राधाष्टमी - श्रीमति राधारानी का प्राकट्य
श्री राधिका स्तव
श्री राधिका पाद पद्दमे विज्ञाप्ति
(श्रील रूप गोस्वामी)
(1)
राधे! जय जय माधव दयिते।
गोकुल-तरुणी मण्डल-महिते॥
“हे राधे! हे माधव की प्रिया! गोकुल की सब तरूणियों द्वारा वंदित देवी, आपकी जय हो!”
(2)
दामोदर-रतिवर्धन-वेशे।
हरिनिष्कुट-वृन्दाविपिनेशे॥
"भगवान् दामोदर के प्रेम की अभिवृत्ति हेतु आप दिव्य-परिधान करती हैं। आप वृंदावन की महारानी हैं, जिसके निकुंज भगवान श्रीहरि को आनंद प्रदान करते हैं।”
(3)
वृषभानुदधि - नवशशिलेखे।
ललिता सखीगण रमित विशाखे ||
“आप महाराज वृषभानु के पारावार से उदित हुईं एक नव चन्द्र-स्वरूपा हैं। आप श्रीललिता की प्रिय सखी हैं, एवं आपके सौहार्द-कारूण्य-कृष्णानुकूल्य आदि अद्भुत गुण श्री-विशाखा को आपकी ओर समर्पित करते हैं।”
(4)
करुणा कुरु मयि करुणा भरिते।
सनक सनातन-वर्णित चरिते॥
“हे करुणामई राधे! सनक-सनातन जैसे महान संत आपके दिव्य-गुणों का वर्णन करते हैं। कृपया मुझ पर करूणा कीजिए।”
“श्री राधा भजन महिमा–राधा भजने जदि”
श्रीमती राधारानी की उपासना का महिमागान
(गीतावली श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)
(1)
राधा-भजने यदि मति नाहि भेला।
कृष्ण-भज तव अकारण गेला॥
“यदि किसी के हृदय में श्रीमती राधारानी की आराधना करने की आसक्ति विकसित नहीं होती है, तो निस्संदेह श्रीकृष्ण के प्रति उसकी आराधना मूल्यहीन है।”
(2)
आतप रहित सुरय नाहि जानि।
राधा-विरहीत माधव नाहि मानि॥
“जिस प्रकार ताप एवं प्रकाश से विहीन सूर्य की अनुभूति नहीं की जा सकती, उसी प्रकार से मैं श्रीराधा विरहित माधव की कल्पना भी नहीं कर सकता।”
(3)
केवल माधव पूजये सो अज्ञानी।
राधा अनादर कर-इ अभिमानी ||
“जो केवल श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं, वे निश्चित रूप से अज्ञानी हैं क्योंकि केवल एक अभिमानी व्यक्ति ही श्रीमती राधारानी की उपेक्षा करने का साहस कर सकता है।”
(4)
कबहिं नाहि करबि ताँकर संग।
चित्ते इच्छासि जदि व्रज-रस-रंग॥
“जो भी अपने हृदय में ब्रज-रस के परम आनंदमय प्रेमपूर्ण भाव की अनुभूति करने की अभिलाषा रखते हैं, उन्हें ऐसे व्यक्तियों का संग कदापि नहीं करना चाहिए।”
(5)
राधिका-दासी यदि होय अभिमान।
शिघ्रइ मिलइ तव गोकुल-कान॥
“यदि व्यक्ति स्वयं को श्रीमती राधारानी की अनन्य दासी मानता है, तो उसे गोकुल के अधिपति, श्रीकृष्ण, शीघ्र ही प्राप्त हो जाएँगे।”
(6)
ब्रह्मा, शिव, नारद, श्रुति, नारायणी।
राधिका-पद-रज-पूजये मानि॥
“यह सत्य है कि ब्रह्माजी, शिवजी, नारद मुनि (एवं) मूर्तिमान वेद तथा श्री नारायण भगवान् की संगिनी लक्ष्मी जी, श्रीमती राधारानी के चरण कमलों की धूल की आराधना करती हैं।”
(7)
उमा, रमा, सत्या, शचि, चन्द्रा, रुक्मीणी।
राधा-अवतार सबे, अमनाय-वाणी॥
“वैदिक साहित्य यह व्याख्या करते हैं कि देवी दुर्गा, भाग्य की देवी - रमा, सत्या, शची, चन्द्रावली एवं रुक्मिणी, वे सभी श्रीमती राधारानी की ही विस्तार हैं।”
(8)
हेन राधा-परिचर्या याँकर धन।
भकतिविनोद तार मागये चरण॥
“श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ऐसे व्यक्ति के चरण कमलों में स्थित रहने का निवेदन करते हैं जिनकी एकमात्र धन-संपन्नता केवल श्रीमती राधारानी की नित्य-सेवा है।”
“राधिका चरण पद्म”
(गीतावली श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)
(1)
राधिका-चरण-पद्म, सकल श्रेयेर सद्म,
यतने जे नाहि आराधिल ।
राधा-पदांकित धाम, वृंदावन यार नाम,
ताहा जे ना आश्रय करिल ॥
(2)
राधिकाभाव-गंभीर, चित्त जेबा महाधीर
गण-संग ना कैल जीवने ।
केमने से श्यामानंद, रस-सिंधू-स्नानानंद,
लभिबे बुझह एकमने ॥
“श्रीमती राधारानी के चरण कमल सर्व मंगल व सुख का धाम हैं। जो व्यक्ति ऐसे चरण कमलों की एकाग्रता से अराधना करने में असमर्थ है, जिसने श्रीमती राधारानी के चरण चिह्नों से अंकित नित्य-धाम श्री-वृंदावन का अवलंबन नहीं किया है, तथा जो अपने मनुष्य-जन्म में श्रीमती राधारानी के शुद्ध-भक्तों अर्थात् उनके महागंभीर उपासकों के संग से वंचित रहता है, जिनका हृदय श्रीराधा के प्रति भक्ति भाव से परिपूर्ण है, ऐसा व्यक्ति किस प्रकार श्यामसुंदर के दिव्य माधुर्य रस के महासागर में आनंदमयी अवगाहन करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है? कृपया अपने स्थिर एवं विनयी मनोभाव से इसका विचार कीजिए।”
(3)
राधिका उज्जवल-रसेर आचार्य ।
राधा-माधव-शुद्ध प्रेम विचार्य ॥
“श्रीमती राधारानी उन्नत उज्जवल माधुर्य-रस की आदर्श आचार्य हैं और श्री श्री राधा-माधव का विशुद्ध-प्रेम मनन की एकमात्र ध्येय वस्तु है।”
(4)
ये धरिल राधा-पद परम यतने ।
से पाइल कृष्ण-पद अमूल्य-रतने ॥
“यदि कोई व्यक्ति श्रीमती राधारानी के चरणकमलों का यत्नपूर्ण आश्रय ले लेता है, तो वह निश्चित रूप से श्रीकृष्ण के चरणकमल रूपी बहुमूल्य मणि प्राप्त कर लेता है।”
(5)
राधा-पद विनु कभु कृष्ण-पद नाहि मिले ।
राधार दासीर कृष्ण सर्व-वेदे बले ॥
"समस्त वेदों में यह सूचिबद्ध है कि श्रीराधा के पाद-पद्म में समर्पित हुए बिना, कोई भी भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल प्राप्त नहीं कर सकता तथा श्रीकृष्ण केवल श्रीमती राधारानी की दासियों की संपत्ति हैं।”
(6)
छोड़त धन-जन, कलत्र-सुत-मित,
छोड़त करम गेयान ।
राधापदपंकज, मधुरत सेवन,
भक्तिविनोद परमाण ॥
“कृपया धन-संपत्ति, अनुयायी, पत्नी, संतान व मित्र, सकाम कर्म तथा भौतिक ज्ञान का परित्याग करके एकमात्र श्री-राधा के चरण कमलों की मधुर सेवा में संलग्न हो जाइए। इसी में ही श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का दृढ़ विश्वास है।”
रमणी शिरोमणि
(गीतावली श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)
(1)
रमणि-शिरोमणि वृषभानु नन्दिनी
नील-वसन-परिधान।
चिह्न पुरत जिनी वर्ण-विकाशिनी
बन्ध-कबरी हरि-प्राणा॥
“महाराज वृषभानु की परमप्रिय पुत्री समस्त तरुणीयों की रम्य-शिरोमणि अर्थात् प्रकृष्ट रत्न हैं। वे नीले वर्ण के वस्त्र धारण करती हैं। उनकी अंग-कान्ति नवीन स्वर्ण के सौन्दर्य को भी परास्त कर देती है। उनके कुंडल-केश अत्यंत सुन्दर वेणी में बंधे हैं और वे श्रीहरि की प्राण-आधार हैं।”
(2)
आभरण-मंडिता हरि-रस-पंडिता
तिलक-सुशोभित-भाला।
कन्चुलिकाच्छादिता स्तन-मणि-मण्डिता
कज्जल-नयनि रसाला॥
“वे विभिन्न आभूषणों द्वारा कलात्मक रूप से अलंकृत हैं और शृंगार रस की समस्त आनंदक्रीड़ाओं के विज्ञान में कुशल हैं। उनका मस्तक तिलक से सुशोभित है और वक्षस्थल गहनों तथा अलंकारों से सुसज्जित चोली से आवृत है। वे अपने नेत्र काले रंग के अंजन से सजाती हैं। इस प्रकार वे कृष्ण के प्रति प्रेम की पूर्ण सरोवर हैं।”
(3)
सकल त्यजिया से राधा-चरणे।
दासी हये भज परम-यतने॥
“अन्य सभी कुछ त्यागते हुए श्रीराधा के चरण कमलों में आश्रय स्वीकार करो। राधा की दासी बनो और प्रेम एवं निष्ठा सहित उनकी आराधना करो।”
(4)
सौंदर्य-किरण-देखिया याँहार।
रति-गौरी-लीला गर्व परिहार॥
“उनकी प्रभा एवं शोभायमान सौंदर्य देखकर, रति देवी, गौरी व लीला देवी भी अपने अभिमान का परित्याग कर देती हैं।”
(5)
शचि-लक्ष्मी-सत्या सौभाग्य बलने।
पराजित हय याँहार चरणे॥
“शची देवी, लक्ष्मी देवी एवं सत्या देवी का ऐश्वर्य रूपी सौभाग्य, श्रीमती राधारानी के चरणकमलों की उपस्थिति में, पूर्ण रूप से परास्त हो जाता हैं।”
(6)
कृष्ण-वशीकारे चन्द्रावली-आदि।
पराजय माने हइया विवादी॥
“प्रतिद्वंद्वी गोपियाँ चन्द्रावली के नेतृत्व में श्रीराधा के समक्ष पराजय स्वीकार करने के लिए बाध्य की जाती हैं, क्योंकि श्रीमती राधारानी एकाकी श्रीकृष्ण को वशीभूत कर लेती हैं। अतः प्रतिद्वंद्वी गोपियाँ के मध्य विवाद हो जाते हैं।”
(7)
हरि दयित राधा-चरण प्रयासि।
भकतिविनोद श्री-गोद्रुम-वासि॥
“श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, जो गोद्रुमद्वीप के निवासी हैं, भगवान् हरि की अत्यन्त प्रिय श्री राधा के चरण कमलों को प्राप्त करने की आकांक्षा करते हैं।”
शत कोटि गोपी
(गीतावली श्रील भक्तिविनोद ठाकुर)
(1)
शतकोटी गोपी माधव मन ।
राखिते नारिल करि यतन ॥
“सैकड़ों हज़ारों गोपियाँ कृष्ण को प्रसन्न करने का भरसक प्रयत्न करती हैं, परंतु विफल हो जाती हैं।”
(2)
वेणु गीते डाके राधिका-नाम ।
‘एसो एसो राधे’ डाकये श्याम ॥
“श्री श्यामसुंदर अपनी मुरली की मधुर तान से श्रीराधा का नाम पुकारते हैं, “हे राधे! कृपया यहाँ आओ, आओ।”
(3)
भांगिया श्री-रास मण्डले तबे ।
राधा-अंवेषने चलये जबे ॥
“भगवान् कृष्ण श्री-रास मण्डल को स्थगित करके, श्रीराधा की खोज में निकल जाते हैं।”
(4)
‘देखा दिया राधे राखह प्राण ।
बलिया काँदये कानने कान ॥
“भगवान कृष्ण वन में क्रंदन करते हुए पुकारते हैं, ‘हे राधे! मुझे अपने दर्शन देकर, मेरे प्राणों की रक्षा करो’।”
(5)
निर्जन कानने राधारे धरि’।
मिलिया पराण जुड़ाय हरि ॥
“तत्पश्चात कृष्ण एक एकांत निर्जन वन में श्रीमती राधिका का प्रेमालिंगन करके अपने प्राण पुनर्जीवित करते हैं।”
(6)
बले तुँहू बिना काहार रास ?
तुँहू लागि मोरे बरज-बास ॥
“भगवान कृष्ण ने कहा, ‘तुम्हारे बिना, रास नृत्य का आनंद उठाने का क्या अभिप्राय है? केवल तुम्हारे कारण ही तो मैं व्रज में निवास कर रहा हूँ।”
(7)
ए-हेन राधिका चरण तले ।
भकतिविनोद कांदिया बले ॥
“ऐसी अग्रगण्य श्रीमती राधारानी के श्रीचरणों में गिर कर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर क्रंदन करते हुए कहते हैं कि:-
(8)
‘तुया गण-माझे आमारे गणि’ ।
किंकरी करिया राख आपनि ॥
“हे राधे! अपनी नित्य-निजी-संगिनी के समारंभ में कृपया मुझे भी अपनी दासी के रूप में स्वीकार करें।”
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामिर
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी के जीवन लक्ष्य पर गीत
(श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज)
(1)
कोथाय गो प्रेममयी राधे राधे
राधे, राधे गो, जय राधे राधे
“प्रेम स्वरूपा श्रीमती राधारानी कहाँ हैं? श्री राधा की जय हो!”
(2)
देखा दिये प्राण राख राधे राधे
तोमार काँगाल तोमाय डाके राधे राधे
“हे राधे! कृपया अपने दर्शन देकर मेरे प्राणों को जीवन प्रदान करें। आपका दीन भिक्षुक आपको पुकार रहा है, ‘राधे! राधे!’।”
(3)
राधे वृंदावन-विलासिनी, राधे राधे
राधे कानु-मन-मोहिनी राधे राधे
“हे राधे! आप वृंदावन के अरण्य में श्रीकृष्ण के संग विलास करते हुए उनके मन को मोहित कर लेती हैं।”
(4)
राधे अष्ट-सखिर शिरोमणि, राधे राधे
राधे वृषभानु-नंदिनी, राधे राधे
(गोसाई) नियम करे सदाई डाके, राधे राधे
“हे राधे! आप अष्ट-सखियों में सर्वश्रेष्ठ, शिरोमणि हैं। हे श्रीवृषभानु सुता! रघुनाथ दास गोस्वामी सदैव आपका नाम पुकारते थे, ‘राधे! राधे!’।”
(5)
(गोसाइ) एक-बार डाके केशी-घाटे,
आबार डाके वँशी-वटे, राधे राधे
(गोसाइ) एक-बार डाके निधु-वने,
आबार डाके कुँज-वने, राधे राधे
“कभी वे केशी घाट में श्रीमती राधारानी को पुकारते हैं, तो कभी वंशी वट में। कभी निधुवन में, तो कभी सेवा-कुँज में।”
(6)
(गोसाइ) एक-बार डाके राधा-कुण्डे,
आबार डाके श्याम-कुण्डे, राधे राधे
(गोसाइ) एक-बार डाके कुसुम-वने,
आबार डाके गोवर्धने राधे राधे
“कभी राधा कुण्ड पर, तो कभी श्याम कुण्ड पर। कभी कुसुम सरोवर पर, तो कभी गिरिराज-गोवर्धन पर।”
(7)
(गोसाइ) एक-बार डाके ताल-वने,
आबार डाके तमाल-वने, राधे राधे
(गोसाइ) मलिन वसन दिये गाय,
व्रजेर धूलाय गढ़गढ़ी जय, राधे राधे
“वे कभी तालवन में, तो कभी तमालवन में। रघुनाथ दास सादे वस्त्र धारण करते हैं जो अत्यंत मलिन दिखाई पड़ते हैं क्योंकि वे सदैव व्रज की भूमि पर लोटकर निरंतर एक ही नाम पुकारते हैं, “राधे! राधे!।”
(8)
(गोसाइ) मुखे राधा राधा बले,
भासे नयनेर जले, राधे राधे
(गोसाइ) वृंदावने कुलि कुलि केंदे बेड़ाय
राधा बोलि’, राधे राधे
“राधे! राधे! का स्थायी भाव से उच्चारण करते हुए उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु प्रवाहित होते हैं। राधे! राधे! पुकारते हुए वे वृंदावन की प्रत्येक गलिन में भ्रमण करते हैं।”
(9)
(गोसाइ) चापान्न दण्ड रात्रि-दिने
जाने ना राधा-गोविंद विने, राधे राधे
“दिन एवं रात्रि में, उन्हें श्री-श्री-राधा-गोविंद के अतिरिक्त और कुछ भी ज्ञात नहीं रहता।”
(10)
तार पर चारि दण्ड शुति’थाके
स्वप्ने राधा-गोविंद देखे, राधे राधे
“वे केवल चार दण्ड ही विश्राम करते हैं (अर्थात् डेढ़ घंटा), और उस समय श्री श्री राधा-गोविंद उन्हें स्वप्न में अपने दर्शन देते हैं। राधे! राधे!”
मूल शक्ति
एक समय (भगवान के) नित्य-धाम श्री वृंदावन में, माधवी लता के तले श्रीकृष्णचंद्र एक स्वर्ण सिंहासन पर अकेले विराजमान थे और यह विचार कर रहे थे कि वे अपनी मधुर लीलाओं का रसास्वादन किस प्रकार करें। जैसे ही उन्होंने ऐसा चिंतन किया, वैसे हीउनकी मात्र इच्छा से श्रीमती राधारानी उनके देह के वाम भाग से प्रकट हो गईं। राधारानी संपूर्ण ब्रह्माण्ड में आदि-शक्ति के नाम से विख्यात हैं। प्राकट्य के समय, उनकी अंग-कांति पिघले हुए स्वर्ण के समान थी। उनका शरीर विभिन्न प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित था। उनके गूंथे हुए केश पुष्प-माला से विभूषित थे और उनका वक्षस्थल मुक्तमाला से सुशोभित था तथा उनके मध्यांग के चारों ओर कमरबंध का घेराव था। उनके कर्णों में अत्यंत सुंदर स्वर्ण कुण्डल मण्डित थे। उनके कद़म रखते ही उनके पाँव में बंधे नुपुर की झंकार सुनाई पड़ती थी। ‘माधव मोहिनी, राधा माधव मोहिल’– अर्थात श्रीमती राधारानी ने माधव को पूर्ण रूप से मोहित कर लिया था। रास नृत्य में माधव को अतिशय आनंद प्रदान करने के पश्चात श्रीमती राधारानी पुनः विचार करने लगी कि “मैं किस प्रकार से माधव को और अधिक सुख प्रदान कर सकती हूँ?” इस चिंतन मात्र से ही उनके शरीर से तत्क्षण असंख्य गोपियाँ प्रकट हो गईं। वे सभी श्री-राधारानी की भाँति देदीप्यमान एवं सुंदर थीं। अपनी अमृतमयी माधुर्य लीलाओं के रसास्वादन हेतु भगवान् दो देह धारण करके प्रकट हुए। (यह ब्रह्मवैवर्त पुराण से वर्णित किया गया है।)
अब मैं पद्मपुराण से श्रीमती राधारानी के आविर्भाव के विषय में दिए गए वृतांत का वर्णन करूँगा जोकि पद्म-पुराण के उत्तर खंड से, शिव जी और देवी पार्वती के मध्य हुई वार्तालाप से उल्लेखित किया गया है:
वृषभानु पुरी राजा वृषभानु महाशय
महाकुल प्रसीद सो सर्व शास्त्र विचरद
तस्य वर्य महाभाग्य श्रीमती कीर्तिदा हय
रूप यौवन सम्पन्य महाराज कुल भव
तस्याम श्री राधिका यत श्रीमद वृंदावनेश्वरी
अष्ट निधि ताँर घरे सदा विद्यमान
तोमार प्रसादे सार कुसूल आमार
पृथिवे पवित्र हय परशे तोमार
सर्व पाप तप जइ तोमार दरशने
तोमार चरण रेणु सर्व तीर्थमय
तोमार परशिलचिते हरि भक्ति हय
एते केबलिय भानु कन्या विलकले
राधार परसमुन आनन्दे विहले
प्रेमेते पूरिल देह नेत्रे अश्रु झरे
सर्वांग पुलकवलि सात्त्विक विकारे
अंतरे अंतरे मुनि राधार शरण
हृदये डारिया प्रेम कर चेष्ट वन
तुमि हरिप्रिया देवी महाभाव रूप
गोविंद मोहिनी तुमि आनंद स्वरूप
तुमि भक्ति तुमि तप सर्व रूप
तोमार चरण ध्यान करे सर्व देव
तोमार अंसेते हय लक्ष्मी जनमिला
गोपी मोहिसइ अबि सकलि हइल
तुमि आद्यशक्ति हय कृष्णेर मोहिनी
तुमि कृष्ण प्राण रूप सवार जननी
मुनिर एतेक वाणी शुनि राधा धनी
देखाइल निज रूप कृपया आपनि
दिव्य कल्प तरु तारे दिव्य रत्नासने
बोसियाचेन व्रजेश्वरी सखि गण आसने
चामर व्यजन करे कोन सखि जन
दिव्य श्वेत छत्र दरे परम सुवर्ण
राधा अंग दिव्य वास अलंकार शोभा
प्रति अंग डोलमन हरि मन लोभा
सुंदर सिंधुर बिंदु लोलते शोभन
कति तते कंचिते आमार अपूर्व दर्शन
रत्न हरावलि सोरे कण मानि परे
चरणे नूपोर दम हरि चित्त हरे
अंगेर चतये दिखयल अलोकित
रूप हेरि मुनि बार परम विस्मित
नयने प्रेमेर धर गद गद वाणि
ए सब चरित केह नरेलिकिओ बरे
राधार कृपाय मात्र नारद निहारे
पुण्य शिशु रूपे राधा मुनिर कलेशे
सुइअरइलो केहो नारिल भुजिते
टाबा मुनि बार कन्या भानु काले दिल
भानु कीर्तिदारि धकि कहिते लागिल
महाभाग्यवान दोहे जगत माझरे
एनो अपरूप कन्या हय जरा घरे
कमल पार्वती आर अरुंधती सती
सचि सत्यभामा आर जतेक जुबलि
सर्वर अम्सिनी राधा जनभलो मते
तार सम हरिप्रिय न आछे जगते
ए कन्या प्रभव सर्व गोकुल मण्डल
सकल सम्पद पाबे लभिले मंगल
कन्या बोले मुनि किछु दुख नाहि कर
इह होइते बहि दास होइबे तोमार
तबे भानुराज बोले जुददुति कर
किबापत्ति हबे भवि अह मुनि बार
मुनि बोले हबे महापुरुषेर नारी
होइबे नयन काले चर दुख वरि
बार भाग्यवाने दरे जगते मदरे
अतेके बोलिया मुनि अलिल सतरे
पद्म पुराणेर दुर्गर वरथा
आश्रय करिला किछु राधा जन्म कथा
श्रीमती राधारानी की जय!
वृषभानु-नंदनी राधारानी की जय!
कानु-मन-मोहिनी राधारानी की जय!
श्री श्री राधाष्टमी-महा-महोत्सव की जय!
पद्म पुराण में यह वर्णित है कि महाराज वृषभानु नाम के एक महान भक्त व एश्वर्यवान राजा थे। उनकी अर्धांगिनी कीर्तिदा, एक समर्पित एवं सदाचारी स्त्री थीं। उनके गर्भ से श्रीराधा, जगन-माता – अर्थात्संपूर्ण ब्रह्माण्डब्रह्माण्ड की माता ने जन्म लिया। भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन, अपराह्न काल में भगवान हरि की इच्छा के अनुरूप श्रीमती राधारानी प्रकट हुईं। गोकुल के समस्त गोप-परिवार अत्यंत प्रसन्न एवं हर्षोल्लास में थे तथा समस्त गोकुल पूर्ण रूप से आनंदित हो उठा था। सभी की इच्छाएँ उस अत्यंत सुंदर कन्या के दर्शन मात्र से परिपूर्ण हो गईं थी और वे सब अतिशय आनंद तथा हर्ष का अनुभव कर रहे थे। महाराज वृषभानु ने ब्राह्मणों, वैष्णव, भरतों एवं नटों तथा गरीबों को प्रचुर मात्रा में दान दिया। इस प्रकार व्रजेश्वरी श्रीमती राधारानी ने गोकुल में जन्म लिया। उनकी माया (शक्ति) के प्रभाव से कोई भी इस दिव्य-प्राकट्य को समझ नहीं सका।
नारद मुनि की प्रार्थना
एक दिन नारद मुनि राजा वृषभानु के भवन में राधारानी के दर्शन करने हेतु पधारे। नारद मुनि ने उनके समस्त राज्य एवं निजी कुशल-मंगल के बारे में पूछा। राजा वृषभानु ने उन्हें विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि, "आपकी कृपा से यहाँ सब शुभ एवं मंगलमय है। आप एक महान साधु हैं। आप जहाँ भी यात्रा करते हैं, वहाँ संपूर्ण मंगल प्रकट हो जाता है। आप जहाँ भी जाते हैं, वह स्थान तीर्थ बन जाता है। आपकी कृपा से प्रत्येक जीव हरिभक्ति प्राप्त कर सकता है।"
यह कहकर राजा वृषभानु ने अपनी पुत्री को नारद मुनि की गोद में दिया। जब नारद मुनि ने राधारानी के स्पर्श का अनुभव किया, तब वे उन्मत्त हो उठे, उनके शरीर काँपने लगा तथा उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा प्रवाहित होने लगी और नारद मुनि ने अपने हृदय में राधारानी को अपनी विनम्र प्रार्थना अर्पित की, "आप हरिप्रिया हैं, अर्थात् आप भगवान हरि को सर्वाधिक प्रिय हैं। आप महाभाव स्वरूपा हैं और आप गोविंद को मोहित करने वाली गोविंद मोहिनी हैं। अतः आप आनंदस्वरूपा हैं, समस्त आनंद की प्रतिमूर्ति हैं; आप ही भक्ति, तप तथा सर्वस्व हैं। ब्रह्मा से शिव आदि तक समस्त देवता आपके चरण कमलों का मनन करते हैं। सभी गोपियाँ, महिषियाँ, रानियाँ एवं महालक्ष्मी आपके कला-विस्तार हैं। आप आद्य-शक्ति अर्थात् वास्तविक प्रधान शक्ति हैं। आप कृष्ण मोहिनी एवं कृष्ण प्राणरूपा हैं अर्थात् आप ही कृष्ण के प्राण तथा उनकी आत्मा हैं; आप जगत माता, समस्त ब्रह्माण्ड की जननी हैं।"
राधा रानी ने नारद मुनि को अपना स्वरूप दिखाया
नारद मुनि द्वारा की गईं प्रार्थनाएँ सुनकर राधारानी ने कृपावश उन्हें अपने स्वरूप (के) दर्शन दिए। नारद मुनि ने राधारानी को दिव्य कल्पवृक्ष के तले एक दिव्य रत्न-सिंहासन पर विराजित देखा जहाँ वे अपनी असंख्य सखियाँ द्वारा घिरी हुई थीं। उनमें से कुछ सखियाँ उन्हें पंखा कर रही थीं, तो कुछ चामर कर रही थीं और कुछ सखियाँ हाथ में श्वेत-छत्र लिए खड़ी हुई थीं। राधारानी का शरीर सुंदर दिव्य वस्त्रों से आवृत था तथा नारद मुनि ने उनके मस्तक पर ‘सिंदूर बिंदु’ बने देखे और उनकी मध्यांग पर ‘खते-थाके’, एक कमरबंध तथा उनके वक्ष स्थल पर रत्नों की एक (‘रत्नहरावाली सुवेष्टमणि’) माला देखी एवं उनके पाँव में बंधे हुए नूपुर के भी दर्शन किए। उन्होंने उनके शरीर से देदीप्यमान प्रभा को प्रकाशित होते देखा। नारद मुनि की वाणी गदगद हो गई एवं उनका पूरा देह रोमांचित हो उठा। इस प्रकार न तो किसी अन्य व्यक्ति को इसका बोध हुआ था और न ही कोई यह अद्भुत दर्शन कर सकता था, कि किस प्रकार राधारानी केवल अपनी कृपा के कारण नारद मुनि को अपने दिव्य रूप के दर्शन दे रही थीं।
संपूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वाधिक भाग्यशाली माता–पिता
अब पुनः श्रीमती राधारानी एक शिशु के रूप में नारद मुनि की गोद में थी और नारद मुनि ने शिशु-बालिका को उनके पिता वृषभानु को सौंप दिया। तदुपरांत महाराज वृषभानु ने अपनी पत्नी कीर्तिदा को बुलाया और वे दोनों नारद मुनि के समक्ष बैठ गए। नारद मुनि ने कहा, “आप दोनों समस्त ब्रह्माण्ड के सबसे भाग्यशाली माता-पिता हैं। आप ‘महा-भाग्यवान’ हैं क्योंकि आपको ऐसी अद्भुत पुत्री प्राप्त हुई है। कमला, पार्वती, अरुंधति, शची, सत्यभामा, सभी इस कन्या, राधारानी के विस्तारों के विस्तार हैं। यह हरि-प्रिया हैं। श्रीहरि को इनसे अधिक प्रिय और कोई भी नहीं है। इस पुत्री के कारण समस्त गोकुल मण्डल समग्र प्रकार के ऐश्वर्यों से परिपूरित हो जाएगा। कृप्या आप इस बात से दुखी मत होइए कि यह एक कन्या है। इस पुत्री के कारण आपका यश चारों ओर फैल जाएगा।"
नारद मुनि से यह सुनने के पश्चात महाराज वृषभानु ने विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर उनसे पूछा कि, "इनके पति कौन होंगें?" नारद मुनि ने उत्तर दिया, "यह ‘परम-पुरुष’ अर्थात् ‘महा-पुरुष’ की अर्धांगिनी होंगी।" उस समय तक राधारानी के नेत्र बंद थे। नारद मुनि ने कहा, "उचित समय पर इनके नेत्र भी खुल जाएँगे। आप संपूर्ण ब्रह्माण्ड के सबसे अधिक भाग्यशाली माता-पिता हैं।" यह कहकर नारद मुनि ने वहाँ से प्रस्थान किया।
यह संवाद पद्म पुराण में वर्णित है जिसे शिवजी ने देवी पार्वती को सुनाया था। तत्पश्चात देवी पार्वती पूछती हैं:
पार्वती जिज्ञासा पुन: शंकर चरणे
नेत्र खुलि राधा केन न करे दर्शने
शंकर बोलेन देवी कर अवधान
कहिब से सब किछु अपूर्व अक्षन
जबे हरि अवतार मन इछ कइल
राधार डाकिया किछु बोलिते लागिला
मोर सने कहे शुन कमल लोचन
मर्त्ये जन्मे हबे पर पुरुष दर्शन
तव रूप विना मुइ अननहि हेरि
कथय जन्मिल मोर दुख हबे वरि
कृष्ण बोले शुन देवी कोन दुख नाहि
तथये आमार रूप देखिबे सदाइ
एतेक बलिल हरि नंद गोप घरे
जनम लहिल शिघ्र साधु रक्षा कोरे
राधाओ कीर्तिदा दर्भे जनम लभिल उभयर चिदामने दुख पइवारे
कहिल पार्वती पुन सिद्धेर चरणे
कि रूपे पाइल राधा आपन नयने
शिव बोल शुन देवी से कथा कहिब
जहार श्रवणे चित्ते आनंद पाइबा
कन्या जन्म सबे भानु पुत्र पत्नी सने
सकते तोरिया हेला भानुर भवने
भानुराज अग्रस्वरि नंदेर अनिलो
यशोदा कीर्तिदा आलिंगन कइल
भानु नंद कोल कुलि लरिते लागिला
कीर्तिदा यशोदा अंत पुरे आलिंगन
विविध भजन भजे आनंद खोल होल
राधा जन्म सर्व गोप करिचे मंगल
श्रीमती राधारानी की जय!
राधाष्टमी महा-महोत्सव की जय!
कानु-मन-मोहिनी की जय!
अंत पुरे पलिंकिते राधा निद्रा जाइ
अंतर्यामी हरित जन्मिल इहय
अलक्षे आइला कृष्ण राधा आसने दने
देखि प्रिय एर मुह्ग आसे मने मने
कर पद्म विलशिग्र इहार नयने
कृष्ण कर पाशे राधा कहे कृष्ण पाने
नयने नयने दुह हइल मिलन
आनंद मोगन बेला दुह कर मन
एत जय बान शिघ्र एल कन्या पाश
देखिल कन्या हइल नयन प्रकाश
आनंदे दुह करे लोइल तक्षण
बोले राधार नेत्र कृष्ण कोइला धन
इ शिशु हइबे राधा पराण समान
शुनिया यशोदा देवी बड़ सुख पाय
आनंद हइल बड़ कीर्तिदा भवने
कृष्णेर अचिंत्य लीला देखेर अवने
पुरवै कथा अलसपन
हरि गुरु पाद-पद्म कोरिया स्मरण
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
राधा रानी ने अपने नेत्र नहीं खोलें
देवी पार्वती ने पुनः शिव जी के चरण कमलों में जिज्ञासा प्रकट करते हुए प्रश्न किया, "राधारानी अपने नेत्र क्यों नहीं खोल रही हैं?" शिवजी ने कहा, "हे देवी! यह अत्यंत ही अद्भुत कथा है। जब भगवान हरि इस भौतिक जगत में अवतरित होना चाहते थे, तब उन्होंने श्रीराधा को बुलाकर उनसे कहा, "आप भी मेरे साथ इस भौतिक जगत में अवतरित होंगी और हम वहाँ अपनी अद्भुत लीलाएँ प्रकट करेंगे।" राधारानी ने कहा, "हे मेरे प्रिय कमल-नयन, श्रीहरि, यदि मैं इस भौतिक जगत में प्रकट होऊँगी तो मैं अत्यंत दुखी हो जाऊँगी। मैं केवल आपके स्वरूप का दर्शन करती हूँ। मैं किसी अन्य पुरुष का रूप नहीं देख सकती।" कृष्ण ने कहा, "हे देवी, आपको कदापि दुःख नहीं होगा। आप सदैव मेरे स्वरूप का ही दर्शन करेंगी। आप किसी अन्य पुरुष का रूप नहीं देखेंगी।"
ऐसा कहने के पश्चात भगवान हरि – ‘साधु रक्षा करे’ अर्थात् साधुओं की रक्षा करने हेतु उन्होंने महाराज नंद के पुत्र के रूप में जन्म लिया और श्रीमती राधारानी ने कीर्तिदा के गर्भ से वृषभानु की पुत्री के रूप में जन्म लिया। श्रीराधा और कृष्ण के प्रकट होने पर समस्त ब्रह्माण्ड आध्यात्मिक आनंद से परिपूर्ण हो गया। किंतु यह देखकर कि राधा ने अपने नेत्र (अभी तक) नहीं खोले हैं, कीर्तिदा अत्यंत दुखी हो गईं।"
वृषभानु के भवन में कृष्ण-परिवार का आगमन
देवी पार्वती पुनः शिव जी से पूछती हैं, "कृपया बताएँ कि किस प्रकार राधारानी की दृष्टि वापस आई?" शिव जी ने कहा, "अब मैं आपको एक अत्यंत अद्भुत कथा सुनाऊँगा जिसका श्रवण करने से प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करेगा।"
महाराज वृषभानु ने श्रीराधा के प्राकट्य के शुभ-अवसर पर एक महान उत्सव का आयोजन किया। उन्होंने समस्त गोप-गोपियों को आमंत्रित किया तथा नंद महाराज एवं यशोदा रानी को एक विशिष्ट निमंत्रण भेजा। नंद महाराज एवं यशोदा रानी ने महाराज वृषभानु के महल में एक बैलगाड़ी में प्रवेश किया। तत्पश्चात महाराज वृषभानु ने नंद महाराज का स्वागत किया तथा कीर्तिदा यशोदा माता के स्वागत हेतु बाहर आईं। वृषभानु ने महाराज नंद का आलिंगन किया तथा भवन के आंतरिक कक्ष में कीर्तिदा एवं यशोदा ने परस्पर आलिंगन किया। विभिन्न प्रकार के मृदंग, ढोल-नगाड़े तथा बिगुल एवं वीणा के संगीत के साथ एक रोचक उत्सव मनाया जा रहा था। अंतर्यामी श्रीहरि, जो सभी जीवों के हृदय में वास करते हैं, यह समझ गए कि भवन के आंतरिक कक्ष में राधा एक पालने में विश्राम कर रही हैं। वहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति को यह आभास नहीं हुआ कि राधारानी के पालने में शयन करते समय, शिशु कृष्ण उनके समक्ष जा पहुँचे हैं। अपनी प्रिय भार्या की मुखाकृति को देखकर वे मुस्कुराने लगे तथा अपने मन में अति-प्रसन्न हो गए। तत्पश्चात उन्होंने अपने हस्तकमल राधारानी के नेत्रों पर रखे। जैसे ही राधारानी ने कृष्ण के हस्तकमलों का स्पर्श अनुभव किया, उन्होंने तुरंत अपने नेत्र खोले तथा कृष्ण के मुखमण्डल के दर्शन किए।
श्रीमती राधा रानी की जय!
कानु मन मोहिनी राधा रानी की जय!
वृंदावन विलासिनी राधा रानी की जय !
अष्टसखी शिरोमणि राधा रानी की जय !
वृषभानु नंदिनी राधा रानी की जय!
नेत्रों का नेत्रों से मिलन
इस प्रकार श्रीराधा और कृष्ण के मध्य नेत्रों का परस्पर मिलन हुआ। वे दोनों अत्यंत आनंदित थे। उस समय कीर्तिदा अपनी पुत्री के पालने की ओर गईं और देखा कि राधारानी ने अपने नेत्र खोल लिए हैं। यह देखकर कीर्तिदा अत्यंत हर्षित हो गईं और अपनी पुत्री को गोद में ले लिया। उन्होंने कहा, "कृष्ण ने राधा को नेत्र प्रदान किए हैं, अतः यह बालिका राधा, कृष्ण को अत्यंत प्रिय होंगी।" यह सुनकर माता यशोदा अत्यधिक प्रसन्न हुईं।
महाराज वृषभानु के भवन में आनंद से परिपूर्ण उत्सव मनाया गया। कोई भी (व्यक्ति) कृष्ण की इस अचिंत्य लीला का वर्णन नहीं कर सकता। ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा पद्म-पुराण में कथित इन लीलाओं का वर्णन केवल श्री-हरि-गुरु की कृपा से ही किया जा सकता है। यह कथा राधाष्टमी के उपलक्ष्य में थी।
धन्यवाद!
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