपमुद्वहन् स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम।।

[श्रीमद्-भागवतम 7.8.17]

“अपने दास प्रह्लाद महाराज के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिए कि वे सत्य हैं – अर्थात् यह सिद्ध करने के लिए कि भगवान सर्वत्र उपस्थित हैं, यहाँ तक कि सभा भवन के खंभे के भीतर भी हैं– भगवान श्री हरि ने अपना अभूतपूर्व अद्भुत रूप प्रकट किया। यह रूप न तो मनुष्य का था, न सिंह का। इस प्रकार भगवान उस सभाकक्ष में अपने अद्भुत रूप में प्रकट हुए।”

 

भगवान् का यह अद्भुत रूप था। कोई परम भगवान को कैसे समझ सकता है? वे अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। उनके नेत्र लाल थे एवं उनका शरीर अत्यंत विशाल और तेजस्वी था। उनके दांत वज्र के समान तीक्ष्ण और भयावह थे। उनकी नासिका और मुख पर्वत की कंदराओं के समान विशाल थे। उनका शरीर गगन स्पर्शी था और शरीर के केश चांदनी की तरह उज्जवल थे। उनकी भुजाएँ अत्यंत लंबी थीं और एक योद्धा की तलवार के समान प्रतीत हो रहीं थीं। हिरण्यकश्यप ने विचार किया, “यह कैसा अद्भुत रूप है? भगवान मेरा वध करने के लिए प्रकट हुए हैं? किंतु मुझे कौन मार सकता है? मैं ही भगवान हूँ।" ऐसा सोचते हुए उसने अपनी गदा उठाया और भगवान से वाद-विवाद करने लगा। तत्पश्चात हिरण्यकशिपु और नृसिंहदेव के मध्य भयंकर युद्ध हुआ।

चतुराई के साथ वरदान मांगे

 

विष्वक्स्फुरन्तं ग्रहणातुरं हरि-

र्व्यालो यथाखुं कुलिशाक्षतत्वचम् ।

द्वार्यूरुमापत्य ददार लीलया

नखैर्यथाहिं गरुडो महाविषम् ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.8.29]

“जिस प्रकार कोई साँप किसी चूहे को या गरु‌ड किसी अत्यंत विषैले सर्प को पकड़ ले उसी तरह भगवान नृसिंहदेव ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया जिसकी त्वचा में इंद्र का वज्र भी नहीं घुस सकता था। ज्योंही पकड़े जाने पर वह अत्यंत पीड़ित होकर अपने अंग इधर-उधर तथा चारों ओर हिलाने लगा त्योंही नृसिंहदेव ने उस असुर को अपनी गोद में रख लिया और अपनी जांघों का सहारा देकर उस सभा भवन की देहली पर अपने हाथ के नाखूनों से सरलता पूर्वक उस असुर को छिन्न-छिन्न कर डाला।”

 

हिरण्यकशिपु ने कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया था तथा उनसे अमरत्व का वर माँगा। ब्रह्मा जी ने उत्तर में कहा, "मैं स्वयं मृत्यु के अधीन हूँ, तो मैं तुम्हें अमरत्व का वरदान कैसे दे सकता हूँ?"

 

तब, एक उपाय सोचकर हिरण्यकशिपु ने कहा, "मैं किसी देवता, मनुष्य या अस्त्र से न मरूँ। मेरी मृत्यु न दिन के समय हो और न रात में, न घर के बाहर हो और न अंदर। मैं न तो पृथ्वी पर, न जल में, और न आकाश में मरूँ।" इस प्रकार, परोक्ष रूप से उसने अमर होने का वरदान माँग लिया। जब ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दिया तो हिरण्यकशिपु ने सोचा, "हाँ, अब मैं अमर हो गया हूँ!"

 

भगवान् अद्भुत रूप में प्रकट हुए

तथापि परम भगवान के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। अतः वे एक अद्भुत रूप में प्रकट हुए। वे न तो मनुष्य थे, न ही सिंह के रूप में थे। उन्होंने किसी शस्त्र से नहीं, अपितु हिरण्यकशिपु को अपनी जाँघों पर रखकर अपने नुकीले नाखुनों से उसका वध किया, न कि धरती, जल या आकाश में, या किसी शस्त्र से; न किसी कक्ष के अंदर और न बाहर, बल्कि उसके राजभवन की चौखट पर नृसिंहदेव विराजमान थे। उन्होंने न तो दिन के समय और न रात में, अपितु संधिकाल में अर्थात संध्या के समय में असुरराज का वध किया। हिरण्यकशिपु के वध के उपरांत नृसिंहदेव की जटाएँ रक्त से लथपथ हो गईं और हिरण्यकशिपु की अंतड़ियाँ नृसिंहदेव के वक्ष पर फूलों की माला के समान प्रतीत हो रही थी। जैसे किसी सिंह ने एक हाथी को मार दिया हो। हिरण्यकशिपु के अनेक सैनिक भगवान से युद्ध करने हेतु आये, लेकिन भगवान ने अपने नुकीले नाखूनों से उन्हें चीर डाला।

 

“भगवान नृसिंहदेव के मुख तथा गरदन के बाल रक्त के छीटों से सने थे और क्रोध से पूर्ण होने के कारण उनकी भयानक आँखों की ओर देख पाना असंभव था। वे अपने मुँह की कोरों को जीभ से चाट रहे थे तथा हिरण्यकशिपु के उदर से निकली आँतों की माला से सुशोभित थे। वे उस सिंह की भाँति प्रतीत हो रहे थे जिस ने अभी-अभी किसी हाथी को मारा हो।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.30]

 

“अनेकानेक भुजाओं वाले भगवान ने सर्वप्रथम हिरण्यकशिपु का हृदय निकाल लिया और उसे एक ओर फेंक दिया। फिर वे असुर सैनिकों की ओर मुड़े। ये सैनिक हजारों के झुंड में भगवान से लड़ने आये थे और हाथों में हथियार उठाए थे। ये हिरण्यकशिपु के अत्यंत स्वामिभक्त अनुचर थे, किंतु नृसिंहदेव ने उन्हें अपने नाखून की नोकों से ही मार डाला।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.31]

 

“नृसिंह देव के सिर के बालों से बादल हिलकर इधर-उधर बिखर गए। उनकी जलती आँखों से आकाश के नक्षत्रों का तेज मंद पड़ गया और उनके श्वास से समुद्र क्षुब्ध हो उठे। उनकी गर्जन से संसार के सारे हाथी भय से चिग्घाड़ने लगे।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.32]

 

“नृसिंह देव के सिर के बालों से विमान बाह्य आकश तथा उच्च लोकों में जा गिरे। भगवान के चरणकमलों के दबाव से पृथ्वी अपनी स्थिति से छिटकती प्रतीत हुई और उनके असह्य बल से सारे पर्वत ऊपर उछल गये। भगवान के शारीरिक तेज से आकाश तथा समस्त दिशाओं का प्राकृतिक प्रकाश घट गया।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.33]

 

“अपना पूर्ण तेज तथा भयंकर मुखमंडल दिखलाते हुए नृसिंह देव अत्यंत क्रुद्ध होने तथा अपने बल एवं ऐश्वर्य का सामना करने वाले किसी को न पाकर सभा भवन में राजा के श्रेष्ठतम सिंहासन पर जा बैठे। भय तथा आज्ञाकारिता के कारण किसी में साहस न हुआ कि सामने आकर भगवान की सेवा करे।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.34]

 

“हिरण्यकशिपु तीनों लोकों का सिर दर्द बना हुआ था। अतएव जब स्वर्गलोक में देवताओं की पत्नियों ने देखा कि इस महान असुर का वध भगवान के हाथों हो गया है, तो उनके चेहरे प्रसन्नता के मारे खिल उठे। देवताओं की स्त्रियों ने स्वर्ग से भगवान नृसिंह देव पर पुन: पुन: फूलों की वर्षा की।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.35]

 

“उस समय भगवान नारायण का दर्शन करने के इच्छुक देवताओं के विमानों से आकाश पट गया। देवतागण डोल तथा नगाड़े बजाने लगे जिन्हें सुनकर देव लोक कि स्त्रियाँ नाचने लगीं और गंधर्वों के मुखिया मधुर गान गाने लगे।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.36]

 

“हे राजा युधिष्ठिर, तब सारे देवता भगवान के निकट आ गये। उनमें ब्रह्माजी, इंद्र तथा शिवजी प्रमुख थे और उनके साथ बड़े-बड़े साधु पुरुष एवं पितृलोक, सिद्धलोक, विद्याधर लोक तथा नागलोक के निवासी भी थे। वहीं सारे मनु तथा अन्य लोकों के प्रजापति भी पहुँचे गये। अप्सराओं के साथ-साथ गंधर्व, चारण, यक्ष, किन्नर, बेताल, किम्पुरुष लोक के वासी तथा विष्णु के पार्षद सुनंद एवं कुमुद आदि भी पहुँचे। ये सभी भगवान के निकट आये जो अपने तीव्र प्रकाश से चमक रहे थे। इन सबों ने अपने-अपने सिरों के ऊपर हाथ जोड़कर नमस्कार किया तथा स्तुतियाँ कीं।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.37-39]

 

“ब्रह्माजी ने प्रार्थना की: हे प्रभु, आप अनंत हैं और आपकी शक्ति का कोई अंत नहीं है। कोई भी आपके पराक्रम तथा अद्भुत प्रभाव का अनुमान नहीं लगा सकता, क्योंकि आपके कर्म माया द्वारा दूषित नहीं होते। आप भौतिक गुणों से सहज ही ब्रह्माण्ड का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं लेकिन तो भी आप अव्यय बने रहते हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।” [श्रीमद्-भागवतम 7.8.40]

 

प्रह्लाद महाराज ने दिव्य ज्ञान प्राप्त किया

 

नृसिंहदेव अत्यंत क्रोधित थे और कोई उनके समक्ष नहीं जा रहा था। लक्ष्मीदेवी भी उनके निकट नहीं जा सकीं। अंत में, ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद महाराज को उन्हें शांत करने के लिए अनुरोध किया। प्रह्लाद महाराज बिना किसी भय के नृसिंहदेव के निकट आए और उन्होंने उनके चरणकमलों में दंडवत प्रणाम किया। समस्त देवगण भयभीत हो रहे थे, किंतु प्रह्लाद निडर थे, क्योंकि वे नृसिंहदेव के प्रिय भक्त हैं। तत्पश्चात नृसिंहदेव ने अपना हस्तकमल प्रह्लाद महाराज के मस्तक पर रख दिया और तत्क्षण प्रह्लाद महाराज को दिव्य ज्ञान रूपी प्रसाद प्राप्त हो गया। तब प्रह्लाद महाराज ने भगवान की अनेक स्तुतियाँ कीं जो श्रीमद्भागवतम के सप्तम स्कंध, नवम अध्याय में वर्णित हैं।

 

प्रह्लाद महाराज ने प्रार्थना की: “असुर परिवार में जन्म लेने के कारण यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मैं भगवान को प्रसन्न करने के लिए उपयुक्त प्रार्थना कर सकूँ? आज तक ब्रह्मा इत्यादि सारे देवता तथा समस्त मुनिगण उत्तमोत्तम वाणी से भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाये, यद्यपि वे सारे व्यक्ति सतोगुण एवं परम योग्य हैं, तो फिर मेरे विषय में क्या कहा जाय? मैं तो बिल्कुल ही अयोग्य हूँ।” [श्रीमद्-भागवतम 7.9.8]

 

प्रह्लाद महाराज ने आगे कहा: “भले ही मनुष्य के पास सम्पत्ति, राजसी परिवार, सौंदर्य, तपस्या, शिक्षा, दक्षता, कांति, प्रभाव, शारीरिक शक्ति, उद्यम, बुद्धि तथा योगशक्ति क्यों न हो, किंतु मेरी समझ से इन सारी योग्यताओं से भी कोई व्यक्ति भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकता। किंतु भक्ति से वह ऐसा कर सकता है। गजेंद्र ने ऐसा किया और इस तरह भगवान उससे प्रसन्न हो गये।” [श्रीमद्-भागवतम 7.9.9]

 

“यदि किसी ब्राह्मण में बारह योग्यताएँ (सनत्सुजात ग्रन्थ में उल्लिखित) हों किंतु यदि वह भक्त नहीं है और भगवान के चरणकमलों से विमुख है, तो वह उस चाण्डाल भक्त से भी अधम होता है, जिसने अपना सर्वस्व मन, वचन, कर्म, सम्पत्ति तथा जीवन भगवान को अर्पित कर दिया है। ऐसा भक्त उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ है, क्योंकि भक्त अपने सारे परिवार को पवित्र कर सकता है जब कि झूठी प्रतिष्ठा वाला तथाकथित ब्राह्मण अपने आप को भी शुद्ध नहीं कर पाता।” [श्रीमद्-भागवतम 7.9.10]

 

“भगवान सदैव आत्मतुष्ट रहने वाले हैं, अतएव जब उन्हें कोई भेंट अर्पित की जाती है, तो भगवत्कृपा से यह भेंट भक्त के लाभ के लिए ही होती है, क्योंकि भगवान को किसी की सेवा की आवश्यकता नहीं है। उदाहरणार्थ, यदि किसी का मुख सज्जित हो तो दर्पण में उसके मुख का प्रतिबिम्ब भी सज्जित दिखता है।” [श्रीमद्-भागवतम 7.9.11]

 

“अतएव यद्यपि मैंने असुरकुल में जन्म लिया है, तो भी निस्संदेह, जहाँ तक मेरी बुद्धि जाती है मैं पूरे प्रयास से भगवान की प्रार्थना करूँगा। जो भी व्यक्ति अज्ञान के कारण इस भौतिक जगत में प्रविष्ट होने को बाध्य हुआ है, वह भौतिक जीवन को पवित्र बना सकता है यदि वह भगवान की प्रार्थना करे और उनके यश का श्रवण करे।” [श्रीमद्-भागवतम 7.9.12]

 

भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय है

 

भगवान के वक्षस्थल पर विराजमान स्वयं लक्ष्मीदेवी भी इस दिव्य ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकीं किंतु भगवान के प्रिय भक्त यह कृपा सरलता से प्राप्त कर लेते हैं। भगवान सभी के प्रति सम है, "समः सर्वेषु भूतेषु" (भगवद गीता 18.54)। न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: (भगवद गीता 9.29) - "मैं किसी से द्वेष नहीं करता और न ही किसी के प्रति पक्षपात करता हूँ। परंतु भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय होता है"। "ये भजन्ति तु मां भक्त्या" (भगवद गीता 9.29) - "जो मुझे भक्तिभाव से भजते हैं, वे मुझमें रहते हैं और मैं उनमें रहता हूँ।" यद्यपि भगवान् निष्पक्ष हैं, किंतु अपने भक्तों के प्रति उनका विशेष प्रेम होता है।

 

भय से मुक्ति हेतु भगवान श्रीनृसिंह देव से प्रार्थना करें

ऊपर वर्णित सभी प्रह्लाद महाराज द्वारा अर्पित की गईं प्रार्थनाएँ हैं और उनमें से एक विशेष प्रार्थना है-

 

तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य

मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या ।

लोकाश्च निर्वृतिमिता: प्रतियन्ति सर्वे

रूपं नृसिंह विभयाय जना: स्मरन्ति ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.9.14]

“अतएव हे नृसिंहदेव भगवान, आप अपना क्रोध अब त्याग दें, क्योंकि मेरा पिता महा असुर हिरण्यकशिपु मारा जा चुका है। चूँकि साधु पुरुष भी साँप या बिच्छू के मारे जाने पर प्रसन्न होते हैं, अतएव इस असुर की मृत्यु से सारे लोकों को परम संतोष हुआ है। अब वे अपने सुख के प्रति आश्वस्त हैं और भय से मुक्त होने के लिए आपके इस कल्याणप्रद अवतार का सदैव स्मरण करेंगे।”

 

इस श्लोक में बताया गया है कि बिच्छु और सर्पो की हत्या की जा सकती है। यद्यपि, सामान्य रूप से साधुजन अन्य जीवों को कदापि कष्ट नहीं पँहुचाते हैं। परन्तु, वे दुष्टों का वध होने पर प्रसन्न होते हैं। हमें भय से मुक्ति के लिए सदैव "नमस्ते नरसिंहाय" प्रार्थना का गान करना चाहिए। नृसिंहदेव, भक्ति के पथ पर समस्त विघ्नों को नष्ट कर देते हैं। इसीलिए हम नृसिंह-प्रणाम का उच्चारण करते हैं। कोई भी यात्रा आरंभ करने से पूर्व हमें नृसिंह-प्रणाम का उच्चारण अवश्य करना चाहिए, ताकि उस यात्रा में कोई भय, बाधा या विकट स्थिति न आए। नृसिंहदेव स्वयं विघ्नों का नाश करते हैं।

 

मुझे शुद्ध-भक्त का संग प्रदान करें

 

तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषोऽज्ञ

आयु: श्रियं विभवमैन्द्रियमाविरिञ्‍च्यात् ।

नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण

कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.9.24]

“हे भगवन, अब मुझे सांसारिक ऐश्वर्य, योगशक्ति, दीर्घायु तथा ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक के सारे जीवों द्वारा भोग्य अन्य आनंदों का पूरा-पूरा अनुभव है। आप शक्तिशाली काल के रूप में इन सबों को नष्ट कर देते हैं। अत: मैं अपने अनुभव के आधार पर इन सबों को नहीं लेना चाहता। हे भगवान, मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अपने शुद्ध भक्त के सम्पर्क में रखें और निष्ठावान दास के रूप में उनकी सेवा करने दें।”

 

वैष्णव सभी जीवों से प्रेम करते हैं।

 

जब नृसिंहदेव ने प्रह्लाद को मुक्ति का वरदान दिया, तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। अस्वीकृति का कारण उनके द्वारा की गयी निम्नलिखित प्रार्थना में वर्णित है:

 

प्रायेण देव मुनय: स्वविमुक्तिकामा

मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा: ।

नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको

नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.9.44]

“हे भगवान नृसिंहदेव, मैं देख रहा हूँ कि सन्त पुरुष तो अनेक हैं, किंतु वे अपने ही मोक्ष में रुचि रखते हैं। वे बड़े-बड़े नगरों की परवाह न करते हुए मौन व्रत धारण करके ध्यान करने के लिए हिमालय या वन में चले जाते हैं; वे दूसरों की मुक्ति में रुचि नहीं रखते, किंतु जहाँ तक मेरी बात है मैं इन बेचारे मूर्खों तथा धूर्तों को छोड़कर अकेले अपनी मुक्ति नहीं चाहता। मैं जानता हूँ कि कृष्णभावनामृत के बिना और आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता। अतएव मैं उन सबों को आपके चरणकमलों की शरण में वापस लाना चाहता हूँ।”

 

मुनि तथा साधुजन मुख्यतया केवल स्वयं के लिए मोक्ष चाहते हैं। वे साधना के लिए हिमालय पर्वत जैसे एकांत स्थान पर जाते हैं और वहाँ कठोर तपस्या करते हैं। परन्तु, दुःखी जीवों, म्लेच्छों, यवनों, नारकीय लोको में उपस्थित प्राणियों के उद्धार के विषय में कौन विचार करता है? पश्चिमी देशों की तुलना यहाँ नारकीय लोको से की गयी है। केवल एक वैष्णव साधु इन जीवों के कष्ट के बारे में चिंतित रहते है और उन्हें कृष्ण चेतना का उपदेश देने तथा सुषुप्त कृष्ण प्रेम को जाग्रत करने हेतु उनके पास जाते है। केवल प्रह्लाद महाराज जैसे शुद्ध वैष्णव ही यह कार्य कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। एक वैष्णव का हृदय अत्यंत दयालु और कृपालु होता है। वे सभी जीवों से प्रेम करते हैं, यहाँ तक कि वो मल के कीड़े के उद्धार के बारे में भी सोचते हैं।

 

मैं आपको प्रणाम करता हूँ

यह श्रीमद्-भागवतम् में वर्णित प्रह्लाद महाराज की एक अन्य प्रार्थना है:

 

तत्तेऽर्हत्तम नम: स्तुतिकर्मपूजा:

कर्म स्मृतिश्चरणयो: श्रवणं कथायाम् ।

संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं

भक्तिं जन: परमहंसगतौ लभेत ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.9.50]

“अतएव हे श्रेष्ठतम पूज्य भगवान, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि षडंग भक्ति किये बिना परमहंस को प्राप्त होने वाला लाभ भला कौन प्राप्त कर सकता है? षडंग भक्त के अंग हैं – प्रार्थना करना, समस्त कर्म फलों को भगवान को समर्पित करना, पूजा करना, आपके चरणकमलों को सदैव स्मरण करना तथा आपके यश का श्रवण करना।”

 

व्यापारी के सादृश्य

इसके पश्चात प्रह्लाद महाराज ने कहा,

 

नान्यथा तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मन: ।

यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्य: स वै वणिक् ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.10.4]

“अन्यथा हे भगवान, हे समस्त जगत के परम शिक्षक, आप अपने इस भक्त के प्रति इतने दयालु हैं कि आपने उससे कुछ भी ऐसा करने को प्रेरित नहीं किया जो उसके लिए अलाभकारी हो। दूसरी ओर, जो व्यक्ति आपकी भक्ति के बदले में कुछ भौतिक लाभ चाहता है, वह आपका शुद्ध भक्त नहीं हो सकता। वह उस व्यापारी की तरह ही है, जो सेवा के बदले में लाभ चाहता है।”

 

जो भगवान के साथ व्यापार करता है, वह एक व्यापारी के समान है – “यदि मैं आपको यह अर्पित करता हूँ, तो आपको मुझे यह प्रदान करना पड़ेगा।”

 

अहं त्वकामस्त्वद्भ‍क्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रय: ।

नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.10.6]

“हे प्रभु, मैं आपका नि: स्वार्थ सेवक हूँ और आप मेरे नित्य स्वामी हैं। सेवक तथा स्वामी होने के अतिरिक्त हमें कुछ भी नहीं चाहिए। आप प्राकृतिक रूप से मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूँ। हम दोनों में कोई अन्य संबंध नहीं है।”

 

एकमात्र प्रार्थना (जो प्रत्येक व्यक्ति को करनी चाहिए)

 

यदि दास्यसि मे कामान्वरांस्त्वं वरदर्षभ ।

कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.10.7]

“हे सर्वश्रेष्ठ वरदाता स्वामी, यदि आप मुझे कोई वांछित वर देना ही चाहते हैं, तो मेरी आपसे प्रार्थना है कि मेरे हृदय में किसी प्रकार की भौतिक इच्छाएँ न रहें।”

 

हमें भगवान् से यह प्रार्थना करनी चाहिए, और यदि भगवान् यह वरदान देते हैं, तो हमारी समस्त भौतिक इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। हमारे हृदय में अनेक कामुकताएँ हैं जो भक्ति में महत्तम अवरोध हैं। ये वासनाएँ कौन नष्ट कर सकता है? इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को शुद्ध हृदय से भगवान के चरणकमलों में प्रार्थना करनी चाहिए। "यदि आप मुझे वरदान देना चाहते हैं, तो कृपया मेरी समस्त भौतिक इच्छाएँ नष्ट कर दें, ताकि मेरे हृदय में कभी भी, किसी भी परिस्थिति में, कोई भौतिक इच्छा उदित न हो"। अतः जब नृसिंहदेव ने प्रह्लाद महाराज से वांछित वर माँगने हेतु कहा, तो प्रह्लाद महाराज ने यही वर माँगा।

 

मेरी इच्छा है कि आप उन्हें क्षमा कर दें

तब प्रह्लाद महाराज ने निम्नलिखित तीन प्रार्थनाएँ अर्पित की:

 

वरं वरय एतत्ते वरदेशान्महेश्वर ।

यदनिन्दत्पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम् ॥

 

विद्धामर्षाशय: साक्षात्सर्वलोकगुरुं प्रभुम् ।

भ्रातृहेति मृषाद‍ृष्टिस्त्वद्भ‍क्ते मयि चाघवान् ॥

 

तस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद् दुस्तरादघात् ।

पूतस्तेऽपाङ्गसंद‍ृष्टस्तदा कृपणवत्सल ॥

[श्रीमद्-भागवतम 7.10.15-17]

प्रह्लाद महाराज ने कहा: “हे परमेश्वर, चूँकि आप पतितात्माओं पर इतने दयालु हैं अतएव मैं आपसे एक ही वर माँगता हूँ। मैं जानता हूँ कि आपने मेरे पिता की मृत्यु के समय अपनी कृपादृष्टि डालकर उन्हें पवित्र कर दिया था, किंतु वे आपकी शक्ति तथा श्रेष्ठता से अनजान होने के कारण आप पर मिथ्या ही यह सोचकर क्रुद्ध थे कि आप उनके भाई को मारने वाले हैं। इस तरह उन्होंने समस्त जीवों के गुरु आपकी प्रत्यक्ष निंदा की थी और आपके भक्त अर्थात् मेरे ऊपर जघन्य पातक किये थे। मेरी इच्छा है कि उन्हें इन पापों के लिए क्षमा कर दिया जाये।”

 

एक वैष्णव अपने कुल के लिए क्या कर सकता है?

जब प्रहलाद महाराज ने अपने पिता के लिए प्रार्थना की, तो भगवान् ने हिरण्यकशिपु को क्षमा कर दिया। भगवान् ने कहा –

 

त्रि:सप्तभि: पिता पूत: पितृभि: सह तेऽनघ ।

यत्साधोऽस्य कुले जातो भवान्वै कुलपावन: ॥

भगवान् ने कहा: “हे परम पवित्र, साधु पुरुष, तुम्हारे पिता तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुरखों सहित पवित्र कर दिए गए हैं। चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए थे, अतएव सारा कुल पवित्र हो गया।“ [श्रीमद्-भागवतम 7.10.18]

 

यहाँ एक वैष्णव की महिमा बताई गई है। यदि किसी परिवार में प्रह्लाद महाराज जैसा वैष्णव जन्म लेता है, तो उस कुल की इक्कीस पीढ़ियाँ भवसागर से मुक्त हो जाती हैं। यदि एक पुत्र वैष्णव बन जाता है, तो वह कुल के लिए वरदान होता है! अतः यदि आप संतान चाहते हैं, तो प्रह्लाद जैसा पुत्र उत्पन्न करें। अन्यथा संतानोत्पत्ति से क्या लाभ? शूकर सैकड़ों संतान उत्पन्न करते हैं, परन्तु वे सभी मल का सेवन ही करते हैं। यह व्यर्थ है। अतः प्रह्लाद जैसा पुत्र प्राप्त करके माता-पिता गौरवान्वित होते हैं। वास्तव में वही एक उचित माता-पिता कहलाते हैं। अन्यथा वे केवल शूकर और मादा शूकर मात्र हैं, जो केवल कामुकता में लिप्त रहते हैं। कामवासना से केवल वर्णशंकर उत्पन्न होते हैं, जो शूकर के समान केवल मल का सेवन करने में रत रहते हैं। ऐसी संतानों की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आप विवाह करना चाहते हैं, तो प्रह्लाद जैसा वैष्णव पुत्र पैदा करें। तब माता-पिता का भी आदर होगा, अन्यथा भोग वासना हेतु विवाह करना अपराध है।

 

ये प्रह्लाद महाराज की कुछ प्रार्थनाएँ हैं। हमें भी परम भगवान से यह प्रार्थना करनी चाहिए। विशेष रूप से नृसिंह चतुर्दशी जैसे पवित्र दिवस पर हमें जगन्नाथ से, जिन्होंने नृसिंह रूप धारण किया है, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए: "हे भगवान, आपके इस पवित्र आविर्भाव दिवस पर मुझे यह वरदान दीजिए कि मेरे हृदय में कोई भौतिक इच्छा, कोई काम वासना उत्पन्न न हो। कृपया मेरी समस्त काम वासनाएँ नष्ट कर दीजिये।"

 

उपवास और प्रार्थनाओं के द्वारा नृसिंह चतुर्दशी का पालन करें

 

वैशाखस्य चतुर्द्दश्यां शुक्लायां श्रीनृकेशरी ।

जातस्तदस्यां तत्पूजोत्सवं कुर्व्वीत सव्रतम् ॥

यह श्लोक हरि-भक्ति-विलास में वर्णित है। श्रील सनातन गोस्वामी पद्म पुराण से यह श्लोक उद्धृत कर रहे हैं।

वैशाख मास, शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को नृसिंहदेव प्रकट हुए थे। इसलिए, इस पवित्र तिथि पर प्रतिवर्ष सभी भक्त उपवास करते हैं और नृसिंहदेव से प्रार्थना करते हुए इसका पालन करते हैं।

 

भक्त की पूजा श्रेष्ठ है

 

प्रह्लादक्लेशनाशाय या हि पुण्या चतुर्द्दशी ।

पूजयेत्तत्र यत्नेन हरेः प्रह्लादमग्रतः ॥

इस तिथि पर नृसिंहदेव की पूजा-अर्चना से पूर्व, हमें उनके परम भक्त प्रह्लाद महाराज की आराधना करनी चाहिए। भगवान के भक्त की पूजा, भगवान की प्रत्यक्ष पूजा से श्रेष्ठ है। भगवान अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद महाराज की उनके आसुरी पिता हिरण्यकश्यिपु के उत्पीड़न से रक्षा प्रदान करने हेतु प्रकट हुए थे। इसलिए इस तिथि पर सर्वप्रथम प्रह्लाद महाराज की आराधना की जाती है, तत्पश्चात भगवान नृसिंहदेव की पूजा-अर्चना।साथ ही, इस दिन उपवास का पालन करना अनिवार्य है। आप एकादशी की तरह अनुकल्प ले सकते हैं।

 

नृसिंह चतुर्दशी व्रत पालन का फल    

 

नृसिंह पुराण में उल्लेख है कि प्रह्लाद महाराज ने नृसिंहदेव से प्रश्न किया था कि वे उनके प्रति भक्ति कैसे विकसित कर सकते हैं। नृसिंहदेव ने उत्तर में कहा: "प्राचीन काल में, अवंतीपुर नगर में, वसु शर्मा नाम का एक अति विद्वान् ब्राह्मण निवास करता था। वह वेदज्ञ, अर्थात वेदों का ज्ञाता था। उसकी पत्नी का नाम सुशीला था। वह अत्यंत पतिव्रता, सर्व गुण संपन्न थीं और पति के प्रति भक्ति के लिए सुप्रसिद्ध थीं। इस दम्पति ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया। उनमें से चार सुन्दर स्वभाव तथा व्यवहार वाले, विद्वान और आज्ञाकारी पुत्र थे। परन्तु, सबसे छोटा पुत्र वसुदेव अपवाद था।" नृसिंहदेव ने प्रह्लाद की ओर संकेत करते हुए कहा, "तुम्हारा नाम वसुदेव था। तुम्हारा चरित्र दूषित था और तुम एक वेश्यागामी थे। एक दिन तुमने एक वेश्या से झगड़ा कर लिया। उस रात आप दोनों ने इस मनमुटाव के कारण अन्न ग्रहण नहीं किया। सौभाग्य से, वह मेरा प्राकट्य दिवस था। परिणामस्वरूप तुम दोनों को मेरे आविर्भाव के दिन उपवास करने का शुभ फल प्राप्त हुआ।" इसलिए आज नृसिंह चतुर्दशी के परम पावन अवसर पर सबको उपवास करना चाहिए। "तुम मेरे प्रिय भक्त प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु के पुत्र के रूप में पैदा हुए। उस वेश्या ने  स्वर्गीय लोक की एक अप्सरा के रूप में जन्म लिया और उसे अत्यधिक भौतिक भोग प्राप्त हुआ। कुछ समय पश्चात वह मेरी भक्त बन गई। और अब, तुम असुर कुल में जन्म के बावजूद भी मेरे अतिप्रिय भक्त हो। यहाँ तक कि ब्रह्मा तथा शिव भी नृसिंह चतुर्दशी-व्रत का पालन करते हैं। मेरा व्रत रखने से, ब्रह्मा को सृजनात्मक शक्ति प्राप्त होती है। इस व्रत के प्रभाव से शिव जी त्रिपुरासुर नामक दानव का वध करने में सामर्थ्यवान हुए। जो भी मेरे आविर्भाव के दिन मेरा व्रत रखते हैं, मैं उनकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण करता हूँ।"

 

मेरे हृदय में भौतिक इच्छाएँ कभी उदित न हों

 

नृसिंहदेव आज के दिन अत्यंत दयालु होते हैं, इसलिए हमें उनसे यह प्रार्थना करनी चाहिए: "हे सर्वदयालु नृसिंहदेव, आज आपके आविर्भाव दिवस पर मुझे केवल यह वरदान प्रदान करें कि कभी भी, किसी भी परिस्थिति में, मेरे हृदय में भौतिक इच्छाएँ उत्पन्न न हों। नित्यप्रति मेरे हृदय में आपकी शुद्ध भक्ति विकसित हो। कृपया मुझे यह वरदान प्रदान करे।" आप सभी को एकमात्र यही प्रार्थना करनी चाहिए। हम सभी अनेक भौतिक इच्छाओं से ग्रस्त हैं। नृसिंहदेव आज अत्यंत दयालु होते हैं इसलिए वे निश्चित रूप से आपको यह वरदान प्रदान करेंगे। भगवान अनंत हैं और उनकी कथायें अनंत है। मुझे आशा है कि आज की कथा से आप सभी के हृदय में भगवान के प्रति शुद्ध भक्ति विकसित होगी, और भगवान नृसिंहदेव आपकी भक्ति मार्ग में आने वाली समस्त बाधाएँ और अशुभता का नाश करेंगे।

 

भगवान् नृसिंहदेव की जय!

भक्त प्रह्लाद महाराज की जय!

गौर-प्रेमानंदे हरि हरिबोल!

 

प्रश्नोत्तर

नृसिंह भगवान की विशेष कृपा

भक्त १: गुरुदेव, चैतन्य-चरितामृत में गुंडीचा-मंदिर मार्जन, हृदय के मार्जन का रूपक है। तो, क्या साधक के लिए भगवान् नृसिंहदेव द्वारा हिरण्यकशिपु के वध की लीला का भी कोई रूपक है?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ(अवश्य)। हिरण्यकशिपु के वध का अर्थ है आसुरी प्रवृत्ति विनाश होना।

भक्त १: जब समस्त अवतार कृष्ण में समाहित हैं, तो फिर नृसिंहदेव के स्वरूप पर अलग से ध्यान करने की क्या आवश्यकता है?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: नृसिंहदेव आसुरी प्रवृत्तियों को नष्ट करते हैं। इसलिए, हम विशेष रूप से नृसिंहदेव को प्रणाम करते हैं। हमारे हृदय में अनेक कामुक इच्छाएं हैं। वास्तव में हम सभी में वैष्णव गुण न्यून मात्रा में हैं और आसुरिक गुण अधिक हैं। इसलिए, नृसिंहदेव से प्रार्थना करनी चाहिए कि वे हमारी समस्त आसुरिक प्रवृत्तियों को नष्ट कर दें। हमारे भीतर भक्त का कोई लक्षण नहीं हैं, हम वास्तव में असुर हैं। भौतिक जगत असुरों से युक्त है, जिसका अर्थ है कि यहाँ सर्वत्र अतिशय ईर्ष्या है। असुर अत्यंत द्वेषी होते हैं और भक्त ईर्ष्या रहित। नृसिंहदेव इन समस्त आसुरिक गुणों का नाश कर देंगे और भक्ति मार्ग को समस्त अशुभता, तथा अवरोधों से मुक्त कर देंगे। तब आप भक्ति पथ पर सहजता से अग्रसर हो सकेंगे। यह नृसिंहदेव की  कृपा की उत्कृष्ट विशेषता है। इसलिए हम उनसे प्रार्थना करते हैं।

 

नृसिंहदेव कल्प अवतार हैं

 

भक्त २: गुरुदेव, आज आपने बताया कि सर्वप्रथम भगवान नृसिंहदेव ने आदिदैत्य हिरण्यकश्यप का वध किया। तत्पश्चात, प्रह्लाद महाराज से भगवान नृसिंहदेव ने कहा कि पूर्व जन्म में, उन्होंने वेश्या से झगड़कर अनजाने में उपवास किया। संयोग से, उस दिन भगवान नृसिंहदेव का आविर्भाव दिवस था।

श्रील गौर गोविंद स्वामी: यह एक अनोखा संयोग था।

भक्त २: जी गुरुदेव, एक अनोखा संयोग था और इसीलिए उन्हें उपवास का फल प्राप्त हुआ और फलतः उन्होंने प्रह्लाद महाराज के रूप में जन्म लिया। तब क्या इसका अर्थ है कि भगवान नृसिंहदेव पहले भी प्रकट हो चुके हैं?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ, वे कल्प-अवतार हैं, और प्रत्येक कल्प में अवतरित होते हैं।

भक्त २: तो फिर, जब हिरण्यकश्यप को आदिदैत्य कहा जाता है, तब इस अवतार के पूर्व में भगवान नृसिंहदेव की क्या लीलायें थी?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: प्रत्येक कल्प में भगवान यह लीला करते हैं। प्रत्येक कल्प में, जय और विजय नाम के दो राक्षस भौतिक जगत में आते हैं और भगवान उनका वध करने के लिए प्रकट होते हैं।

यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण बात उल्लेखनीय है। नृसिंहादेव की लीला में, प्रह्लाद महाराज उनके शाश्वत संगी हैं। तो फिर यह कैसे संभव है कि उन्होंने वसु शर्मा के पुत्र के रूप में जन्म लिया, जो एक वेश्यागामी हुए और इसके पश्चात प्रह्लाद बन गए? भगवान् के एक शाश्वत संगी के लिए यह [पतन] कैसे सम्भव हैं? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। जब नृसिंह भगवान् की लीला किसी भी ब्रह्माण्ड में होती है, तो प्रह्लाद महाराज वहाँ अवश्य उपस्थित होते हैं और लीला में सहभाग लेते हैं। अन्यथा भक्त के बिना लीला कैसे प्रकट होगी? अतः प्रह्लाद महाराज शाश्वत सहयोगी के रूप में प्रकट होते हैं। तब वसु शर्मा का पुत्र प्रह्लाद महाराज कैसे बना? यह एक बहुत महत्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न है। नृसिंह पुराण में नृसिंह देव प्रह्लाद महाराज को बतलाते हैं कि अनजाने में व्रत रखने के कारण, वसु शर्मा के पुत्र में भक्ति जाग्रत हुई। इसलिए उस विष्णु भक्त को हिरण्यकशिपु के पुत्र के रूप में जन्म मिला। यह भी सत्य है। वास्तव में, वसु शर्मा के अनुज पुत्र नित्य पार्षद प्रह्लाद महाराज के शरीर में प्रवेश कर गए।

भक्त २: तो क्या प्रह्लाद महाराज भी उस शरीर में विद्यमान थे?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: जी हाँ, प्रह्लाद महाराज भगवान के शाश्वत पार्षद हैं।

भक्त २: तो क्या प्रह्लाद महाराज उसके शरीर में प्रवेश कर गए?

श्रील गौर गोविंद स्वामी: जी हाँ। ऐसा होता है। इसी प्रकार गौर लीला में राय रामानन्द आये - उनके शरीर में तीन संगी विद्यमान थे - विशाखा सखी, अर्जुनीय सखी और अर्जुन।

भक्त १: यह कैसे संभव है?

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: अरे बाबा! भगवान् के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वे कोई भी कृत्य कर सकते हैं और उसके विपरीत भी कर सकते हैं। आपके लिए जो कार्य अकल्पनीय है, वह भगवान् के लिए अत्यंत सरल है।

भक्त ३: भगवान नृसिंहदेव कब प्रकट होते हैं?

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: प्रत्येक कल्प में एक बार।

भक्त ३: केवल कल्प में एक बार?

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: हाँ, प्रत्येक कल्प में।

भक्त ३: परन्तु, उनके प्राकट्य का कारण देखते हुए, यह अविश्वसनीय लगता है कि वह प्रत्येक कल्प में प्रकट होते होंगे।     

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: वे कल्प-अवतार हैं।

भक्त ४: तो इसका अर्थ हैं कि प्रत्येक कल्प में हिरण्यकशिपु भी होता होगा...

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: जी हाँ।

भक्त ३: तब क्या जय और विजय भी हर कल्प में अवतरित होते हैं?

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: हाँ, अन्यथा भगवान राम कैसे प्रकट होंगे? हर कल्प में, त्रेता युग में भगवान श्रीराम प्रकट होते हैं, तो श्रीराम की भौम्य लीला भी होती है, इस प्रकार नृसिंह-लीला भी प्रत्येक कल्प में होती है। अतः वे कल्प-अवतार हैं, हर कल्प में अवतरित होते हैं।

भक्त ३: यह अकल्पनीय है कि कैसे...

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: हाँ, भगवान् की लीला अकल्पनीय है, हम भौतिक बुद्धी से इनकी कल्पना भी नहीं कर सकते।

भक्त ४: तब क्या इसका अर्थ है कि चार कुमार भी प्रत्येक कल्प में वैकुंठ जाते हैं, और फिर जय और विजय से उनका विवाद होता है?

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: हाँ, हाँ, प्रत्येक कल्प में। वे कल्प-अवतार हैं। नृसिंहदेव भगवान् श्रीराम की तरह ही कल्प-अवतार हैं। भगवान् राम, और नृसिंह सद्गुण-परावस्थ-अवतार हैं। श्रील रूप गोस्वामी ने लघु-भागवतामृत में, इसका उल्लेख किया है और हमने ऊपर इसकी विस्तृत व्याख्या किया है।

भक्त १: श्रीमद्-भागवतम्‌ में वर्णित सभी प्रसंगों में पात्रों (यथा प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु) के नामों का अर्थ प्रसंग से मेल खाता है। यह कैसे संभव है। जैसे हिरण्यकशिपु का अर्थ है आसुरिक गुणवाला, स्वर्ण की शय्या।

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: हिरण्य और कशिपु; हिरण्य का अर्थ है स्वर्ण; कशिपु का अर्थ है कोमल शय्या। इस प्रकार हिरण्यकशिपु का अर्थ है:  वह व्यक्ति जो प्रत्येक वस्तु का भोग करना चाहता हो। वह स्वयं को प्रत्येक वस्तु का भोक्ता समझता है। जबकि कृष्ण ही एकमात्र भोक्ता हैं। वह कहता है, "मैं भगवान हूँ। तुम्हारा भगवान कौन है?" 

भक्त १: और प्रह्लाद नाम का क्या अर्थ है?

श्रील गौऱ गोविंद स्वामी: प्रह्लाद, आह्लाद का अर्थ है प्रभु को प्रसन्न करना। प्रह्लादाह्लाद-दायिने।

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