प्रेमपूर्ण सेवा और कृष्ण की कृपा

 

प्रिय पाठकगण,

 

श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम आचार्यों की शिक्षाओं पर चर्चा तथा उनका स्मरण करने का प्रयास कर रहे हैं। आज हमारी चर्चा का विषय सेव्य (जिनकी सेवा की जाती है, अर्थात् स्वामी), सेवक (जो सेवा करता है) तथा सेवा के मध्य संबंध पर रहेगा।

हमें सेवा के वास्तविक अर्थ को समझना होगा। जब कोई व्यक्ति कृष्ण के चरणकमलों में पूर्ण रूप से शरणागत होकर, प्रत्येक क्षण अपनी सभी इंद्रियों द्वारा कृष्ण के आनंद हेतु किसी कार्य में प्रेमपूर्वक प्रवृत्त रहता है, तब उसे सेवा कहते हैं। भौतिक सेवा में साधारणतया सेवा के उपरांत, एक सेवक की कुछ भौतिक लाभ प्राप्त करने की आकांक्षाऍं रहतीं हैं, किंतु आध्यात्मिक सेवा में सेवक की एकमात्र इच्छा अपने स्वामी का सुख होता है। आध्यात्मिक सेवा में सेवक का अपने स्वामी के प्रति पूर्ण प्रेम तथा अपनी आत्मा से भी अधिक प्रगाढ़ आत्मीय भाव रहता है। वास्तविक सेवक एक क्षण के लिए भी अपने स्वामी का त्याग नहीं करता, क्योंकि वे उसके जीवन एवं प्राण होते हैं। एक सच्चा सेवक सदैव अपने स्वामी पर पूर्णतया आश्रित रहता है और स्वामी सर्वदा उसे अपना आश्रय प्रदान करते हैं। सेवक के लिए, सेवा का अर्थ स्वामी का आश्रय लेकर भक्ति करना है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, “कृष्ण केवल आपकी प्रेममयी सेवा स्वीकार करते हैं।” यदि सेवक अपने स्वामी का आश्रय त्याग देता है, तो आध्यात्मिक दृष्टिकोण से वह मृत घोषित हो जाता है। इसकी पुष्टि श्रील प्रभुपाद ने श्रीमद्-भागवतम [२.६.३५] के अपने तात्पर्य में भी की है, “आत्मसाक्षात्कार द्वारा मनुष्य भक्त बनने का पात्र हो जाता है और भक्त सेवा-भाव से ही क्रमशः भगवान को जान सकता है।”

दूसरे शब्दों में, सेवक सदैव सेवा करने के लिए लालायित रहता है। उसके लिए साधुसंग मुख्यतः श्री श्री गुरु एवं गौरांग द्वारा प्रदत्त सेवा है। अनेक अयोग्यताएँ व दुर्बलताएँ होने के बावजूद भी वह श्री श्री गुरु एवं गौरांग की प्रसन्नता व उनके दिव्य आनंद हेतु सेवा करने का पूर्ण प्रयास करता है। श्रील प्रभुपाद ने कहा है कि कृष्ण को समझने का यही एकमात्र उपाय है। वह लोभ (लौल्यम) के कारण सेवा में संलग्न रहता है। वह स्वयं को सबसे पतित मानता है और साथ ही कृष्ण की सेवा करने के लिए व उनके दिव्य गुणों के विषय में श्रवण करने के लिए अत्यधिक उत्कण्ठित रहता है। इससे उसे कृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। सेवक का स्वामी के प्रति प्रेम तथा स्नेह हेतु-रहित होता है, उसका सेवा-भाव अखण्डित रहता है और उसका मन पूर्ण दृढ़ता के साथ सेवा में स्थिर रहता है। वह अपने स्वामी के अद्भुत व्यक्तित्व तथा मधुर व्यवहार के प्रति सदैव आकर्षित रहता है और स्वामी की उदारता द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। अत: सेवक और स्वामी के मध्य सेवा-भाव स्वाभाविक व शाश्वत होता है।  

सेवा-भाव से सेवक और स्वामी के बीच एक आंतरिक संबंध स्थापित हो जाता है और सेवा के माध्यम से ही दोनों एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। श्री श्री गुरु एवं गौरांग की प्रेममयी सेवा करने से सेवक अपने हृदय में यह अनुभव करता है कि वास्तव में उसके स्वामी ही उसका पालन एवं रक्षण कर रहे हैं। इस प्रकार दिन-प्रतिदिन अपनी विशुद्ध सेवा द्वारा वह अंतत: अनन्य भक्ति के स्तर को प्राप्त कर लेता है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने गीत में ऐसी विशुद्ध सेवा के लक्षणों का वर्णन करते हैं:

 

पूर्व इतिहास, भुलिनु सकल

सेवा-सुख पेये मने

आमि तो तोमार, तुमि तो आमार

कि काज अपर धने

[शरणागति]

 

“आपकी सेवा से प्राप्त होने वाले आनंद का मन में अनुभव करने के पश्चात मैं अपना पूर्व इतिहास (जीवन) पूर्ण रूप से भूल गया हूँ। मैं आपका दास हूँ तथा आप मेरे स्वामी हैं। अतएव किसी दूसरी संपत्ति की लालसा रखने से क्या लाभ?”

सेवक की एकमात्र उपलब्धि उसके स्वामी की प्रेममयी सेवा है। अपनी प्रेममयी सेवा के प्रभाव से वह समझ जाता है कि श्री श्री गुरु एवं गौरांग उससे क्या चाहते हैं तथा उनकी आंतरिक इच्छाएँ एवं संकेत क्या हैं। एक सेवक के लिए सेवा ही उसका सौंदर्य, उसका आध्यात्मिक बल और उसकी सर्वोच्च उपलब्धि होती है। विनम्र सेवक के शुद्ध प्रेममयी सेवा-भाव को देखकर, स्वामी का ध्यान सेवक की ओर आकृष्ट होता है और जब स्वामी की कृपादृष्टि सेवक पर पड़ती है, उस अवस्था में सेवक आनंद के महासागर में डुबकी लगाता है। यही वास्तविक जीवन है। इसलिए, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर उल्लेख करते हैं:

 

भकतिविनोद, आनंदे डुबिया,

तोमार सेवार तरे

सब चेष्टा करे, तव इच्छा मत,

थाकिया तोमार घरे

[शरणागति]

 

“आपकी सेवा में तत्पर रहते हुए, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर आनन्द रूपी समुद्र में डूब रहे हैं। आपकी प्रसन्नता हेतु, वे आपके घर में रह रहे हैं एवं सब प्रकार से आपकी सेवा में व्यस्त हैं।”

जो सेवक सेवा-विग्रह (गुरु-पाद-पद्म) की प्रेमपूर्ण सेवा करता है, कृष्ण नित्य रूप से स्वयं को उसके प्रति ऋणी मानते हैं। श्रीगुरु के निर्देशानुसार सेवा करने से हम सेव्य-विग्रह (कृष्ण) के प्रति आकर्षण व आसक्ति विकसित कर सकते हैं। प्रेममयी सेवा के प्रभाव से आत्मीयता व दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है। यह प्रभाव इतना विस्मयकारी होता है कि प्रेममयी सेवा का प्रतिपादन करने से सेवक स्वामी से भी अधिक महान बन जाता है। [यद्यपि] कृष्ण संपूर्ण जगत का पालन करते हैं, किंतु नंद महाराज और यशोदा माता जैसे प्रेमी-भक्त उनका पालन करते हैं। कृष्ण किस प्रकार अपने प्रिय भक्त की प्रेममयी सेवा से उनके अधीन हो जाते हैं, यह उन्होंने स्वयं, अपने शब्दों में श्री चैतन्य चरितामृत [आदि-लीला ४.२१-२२] में वर्णन किया है:

 

मोर पुत्र, मोर सखा, मोर प्राण-पति

एइ-भावे येइ मोरे करे शुद्ध-भक्ति

आपनाके बड़ माने, आमारे सम-हीन

सेइ भावे हइ आमि ताहार अधीन

 

"यदि कोई मुझे अपना पुत्र, अपना मित्र या अपना प्रेमी मानकर और अपने आपको महान् एवं मुझको अपने समान या अपने से निम्न मानकर मेरी शुद्ध प्रेमाभक्ति करता है, तो मैं उसके अधीन हो जाता हूँ।"

कृष्ण अपने प्रिय भक्त से इतने आसक्त क्यों हैं? क्योंकि उनके प्रिय भक्त या सेवक उनके सुख एवं आनंद के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कामना नहीं करते। ऐसे सेवक के सभी कार्यकलाप एकमात्र गुरु और कृष्ण की प्रसन्नता हेतु होते हैं। यदि आप किसी की सेवा करना चाहते हैं, तो आपको उनके निकट रहना होगा, अन्यथा आप उनकी सेवा कैसे करेंगे? इसी प्रकार प्रेममयी सेवा का अर्थ है किसी ऐसे व्यक्तित्व की सेवा करना जो गुरु और कृष्ण के अत्यंत करीब हो। भौतिक दूरी का सेवक और स्वामी के संबंध पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रेममयी सेवा का अर्थ है वह सेवा, जो सेवा-विग्रह श्रीगुरु एवं सेव्य-विग्रह श्रीकृष्ण के (हृदय के) निकट हो। प्रेममयी सेवा का सामर्थ्य इतना दिव्य और मधुर होता है कि सेवक सर्वप्रथम अपने नित्य स्वामी, श्रीकृष्ण से हृदय के भीतर भेंट करता है और तदुपरांत बाह्य रूप से। अत: सेवा में पूर्ण निमग्नता की विशेष आवश्यकता है क्योंकि बिना पूर्णतः अभिनिविष्ट हुए, कोई भी गुरु एवं कृष्ण की सेवा नहीं कर सकता।

जब सेवक प्रेम व ममता के साथ अपनी इंद्रियों द्वारा कृष्ण की सेवा करता है, तब उसकी इंद्रियाँ आध्यात्मिक हो जाती हैं। संस्कृत में इसे तादात्मिका कहते हैं। उस स्तर पर सेवक अपनी समस्त इंद्रियों द्वारा कृष्ण को प्रसन्न करने में समर्थ बन जाता है। वास्तविक सेवक सदैव कृष्ण और उनकी सेवा के विचारों में ही डूबा रहता है। अत: जब भी उसके जीवन में सुख, दुख या अन्य दुविधाएँ आती हैं, वह उन्हें अपने स्वामी की कृपा के रूप में देखता है। भौतिक दृष्टि से सेवक कृष्ण से दूर हो सकता है, परंतु प्रेममयी सेवा के प्रभाव से वह सदैव अपने स्वामी, श्रीकृष्ण के चरणकमलों की शीतल पद-छाया में रहता है। अतएव सेवा में दुखी होने तथा विलाप करने का प्रश्न ही नहीं उठता। सेवा के माध्यम से कृष्ण और सेवक दोनों को आनंद प्राप्त होता है। सेवा करते समय जब भी हमें आनंद की अनुभूति नहीं होती तो यह इंगित करता है कि गुरु और कृष्ण हमारी सेवा स्वीकार नहीं कर रहे हैं। जितनी मात्रा में गुरु और कृष्ण हमारी सेवा से प्रसन्न हैं, उतनी ही मात्रा में हमें भी सेवा द्वारा संतुष्टि का अनुभव होगा। जब कभी हम सेवा करके दिव्य आनंद अनुभव नहीं करते, तो इसका अर्थ है हम प्रेम और स्नेह से सेवा नहीं कर रहे हैं अथवा हमारी कृष्ण और गुरु की प्रसन्नता के अतिरिक्त अन्य कामनाएँ हैं। जहाँ कृष्ण की सेवा है, वहाँ आनंद है, किंतु जहाँ हमारा निजी सुख है, वहाँ कृष्ण-सेवा का कोई प्रश्न नहीं उठता। कृष्ण की सेवा हेतु एक वास्तविक सेवक अपना जीवन न्यौछावर करने के लिए भी सदैव तैयार रहता है क्योंकि उसे स्वर्ग, नरक या वैकुण्ठ प्राप्त करने की तनिक भी इच्छा नहीं हैं, अपितु उसकी एकमात्र इच्छा तो कृष्ण को प्रसन्न करना है।

कृष्ण जब भी अपने सेवक को उनकी प्रेममयी सेवा करते हुए देखते हैं, तो वे अत्यंत आनंदित हो जाते हैं। यदि उस सेवक के हृदय में कृष्ण के लिए प्रेम व स्नेह है, तब कृष्ण उसकी छोटी से छोटी सेवा से भी प्रसन्न हो जाते हैं। एक वास्तविक सेवक गुरु और कृष्ण की सेवा अंधविश्वाशी व्यक्ति की भाँति नहीं, अपितु कृष्ण के प्रति अपने अनन्य व विशुद्ध प्रेम के आधार पर करता है। ऐसा करने से वह सेवक दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेता है और कृष्ण का मनोभाव समझने में सक्षम हो जाता है। फलत: उसका हृदय एक स्वच्छ दर्पण के समान विमल बन जाता है जिस पर गुरु और कृष्ण का मनोभाव प्रतिबिम्बित हो जाता है और वह किसी भी परिस्थिति में उनकी सेवा का त्याग नहीं कर पाता। कृष्ण की सेवा करने का परिणाम यही है कि सेवक के हृदय में श्री श्री गुरु एवं गौरांग की अधिकाधिक सेवा कर उन्हें और अधिक प्रसन्न करने की उत्कण्ठा जाग्रत हो जाती है, अत: उसके लिए सेवक सदा अनंत इंद्रियों तथा असीमित समय की कामना करता है।

एक जीव को श्री श्री गुरु एवं गौरांग की प्रेममयी सेवा करने का अवसर केवल उनकी कृपा से ही प्राप्त होता है। साधु वास्तव में सेवा के मूर्तीमंत विग्रह होते हैं, इसलिए सेवा उनका एकमात्र व्यवसाय व स्वाभाविक कर्तव्य होता है। साधु का साधुत्व और उनकी उन्नत स्थिति कृष्ण के प्रति उनकी प्रीतिपूर्ण सेवा पर आधारित होती है। वह जिस किसी पर भी अपनी कृपावृष्टि करते हैं, उसके हृदय में कृष्ण-सुख की वासना उत्पन्न हो जाती है और उसे सेवा करने का सुअवसर प्राप्त होता है। सरल एवं उदार हृदय में तथा स्नेहशील स्वभाव के व्यक्तियों के हृदय में साधु अपना प्रेमपूर्ण सेवा का भाव अंतर्निर्विष्ट कर देते हैं। इसके पश्चात वह सेवक सेवा का भिक्षुक बन जाता है। सेवा में उसे कभी भी संतुष्टि अथवा तृप्ति का अनुभव नहीं होता। वह सदैव यही महसूस करता है, “मैं अन्यों की भाँति उत्तम सेवा नहीं कर रहा हूँ।” अत: गुरु और कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण सेवा ही उनकी वास्तविक कृपा है और उस कृपा के परिणाम स्वरूप सेवक को पुन: प्रेममयी सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है।

श्रील प्रभुपाद श्रीमद्-भागवतम [१.५.३४] के अपने तात्पर्य में वर्णन करते हैं, “मनुष्य को सर्वप्रथम ऐसे शुद्ध भक्तों की संगति खोजनी चाहिए जो न केवल वेदांत के पण्डित हो अपितु स्वरूप सिद्ध तथा भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त हो। इस संगति में नव दीक्षित भक्तों को चाहिए कि बिना भेदभाव के तन तथा मन से प्रेम पूर्ण सेवा करें, इस सेवा वृत्ति से प्रेरित होकर महापुरुष अपनी कृपा प्रदान करने के लिए अधिक इच्छुक होंगे जिससे नव दीक्षित भक्तों में शुद्ध भक्तों के दिव्य गुणों का समावेश हो सकेगा।”

इसके दो पहलू हैं – हमारी ओर से भगवान पर पूर्ण निर्भरता और भगवान की ओर से सेवा करने का सुअवसर प्रदान करना। पूर्ण शरणागति या निर्भरता ही प्रेममयी सेवा को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। प्रेम और स्नेह के बिना कृष्ण की कृपा को समझ पाना और उनका दर्शन प्राप्त कर पाना असंभव है। एक भक्त सदैव कृष्ण की कृपा प्राप्त करने की अभिलाषा करता है और कृष्ण भी अपने भक्तों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए तत्पर रहते हैं। अत: कृष्ण और भक्त दोनों की इच्छा प्रेमपूर्ण सेवा के माध्यम से ही पूरी होती है। इसका अर्थ है कि कृष्ण साधु के माध्यम से अपने भक्त को प्रेममयी सेवा में नियुक्त करके उसकी इच्छा पूरी करते हैं। इस प्रकार दोनों की इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

सारांश यह है कि गुरु और कृष्ण के प्रति प्रेममयी सेवा और उनकी कृपा दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। एक के बिना दूसरा प्राप्त करना संभव नहीं है। साधक स्थिति में गुरु और कृष्ण के प्रति की गई सेवा कच्चे आम की भाँति है। जब कोई अनर्थों से मुक्त हो जाता है और प्रेम विकसित कर लेता है, तब उसकी सेवा एक पके हुए आम के भाँति हो जाती है। इसलिए हम प्रतिदिन तुलसी देवी से प्रार्थना करते हैं, “सेवा-अधिकार दिये करो निज-दासी”। नरोत्तम दास ठाकुर भी अपने गीत में यही भाव प्रकट करते हैं – ‘सेवा अभिलाष करे नरोत्तम दास’। एक भक्त कृष्ण की सेवा के लिए अपने निजी प्रण, तपस्या इत्यादि का भी परित्याग कर देता है। इसका एक उत्तम उदाहरण श्री चैतन्य चरितामृत में श्रील माधवेंद्र पुरी के जीवन से प्राप्त होता है [मध्य लीला ४.१७९-१८१, १८६]:

 

परम विरक्त, मौनी, सर्वत्र उदासीन

ग्राम्य-वार्ता-भये द्वितीय-संग-हीन ।।

 

चैतन्य महाप्रभु ने आगे बतलाया, “श्री माधवेंद्र पुरी अकेले रहा करते थे। वे पूर्ण विरक्त थे और सदैव मौन रहते थे। वे किसी भी भौतिक वस्तु में रुचि नहीं रखते थे और संसारी बातें करने के भय से अकेले रहते थे।”

 

हेन-जन गोपालेर आज्ञामृत पाया

सहस्त्र क्रोश आसिबुले चंदन मागिया ।।

 

“गोपालजी का दिव्य आदेश पाकर इस महापुरुष ने माँगकर चन्दन एकत्र करने हेतु हजारों मील की यात्रा की।”

 

भोके रहे, तबु अन्न मागिया ना खाय

हेन-जन-चंदन-भार वहिलया याय ।।

 

“माध्वेंद्र पुरी ने भूखे रहने पर भी किसी से खाने के लिए भोजन नहीं माँगा। इस विरक्त पुरुष ने श्री गोपाल के निमित्त चंदन का भार वहन किया।”

 

प्रगाढ़ प्रेमेर एइ स्वभाव-आचार

निज-दु: विघ्नादिर ना करे विचार ।।

 

“उत्कृष्ट भगवत्प्रेम का यही स्वाभाविक परिणाम होता है। भक्त निजी असुविधाओं या विघ्नों पर विचार नहीं करता। वह सभी परिस्थितियों में भगवान की सेवा करना चाहता है।”

अतः हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि यदि हमें श्री श्री गुरु एवं गौरांग की सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है, तो हमें प्रेम, स्नेह तथा सरल हृदय के साथ उस सेवा में नियुक्त हो जाना चाहिए। अगर हमारे पास सेवा नहीं है, तब हमें श्री श्री गुरु एवं गौरांग के चरणकमलों में सेवा के लिए निरंतर प्रार्थना करनी चाहिए जिसके माध्यम से हम जीवन में उनकी कृपा को आकर्षित करे सकेंगे।

 

दासानुदास

हलधर स्वामी

 

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