प्रभु की चाल
प्रिय पाठकगण,
परम दयालु भगवान श्री कृष्ण व्यक्तिगत रूप से बद्ध-आत्माओं की विभिन्न उपायों द्वारा सहायता करना चाहते हैं। समस्त उपायों में से सर्वाधिक मंगलप्रद व उपयुक्त उपाय है – अपने नित्य-परिकर को इस भौतिक संसार में भेजना।
शुद्ध-भक्तों का मुख्य उद्देश्य बद्ध-जीवों को सभी प्रकार के संभावित कष्टों से बचाना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीकृष्ण अत्यंत दयालु हैं, परंतु साथ ही उनसे ज्ञान तथा कृपा प्राप्त करने की कुछ शर्ते भी हैं, जैसा कि हम भगवद्-गीता (१८.६७) एवं श्रीमद्भागवत (११.२९.३०-३१) में देख सकते हैं।
अर्जुन को गुह्य ज्ञान प्रदान करने के उपरांत भगवान कृष्ण तुरंत भक्ति के प्राप्तकर्ता, जो उनसे यह दिव्य ज्ञान तथा उनकी कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, उनकी योग्यता का उल्लेख करते हैं। यदि हम इन सभी श्लोकों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें, तो हम समझ पाएँगे कि हम भगवान से ज्ञान एवं कृपा प्राप्त करने हेतु पूर्णत: अयोग्य हैं। भगवद्-गीता (१२.१३-१४ तथा १२.१७-१९) में कृष्ण अपने भक्तों के गुणों का वर्णन करते हैं। जिन भक्तों में यह सभी दिव्य गुण विद्यमान होते हैं, वे कृष्ण को अत्यंत प्रिय होते हैं। अतएव जब तक हम यह सभी गुण प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक हम भगवान की कृपा भला कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
अगला प्रश्न यह उठता है कि इन दिव्य गुणों को किस प्रकार प्राप्त किया जाए? इसका उत्तर श्रीमद्भागवत (५.१८.१२) में दिया गया है। केवल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के चरण कमलों में अटूट श्रद्धा एवं भक्ति विकसित करने से ही व्यक्ति इन उत्तम गुणों को प्राप्त कर सकता है। तत्पश्चात एक प्रश्न और उठता है – अयोग्य होते हुए भी हमारे लिए विशुद्ध भक्ति कर पाना किस प्रकार संभव है? यहाँ तक कि एक सभ्य मनुष्य बनने के लिए भी हमें ३० सद्गुणों को प्राप्त करना होगा, जोकि श्रीमद्-भागवत (७.११.८-१२) में स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। इस प्रसंग में नारद मुनि युधिष्ठिर महाराज से कहते हैं, "केवल इन तीस गुणों को विकसित करने मात्र से एक व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को संतुष्ट कर सकता है।"
परंतु हमारे पास इनमें से कोई भी दिव्य गुण नहीं है। हो सकता है कि हम भौतिक रूप से योग्य हों, किंतु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से हम निश्चित ही अयोग्य हैं। यद्यपि हम सभी प्रकार से अयोग्य हैं, किंतु फिर भी हम अपनी अयोग्यताओं को निजी योग्यता मान बैठते हैं। एक समय, एक भक्त ने श्रील गुरुदेव (श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज) से प्रश्न पूछा, "गुरुदेव हमारे पास इनमें से कोई भी योग्यता नहीं है।" गुरुदेव ने कहा, "हाँ, यह अयोग्यता ही हमारी एकमात्र योग्यता है।" परंतु हमें इसका कभी अनुभव नहीं होता है। हम सदैव भौतिक दृष्टिकोण से अध्यात्मिक वस्तुओं को समझने का प्रयास करते हैं। यही हमारी सभी समस्याओं का मूलभूत कारण है और इसके चलते हम भगवान के उद्देश्य को समझ में असमर्थ रहते हैं, जिसके विषय में हमने अपने पिछले लेख में चर्चा की थी।
इसी कारणवश भगवान का मिशन अथवा उद्देश्य विफल हो जाता है। कृष्ण हमारी सहायता करना चाहते हैं, परंतु साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि अपने मिशन को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए स्वयं भगवान को भी सहायता की आवश्यकता है। भला उनकी सहायता कौन कर सकता है? केवल उनका प्रिय-भक्त, उनका निज-जन। हम देख सकते हैं कि श्रीमान् महाप्रभु की भी यही इच्छा –पृथ्वीते आछे यत नगरादी ग्राम [श्री चैतन्य भागवत अंत्य खंड ४.१२६]।
महाप्रभु के इस मिशन को किसने पूर्ण किया? उनके अत्यंत प्रिय-भक्त एवं प्रामाणिक प्रतिनिधि, कृष्णकृपा श्रीमूर्ति अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी ने। इसलिए शास्त्रों के मतानुसार भगवान के ऐसे प्रिय-भक्त साक्षात हरि हैं, अर्थात् वे भगवान के ही समान शक्तिशाली हैं।
अतः जब श्रीकृष्ण हमारी सहायता करना चाहते हैं, हमें योग्य बनाना चाहते हैं, तब वे अपने प्रिय-भक्तों को इस भौतिक धरातल पर भेजने की चाल चलते हैं, ताकि बद्ध जीव भगवद्-कृपा प्राप्त करने के योग्य बन सकें।
हम अपने अनर्थों के कारण कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के लिए कदापि योग्य नहीं हैं। किंतु फिर भी कृष्ण हम जैसे अयोग्य व्यक्तियों पर भी अपनी कृपा वृष्टि करना चाहते हैं, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कोई अनेक क्षिद्रों वाले बर्तन में पानी डालना चाहता हो। ऐसा प्रतीत होता है कि जीवों की पीड़ा एवं कष्टों को देखकर, श्रीकृष्ण करुणावश अपनी सभी शर्तों को भूल गए हैं, जो उन्होंने पहले उद्धव और अर्जुन को अपने व्याख्यान में बतलाई थीं, जिसका वर्णन इस लेख के प्रथम अनुच्छेद में किया गया है।
हमारा हृदय अनर्थयुक्त है, ठीक वैसे ही जैसे एक बर्तन अनेक छेदों से युक्त होता है। तो फिर हमें कौन योग्य बना सकता है? इन सभी अनर्थों से कोई कैसे मुक्त हो सकता है? कृष्ण की कृपा को धारण करने के लिए हमारे पात्र को कौन तैयार कर सकता है? हमारे गुरुदेव कहा करते थे, "शेरनी का दूध रखने के लिए आपके पास स्वर्ण-पात्र होना चाहिए।"
इसी प्रकार, कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के लिए हमारा हृदय अनर्थों से पूर्णतया मुक्त होना चाहिए।
फिर अगला प्रश्न उठता है, कि इन अनर्थों से मुक्त होने में कौन हमारी सहायता करेगा, जिसके फलस्वरूप हम योग्य बन सकेंगे? इसका उत्तर है: कृष्ण के एक शुद्ध-भक्त। ऐसे शुद्ध भक्तों का प्रथम लक्षण है तितिक्षव-करुणिका (श्रीमद् भागवत ३.२५.२१), अर्थात् वे स्वाभाविक रूप से सहिष्णु होते हैं। हमें संसार में कई सहिष्णु लोग मिलेंगे जो किसी भौतिक कारण या लाभ के लिए सहनशीलता का प्रदर्शन करते हैं। परंतु एक शुद्ध-भक्त की सहिष्णुता एक सामान्य व्यक्ति से भिन्न है। वे एकमात्र कृष्ण की प्रसन्नता हेतु और साथ ही बद्ध-आत्माओं पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने हेतु समस्त प्रतिबंधक एवं समस्याएँ सहन करते हैं, जो वास्तव में श्रीकृष्ण का मिशन है। ऐसे अतिउत्कृष्ट वैष्णवों का संग करने से, उनके मुखकमल से हरि-कथा श्रवण करने से और उनकी सेवा करने से हम सभी अनर्थों से मुक्त हो जाएँगे। इसका उल्लेख श्रीमद्-भागवतम ३.२५.२४ में किया गया है। इस श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद उल्लेख करते हैं, "एक शुद्ध भक्त, जो स्वयं को भगवद्-धाम में स्थानांतरित करने की तैयारी कर रहा है, वह प्रकृति के तीन गुणों के संसर्ग से भी मुक्त हो जाता है।"
हमें ऐसे ही भक्त का संग करना चाहिए। श्रील प्रभुपाद यह भी कहते हैं कि, “यदि कोई ऐसी अवस्था पर पहुँच गया है जहाँ वह भौतिक कल्मष से मुक्त होना चाहता है, तो उसे शुद्ध-भक्तों की संगति ढूँढनी चाहिए, जहाँ एकमात्र कृष्णभक्ति का अनुशीलन होता हो।”
श्रील नरोत्तम दास ठाकुर प्रेम भक्ति चंद्रिका में बोधगम्य रूप से इसका वर्णन करते हैं, जिसका हम नित्य-प्रतिदिन गुरु-पूजा में भी गान करते हैं, "प्रेम-भक्ति जाहा हइते अविद्या विनाश जाते।"
हम किनकी कृपा से इन अनर्थों के संसर्ग से मुक्त हो सकते हैं? ऐसे एकमात्र व्यक्तित्व हैं – ‘श्रील गुरुदेव’।
श्रीमद्-भागवत (७.१५.२२-२५) में नारद मुनि युधिष्ठिर महाराज को सभी अनर्थों पर अत्यंत सहजता से विजय प्राप्त करने का रहस्यमयी सूत्र बतलाते हैं। हम केवल श्री गुरु की कृपा से ही सभी दिव्य गुण प्राप्त कर सकते हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपनी गीतिका में वैष्णवों से यह प्रार्थना करते हैं, "छय वेग दमि’, छय दोष शोधि’, छय गुण देह दासे।"
तो निष्कर्ष यह है कि हम भगवान के शुद्ध-भक्तों की सेवा करके तथा उन्हें प्रसन्न करके भगवान की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। हमारे गुरुदेव प्राय: कहा करते थे कि यदि आप कृष्ण के पास जाकर उनसे कृपा की याचना करेंगे तो वह आपसे कहेंगे, "मूर्ख व्यक्ति! मेरे पास कृपा का एक कण भी नहीं है। मैंने पहले ही भौतिक संसार में अपनी कृपा के सागर को भेज दिया है। वहाँ मेरे भक्त के पास जाकर उनका आश्रय ग्रहण करो, तब वे तुम्हें यह कृपा प्रदान करेंगे।"
आपका सेवक एवं शुभचिंतक
हलधर स्वामी
Comments
Sorry for the trouble. Now the english version of the artcile has been uploaded. Enjoy the reading.
Your servant
Bhakta Priya Das
May I have a only desire in my heart, which is your satisfaction. Except it, may everything appear zero for me.
🥹🥹 Jaya Jaya Jaya Srila Maharaja... Millions of Dandavt Praṇāma onto your nectarine lotus feet Srila Maharaja 🥹🙏🪷🪷🙇🙇🙇
This all is possible by your causeless mercy, Srila Gurudeva.... 🙇🙇🙇🙇🙇
Add New Comment