सरलता ही वैष्णवता है
प्रिय पाठकगण,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम पूर्ववर्ती आचार्यों की शिक्षाओं के आधार पर वैष्णव दर्शन के विभिन्न विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। आज हम आध्यात्मिक जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा करेंगे। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाशय ने 'सरलता' पर अत्यधिक बल दिया है। वे बारंबार यही उपदेश दिया करते थे – ‘सरलता ही वैष्णवता है’। मनुष्य शरीर में रहते हुए हृदय में कापट्य विकसित करने से बेहतर किसी अन्य योनि में रहकर जीवन-यापन करना है। साधारणतया एक सरल हृदय वाले व्यक्ति को हर कोई पसंद करता है, किंतु वैष्णव पथ पर हमें सबसे उत्कृष्ट सरलता की आवश्यकता होती है। हमारे परम आराध्य गुरुदेव (श्रील गौर गोविंद स्वामी महाराज) कहा करते थे, “एक बच्चे की भाँति सरल बनो।” अत: हमें केवल सरलता ही नहीं, अपितु एक छोटे बालक के भाँति सर्वोत्तम सरलता विकसित करनी है। यदि कोई श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा से ऐसी दुर्लभ सरलता विकसित कर लेता है, तब वह एक स्वाभाविक वैष्णव बन जाता है।
- हम कृष्ण भावनाभावित होना चाहते हैं, और इसके लिए हमें अपने जीवन में भक्ति पथ पर अग्रसरित होना होगा जिसके लिए सरलता ही प्रथम योग्यता है। भौतिक जीवन में व्यक्ति निजी बौद्धिक बल से सभी प्रकार की योग्यताऍं अर्जित कर सकता है, किंतु यदि वह कपट का सहारा नहीं लेता तो वह सफल नहीं हो सकता। भौतिक क्षेत्र में सफल होने के लिए आपको जाने-अनजाने कपट का सहारा लेना ही पड़ता है। इसलिए, यद्यपि वे भौतिक जीवन में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, परंतु फिर भी वे सुखी एवं शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत नहीं कर पाते क्योंकि वे एक कपटी परंपरा के अनुयायी हैं।
- यदि कोई गंभीरतापूर्वक श्रीमान् महाप्रभु की परंपरा में पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुसरण करना चाहता है, तो उसे सरल बनना ही होगा। वैष्णव पथ पर आध्यात्मिक विकास का अर्थ है कि हम परम सत्य के अनुगामी बनें। अत: सरल बने बिना भक्ति जीवन में अग्रसरित होना कैसे संभव है? सरलता के बिना कोई भी व्यक्ति वास्तविक अनुयायी नहीं बन सकता। भारत में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है – “कृष्ण के भक्त अत्यंत चतुर होते हैं।” परंतु इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ चालाक कृष्ण-भक्त बनकर जीवन-यापन करना नहीं है, बल्कि एक सरल हृदय का व्यक्ति बनना और कृष्ण द्वारा प्रदत्त बुद्धि से यथासंभव भजन में संलग्न रहना है। अत: एक वास्तविक कृष्ण-भक्त बुद्धिमान होने के साथ-साथ सरल भी होता है। भौतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह ये दोनों गुण एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत प्रतीत होते हैं।
- भौतिक क्षेत्र में बुद्धिमान व्यक्ति कभी सरल नहीं हो सकता। भौतिक बुद्धिमता सदैव कापट्य से दूषित होती है, तो फिर भौतिक व्यक्तियों का कहना ही क्या? यदि कोई भक्त लाभ, पूजा और प्रतिष्ठा पाने की इच्छा रखता है, तो समझना चाहिए कि उसकी बुद्धि कपट से दूषित हो गई है। किंतु एक वास्तविक भक्त न केवल बुद्धिमान होता है, अपितु वह एक बच्चे के भाँति सरल भी होता है। एक बच्चा स्वाभाविक रूप से सरल होता है। यही कारण है कि बच्चे सभी को अच्छे लगते हैं और बच्चे भी कपटी लोगों के अतिरिक्त सभी को पसंद करते हैं। एक छोटे बच्चे की हँसी, क्रंदन, क्रोध, प्रेम तथा सभी क्रियाऍं स्वाभाविक व सरल होती हैं। कई बार वरिष्ठ जन, बचकानी मानसिकता के लिए व्यक्ति को डाँट देते हैं। वस्तुत: हमारी मानसिकता व बुद्धि बच्चों की तरह नहीं होनी चाहिए, अपितु हमारी सरलता तथा स्वभाव बच्चों के समान होना चाहिए। क्योंकि एक बच्चा अपने व्यवहार में सरल व स्वाभाविक होता है, इसलिए वह स्वीकार्यता और पूर्ण निर्भरता का स्वभाव विकसित कर लेता है, जिसके फलस्वरूप वह आंतरिक और बाह्य रूप से हमेशा आनंदित रहता है। अतएव अवधूत भगवान ने बच्चे को अपने शिक्षा-गुरु के रूप में स्वीकार किया है।
यदि हम अपने जीवन को ध्यानपूर्वक देखें, तो हम समझ सकेंगे कि तथाकथित संबंधियों के चतुर व कपटी व्यवहार से तंग आकर ही हम कृष्ण भावनामृत में आए हैं। कृष्ण भावनामृत में भी यदि हम किसी भक्त को कपट का सहारा लेते हुए देखते हैं, तो हम निराश हो जाते हैं। सरल हृदय के भक्तों तथा शुद्ध-वैष्णव का संग किए बिना हम कभी भी सरल नहीं बन सकते। अन्य अभिलाषाएँ गोंद की तरह कार्य करती हैं। वे हमारे हृदय में कपट के अटूट बंधन का निर्माण कर देती हैं। अन्य अभिलाषाएँ दो प्रकार की होती हैं – स्थूल रूप में शारीरिक सुख के रूप में और सूक्ष्म रूप में लाभ, पूजा और प्रतिष्ठा के रूप में। कपट के ये दो रूप न केवल हमारी सरलता को नष्ट कर देते हैं, अपितु इन अन्य अभिलाषाओं के कारण हमारे हृदय में एक नवीन रुचि उत्पन्न होती है जो अंततोगत्वा कापट्य और चतुराई के स्वभाव में परिवर्तित हो जाती है। अपराध करने का यही मूल कारण है। इस अवस्था में, यद्यपि हम सेवा, नाम-जप और अन्य सभी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में संलग्न होते हैं, किंतु यदि गुरुदेव हमारे मनोभाव से प्रसन्न नहीं हैं, तो हम केवल स्वयं को ठग रहे हैं। कृष्ण तथा कृष्ण-भक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कामना करना स्वयं को ठगने के समान है।
- हमारे गुरुदेव कहा करते थे, “जब हम बच्चे थे, तब हम सरल थे। किंतु जैसे-जैसे हम कपटी व्यक्तियों के संग में बड़े होते हैं, वैसे-वैसे हम भी कपटी बनते जाते हैं।” यदि आप सरल हैं किंतु आपकी कुछ दुर्बलताएँ हैं, तब भी आप श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा प्राप्त करने की आशा कर सकते हैं। हम भौतिक संसार में देखते हैं कि एक सरल हृदय वाला दरिद्र व्यक्ति एक करोड़पति को भी आकर्षित कर लेता है। सरलता एक ऐसा महान गुण है जो सभी के ध्यान को, यहाँ तक कि कृष्ण के ध्यान को भी आकर्षित कर लेता है। यदि हम सरलता की शक्ति का विश्लेषण करें तब हम समझ सकेंगे कि भक्ति-जीवन के पहले चरण से ही इसका अत्यंत महत्त्व है क्योंकि सरलता-विहीन श्रद्धा हमें किसी भी आध्यात्मिक वस्तु के बारे में आश्वस्त नहीं कर सकती। सरल बने बिना कोई भी व्यक्ति साधु एवं शास्त्रों के उपदेशों व आदेशों को यथारूप ग्रहण नहीं कर सकता। सरलता के बिना साधु एवं शास्त्र से प्राप्त आदेश हमारे मन को उत्तेजित करेंगे, मन में संदेह उत्पन्न करेंगे और हमें निराश कर देंगे, जिससे हमारा आध्यात्मिक जीवन असंतुलित हो जाएगा। यह बिल्कुल वैसी ही स्थिति है जब हमारा शरीर भोजन द्वारा प्राप्त विटामिन पचा नहीं पाता, तो दोष भोजन का नहीं अपितु हमारे शरीर का होता है। उसी प्रकार, यद्यपि गुरु और कृष्ण से प्राप्त उपदेश ही भौतिक रोग की एकमात्र औषधि हैं, किंतु सरलता की अनुपस्थिति में हमें इन सभी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
- सरलता के अभाव में साधु-संग केवल बाह्य साधु-संग है क्योंकि यदि हम सरल नहीं हैं, तो यह दर्शाता है कि हमारी सुदृढ़ श्रद्धा नहीं है और साधु पर सुदृढ़ श्रद्धा रखे बिना आप कृष्ण-कथा का वास्तविक श्रवण नहीं कर सकते। इसलिए ऐसा साधु-संग केवल बाह्य होता है। ऐसे संग से हम न तो साधु एवं शास्त्र के मनोभाव को समझ सकते हैं और न ही भजन कर सकते हैं।
- सरलता के बिना कोई भी दृढ़ श्रद्धा विकसित नहीं कर सकता और दृढ़ श्रद्धा के बिना कोई भी “निर्भरता” विकसित नहीं कर सकता जो शरणागति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं अमूल्य गुण है। निर्भरता के बिना हमारा समर्पण केवल दिखावा है। जब सेवक और स्वामी के बीच समर्पण कृत्रिम होता है, तो परिस्थिति उलट-पुलट हो जाती है। जब हम इस तथ्य से अवगत हैं कि हम गुरु और कृष्ण के प्रति शरणागत नहीं हैं, तो फिर हम एक सरल बच्चे के भाँति उनसे किसी भी वस्तु की माँग कैसे कर सकते हैं? एक बच्चा पूर्ण रूप से अपने माता-पिता पर निर्भर रहता है। जब भी वह कुछ माँग करता है, तो माता-पिता अपनी परिस्थिति के अनुसार उसकी माँग को बीस प्रतिशत, तीस प्रतिशत या कभी-कभी पूर्ण रूप से भी पूरी कर देते हैं। अत: पूर्णतया शरणागत हुए बिना हम अपनी प्रार्थनाओं द्वारा किस प्रकार गुरु और कृष्ण से कृपा की याचना कर सकते हैं? परंतु गुरु और कृष्ण परम सत्य वस्तु हैं। इसी कारण वे हमारे हृदय की इच्छा से भी परिचित होते हैं और उसके अनुरूप, वे सदैव हमें कुछ आध्यात्मिक ही प्रदान करते हैं।
- हम यह भी देख सकते हैं कि किस प्रकार वैदिक जीवन सरलता पर आधारित था। पहले के समय में सामान्य लोगों के पास सरल ब्राह्मणों, गो-माता और कृषि-कार्य के माध्यम से वृक्षों के मध्य रहने की सुविधा थी। इसलिए उनका हृदय एक उपजाऊ भूमि के समान था। फलस्वरूप जैसे ही उन्हें साधु-गुरु के संग से भक्ति का बीज प्राप्त होता था, वैसे ही वह बीज बिना किसी अवरोध के उगने लगता था। भौतिक जीवन पापमय जीवन है। भौतिक व्यक्तियों का हृदय बंजर भूमि के समान है और बंजर भूमि पर कुछ भी उगाना अत्यंत कठिन है। श्रील प्रभुपाद, कुन्ती महारानी की शिक्षाओं [श्लोक 35] में वर्णन करते हैं – “साधारण लोगों की यह सोच कि फैक्टरी खोलने से वे सुखी बन जाएँगे। यह केवल उनकी अविद्या है। फैक्टरी खोलने की क्या आवश्यकता है? इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। पृथ्वी पर इतनी मात्रा में भूमि उपलब्ध है कि कोई भी उस पर अनाज उगाकर खुश रह सकता है। दूध भी बिना किसी फैक्टरी के उपलब्ध है, तो फिर फैक्टरी की क्या आवश्यकता है? फैक्टरी हमें दूध या अनाज प्रदान नहीं कर सकती। वर्तमान समय में संसार में भुखमरी व अन्न का अभाव इन फैक्टरियों के कारण ही है। जब सभी लोग शहरों में नट और बोल्ट बनाने में व्यस्त रहेंगे, तो अन्न उगाने का कार्य कौन करेगा? सरल जीवन और उच्च विचार ही आर्थिक समस्याओं का समाधान है।”
श्रील प्रभुपाद के वाक्यों से हम अपनी स्थिति समझ सकते हैं। ऐसे समाज में हम सरल हृदय वाले व्यक्तियों की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? फिर भी जो व्यक्ति कृष्ण भावनामृत से जुड़ गए हैं, उनके लिए सरल बनने की एकमात्र आशा सरल-हृदय वाले स्वाभाविक वैष्णवों का संग है। इसलिए श्रील प्रभुपाद जैसे महान आचार्य ने इस्कॉन संस्था की स्थापना की। जब हम एक कर्मी के भाँति अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे, तब सांसारिक व्यक्तियों के संग के कारण हमारे हृदय में अनेकों अनेक दुर्बलताएँ और कापट्य की भावनाऍं थीं। किंतु भक्ति-पथ पर आने के पश्चात हमें अपनी इन दुर्बलताओं और कापट्य को वैष्णव संग से परिवर्तित करना होगा। यदि हम अपनी दुर्बलताओं का त्याग करने में असमर्थ हैं, तो सावधानीपूर्वक संग करके हमें कम-से-कम कपट भावना का तो परित्याग करना ही चाहिए। तभी हमारे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने की आशा जीवित रहेगी, अन्यथा यह बहुत ही निराशाजनक स्थिति है। हम काला कृष्ण दास के उदाहरण से देख सकते हैं कि वह एक सरल भक्त थे किंतु एक जिप्सी (घुमंतू) नारी द्वारा आकर्षित हो गए थे। तब भी नित्यानंद प्रभु ने उन्हें स्वीकार कर लिया। वहीं जब श्रीमान् महाप्रभु ने छोटा हरिदास का त्याग किया, उस समय कोई भी महाप्रभु के आक्रोष को शांत नहीं कर सका। परंतु काला कृष्ण दास की स्थिति में महाप्रभु ने यह निर्णय नित्यानंद प्रभु पर छोड़ दिया। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज अपनी टीका में लिखते हैं कि छोटा हरिदास के हृदय में कपट था और वहीं काला कृष्ण दास सरल भक्त थे किंतु उनकी कुछ दुर्बलता थी। उनकी सरलता के कारण नित्यानंद प्रभु ने उनकी रक्षा की।
- हमारा वास्तविक उद्देश्य भगवद्धाम जाना है। श्रील प्रभुपाद सदैव इस बात पर बल दिया करते थे। यदि हमारी वहाँ जाने की इच्छा है तो हमें वहाँ के निवासी, भगवद्-पार्षदों के स्वभाव और चरित्र को जानना होगा। उनकी सरलता के विषय में कल्पना कर पाना भी असंभव है। हम इसे एक प्रसंग द्वारा समझ सकते हैं, जब कृष्ण वृंदावन से मथुरा प्रस्थान कर रहे थे, तब संतप्त हृदय के साथ व्रजवासियों ने उनसे पूछा कि वह पुन: कब लौटेंगे? कृष्ण ने उत्तर में कहा, शीघ्र ही। इससे हम व्रजवासियों की सरलता की कल्पना कर सकते हैं। उनके मन में कभी भी इच्छा नहीं हुई कि वह जाकर कृष्ण का दर्शन करें तथा यह जाने कि वे क्यों नहीं लौट रहे हैं। यहाँ तक कि सौ-वर्षों के उपरांत भी उनका यह विश्वास था कि एक दिन कृष्ण अवश्य वापस लौटेंगे। यह एक सरल भक्त का कृष्ण के प्रति अटूट विश्वास का सर्वोत्तम उदाहरण है। उन्हें कभी भी ऐसा नहीं लगा कि कृष्ण ने उनके साथ छल किया है।
निष्कर्ष में हम यह कह सकते हैं कि सरलता के बिना भक्ति-जीवन में प्रगति कर पाना असंभव है। साधु-गुरु के वाक्यों में अटूट श्रद्धा ही सरलता की वास्तविक परिभाषा है। यदि हम पूर्व कर्मों या कुसंग के कारण सरल नहीं हैं, तो सरल बनने का एकमात्र उपाय सभी भौतिक उपाधियों का त्याग करके एक सरल-हृदय के शुद्ध-भक्त के चरणकमलों में समर्पित होना है। उनका संग करने से, उनसे श्रवण करने से, उनकी सेवा करने से तथा उनके आदेशों का यथारूप पालन करने से ही हम सरल बन सकते हैं। इसके अतिरिक्त सरल बनने का कोई अन्य उपाय नहीं है।
श्रील गुरुदेव कहा करते थे, “कपट एक आसुरिक गुण है।” जब तक हम मन, शरीर तथा वाक्य से सरल नहीं बनते, तब तक हम भगवद्धाम जाने के योग्य नहीं हैं। शरीर से सरल बनने का अर्थ है कि हमारा व्यवहार और जीवनचर्या दोनों सरल होने चाहिए। मन से सरल बनने का अर्थ है कि हमारा मन कपट और दोष-दृष्टि से पूर्णत: मुक्त होना चाहिए। वाक्य के माध्यम से हमारे वचन, प्रचार या आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा, सभी कुछ सरल होने चाहिए।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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