प्रेम नाम माला
प्रेम नाम माला
तबे प्रभु श्रीवासेर गृहे निरंतर।
रात्रे सङ्कीर्तन कैल एक संवत्सर।।
“श्री चैतन्य महाप्रभु पुरे एक वर्ष तक हर रात्रि को श्रीवास ठाकुर के घर पर हरे कृष्ण मंत्र का सामूहिक कीर्तन नियमित रूप से चलाते रहे।” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 17.34)
कपाट दिया कीर्तन करे परम आवेशे।
पाषण्डी हासिते आइसे, ना पाय प्रवेशे।।
“यह भावपूर्ण कीर्तन दरवाजे बन्द करके किया जाता था, जिससे हँसी उड़ाने की दृष्टि से आने वाले अविश्वाशी लोग प्रवेश न कर सकें।” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 17.35)
हरे कृष्ण महामंत्र कीर्तन कोई भी कर सकता है, किन्तु कभी-कभी अविश्वासी लोग कीर्तन में व्यवधान उत्पन्न करने आते हैं। यहाँ यह संकेत दिया गया है कि ऐसी अवस्था में मंदिर के द्वार बन्द कर लिए जाएँ। केवल प्रामाणिक कीर्तन करने वालों को प्रविष्ट होने दिया जाए, अन्यों को नहीं। किन्तु जब बड़े पैमाने पर हरे कृष्ण महामंत्र का सामूहिक कीर्तन होता है, तो हम अपना मन्दिर हर किसी को सम्मिलित होने के लिए खुला रखते हैं और चैतन्य महाप्रभु की कृपा से इसके परिणाम अच्छे निकले हैं। (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 17.35 तात्पर्य)
कीर्तन शुनि ' बाहिरे तारा ज्वलि ' पुड़ि ' मरे।
श्रीवासेरे दुःख दिते नाना युक्ति करे।।
“इस तरह अविश्वासी लोग मानो जलकर राख हो गए और ईर्ष्या से मर गए। बदला लेने के लिए उन्होनें श्रीवास ठाकुर को अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाने की योजना बनाई। ” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 17.36)
महाप्रभु के मिशन में मत्सरता का कोई स्थान नहीं है:
ईर्ष्यालु लोगों को मरने दो। ईर्ष्या से उत्पन्न आग उन्हें जलाकर राख कर देगी। महाप्रभु के संकीर्तन आंदोलन में ईर्ष्यालु लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। जो ईर्ष्यालु है, वे ईर्ष्या से उत्पन्न आग में जलकर भस्म हो जायेंगे। महाप्रभु स्वयं ऐसा करेंगे।
चैतन्य-चरितामृत प्राथमिक या माध्यमिक विषय नहीं है, अपितु यह स्नातकोत्तर विषय है। यह सामान्य छात्रों के लिए नहीं है। | मेरा प्रश्न हैं कि इस कक्षा में इसे कौन समझ सकता है? वास्तव में, इसे कोई नहीं समझ सकता क्योंकि सभी छात्र या तो प्राथमिक या पूर्व प्राथमिक वर्ग से हैं। अतः वे इस स्नातकोत्तर विषय को कैसे समझ सकते हैं?
परम आवेशे:
कपाट दिया कीर्तन करे परम आवेशे।
पाषण्डी हासिते आइसे, ना पाय प्रवेशे।।
“यह भावपूर्ण कीर्तन दरवाजे बन्द करके किया जाता था, जिससे हँसी उड़ाने की दृष्टि से आने वाले अविश्वाशी लोग प्रवेश न कर सकें।” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 17.35)
इस श्लोक में परम आवेशे शब्द महत्वपूर्ण है। श्रील प्रभुपाद ने परम आवेशे का अनुवाद “परम आनन्द की दशा” किया है । महाप्रभु का कीर्तन ऐसा ही है। परमानंद की स्थिति में, परमानंद जप बहुत उच्च कोटि का होता है। किसे भाग लेने की अनुमति है? अपने तात्पर्य में प्रभुपाद कहते है,"केवल प्रामाणिक कीर्तन करने वालों को प्रविष्ट होने दिया जाए, अन्यों को नहीं"। प्रामाणिक जप करने वाले कौन होते हैं? एक प्रामाणिक जप करने वाला वह है जो शुद्ध नाम का जप करता है और जो शुद्ध नाम, प्रेम-नाम से स्फुरित मधुर अमृत का स्वाद ले सकता है।
यहाँ, नाम में एक विशेषण है। यह प्रेम-नाम-संकीर्तन है। यह केवल नाम-संकीर्तन नहीं है। प्रेम यहाँ विशेषण है। अतः जो लोग प्रेम-नाम-संकीर्तन कर सकते हैं, वे प्रामाणिक जप करने वाले हैं। उन्हें ही भर्ती किया जाता है। अन्यों को नहीं हैं। जो जो प्रेम-नाम-संकीर्तन कर सकते हैं, महाप्रभु केवल ऐसे गायकों को प्रवेश करने देते थे। इसलिए दरवाजे बंद कर दिए गए।
जब महाप्रभु गया से लौटे, जहाँ वे अपने गुरु श्रीपाद ईश्वर पुरी से मिले और उनके द्वारा दीक्षित हुए, तब अपना नाम-संकीर्तन शुरू किया। जिस उद्देश्य के लिए उनका अवतार हुआ था, वह मिशन शुरू किया। उनका मिशन क्या था? उनका मिशन था कृष्ण-प्रेम का वितरण।
नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नाम्ने गौरत्विषे नमः ॥
“मैं उन भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य को सादर नमस्कार करता हूँ, जो किसी अन्य अवतार से, यहाँ तक कि स्वयं कृष्ण से भी अधिक दयालु हैं, क्योंकि मुक्तहस्त से वह - शुद्ध कृष्ण-प्रेम - प्रदान कर रहे हैं, जो किसी ने कभी नहीं दिया” । (चैतन्य-चरित्रामृता, मध्य-लीला 19.53)
यह गौरांग महाप्रभु का प्रणाम मंत्र है जिसे श्रील रूप गोस्वामी ने हमें सिखाया है। गौरांग को प्रणाम करते समय आपको इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। वे भगवान का सबसे उदार अवतार हैं क्योंकि वे कृष्ण-प्रेम देते है । कोई भी अवतार कृष्ण-प्रेम नहीं देता। जब स्वयं कृष्ण: आये, तब भी नहीं दिया। कृष्ण छिपाकर रखतें है। किन्तु जब कृष्ण गौर के रूप में आते हैं, तो वे सभी को बिना भेदभाव के वितरित करते हैं।
महाप्रभु ने सम्पूर्ण विश्व को नाम-प्रेम-माला पहनाई:
सेइ द्वारे आचण्डाले कीर्तन सञ्चारे।
नाम-प्रेम-माला गाँथि ' पराइल संसारे।।
“इस तरह उन्होंने अछूतों में भी कीर्तन का विस्तार किया। उन्होंने पवित्र नाम तथा प्रेम की माला गूँथकर सारे भौतिक संसार को पहना दी।” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.40)
यह एक माला की तरह है: नाम और प्रेम, पवित्र नाम और प्रेम एक साथ गुंथे हुए, नाम-प्रेम-माला। गौरांग महाप्रभु ने एक माला बनाई और पूरे भौतिक जगत को पहना दिया।
गौरंग विरह और मिलन का संयोजन है:
गौरांग महाप्रभु रसराज कृष्ण और महाभावमयी राधा का संयुक्त रूप हैं। कृष्ण और राधा एक साथ मिल गए हैं। कृष्ण श्रृंगार रसराज (वैवाहिक मधुरता के राजा) हैं और राधारानी महाभावमयी, मदनाख्य महाभावमयी हैं। इन दोनों का सयुंक्त रूप गौर हैं।
जब राधा और कृष्ण एक साथ संयुक्त हैं, तो मिलन है। राधारानी का भाव क्या है? राधारानी हमेशा कृष्ण से विरह का अनुभव करती है। इस मनोदशा में वो हमेशा रोती रहती हैं। वह कृष्ण से विरह की तीव्र पीड़ा महसूस करती है। इसको विप्रलम्भ भाव कहा जाता है। संस्कृत में मिलन को संभोग और अलगाव को विप्रलंभ या विरह कहा जाता है। गौरांग मिलन और अलगाव का संयोजन है - संभोग और विप्रलंभ। दो विरोधी भाव हैं, क्योंकि संभोग (मिलन), विप्रलंभ (अलगाव) के विपरीत है। महाप्रभु संभोग और विप्रलंभ दोनों का योग है। अर्थात गौर 'दो विपरीत भाव एक पात्र में' है। गौर-तत्त्व एक बहुत ही गूढ़ तत्त्व है। जब दो विरोधी भाव -संभोग और विप्रलंभ-एक पात्र में होते हैं, तब वह गौर है।
राधा-भाव प्रबल है:
जब राधा और कृष्ण एक हो जाते हैं, वे मिलनानंद का आस्वादन करते है। लेकिन जब अलगाव अर्थात विरह की तीव्र पीड़ा होती है, सब रोते है। किन्तु राधारानी का रोना प्रबल होता है। अर्थात विप्रलंभ भाव प्रबल है। राधा भाव का अर्थ है विप्रलम्भ भाव। यद्यपि दो भावों (संभोग और विप्रलंभ) का सयोंजन है, परन्तु विप्रलंभ (विरह) भाव की प्रधानता रहती है। राधा भाव की प्रबलता है। तो राधारानी कृष्ण विरह की तीव्र वेदना से हमेशा रोती रहती थी। इसी तरह गौर कृष्ण विरह में हमेशा रोते रहते थे। क्योंकि वे राधा भाव में है। इसका उल्लेख चैतन्य-चरितामृत में मिलता है।
राधिकार भाव यैछे उद्धव-दर्शने।
सेइ भावे मत्त प्रभु रहे रात्रि-दिने।।
“जिस प्रकार उद्धव को देखकर राधिका पागल सी हो गई थीं, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु विरह के उन्माद से रात-दिन अभिभूत रहते थे।” (चैतन्य- चरित्रामृता, आदि-लीला 4.108)
उद्धव का व्रजभूमि आगमन:
कृष्ण ने अपने प्रिय भक्त उद्धव को मथुरा से व्रजभूमि भेजा और कहा, "व्रजभूमि जाओ और ब्रजवासियों को सांत्वना दो। वे मुझसे विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव कर रहे हैं। वे सब मर रहे हैं। तुम जाओ। प्रेम संदेश पहुँचाकर उन्हें दिलासा दो।”
जब उद्धव व्रजभूमि पहुँचे तो उनकी भेंट नंद महाराज और यशोदा मैया से हुई। फिर वो गोपियों से मिलने गये। राधारानी सभी गोपियाँ की प्रमुख हैं। वे सभी कृष्ण से विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव कर रहीं थी और हमेशा रोती रहती थीं। उनके शरीर क्षीण हो गया था क्योंकि उन्होंने खाना और सोना छोड़ दिया था। वे कृष्ण के पीछे पूरी तरह पागल थी। वे जँहा कहीं भी जाती, वे कृष्ण की लीला (स्थली) देखती। वे हमेशा कृष्ण के बारे में सोचती थी। यह विरह भाव है। जब उद्धव ने वहाँ जाकर उनकी ऐसा दशा देखी तो वह कुछ न कह सके। मन ही मन सोच रहे थे, मै क्या कहूँ? उनका कृष्ण के प्रति ऐसा अद्भुत प्रेम है। उद्धव के पास इस प्रेम का रंचमात्र भी नहीं है। उद्धव एक ज्ञानी-भक्त थे। वह प्रेमी भक्त नहीं थे। जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ प्रेम अनुपस्थित रहता है। ज्ञान नीरस है, जबकि प्रेम मधुर है।
गोपियों और उद्धव ने कई विषयों पर बात की। अंत में गोपियों ने कहा, "हे उद्धव, आप कृष्ण के पास से आए हो। आप कृष्ण के मित्र हैं, कृष्ण के दूत हैं और मथुरा से पधारे हैं। आपके स्वामी कृष्ण हैं। उन्होंने आपको यहाँ भेजा है। हे उद्धव, हमने आपके स्वामी के प्रति प्रेम विकसित किया है। यह शुद्ध और बेदाग प्रेम है। इसमें रंचमात्र कोई अन्य इच्छा या वासना नहीं है। हम कोई प्रत्युपकार की कामना नहीं रखती हैं। हमने ऐसा प्रेम विकसित किया है। इसको साध्य प्रीति कहते है।
साधन और साध्य
नाम भजन साधन है और प्रेम साध्य है। किस उद्देश्य के लिए हम हरे कृष्ण जप करते हैं? इसी प्रेम को प्राप्त करने के लिए जो साध्य है। अगर हम इसे प्राप्त नहीं कर सकते हैं, तो भजन का क्या मूल्य है? कोई मूल्य नहीं है, बेकार है। इसी को साध्य प्रीति कहते है क्योंकि यह केवल शुद्ध प्रेम है। अन्य किसी वस्तु की रंचमात्र भी कामना नहीं।
अहैतुकी प्रेम
क्या आपको लगता है कि प्रेम एकतरफा होता है? प्रेम में हमेशा दो पक्ष होते हैं: प्रेमी और प्रेमिका या प्रेम की वस्तु (विषय) और प्रेम का धाम (आश्रय)। कृष्ण प्रेम के विषय हैं और राधारानी की अध्यक्षता में गोपियां प्रेम का आश्रय हैं। क्योंकि दो पक्ष हैं अतः इसमें प्रेमपूर्ण आदान-प्रदान है। यह सिर्फ एक तरफा नहीं है। गोपियां कहती है "हमने आपके स्वामी सेप्रेम किया है और उन्होंने भी हमसे प्रेम किया है। हम कृष्ण से प्रेम करती हैं और हमारी अन्य कोई इच्छा नहीं है । यह अहैतुकी प्रेम है। कोई हेतु नहीं है। तो हे उद्धव, कृपया हमें बताएं, इस अहैतुकी प्रेम में कृष्ण ने हमें धोखा क्यों दिया है? हमारी कोई अन्य इच्छा नहीं है। यह शुद्ध प्रेम है। हम कृष्ण से प्रेम करती हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहती हैं। तब हमारे साथ यह धोखा क्यों हुआ है? हे कृष्ण के दूत उद्धव, कृपया हमें बताएं।"
गोपियों का प्रश्न
गोपियों ने प्रश्न पूछा, " कृष्ण की विरह अग्नि में हम क्यों मर रही हैं? कृपया हमें बताएँ! क्या तुम्हारा स्वामी धोखेबाज है? क्या वह सिर्फ दिखावा कर रहा था? हमने सुना है कि जहां शुद्ध प्रेम होता है, वहाँ कोई धोखा नहीं होता है। यह शुद्ध प्रेम है। विरह का प्रश्न ही नहीं है। तो बताओ उद्धव जी, आप कृष्ण के सखा और दूत हैं। यदि आप रसिक जन हैं, तो हमें बताओ! जो इस मधुर रस का भोग करता है, वह रसिक है। कृष्ण रसिक हैं, वे इस मधुर रस का आनंद लेते हैं। वह श्रृंगार रसराज है। आप उनके सखा हैं। तो अगर आप भी रसिक हैं, तो आप हमारे प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। अगर आप रसिक नहीं हैं, तो आप उत्तर नहीं दे पाएंगे। हम समझती है कि आप एक महान पंडित हैं।"
उद्धव महान पंडित बृहस्पति के शिष्य हैं। उद्धव ज्ञानी भक्त और साथ ही एक महान पंडित भी हैं, लेकिन वे रसिक नहीं हैं। ज्ञान का अर्थ है नीरसता, कोई मधुरता नहीं। “अतः आप हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते हैं। इसलिए हमारी समझ में आप महान विद्वान हो सकते हैं, लेकिन आपको रस शास्त्र के बारे में कोई जानकारी नहीं हैं। आप इससे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।"
“उद्धव, सुनो। हम आपके स्वामी कृष्ण से विरह के कारण बहुत त्रस्त और व्यथित हैं । लेकिन हम और भी व्यथित हैं कि ये शुद्ध प्रेम संबंध दागदार हो गया हैं। इस प्रेम का कोई कारण नहीं है। ऐसा दाग क्यों आया है? यह हमें और कष्ट देता है। हमारे प्यार में कुछ भी कृत्रिम नहीं है। यह शुद्ध और प्राकृतिक है। ऐसा वियोग क्यों आया है? यह असहनीय है। जब प्रेम कृत्रिम है, इसकी अपेक्षा की जा सकती है, लेकिन यह प्रेम शुद्ध है। यह स्वाभाविक प्रेम है। तो यह वियोग क्यों है?”
"परन्तु आज जब ये दशा है तो यह सिद्ध होता है कि यह प्रेम भी कृत्रिम है, यह शुद्ध नहीं है। यही समस्या है। यद्यपि हम सभी दोषों से पूरी तरह मुक्त हैं, परन्तु [अब] बहुत से दोष हमारे ऊपर आएंगे। इसलिए सामान्य लोग कृष्ण से प्रेम कभी नहीं करेंगे। इस बात से हमें बहुत कष्ट होता है। इससे बड़ा दुख और क्या होगा? उद्धव, हमें बताओ! उद्धव, ऐसा क्यों है?"
उन्होंने लाज-शर्म को छोड़ दिया
ऐसा कहते ही गोपियों का मन, उनका जीवन, उनका शरीर, उनकी समस्त इंद्रियां और इंद्रियों की गतिविधियाँ पूरी तरह से कृष्ण के विचारो में डूब गईं। यह शुद्ध प्रेम है। वे भूल गयीं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा, वे पूरी तरह से पागल हो गयीं!
इति गोप्यो हि गोविन्दे गतवाक्कायमानसा: ।
कृष्णदूते समायाते उद्धवे त्यक्तलौकिका: ॥
(श्रीमद भागवतम 10.47.9)
उन्होंने लाज-शर्म सबकुछ छोड़ दिया । वे पूरी तरह से पागल बन गयीं। उनको सुध नहीं थी कि क्या अच्छा है या क्या बुरा है। वे कृष्ण के विचारों में इतनी अभिभूत थी, गतवाक्कायमानसा: कि उनका मन, उनका शरीर, उनकी वाणी, सब कुछ कृष्ण के विचार से ओतप्रोत हो गया।
उद्धव एक अजनबी, नवागंतुक थे। एक नवागंतुक के सामने, गोपियां इतनी बेशर्मी से कैसे बात कर सकती थीं? वे सब कुछ भूल चुकीं थीं क्योंकि वे कृष्ण के विचारों में पूर्णतया अभिभूत थीं। यह कृष्ण-प्रेम का परिणाम है। तब वे दीन अवस्था में रोने लगीं - हे कृष्ण! हा व्रजनाथ! हा गोपीवल्लभ, आर्तनासन! - "हे कृष्ण! हे व्रजभूमि के स्वामी! हे गोपियों के पति! हे गोपियों के कष्ट को हरने वाले!” इस तरह पुकारते हुए, वे उठ खड़ी हुईं और मथुरा की ओर देखने लगीं। हाथ उठा कर, उन्होंने जोर से पुकारा, "हे व्रजप्राण, व्रजवासियों के जीवन! कृपया एक बार आएं और व्रजभूमि की दशा देखें। बाल्यावस्था से ही हमने आपसे प्रेम किया है। हम आपके अतिरिक्त कुछ नहीं जानती। हम बचपन से आपके साथ हैं। अब हम अथाह विरह समुद्र में डूब रहीं हैं। कृपया सिर्फ एक बार व्रजभूमि में आइये और हमें अपने चरण कमलों का सहारा दीजिये। आपके चरण हमारा जीवन है। कृपया हमें जीवन दें!” इस प्रकार वे कृष्ण प्रेम में लाज शर्म पूर्ण रूप से भूल गयीं थी।
इसलिए शुकदेव गोस्वामी कहते हैं- त्यक्तलौकिका: "गोपियों ने लज्जा छोड़ दिया।"
गायन्त्य: प्रियकर्माणि रुदन्त्यश्च गतह्रिय: ।
तस्य संस्मृत्य संस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययो: ॥
(श्रीमद भागवतम 10.47.10)
"गोपियाँ हमेशा कृष्ण द्वारा किशोरावस्था में की गयी लीलाओं के बारे में सोचती थीं और व्रजभूमि में कृष्णके साथ अपने अंतरंग प्रेमपूर्ण व्यवहार के बारे में सोचती थीं। उन लीलाओं का समरण और चिंतन करते हुए, व्रजभूमि की गोपियों ने सभी शर्म छोड़ दी और उन्मत्त हो गयीं। "
जब उद्धव ने यह सब देखा तो वे चकित रह गए और सोचने लगे व्रजभूमि में आकर मेरा जीवन सफल हो गया है।
वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश: ।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ॥
(श्रीमद भागवतम 10.47.63)
उद्धव ने मन ही मन कहा, "मैं गोपियों, व्रजभूमि की कन्यओं के चरण कमलों में प्रणाम करता हूँ। मै उनके चरण कमलों कि धूल पाने की अभिलाषा करता हूँ। क्योंकि जब वे कृष्ण-गीत, कृष्ण-लीला-कहानी गातीं हैं, यह तीनो लोकों को पवित्र करती है। | उनके चरण कमलों कि धूल लेकर अपने माथे पर रखना चाहता हूँ। वह मेरे सिर पर एक आभूषण होगा। यदि मैं ऐसा कर पाया तो समझूंगा कि मेरा जीवन सफल हो गया है। मेरा हृदय जो ज्ञान से सूखा है, मधुर रस से सींच जएगा। तभी मेरा जीवन सफल होगा।"
उद्धव ने राधारानी को देखा
इस प्रकार सोचते हुए, उद्धव उस कुंज के पास आए जहां राधारानी लेटी हुई थी। राधारानी कृष्ण विरह का मूर्तिमान रूप है। जब कृष्ण वियोग शरीर धारण करता है, तब वह राधारानी है। आठ अंतरंग सखियाँ उसके चारों ओर बैठी थीं। राधारानी जमीन पर लेटी थीं और उनका सिर एक सखी की गोद में था। पूरा शरीर ठंडा था, मानो प्राण नहीं है। वह बोल नहीं सकती थी। वह मरने की दशा में थी। बहुत ही मंद स्वर में राधारानी ने अपनी सहेलियों से कहा " सखी, यह विच्छेद-संताप, कृष्ण (जो गोकुलपति हैं) विरह की पीड़ा, अत्यंत तीव्र ज्वर की तरह है। विश्लेष जन्म ज्वर, ११० डिग्री का ज्वर।" 110 डिग्री तापमान पर आदमी मर जाएगा। “इतना तेज़ बुखार, इतनी गर्मी! ऐसा दर्द! भयंकर विष से भी अधिक पीड़ादायक - कालकूट विष, गरलग्रामादपि क्षोभणो। यह इंद्र के वज्र के वार से भी अधिक असहनीय है, दम्भोलेरपि दुःसहः। ऐसा कष्ट, विरह की तीव्र पीड़ा, विरह-संताप, हर क्षण मेरे हृदय में चुभता हैं। मेरे हृदय को पूर्ण रूप से विध्वंस कर दिया है । मैं इसे अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती। मैं अब प्राण धारण की आवश्यकता नहीं समझती। मैं इस शरीर को तत्काल त्यागना चाहती हूँ।" राधारानी एक-दो क्षण चुप रहीं, फिर कहा, “हे सखी, परन्तु मृत्यु मेरे पास नहीं आ रही है। एक बड़ी बाधा मृत्यु को मेरे पास आने से रोक रही है।”
राधारानी का मथुरानाथ को संदेश
अचानक राधारानी ने आकाश में एक कौआ को मथुरा की ओर उड़ते देखा। उस कौवे को इशारा करते हुए राधारानी ने कहा, “अरे! कौआ। इधर देखो! इधर! क्या तुम मथुरा जा रहे हैं? कृपया मेरी बात सुनो! कहीं और मत जाओ! सीधे मथुरा जाओ। वहाँ पर मथुरानाथ नामक एक राजा है। जब तुम उनसे मिलो, सर्वप्रथम वंदनोत्तरम, उन्हें प्रणाम करो और फिर उन्हें एक संदेश दो। मै जो भी संदेश तुमको कहूँगी, तुम राजा को बता देना।"
अगर आपके घर में आग लगी हो तो मालिक का पहला कर्तव्य क्या होता है? यदि उसके पास घरेलू जानवर हैं, तो सबसे पहले वह उन्हें छोड़ दे। वह स्वयं जलकर राख हो सकता है, लेकिन उसे घरेलू पशु को सुरक्षा देना चाहिये। गृहस्थ का प्रमुख घरेलू पशु गाय है। इसलिए गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है द्वार खोलकर और गायों को छोड़ दे।
राधारानी ने कहा, "मेरा शरीर एक घर की तरह है, और इस घर में आग लगी है। परन्तु, यह आग किसने लगाई है? कृष्ण ने। हे काक, आप उन्हें बताओ कि मेरा जीवन एक घरेलू पशु की तरह है, प्राण पशु, जो बच नहीं सकता, दग्धुम प्राण-पशुं शिखी विरह भिर ईंधे मदङ्गालये (ललित-माधव 3.9 श्रील रूप द्वारा विरचित)।' क्या कारण है कि यह पशु बच नहीं सकता है? क्योंकि, दरवाजा खुला नहीं है! दरवाजा क्यों नहीं खुला है? क्योंकि दरवाजे पर एक बहुत मजबूत साँकल लगी हुयी है। तो तुम उन्हें जाकर यह बताओ। वो आयें और इस साँकल को खोल दे!
राधारानी ने कौवे से कहा, "यदि आप जानना चाहते हैं कि वह साँकल क्या है? वह साँकल है कि जब उन्होंने व्रजभूमि को छोड़ा, तो हमसे कहा था 'मैं वापस आऊंगा।' लेकिन वह वापस नहीं आ रहें है। यह बहुत मजबूत साँकल है। इसलिए उन्हें कहो कि इसे खोल दे। केवल इसी के आशा साथ, आसार्गल्म, हम जीवित हैं।"
यह राधारानी की मनोदशा है। कृष्ण से तीव्र विरह की वेदना से, वह मर रही है। पूरे घर- शरीर पर आग लगी है और प्राण घरेलू पशु की तरह है जो बाहर नहीं निकल सकता। क्योंकि एक बहुत ही मजबूत साँकल लगी है। कृष्ण आयें और इस साँकल को खोल दे। इसका अर्थ है कि अपने शब्दों को वापस लेले।
श्याम-नाम
फिर वह चुप हो गई। कुछ समय बाद, अपनी प्रिय अंतरंग सखियों (अष्ट-सखियां) को देखते हुए-
जमुना तटिनी कूले, केलि कदम्बेर मूले
मोरे लए चललो त्वराय
अंतिमेर बंधु हए, जमुना-मूर्तिका लाये
सखि मोर लिप सर्व-गाए
श्याम-नाम तड-उपरि, लिख सब सहचरी
तुलसी-मंजरी दियो ताय
आमारे बेस्तन करि, बल सब हरि हरि
जखन परान बाहिराय
(हरि-कथा पदावली)
राधारानी ने कहा, "हे मेरी प्यारी सखियों, इसी क्षण मुझे यमुना के तट पर ले चलो। मुझे यमुना तट पर केली कदंब पेड़ के नीचे रख दो। क्योंकि जीवन के इस अंतिम क्षण में यमुना और केली कदंब मेरे अंतिमेर बंधू अर्थात परम मित्र हैं। यमुना से कुछ गीली मिट्टी लेकर मेरे पूरे शरीर पर लेप कर दो। तत्पश्चात मेरे पूरे बदन पर श्याम-नाम लिख दो। फिर कुछ तुलसी-मंजरी लाकर मेरे शरीर पर अलंकृत कर दो। क्योंकि नाम-नामी अभिन्न; श्याम और श्याम के नाम अभिन्न हैं। तुम सब मेरे आस पास बैठो और जब मेरी अंतिम साँस निकले, उस समय तुम सब जोर से चिल्लाना - हरि, हरि, हरि!
उद्धव वहीं खड़े, यह सब देख और सुन रहे थे। इस प्रकार कहा जाता है-
राधिकार भाव यैछे उद्धव-दर्शने।
सेइ भावे मत्त प्रभु रहे रात्रि-दिने।।
“जिस प्रकार उद्धव को देखकर राधिका पागल सी हो गई थीं, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु विरह के उन्माद से रात-दिन अभिभूत रहते थे।” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.108)
उद्धव बड़ी-बड़ी आँखों से टकटकी लगाए वहीं खड़े-खड़े सुन रहे थे। वह सब कुछ जो राधारानी पागलपन में कह रही थी। विभिन्न प्रकार के पागल कर्कश भाषण, उद्घूर्णा । उद्धव समझ गए कि यह राधिका होनी चाहिए। मैंने अपने मित्र कृष्ण से उसके बारे में कई बार सुना है। और जब कृष्ण सो रहे थे, प्रत्येक साँस उनके द्वारा राधे, राधे, राधे! दोहराया जा रहा था। अतः यह जरूर राधिका होगी। उद्धव ने पहचान लिया।
गौर को भी विरह पागलपन का अनुभव होता है:
तो गौर भी ऐसी ही स्थिति में है। उनका भाव भी ऐसा ही है । इसलिए चैतन्य-चरितामृत का कथन हैं-
राधिकार भाव यैछे उद्धव-दर्शने।
सेइ भावे मत्त प्रभु रहे रात्रि-दिने।।
“जिस प्रकार उद्धव को देखकर राधिका पागल सी हो गई थीं, उसी तरह श्री चैतन्य महाप्रभु विरह के उन्माद से रात-दिन अभिभूत रहते थे।” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.108)
भगवान चैतन्य का हृदय राधा भाव की छवि है
राधिकार भाव-मूर्ति प्रभुर अन्तर।
सेइ भावे सुख-दुःख उठे निरन्तर।।
शेष-लीलाय प्रभुर कृष्ण-विरह-उन्माद।
भ्रम-मय चेष्टा, आर प्रलाप-मय वाद।।
चैतन्य महाप्रभु का हृदय श्रीमती राधिका के भावों की मूर्ति है। इस प्रकार उसमें हर्ष तथा पीड़ा की भावनाएँ निरन्तर उठती रहती हैं। अपनी लीलाओं के अंतिम भाग में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान् कृष्ण के वियोग के उन्माद से अभिभूत थे। वे भ्रांतिपूर्ण कार्य कर बैठते थे और भ्रान्तचित्त होकर प्रलाप करते थे। (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.106- 107)
वह जो स्वयं कृष्ण हैं, स्वयं की विरह पीड़ा का कष्ट अनुभव कर रहे है। क्योंकि राधा-भाव प्रबल है। यह विप्रलम्भ-भाव है; कृष्ण से विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव। महाप्रभु की भी यही दशा है, वही विप्रलम्भ-भाव, कृष्ण विरह का भाव क्योंकि महाप्रभु राधा भाव में हैं। वह कैसे रोते है?
मेरे प्राण नाथ कहाँ है?
काहाँ मोर प्राण-नाथ मुरली-वदन।
काहाँ करों काहाँ पाँ व्रजेन्द्र -नन्दन।।
काहारे कहिब, केबा जाने मोर दुःख।
व्रजेन्द्र-नन्दन विनु फाटे मोर बुक।।
" श्री चैतन्य महाप्रभु अपने मन के भाव इस प्रकार प्रकट करते, "मुरलीवादन करने वाले मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं? अब मैं क्या करूँ? मैं महराज नन्द के बेटे को ढूँढने कहाँ जाऊँ? मैं किससे कहूँ? मेरे दुःख को कौन समझ सकेगा? नन्द महाराज के पुत्र के बिना मेरा हृदय फटा जा रहा है। " (चैतन्य-चरित्रामृता, मध्य-लीला 2.15-16)
"मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं? होंठों में मुरली धारण करने वाले मुरलीवदन कृष्ण कहाँ हैं? मुरली-वदन काहाँ करों काहाँ पाँ व्रजेन्द्र -नन्दन। अब मैं क्या करूँ? मैं महराज नन्द के बेटे को ढूँढने कहाँ जाऊँ?" विलाप करते हुए कहते हैं -काहारे कहिब, केबा जाने मोर दुःख, व्रजेन्द्र-नन्दन विनु फाटे मोर बुक - "मैं यह दुःख-व्यथा किससे कहूँ? क्या कोई मेरे इस दुःख को समझ सकता है? विरह की असहनीय तीव्र पीड़ा को मेरा हृदय सह रहा है। क्या कोई है जिसको मैं इस दुःख-व्यथा बता सकूँ? जो मेरे हृदय की पीड़ा को समझ सके। व्रजेन्द्र-नन्दन विनु फाटे मोर बुक। " व्रजेन्द्र नन्दन के बिना मेरा हृदय फट रहा है।" महाप्रभु बिल्कुल राधारानी की तरह बोलते और रोते हैं। यह विरह-भाव है। महाप्रभु रसराज कृष्ण और महाभावमयी श्री राधा के संयुक्त रूप हैं। लेकिन वह विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव क्यों करते हैं? दोनों संयुक्त हैं। फिर भी उन्हें यह विरह क्यों महसूस होता है-
चतुर्थ श्लोकेर अर्थ एइ कैल सार।
प्रेम-नाम प्रचरिते एइ अवतार।।
“मैंने चतुर्थ श्लोक का सार रूपी अर्थ दे दिया है - यह अवतार (श्री चैतन्य महाप्रभु) पवित्र नाम के कीर्तन का प्रचार करने तथा भगवत्प्रेम के प्रसार के लिए होता है। " (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.5)
दुइ हेतु अवतरि' लआ भक्त-गण ।
आपने आस्वादे प्रेम-नाम-सङ्गकीर्तन।।
सेइ द्वारे आचण्डाल कीर्तन सञ्चारे ।
नाम-प्रेम-माला ग्रंथि ' पराइल संसारे।।
“इस प्रकार भगवान् दो कारणों से अपने भक्तों के साथ अवतरित हुए और उन्होनें नाम संकीर्तन द्वारा प्रेमरूपी अमृत का आस्वादन किया। इस तरह उन्होने अछूतों में भी कीर्तन का विस्तार किया। उन्होनें पवित्र नाम तथा प्रेम की माला गूँथकर सारे भौतिक संसार को पहना दी” । (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.39-40)
श्री चैतन्य महाप्रभु इस तरह से अपने मन की बात व्यक्त करते थे। “मेरे जीवन स्वामी कहाँ है, जो अपनी बाँसुरी बजा रहे है? अब मैं क्या करूँ? मुझे महराज नन्द के पुत्र को खोजने कहाँ जाना चाहिए? मुझे किससे बात करनी चाहिए? मेरी निराशा को कौन समझ सकता है? नन्द महाराज के पुत्र के बिना मेरा हृदय फटा जा रहा है"।
गुप्त कोष
चिराददत्तं निज-गुप्त-वित्तं
स्व-प्रेम-नामामृतमत्युदारः।
आ-पामरं यो विततार गौरः
कृष्णो जनेभ्यस्तमहं प्रपद्ये।।
गौरकृष्ण नाम से विख्यात सर्वाधिक वदान्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने हर एक को - यहाँ तक कि अधम से अधम व्यक्तियों को भी - अपने प्रेम तथा अपने पवित्र नाम के अमृत-रूप गुह्य खजाना बाँटा। यह इसके पहले कभी भी लोगों को नहीं दिया गया था। अतएव में उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ। (चैतन्य-चरित्रामृता, मध्य-लीला 23.1)
यह प्रेम गुप्त-वित्त है। इसे अभी तक वितरित नही किया गया था। अब गौर इसे सभी को बांट रहे हैं, यहाँ तक कि अछूतों, पामरों और चाण्डालों को भी। यह
गोलोक वृंदावन का गुप्त कोष है। गौर अब इसे भौतिक जगत में सब को वितरित कर रहे हैं। कैसे? अपने ही कृष्ण-नाम का जप करके। वह स्वयं प्रेम-ंनाम का जप करते हैं,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
वह स्वयं जप करते हैं। यह सामान्य नाम नहीं है। यह प्रेम-नाम है जो [कृष्ण] प्रेम प्रदान करता है। वह स्वयं मधुर रास का आनंद लेते है और इसे वितरित करते है। तो, उन्होंने नाम और प्रेम की माला कैसे बुनी? और सभी को कैसे माला पहनाई? यह कैसे संभव हुआ? इसका उत्तर सबको पता होना चाहिए।
साधन और साध्य को एक साथ कैसे बुना जा सकता है?
नाम साधन है। प्रेम साध्य है, लक्ष्य। साधन और साध्य। तो साधन और साध्य को एक साथ कैसे गुँथ गए और माला बन गए? नामेर फले कृष्ण-पदे 'प्रेम' उपजय - यदि आप शुद्ध नाम का जप करोगे, तो कृष्ण-प्रेम विकसित होगा। पवित्र नाम का जप साधन है, और लक्ष्य है कृष्ण-प्रेम । साधना और साध्य को एक साथ बुना गया और एक माला बनाई गई। यह कैसे संभव हुआ? साधन और साध्य को कैसे एक साथ बुना जा सकता है, यह कैसे संभव होगा?
क्या आपको लगता है कि गौरांग जो प्रेम देते हैं वह साधारण प्रेम है? नहीं! यह शुद्ध कृष्ण-प्रेम है । यह बेदाग है। यह बहुत, बहुत उच्च, उच्चतम स्तर का है। यदि कोई भाग्यवान इस प्रेम को प्राप्त कर लेता है, तो वह मुक्ति को लात लगाता है । वह मुक्ति से घृणा करता है। वह मुक्ति पर थूकता है।
कृष्ण-प्रेम में से व्रज-प्रेम श्रेष्ठ है । और व्रज-प्रेम के सभी चार प्रकारों - दास्य, साख्य, वात्सल्य और माधुर्य - में से गोपी-प्रेम ज्यादा श्रेष्ठ है। और गोपी-प्रेम में,
राधा-प्रेम सबसे उच्च है। यह प्रेम गूढ़ खजाना है, सुगुप्त-संपदा। यदि कोई भाग्यशाली है और वह राधा-प्रेम प्राप्त कर लेता है, तो उसकी सभी मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं। वह परम सिद्धि प्राप्त करता है। श्रीमान नाम है और नामी कृष्ण है, नाम के स्वामी हैं। वे अभिन्न हैं। इसलिए, नाम और नामी में कोई अंतर नहीं है।
निरपराध शुद्ध नाम का जप करें:
भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नव-विधा भक्ति ।
'कृष्ण-प्रेम','कृष्ण' दिते धरे महा-शक्ति ।।
तार मध्ये सर्व-श्रेष्ठ नाम सङ्कीर्तन ।
निरपराधे नाम लैले पाय प्रेम-धन ।।
"भक्ति संपन्न करने की विधियों में नौ संस्तुत विधियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि इन विधियों में कृष्ण तथा उनके प्रति प्रेम प्रदान करने की महान शक्ति निहित है। भक्ति की नौं विधियों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है भगवान् के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन करना। यदि कोई दस प्रकार के अपराधों से बचते हुए ऐसा करता है, तो वह आसानी से भगवान् के अमूल्य प्रेम को प्राप्त कर लेता है। " (चैतन्य-चरित्रामृता, अन्त्य-लीला 4.70-71)
तात्पर्य यह है कि यदि आप दोषरहित शुद्ध नाम का जप करते हैं तो आपके सभी अनर्थ तुरंत नष्ट हो जाते हैं। अन्यथा आपके अनर्थ कभी नष्ट नहीं होंगे। अनर्थ-निवृत्ति के बाद निष्ठा, रुचि, आशक्ति, भाव, और फिर प्रेम आता है। अंतिम अवस्था है प्रेम, जोकि साध्य है। तो 'हरे कृष्ण' शुद्ध नाम जप के माध्यम से आप एक के बाद एक इन अवस्थाओं को प्राप्त करोगे और अंत में आप सबसे शीर्ष मंच पर पहुंचेंगे। कृष्ण प्रेम का मंच। जब वह प्रेम अधिकाधिक गाढ़ा हो जाता है, तो क्या होगा? प्रेम स्नेह से मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव और फिर महाभाव। सबसे उच्च महाभाव अवस्था है । प्रेम इस तरह से विकसित होता है।
तो 'उन्नतोज्ज्वल-रस' प्रेम-भक्ति का सार है। ये साध्य-भक्ति का श्री है, जिसे मादनाख्या-महाभाव के रूप में जाना जाता है। महाभाव में भी विभाग है — मोदनाख्या-महाभाव और मादनाख्या-महाभाव। और श्रीमती राधारानी इस मादनाख्या-महाभाव की मूर्तिमंत रूप हैं। इसलिए राधारानी को मादनाख्या-महाभाव-मयी के नाम से जाना जाता है।
तो अब सवाल यह है कि गौर ने साधन-भक्ति, जो नाम-संकीर्तन है, तथा प्रेम को एक माला में कैसे गूँथा? इसके पीछे क्या हुनर है? और इसे कौन समझ सकता है?
गौरांगेर दु’टि पद, याँर धन सम्पद,
से जाने भकतिरस-सार।
वे भक्त जिन्होंने गौरांग के चरण कमलों को अपनी धन और संपत्ति के रूप में स्वीकार किया है, केवल वे ही इसे जान सकते हैं।
गौरप्रेम रसार्णवे, से तरंगे येबा डुबे,
से राधामाधव-अन्तरङ्ग। (प्रार्थना भजन 39)
ऐसे प्रेमी-भक्त, जो सदा गौर-प्रेम-रस सागर में डूबे रहते हैं, केवल वही इसे जानते हैं । दूसरों को नहीं पता है । गौरांग हमें इस उच्चतम प्रेम, जो राधा-प्रेम है, प्रदान करने आएं है।
गौरंगा प्रेम-नाम का प्रचार करने आये थे
गौरांग महाप्रभु इस प्रेम-नाम का प्रचार करने आए। केवल साधारण नाम नहीं, प्रेम-नाम प्रचरिते एइ अवतार (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.5) । उन्होनें स्वयं प्रेम-नाम-संकीर्तन का रसास्वादन किया - आपने आस्वादे प्रेम-नाम-सङ्गकीर्तन (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 4.39)।
सेइ द्वारे आचण्डाल कीर्तन सञ्चारे ।
नाम-प्रेम-माला ग्रंथि ' पराइल संसारे ।।
"इस तरह उन्होने अछूतों में भी कीर्तन का विस्तार किया। उन्होनें पवित्र नाम तथा प्रेम की माला गूँथकर सारे भौतिक संसार को पहना दी।"
प्रेम-पुरुषोत्तम गौरांग प्रेम-नाम-संकीर्तन के जनक हैं, साधारण नाम-संकीर्तन के नहीं। यह साधन-भक्ति, जिसमें श्रवण-कीर्तन होता है, का अंग नहीं है। यह साधन-भक्ति से परे है । यह प्रेम-नाम-संकीर्तन, प्रेम से लबालब है। यह किसका संकीर्तन है? यह मादनाख्या-महाभाव-मयी का कीर्तन है। यह श्रीमती राधारानी का संकीर्तन है। मादनाख्या-महाभाव-मयी राधारानी यह संकीर्तन करती हैं। यह प्रेम-ंनाम-संकीर्तन है। यही प्रेम-भक्ति का सार है। यह प्रेम-नाम-संकीर्तन है गोलोक वृंदावन का गूढ़ खजाना।
नाम-संकीर्तन राधारानी के शुद्ध प्रेम से शिक्त है
नाम और नामी में कोई अंतर नहीं है। नाम, नामी से विरह की तीव्र पीड़ा का अनुभव करता है। नामी कृष्ण हैं। श्रीमती राधारानी को नामी, कृष्ण से विरह की तीव्र पीड़ा अनुभव होती है। इसलिए यह नाम-संकीर्तन राधारानी के शुद्ध प्रेम से लथपथ है। अतः प्रेम-ंनाम-संकीर्तन परम-साध्य है। नाम स्वयं नामी है। श्रीमन्-नाम, इस प्रेम-नाम-संकीर्तन में अपनी सर्वोच्च मूर्ति को व्यक्त करते है जो कि वैवाहिक मधुरता से भरा है। जो प्रेमी-भक्त हैं, वे यह सब जानते हैं और वे प्रेम-नाम-संकीर्तन करते हैं । दूसरे नहीं कर सकते। अतः वे जप के माध्यम से इस प्रेम-भक्ति-माला को श्रीमन्-नाम के चरण कमलों में चढ़ाते हैं। व्रजभूमि की युवतियां इस प्रेम-नाम-संकीर्तन को राधारानी के मार्गदर्शन में करती हैं। जब वे नामी से विरह पीड़ा को महसूस करती हैं। तब वे जप करती हैं: हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । और इस तरह वे, विरह पीड़ा को महसूस करते हुए, इस माला से नामी-मूर्ति को सजाती है।
तो तात्पर्य यह है कि अभिंन्न -नामी अर्थात नामी और नाम अभिन्न है। गौर भी नामी है, कृष्ण है, और नाम से भिन्न नहीं है। प्रेम-ंनाम-संकीर्तन द्वारा वे इस मधुर अमृतमयी प्रेम-रस का आस्वादन करते हैं। वे स्वयं इसका आस्वादन करते हैं, नाम और प्रेम की एक माला बनाते है, और सभी को प्रदान करते है। यह नाम-प्रेम-माला है। इसका मतलब है कि माला को प्रेम के धागे से बुना गया है, प्रेम-सूत्र। जब नाम और प्रेम एक साथ बुने जाते हैं, तो धागा कैसा होता है? यह धागा है प्रेम का । उस धागे के साथ नाम और प्रेम एक साथ गुंथे हुए हैं । यह है प्रेम-भक्ति-माला और गौरहरि सबको यह माला पहनाते हैं।
प्रेम-फल का मधुर स्वाद विरह दशा में चखा जाता है
महाप्रभु भी विरह की उसी तीव्र पीड़ा का अनुभव करते है जो राधारानी महसूस कर रही थी और उस मनोदशा में वे जप कर रहे थे-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम के पास है।।
यह प्रेम-नाम-संकीर्तन है। यह माला, सिर्फ नाम-प्रेम-माला ही नहीं है अपितु यह रस-मय-माला भी है। प्रेम फल है। अतः विरह-दशा में प्रेम-फल का मधुर स्वाद चखा जाता है। यह सभी मधुर रसों की माला है, रस-मय-माला।
प्रेम-भक्ति, भक्ति का सार है। फूलों की एक माला तैयार करने के लिए, एक धागे की आवश्यकता होती है और इसे एक साथ बुना जाता है। इसी तरह, जब नाम -प्रेम-माला का प्रश्न आता है, तो माले का धागा क्या है? वह धागा है प्रेम का। माला प्रेम के धागे से बुनी जाती है। यह है नाम-प्रेम-माला। उदाहरण के लिए जप-माला जिसके साथ हम जप करते हैं ।
इसका तात्पर्य है कि आपको तीव्र विरह का अनुभव् करते हुए पवित्र नाम का जप करना चाहिए । तब आपका जप निरपराध होगा और शुद्ध नाम उच्चारित होगा।
यह गोलोक का रहस्यमय विषय है। यह पहले किसी को नहीं दिया गया था, लेकिन जब महाप्रभु आए तो उन्होंने सबको दिया -गोलोकेर प्रेम-धन, हरि-नाम-संकीर्तन। यह इस भौतिक जगत का नही है। यह गोलोक वृंदावन के अंतर्गत आता है।
असंभव संभव हो जाता है:
नाम और नामी अलग नहीं हैं, साधना और साध्य और आस्वाद्य तथा आस्वाद भी अलग नहीं हैं। वे अभिन्न कब हो जाते हैं? सबसे परिपक्व अवस्था, सिद्ध-दशा में अभिन्न हो जाते हैं। अन्यथा शुरुआत में अंतर रहता है।
गौरांग महाप्रभु अद्भुत रूप से दयालु हैं। केवल गौर की अद्भुत, अहैतुकी दया, करुणया के कारण ही असंभव संभव हो जाता है। साधन और साध्य बन अभिन्न हो जाते हैं। अन्यथा यह संभव नहीं है।
सम्भोग और विप्रलंभ, मिलन और विरह, एक ही पात्र में हैं। यह पूरी तरह से असंभव है। लेकिन अगर आपको गौरांग की अहैतुकी कृपा प्राप्त हो जाये, तब आप इस तत्त्व को समझ सकते हैं। और आप इसे प्राप्त भी कर सकते हैं। साधन और साध्य के मध्य अंतर कैसे हो सकता है? साधन आदि है और साध्य अंत है। तो वे अभिन्न कैसे हो सकते हैं? वे एक साथ कैसे गुँथ सकते हैं? कहाँ आदि और कहाँ अंत है? यह असंभव है। लेकिन प्रेम-पुरुषोत्तम गौरांग की कृपा से असंभव, संभव हो जाता है। नहीं तो इसे कोई नहीं समझ सकता कि ये कैसे बुने जाते हैं? कैसे उन्होंने इस भौतिक दुनिया में सभी को माला पहनाई और वह प्रेम-नाम -संकीर्तन क्या है। यह सब प्रेम-नाम-सङ्कीर्तन के माध्यम से संभव है।
प्रेम-नाम-संकीर्तन प्रेम की बाढ़ लाता है
गोलोक वृंदावन में एक महान उत्सव होता है जब प्रेम-नाम-संकीर्तन चलता है। वही उत्सव इस भौतिक संसार में आया जब महाप्रभु सभी शाश्वत पार्षदों के साथ इस धरा में आए। जब उन्होंने प्रेम-नाम-संकीर्तन प्रारम्भ किया तो गोलोक वृंदावन का उत्सव इस धरा में आ गया।
यद्यपि नाम और नामी में कोई अंतर नहीं है, फिर भी नाम नामी से अधिक दयालु है। सबको इसे समझना चाहिए और गौरांग महाप्रभु ने इसे प्रदर्शित किया है, उन्होंने इसे चखा है और इसका वितरण किया है। गौरांग महाप्रभु की इस अद्भुत कृपा के कारण, यह प्रेम-नाम-संकीर्तन, प्रेम की बाढ़ लाता है।
इस भौतिक संसार में बाढ़ है, जिससे वे प्रेम-नाम-संकीर्तन के माध्यम से अपनी तीन इच्छाओं को पूरा करते हैं। इसीलिए कहा जाता है-
कपाट दिया कीर्तन करे परम आवेशे ।
पाषण्डी हासिते आइसे, ना पाय प्रवेशे।।
“यह भावपूर्ण कीर्तन दरवाजे बन्द करके किया जाता था, जिससे हँसी उड़ाने की दृष्टि से आने वाले अविश्वाशी लोग प्रवेश न कर सकें।” (चैतन्य-चरित्रामृता, आदि-लीला 17.35)
अत: प्रभुपाद तात्पर्य में कहते हैं कि केवल प्रामाणिक कीर्तन करने वालों को प्रविष्ट होने दिया जाए, अन्यों को नहीं। प्रेम-नाम -संकीर्तन में कौन भाग ले सकता है? प्रामाणिक जप करने वाले कौन हैं? वे जो अपराध रहित, शुद्ध नाम जपते हैं, वे प्रामाणिक हैं। केवल उन्हें ही संकीर्तन मण्डली में शामिल किया जाता है, अन्यों को नहीं । इसलिए दरवाजे बंद हैं। ऐसे प्रेमी-भक्तो की मंडली में, प्रेम-नाम-सकीर्तन संभव होगा, अन्यथा कोई संभावना ही नहीं है।
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