साधु की अहैतुकी कृपा और शुद्ध अभिलाषाएँ
प्रिय पाठकों,
श्री गुरु एवं श्री गौरांग की कृपा से हम हर एकादशी कुछ महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं का स्मरण तथा उन पर चिंतन करने का प्रयास करते हैं। आज के लेख में हम आध्यात्मिक इच्छाओं के विषय पर चर्चा करेंगे। यद्यपि हम साधना एवं भक्ति-क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं, तथापि यदि हम ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण करें तो हम पाएँगे कि हमारे हृदय में आध्यात्मिक इच्छाएँ उतनी प्रबल नहीं हैं जितनी भौतिक इच्छाएँ हैं। हमें भौतिक इच्छाएँ मधुर, सुखद तथा प्रबल प्रतीत होती हैं। केवल इतना ही नहीं, हम तो प्रत्येक पग पर एक भोक्ता की भाँति भौतिक सुख का आनंद ले रहे होते हैं और उस दौरान हम अत्यधिक उत्साह, पराक्रम एवं शौर्य का प्रदर्शन करते हैं। उस अवस्था में हमें यह अनुभूति होती है कि भौतिक इच्छाएँ हमें हर पल नया जीवन प्रदान कर रही हैं। फलत: हम भौतिक भोग के नशे में इतने मदमस्त हो जाते हैं कि हम सभी प्रकार के वैदिक नियमों एवं सिद्धांतों का त्याग करने में तनिक भी कतराते नहीं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, साधु एवं शास्त्र इस प्रकार के पतित जीवन के पागलपन की भर्त्सना करते हैं। परन्तु इस अवस्था में, हम सामाजिक तथा आध्यात्मिक पहलुओं, अपने कर्तव्यों एवं इन कार्यों के परिणामों की कोई परवाह नहीं करते। सभ्य समाज में भी इस पागलपन की सराहना नहीं की जाती क्योंकि इस अवस्था में हम अंधे हो चुके होते हैं और यह दृष्टिहीनता हमें भौतिक वस्तुओं का आनंद लेने का अवसर प्रदान करता है। किंतु यदि सौभाग्यवश कभी हमारी दृष्टि खुलती है, तब हम यह समझ पाएँगे कि वास्तव में हमारे लिए भौतिक भोगों द्वारा सुख प्राप्त कर पाना संभव नहीं है।
हम आध्यात्मिक मार्ग पर चलना प्रारंभ तो करते हैं परन्तु भौतिक भोगों के आनंद के आदी होने के कारण हम आध्यात्मिक अथवा दिव्य आनंद का अनुभव नहीं कर पाते। हम जीव हैं और साथ ही कृष्ण के अंश भी। कृष्ण समस्त रसों से परिपूर्ण हैं और चूँकि हम उनके अंश हैं, इसलिए हम भी जीवन के हर पद पर रसास्वादन करना चाहते हैं। किसी भी प्रकार की सुख प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम उसकी इच्छा का होना अति आवश्यक है। यदि किसी की भोग करने की इच्छा प्रबल होती है तभी वह उसमें आनंद ले सकता है। हमारी भौतिक इच्छाएँ प्रबल हैं किंतु आध्यात्मिक इच्छाएँ अत्यंत दुर्बल। इसलिए जब हम आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, तो हम स्वयं को दुर्बल अनुभव करते हैं। वास्तव में इच्छाएँ ही मनुष्य को शक्तिशाली बनाती हैं। जब हम आध्यात्मिक जीवन में प्रवृत्त होते हैं, तो हमें यह प्रतीत होता है कि हम बहुत कुछ खो रहे हैं और हमारा जीवन नष्ट हो जाएगा। किंतु सभी महाजनों ने उच्च स्वर से यह घोषणा की है कि भक्ति मार्ग पर किसी भी प्रकार के अमंगल का कोई स्थान नहीं है, बल्कि सर्वत्र मंगल ही मंगल है। किंतु हम अपनी दुर्बलता, वैयक्तिक मानसिकता एवं कृत्रिम आध्यात्मिक इच्छाओं के कारण इन शिक्षाओं की अनुभूति करने में सर्वथा अक्षम रहते हैं, जिसके फलस्वरूप हम आध्यात्मिक निराशा एवं आलस्य का अनुभव करते हैं और आध्यात्मिक गतिविधियों में हमारी रुचि समाप्त हो जाती है। यदि हम इसी तरह अपने आध्यात्मिक जीवन को व्यतीत करते रहे तो ऐसा समय आएगा जब हम या तो भक्ति मार्ग का त्याग कर देंगे, या भक्ति-दर्शन को काल्पनिक मान बैठेंगे और हर समय यही सोचेंगे कि इस भक्ति मार्ग पर प्रगतिशील होना हमारे लिए पूर्णतया असंभव है। इस स्थिति पर पहुँचने से पहले ही हमें इस बारे में गंभीर हो जाना चाहिए कि हम अध्यात्मिक इच्छाओं को किस प्रकार विकसित कर सकते हैं। हमारी समस्याओं को हल करने का यही एकमात्र साधन है। आध्यात्मिक इच्छाओं के बिना हमारा आध्यात्मिक जीवन दुखों से भरा, अशुभ तथा शास्त्र और महाजन के प्रति आलोचनात्मक मानसिकता का कारण बनता है। इसीलिए श्रीमद् भागवत ३.७.१७ में कहा गया है, "निकृष्टतम मूर्ख तथा समस्त बुद्धि से परे रहने वाले दोनों ही सुख भोगते हैं, जबकि उनके बीच के व्यक्ति भौतिक क्लेश पाते हैं।" इसके तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद उल्लेख करते हैं कि, "जो व्यक्ति भौतिक जगत के कष्टों से अवगत न रहते हुए केवल यौन जीवन एवं कठिन परिश्रम में सुखी रहता है वह निकृष्टतम मूर्ख है। फिर भी चूँकि उन्हें इन कष्टों का ज्ञान नहीं होता वे तथाकथित सुखों को भोगते प्रतीत होते हैं।"
महाजनों के अनुसार भक्ति-पथ, साधन अथवा साध्य, दोनों ही अवस्थाओं में रस से परिपूर्ण है। तो फिर हम इसका आस्वादन क्यों नहीं कर पाते? उत्तर बहुत ही सरल है। हमारे हृदय में प्रबल आध्यात्मिक इच्छाओं का अभाव है और साथ ही भौतिक भोग की प्रवृत्ति सदैव हमारे बुद्धि को उत्पीड़ित करती रहती है। एक दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो हम अपने असंयमित खान-पान, निद्रा, यौनाचार एवं अस्तित्व के लिए जीवन संघर्ष के कारण आध्यात्मिक रूप से इतने उत्साहित नहीं रहते। अनेक जन्मों से हम इन क्रियाकलापों में लिप्त रहे हैं। यद्यपि कई बार हम इन स्थूल इच्छाओं को त्याग देते हैं किंतु सूक्ष्म इच्छाएँ फिर भी हमारे हृदय में बनी रहती हैं। यही 'वासना' कहलाती हैं।
हम में यह समझने की शक्ति भी नहीं है कि इतने नियमों का पालन करने और इतनी सेवाएँ करने के बाद भी हमारे हृदय में ये सूक्ष्म इच्छाएँ कैसे निरंतर उठती रहती हैं। न तो हमारे पास इन इच्छाओं को त्यागने की शक्ति है और न ही उनकी शक्ति का अनुमान लगाने का ज्ञान। केवल ग्रंथ भागवत एवं भक्त भागवत की अहैतुकी कृपा से ही हम इसके विषय में जान सकते हैं।
श्रीमद भागवत के कुल १० विषय हैं। सातवें स्कंध का विषय है – ऊतयः, जिसका अर्थ है ‘कर्म वासना’ – सकाम कर्म करने की इच्छा। सातवें स्कंध के प्रारंभ में श्रील श्रीधर स्वामी एवं श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इच्छा के मूलभूत कारण का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। इच्छाएँ कितनी प्रकार की होती हैं, यह कैसे उत्पन्न होती हैं और उनके उपयुक्त उदाहरण क्या हैं, इसका विवरण उन्होंने अपने भाष्य में बहुत ही सुंदर ढंग से किया है।
श्रील श्रीधर स्वामीपाद वर्णन करते हैं:
अशुभच शुभचेतिद्विधासाहेतुभेदत:
अशुभमहतामकोपात शुभमहतनुग्रहात
इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं। पहली है शुभ या शुद्ध तथा दूसरी है अशुभ या अशुद्ध। शुद्ध-भक्त के अनुग्रह या कृपा से शुद्ध भावना विकसित होती है। इसके ठीक विपरीत यदि शुद्ध-भक्त रुष्ट हो जाते हैं या शाप दे देते हैं तो हमारे हृदय में भौतिक वासनाएँ जागृत होने लगती हैं।
हरे द्वारपयो यद वैकुण्ठेवसतोरपि।
चतु:सनरुसविष्णुद्वेसातशुभवासना।।
यद्यपि जय और विजय वैकुण्ठ में द्वारपालों के रूप में सेवा कर रहे थे, फिर भी चतुर्सनक द्वारा शापित होने के कारण उनके हृदय में अशुभ वासनाएँ उत्पन्न हुईं जिसके परिणामस्वरूप वे हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष के रूप में भगवान विष्णु से घृणा करने लगे।
यथा च दैत्यादर्भो अपि प्रह्लादस्यसत:स्थिरा।
नारदानुग्रहाहादासविष्णुसदभक्तिवासना।।
यद्यपि प्रह्लाद महाराज अपनी माता के गर्भ में थे, किंतु फिर भी उन पर नारद मुनि की कृपादृष्टि थी जिसके कारण उनके हृदय में शुद्ध भावना जागृत हुई। फलत: वे भगवान विष्णु के समर्पित सेवक बने।
हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद के उदाहरण से हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि किस प्रकार शुद्ध-भक्तों की दया एवं शाप के फलस्वरूप हमारे हृदय में शुभ या अशुभ वासनाएँ उत्पन्न होती हैं। निष्कर्ष यह है कि यदि हम अपने भक्ति जीवन में शुद्ध भावना विकसित करना चाहते हैं, तो हमें एक शुद्ध-भक्त की कृपा प्राप्त करनी होगी। इसके अतिरिक्त शुभ-वासना विकसित करने का कोई अन्य उपाय नहीं है। सामान्यतः भौतिक जीवन में हम संगति के अनुसार इच्छाएँ विकसित कर लेते हैं, परन्तु आध्यात्मिक जीवन में हम देखते हैं कि बहुत से लोग शुद्ध-भक्तों का संग प्राप्त करने के उपरांत भी शुद्ध भावना विकसित नहीं कर पाते। इसलिए हमें न केवल शुद्ध-भक्तों के संग की इच्छा करनी चाहिए, बल्कि साथ ही उनकी कृपा की लालसा भी रखनी चाहिए। शुभ वासना का अर्थ है कि हम गुरु और कृष्ण को प्रसन्न करने हेतु प्रेममयी सेवा का भाव विकसित करें। वहीं यदि भगवान के शुद्ध-भक्त अप्रसन्न हो जाते हैं, तो हमारे भीतर राक्षस प्रवृत्ति, अर्थात् स्त्री, धन इत्यादि को भोगने की इच्छा उत्पन्न होती है, जैसा कि हिरण्यकशिपु के साथ हुआ था। श्रील गुरुदेव (श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज) कहा करते थे, "वास्तविक संग का अर्थ है शुद्ध-भक्तों के मनोभाव का अनुशीलन करते हुए अत्यंत सावधानीपूर्वक उनकी सेवा में नियुक्त होना और उन्हें प्रसन्न करके उनकी कृपा प्राप्त करना।" निःसंदेह कृष्ण अपने भक्तों पर अपनी इच्छानुसार कृपा करते हैं, लेकिन कृष्ण-कृपा की चरम सीमा यह है कि वह उस विशेष भक्त के लिए उसी के स्वभाव के अनुसार, अपने शुद्ध-भक्त के संग की व्यवस्था करते हैं। साथ ही वे उसे यह ज्ञान भी प्रदान करते हैं कि उसे शुद्ध-भक्तों को प्रसन्न करने के लिए किस प्रकार उनकी सेवा करनी चाहिए। इस तरह एक भक्त शुद्ध इच्छाओं का विकास करता है।
हम अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से देख सकते हैं कि आध्यात्मिक पथ पर कितनी बाधाएँ आती हैं। वास्तव में जब बाधाएँ आती हैं तो हमारे पास उनका सामना करने का बल और साहस नहीं होता। यदि हमारी अध्यात्मिक इच्छाएँ प्रबल हैं तभी हम इन सभी बाधाओं का सामना कर सकते हैं, जैसा कि हम पाण्डवों और प्रह्लाद महाराज के जीवन में देखते हैं। हम सदैव चुनौतियों से घिरे रहते हैं। हम पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, क्रंदन करते हैं, किंतु फिर भी हमारे पास उन समस्याओं का सामना करने का कोई साधन नहीं होता। शुद्ध-भक्तों की अहैतुकी कृपा प्राप्त करना ही एकमात्र साधन है क्योंकि तभी हमारी आध्यात्मिक इच्छाएँ प्रबल हो पाएँगी। जैसा कि श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अपनी प्रार्थना में उल्लेख करते हैं:
आर कबे निताई चाँदेर करुणा हइबे।
संसार वासना मोर कबे तुच्छ हबे।।
जब तक हम श्री नित्यानंद प्रभु की कृपा प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक हमारे लिए हृदय की सूक्ष्म भौतिक इच्छाओं को त्याग पाना कदापि संभव नहीं है। सामान्य भक्तों के लिए धन एकत्रित करना एवं स्त्री को भोगना भौतिक इच्छाओं के अंतर्गत आता हैं, परन्तु वास्तव में परदोष दर्शन, ईर्ष्या, आलोचनात्मक मानसिकता आदि को भी सूक्ष्म इच्छाओं के रूप में जाना जाता है। जब शुद्ध-भक्त हमारे कार्यकलापों से अप्रसन्न हो जाते हैं तो ये सब इच्छाएँ हमारे हृदय में उत्पन्न होती हैं। श्रीरामचंद्र पुरी का जीवन इसका एक प्रमुख उदाहरण है। वह अपने आध्यात्मिक गुरु, सर्वश्रेष्ठ वैष्णव, श्रील माधवेंद्रपुरी पाद की संगति में थे, लेकिन फिर भी उनके हृदय में आलोचना की भावना उत्पन्न हो गई। रामचंद्रपुरी के अपराध के कारण माधवेंद्रपुरी ने उनकी भर्त्सना की, जिसके परिणामस्वरूप रामचंद्रपुरी के हृदय में भौतिक इच्छाएँ प्रकट होने लगीं।
एई ये श्रीमाधवेंद्र श्रीपाद उपेक्षा करिल।
सेई अपराधे इंहारे ‘वासना’ जन्मील।।
[श्री चैतन्य चरितामृत, अंत्य लीला ८.२६]
इस श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद ने ‘वासना’ शब्द का उल्लेख किया है, जिसका अर्थ शुष्क मनोकाल्पनिक ज्ञान है। ऐसा ज्ञान पूर्णतया भौतिक होता है। जो इस ज्ञान से आसक्त हो जाता है, उसका कृष्ण के साथ संबंध स्थापित नहीं हो सकता। फलत: वैष्णवों की निंदा करना उसका एकमात्र व्यवसाय बन जाता है। इसीलिए रामचंद्र पुरी केवल वैष्णवों की निंदा करने में लगे रहे, जबकि श्रीपाद ईश्वर पुरी ने अपने गुरु, श्रील माधवेंद्र पुरी की सेवा कर उनकी कृपा प्राप्त की और कृष्ण प्रेम विकसित कर लिया। हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद महाराज की तरह, यहाँ पर भी हमें कृपा और श्राप के ये दो उदाहरण दिखाई पड़ते हैं।
ईश्वर पुरी से प्रसन्न होकर, माधवेंद्र पुरी ने उनका आलिंगन किया और उन्हें यह आशीर्वाद दिया कि वह भगवान कृष्ण के एक महान भक्त एवं प्रेमी बनेंगे। जबकि दूसरी ओर जब माधवेंद्र पुरी रामचंद्र पुरी से अप्रसन्न हो गए, तो रामचंद्र पुरी एक शुष्क मनोधर्मी एवं सभी के आलोचक बन गए।
श्री चैतन्य चरितामृत, अंत्य लीला ८.३२ में श्रील कविराज गोस्वामी लिखते हैं -
महद-अनुग्राह-निग्रहेर ‘साक्षी’ दुइ-जने।
एइ दुइ-द्वारे शिखाइला जग-जने।।
ईश्वर पुरी को माधवेंद्रपुरी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, जबकि रामचंद्र पुरी को उनका अभिशाप। इसलिए ये दो व्यक्ति – ईश्वर पुरी तथा रामचंद्र पुरी – महापुरुष के आशीर्वाद तथा अभिशाप के पात्र होने के उपयुक्त उदाहरण हैं। माधवेंद्र पुरी ने ये दो दृष्टांत प्रस्तुत कर सम्पूर्ण जगत को शिक्षा दी है।
इसलिए शुभ वासना विकसित करने के लिए एक शुद्ध-भक्त की कृपा प्राप्त करने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है। शुद्ध-भक्तों की संगति करने वाले भाग्यशाली होते हैं, परंतु उनसे भी अधिक भाग्यशाली वे हैं जिन्हें उनकी सेवा करने का सुअवसर प्राप्त होता है। इस जगत में सर्वाधिक भाग्यशाली व्यक्ति वह है जो शुद्ध-भक्तों का संग करता है और साथ ही प्रेमपूर्ण भाव से उनकी सेवा भी करता है। अपनी सरलता के कारण वह शुद्ध-भक्त की कृपादृष्टि का पात्र बन जाता है। हमारे जीवन में शुद्ध इच्छाओं एवं सभी प्रकार के मंगल के उदित होने का यही एकमात्र कारण है। एक शुद्ध-भक्त की कृपादृष्टि इतनी शक्तिशाली होती है कि वह भौतिक जीवन के अधोमुखी प्रवाह को, आध्यात्मिक जीवन के ऊर्ध्वगामी प्रवाह में परिणति कर देती है।
हम ध्रुव महाराज के जीवन में देख सकते हैं कि जब उनकी भेंट नारद मुनि से हुई और उन्हें नारद मुनि का आशीर्वाद मिला, तभी उन्हें तपस्या करने का बल प्राप्त हुआ। शुद्ध-भक्तों की कृपा के बिना आध्यात्मिक दृढ़ता बनाए रखना असंभव है। उनकी कृपा के अभाव में अत्यधिक सावधानी से किए गए प्रयास भी विफल हो जाते हैं, जिससे हमारी गंभीरता में कमी आ जाती है और हम कठोर-हृदय के हो जाते हैं। किंतु फिर भी हम अपनी सूक्ष्म इच्छाओं को छोड़ने तथा शुद्ध इच्छाओं को विकसित करने में असमर्थ रहते हैं। ध्रुव महाराज के लिए वृंदावन के जंगलों में इतनी घोर तपस्या कर पाना कैसे संभव हुआ? हमें स्मरण रहना चाहिए कि वे राजपुत्र थे और उस समय उनकी आयु मात्र ५ वर्ष की थी, उन्होंने बिना किसी भौतिक ज्ञान के अपना घर छोड़ दिया था। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उन्हें जाना कहाँ है। वह तपस्या करना नहीं जानते थे और राजमहल से केवल धारण किये हुए वस्त्रों के साथ ही निकल आए थे। उनके पास अन्य वस्त्र या वस्तुएँ नहीं थीं। फिर उनके हृदय में ऐसा दृढ़ संकल्प, वैराग्य, और भगवान नारायण से मिलने की विशुद्ध इच्छा किस प्रकार जागृत हुई? यह केवल नारद मुनि की अहैतुकी कृपा के कारण ही संभव हो पाया।
श्रीमद-भागवत ४.८.२५: “नारद मुनि ने यह समाचार सुना तो ध्रुव महाराज के समस्त कार्यकलापों को जानकर विस्मय हुआ। वे ध्रुव के पास आये और उनके सिर को अपने पापनाशक हाथ से स्पर्श करते हुए इस प्रकार बोले।”
ध्रुव महाराज को नारद मुनि की कृपा दो बार प्राप्त हुई। श्रीमद-भागवत ४.८.३९ – “मैत्रेय मुनि ने कहा: ‘ध्रुव महाराज के शब्दों को सुनकर महापुरुष नारद मुनि उन पर अत्यधिक दयालु हो गये और अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के उद्देश्य से उन्हें निम्नलिखित उपदेश दिए।’”
अंततः संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि शुद्ध-भक्तों की कृपा के बिना दृढ़ संकल्प, वैराग्य एवं शुद्ध इच्छाओं का विकास करना हमारे लिए कदापि संभव नहीं है। इसलिए हमें साधु- गुरु से उनकी अहैतुकी कृपा के लिए विनीत भाव से याचना करनी होगी।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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