सहजिया और शुद्ध वैष्णव

 

प्रिय पाठकगण,

श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम अपने शुद्धिकरण हेतु विभिन्न विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। इस लेख में हम एक सहजिया और एक शुद्ध-वैष्णव के मध्य अंतर समझने का प्रयास करेंगे। साधारणतया नवांगुतक भक्तों तथा सामान्य जनसमूह को एक शुद्ध-वैष्णव की उच्च स्थिति का कोई अनुमान नहीं होता। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि सभी समान स्थिति पर हैं। शास्त्र-ज्ञान व शुद्ध इच्छा के अभाव के कारण, सामान्यतः, लोगों के समक्ष एक शुद्ध-वैष्णव की उन्नत स्थिति कभी भी प्रकाशित नहीं होती। कभी-कभी वे एक शुद्ध-वैष्णव को साधारण भक्त और एक साधारण भक्त को एक शुद्ध-वैष्णव मान बैठते हैं। भावनात्मक विचारों, निजी मनोभाव तथा आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण वे एक शुद्ध-वैष्णव और एक साधारण भक्त के बारे में मनगढ़ंत राय बना लेते हैं। ऐसी विचारधारा को धर्म के पतन का प्रतीक कहा गया है। जब महाप्रभु इस धरातल पर प्रकट हुए थे, तब बुद्ध-देव और शंकराचार्य के अनुयायी व उनसे दीक्षित व्यक्तिगण, सभी पतित अवस्था में थे। महाप्रभु ने उनके भाष्य तथा उनके व्यक्तिगत व्यवहार में दोष प्रकट किए। श्रीमान् महाप्रभु की कृपा से कुछ भाग्यवान जीवों के जीवन में मंगल का उदय हुआ।

 

जब महाप्रभु अपनी लीला प्रकट कर रहे थे, तब उनके मधुर व्यवहार और युक्तियुक्त दार्शनिक सिद्धांत के कारण कोई भी सहजिया उनके सामने नहीं आ सकता था। किंतु उनके अप्रकट होने के उपरांत गौड़ीय वैष्णव आचार्यों का समय आया। तब सहजिया, शुद्ध-वैष्णवों का अनुकरण किया करते थे और आध्यात्म के नाम पर अपने दानवीय विचार व्यक्त करते थे। उस समय वे अत्यंत प्रभावशाली थे। परंतु श्रील श्रीनिवास आचार्य, श्रील नरोत्तम दास ठाकुर, श्री श्यामानंद प्रभु, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर और श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु जैसे भगवद्-शक्ति-संपन्न आचार्यों ने उनको परास्त कर शुद्ध-सिद्धांत की स्थापना की। परन्तु जिस प्रकार एक काला बादल तेजस्वी सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार उन सभी आचार्यों के अप्रकट होने के पश्चात ऐसा अंधकारमय समय आया कि सब तरह के अपसिद्धांत तथा दुराचार अत्यधिक प्रबल हो गए और गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत ढक गया।

 

आउल, बाउल, कर्ताभजा, नेड़ा, दरवेश, साणि, सहजिया, सखीभेकी, स्मार्त, जात-गोसाई ।

अतिवाढ़ी, चूढ़ाधारी, गौरांग-नागरी, तोता कहे एई, तार संग नाहि करी ॥

 

उस समय यह सभी अपसंप्रदाय अत्यंत प्रबल हो गए थे। अत: श्रील जीव गोस्वामी पाद, श्रील वृंदावन दास ठाकुर, और श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने सिद्धांत-दक्षता और महाप्रभु के प्रति अपनी अनन्य-भक्ति द्वारा पुन: सिद्धांत की स्थापना की। परंतु सहजिया लोग यह कहकर उनकी आलोचना करते थे कि वे महाप्रभु के वास्तविक भक्त नहीं है क्योंकि वे ‘तृणाद अपि सुनिचेन’ भाव का अनुसरण नहीं करते हैं। सहजिया की दृष्टि में हमारे महान आचार्य, गुरु और वैष्णवों के प्रति अपराधी हैं। वे सदैव निंदा को वास्तविक सिद्धांत के रूप में स्थापित करना चाहते हैं किंतु वे तर्क-वितर्क या दर्शन के माध्यम से ऐसा नहीं कर पाते। अब हम बहुत ध्यानपूर्वक उनके स्वभाव का विश्लेषण करेंगे:

 

  • सहजिया सामान्य जनता को अपने मधुर व्यवहार, चतुर स्वभाव एवं वाक्चातुर्य द्वारा सदैव आकर्षित करना चाहते हैं।
  • हम उनमें सभी प्रकार का कापट्य देख सकते हैं। उनका हृदय कपट से परिपूर्ण होता है, किंतु इसके बावजूद भी उनके द्वारा किए जाने वाले बाह्य धार्मिक कार्यकलाप एवं मनगढ़ंत दर्शन का प्रदर्शन साधारण लोगों को अत्यंत आकर्षक लगता है।
  • वे एक शुद्ध-वैष्णव के व्यवहार और जीवनशैली का अनुकरण करने में पूर्ण रूप से दक्ष होते हैं। आपको तीनों लोकों में अनुकरण करने की ऐसी विधि कहीं और देखने को नहीं मिलेगी।
  • वे सदैव शुद्ध-वैष्णवों को लाभ, पूजा और प्रतिष्ठा के अनुयायी बतलाते हैं और स्वयं को निष्काम प्रदर्शित करते हैं।
  • क्योंकि साधारण जनता तथाकथित धर्मों का अनुगमन करती है, इसलिए वे शुद्ध-वैष्णवों द्वारा निर्भीकतापूर्वक प्रदर्शित विशुद्ध दर्शन की सराहना नहीं कर पाती।
  • वे अधिकतर गलत दर्शन ही प्रस्तुत करते हैं जिससे सामान्य लोगों को कोई आपत्ति नहीं होती। कभी-कभी वे स्वयं को प्रतिष्ठा से मुक्त दिखाते हैं और किसी निर्जन स्थान पर निवास करके स्वयं को निष्काम प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं, किन्तु यह जनसमूह से और अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की उनकी चाल के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
  • वे स्वयं को श्रील माध्वेंद्र पुरी पाद या उनके जैसे किन्हीं महान व्यक्तित्व का अनुयायी होने का दिखावा और स्वयं को उन्हीं के भाँति विरक्त प्रदर्शित करते हैं। ऐसा करने से वे केवल भोली जनता को धोखा देना चाहते हैं। जनता यह नहीं देख पाती कि उनके हृदय में लाभ, पूजा और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा हर समय नृत्य कर रही होती है।
  • वे न तो कभी शुद्ध-वैष्णवों के अनुयायी थे और न ही भविष्य में कभी बनेंगे, इसलिए उनका तिलक लगाना, कण्ठी माला धारण करना, नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करना, श्रीमद्-भागवतम श्रवण करने का अभिनय करना, भाव स्तर के लक्षण को बाह्य रूप से प्रदर्शित करना, निर्जन स्थान पर भजन करना, गृह-त्याग करना इत्यादि सभी कुछ व्यर्थ है क्योंकि उनका हृदय पूर्णतया लाभ, पूजा और प्रतिष्ठा की तुच्छ कामना से भरा हुआ होता है।
  • अन्य सहजिया बाह्य रूप से स्वयं को धन एवं नारी से विरक्त दिखाते हैं। वे स्वयं धन स्पर्श नहीं करते, किंतु वे अन्यों के माध्यम से धन स्वीकार कर लेते हैं। समाज में वे स्वयं को ऐसे प्रदर्शित करते हैं जैसे नारियों से वार्तालाप करना उनके स्वभाव के विपरीत है, परंतु गुप्त रूप से उनका दूसरे पुरुषों की पत्नियों के साथ अत्यंत गहरा संबंध होता है।
  • वे अपने द्वारा किए गए पाप या अपराध की कदापि चर्चा नहीं करते। उनका एकमात्र अस्त्र जनता को उन्हीं के जैसा भोला बताना और शुद्ध-वैष्णवों के कार्यों की इस प्रकार निंदा करना है जिससे उनके पाप या अपराध छिप जाए।
  • श्रीमद्-भागवतम के प्रचार, कीर्तन, मंत्र प्रदान करना, इत्यादि के पीछे उनकी अन्य अभिलाषायें होती है। इसका अर्थ यह है कि बाह्यत: तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे शुद्ध-भक्ति कर रहे हैं, परंतु उनके हृदय का एकमात्र उद्देश्य, इंद्रिय-तृप्ति होता है।
  • उनका एक अन्य अस्त्र यह है कि वे सब कुछ इतने मधुर ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि हर कोई उनकी बातों से सहमत हो जाता है। यद्यपि रक्त से लेकर हड्डी तक उनका पूरा शरीर कपट एवं कृत्रिम रूप से केवल अनुकरण करने की अभिलाषा से भरा हुआ है, किंतु फिर भी वे सभी के साथ मधुर व्यवहार करने में निपुण होते हैं।
  • वे व्याकरण के माध्यम से वैदिक शास्त्रों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं, जिससे वे न केवल शास्त्र के वास्तविक मर्म एवं निष्कर्ष को पूर्णत: ढक देते हैं, अपितु एक नया पथ का निर्माण भी करते हैं, जिसका सामान्य लोग अंधवत् अनुसरण करते हैं।
  • उनके अनुसार शास्त्र एवं महाजनों के वाक्यों को समझने के लिए हमें महंत-गुरु की आवश्यकता नहीं है। वे अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन कर अनेक लोगों को अपना अनुयायी बना लेते हैं और उनके सहयोग से अपना नया सिद्धांत स्थापित कर लेते हैं।
  • सहजिया वैष्णव-सिद्धांत के आधार पर नहीं बोल पाते, क्योंकि वैष्णव-सिद्धांतों द्वारा उनका पर्दाफाश हो जाएगा। इसलिए वे इस सिद्धांत का पालन करते हैं: “आप अपना मुख बंद रखिए और मैं अपना मुख बंद रखूँगा।” इस प्रकार जनता से तुच्छ प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए वे सदैव अपने मनगढ़ंत प्रक्रियाओं का पालन करते रहते हैं। उस प्रक्रिया में न तो जीवन होता है, न कोई सिद्धांत और न ही उसका पालन करने से जीवन में किसी भी प्रकार के मंगल का उदय होता है।
  • सहजिया व्यक्ति जानते हैं कि उनका व्यक्तिगत जीवन निकृष्ट, पाप पूर्ण और विषय भोगों से युक्त है, किंतु फिर भी वे भोले-भाले लोगों के समाज में स्वयं को एक शुद्ध-वैष्णव के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसके चलते वे कापट्यपूर्ण वातावरण में प्रवेश करने का पूरा प्रयास करते हैं।
  • सहजिया सदैव गुरु-निंदा और वैष्णव-निंदा का उपयोग करके गुरु एवं वैष्णवों की निन्दा करने से कभी नहीं चूकते और शुद्ध-वैष्णवों के मुख कमल से प्रवाहित हो रही विशुद्ध हरि-कथा का तिरस्कार करते हैं। यही उनका धर्म बन जाता है।
  • वैष्णव अपराध के कारण उनका हृदय वज्र के समान कठोर हो जाता है। जनता के समक्ष झूठ-मूठ के ऑंसु प्रवाहित कर वे छलपूर्वक लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। यद्यपि उनका हृदय वज्र के समान कठोर होता है, किन्तु काम के वशीभूत होने के कारण उनका हृदय एक कर्मी व्यक्ति के भाँति कोमल होता है। अत: उनका हृदय इन दोनों भावों का मिश्रण होता है।

निष्कर्ष में हम यह कह सकते हैं कि यदि हममें एक शुद्ध-वैष्णव और एक सहजिया के मध्य भेद करने की क्षमता नहीं है तो हम अपने भक्ति-जीवन में खतरों एवं बाधाओं को आमंत्रित कर रहे हैं।  

 

दासानुदास

हलधर स्वामी

 

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