श्री अद्वैत आचार्य की हुंकार
हर साल माघ मास की सप्तमी तिथि को, हम अद्वैत आचार्य प्रभु का आविर्भाव दिवस मनाते हैं। सर्वप्रथम, अद्वैत आचार्य प्रभु स्वयं प्रकट हुए, और फिर उन्होंने महाप्रभु के रूप में श्रीकृष्ण को अवतरित किया। अद्वैत आचार्य के आह्वान से ही श्रीकृष्ण (महाप्रभु) प्रकट हुए। अतः आज का दिन अत्यंत शुभ है। आज हमें श्रील अद्वैत आचार्य के विषय में चर्चा करनी चाहिए और उनसे कृपा की भिक्षा माँगनी चाहिए। यदि वह हम पर अपनी कृपा-वर्षित करेंगे, तभी हमें चैतन्य-निताई मिल सकते हैं, अन्यथा यह संभव नहीं।
अद्वैत आचार्य भक्तावतार हैं
अद्वैत आचार्य के बारे में चैतन्य चरितामृत में वर्णन है –
महा-विष्णुर्जगत्कारता मायया यः सृजत्यदः।
तस्यावतार एवायमद्वैताचार्य ईश्वरः।।
“अद्वैत आचार्य महाविष्णु के अवतार हैं, जिनका मुख्य कार्य माया की क्रियाओं द्वारा भौतिक जगत की सृष्टि करना है”। (चैतन्य चरितामृत आदि लीला १. १२)
अद्वैतं हरिणाद्वैताचार्यं भक्ति शंसनात।
भक्तावतारमीशं तमद्वैताचार्यमाश्रये।।
“हरि अर्थात परमेश्वर से अभिन्न होने के कारण वे अद्वैत कहलाते हैं और भक्ति सप्रदाय का प्रचार करने के कारण वे आचार्य कहलाते हैं। वे भगवान् के भक्तो के स्वामी तथा भक्तावतार हैं। अतएव मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ”। (चैतन्य चरितामृत आदि लीला १. १३)
गौरगणेश दीपिका में वर्णन है –
भक्तावतार आचार्योऽद्वैतो यः श्रीसदाशिवः। (११)
इसका अर्थ है कि अद्वैत आचार्य भक्तावतार हैं।
पञ्च तत्वात्मकं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम् ।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम्।।
मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो भक्त, भक्त के विस्तार, भक्त के अवतार, शुद्ध भक्त और भक्त-शक्ति --इन पाँच रूपों में प्रकट हुए हैं। (चैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.६)
अद्वैत तत्त्व
पंच-तत्व में भक्त-रूप, भक्त-स्वरुप, भक्त-अवतार, भक्ताख्या, तथा भक्ति-शक्ति तत्त्व सम्मलित हैं। भक्त-रूप में स्वयं महाप्रभु हैं। भक्त-स्वरुप में नित्यानंद प्रभु हैं। अद्वैत आचार्य भक्त-अवतार हैं, श्रीवास भक्ताख्या हैं तथा गदाधर भक्ति-शक्ति हैं। श्रीगौरगणोद्देश-दीपिका में कहा गया है- भक्तावतार आचार्योऽद्वैतो यः श्रीसदाशिवः इसका अर्थ है कि अद्वैत आचार्य भक्तावतार हैं। साथ ही, वह सदाशिव भी हैं, जो महाविष्णु के अवतार हैं। जब महाविष्णु के अवतारों का वर्णन करते हैं, तो सदाशिव का नाम आता है। यह अद्वैत-तत्व है। अद्वैत आचार्य ऐसे भक्त हैं जिन्होंने कृष्ण को इस धरा पर अवतरित किया।
शान्तिपुर नाथ
अद्वैत आचार्य के पिता का नाम कुबेर मिश्र तथा माता का नाम श्रीमती नाभदेवी था। वे पहले श्रीहट्ट में रहते थे। कुबेर मिश्र को काफी समय तक कोई पुत्र प्राप्त नहीं हुआ था। वृद्धावस्था में, उन्हें अद्वैत आचार्य पुत्र के रूप में प्राप्त हुए। अद्वैत आचार्य का जन्म श्रीहट्ट जिले के नवग्राम नामक गाँव में, माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को हुआ था।
इसके बाद, कुबेर मिश्र गंगा तट पर शान्तिपुर में रहने लगे। शान्तिपुर अब अद्वैत धाम के रूप में प्रसिद्ध है और अद्वैताचार्य को शान्तिपुर नाथ के नाम से भी जाना जाता है।
कुबेर पंडित ने नामकरण समारोह आयोजित किया और अपने पुत्र का एक नाम मंगल तथा दूसरा नाम कमलाक्ष रखा। लेकिन उन्हें अद्वैत आचार्य क्यों कहा जाता है, हमने पूर्व अनुच्छेद में ही इसका कारण विस्तारपूर्वक श्रीचैतन्य-चरितामृत से उद्धृत कर दिया है।
अद्वैत आचार्य की दो पत्नियाँ
अद्वैत आचार्य के पिता और माता का देहांत उनके बाल्यकाल में ही हो गया था। इस त्रासदी से दुःखी होकर वह तीर्थयात्रा पर निकल गए और उन्होंने अनेक तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया। वापस लौटने पर उनके कुछ रिश्तेदारों ने उनसे विवाह करने का आग्रह किया। अतएव रिश्तेदारों के आग्रह पर वह विवाह करने को तैयार हो गए।
नृसिंह वदुरी एक बहुत ही धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी दो पुत्रियाँ थीं- श्री और सीता। वे दोनों अत्यंत सुंदर व सुशील थीं। अद्वैत आचार्य से उन दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। उनमें से सीता ठाकुरानी ज्यादा प्रसिद्ध हैं, इसलिए अद्वैत आचार्य को सीता-नाथ या सीता-पति भी कहा जाता है।
सीता ठाकुरानी योगमाया की अवतार हैं और श्री देवी योगमाया का ही एक रूप हैं। अद्वैत आचार्य महा-विष्णु के अवतार हैं और महा-विष्णु में सदाशिव समाविष्ट हैं इसलिए उन्हें हम सदाशिव अवतार कहते हैं।
भक्त पर भगवान की निर्भरता
जब अद्वैत आचार्य वयस्क हुए, तो उन्होंने देखा कि कैसे कलियुग के लोग दुःखी हैं और वह उनकी यह दुर्दशा सहन न कर सके। उन्होंने सोचा, "मुझे परम भगवान कृष्ण को पृथ्वी पर प्रकट करना चाहिए।" भगवान को कौन प्रकट कर सकता है? भक्तेर इच्छाय कृष्णेर सर्व अवतार [चैतन्य-चरितामृत आदि ३.११२], तथा भक्तेच्छोपात्तरूपाय, [श्रीमद्भागवतम् १०.५९.२५] अर्थात अपने प्रिय भक्त की इच्छा से भगवान अवतरित होते हैं। भगवान को कोई अपने भौतिक बल पर प्रकट नहीं कर सकता। वह हमारे आदेशवाहक नहीं हैं। यद्यपि भगवान ने कहा है, अहं भक्तपराधीनो । श्रीकृष्ण कहते हैं " मैं अपने अंतरंग भक्तों पर निर्भर रहता हूँ। मेरी कोई स्वतंत्रता नहीं है।" परन्तु, वास्तव में, वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं।
भगवद गीता में कृष्ण कहते हैं- मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय (भगवद गीता ७.७) अर्थात "हे धनंजय, अर्जुन, मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है।" एकले ईश्वर कृष्ण आर सब भृत्य (चैतन्य चरितामृत आदि ५.१४२), केवल श्रीकृष्ण ही एकमात्र ईश्वर हैं, अन्य सभी उनके भृत्य हैं। परन्तु वही कृष्ण असीम भक्त-वत्सल हैं, एक प्रेमी भक्त उन्हें बड़ी सहजता के साथ प्रेम-पाश से बाँध सकता है। इसलिए, श्रीमद् भगवतम् के नवम सर्ग में कहा गया है कि-
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय: ॥
“भगवान ने उस ब्राह्मण से कहा: मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ। निस्संदेह, मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ। चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ। मुझे मेरे भक्त ही नहीं, मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यंत प्रिय हैं” । [श्रीमद् भागवतम् ९.४.६३]
जो भगवान परम स्वतंत्र (स्वराट्) हैं, वह दुर्वासा मुनि से कह रहे हैं, "मेरे पास कोई स्वतंत्रता नहीं है! मैं अपने भक्तों के पराधीन हूँ। मेरे भक्त जो कहते हैं, मैं वही करता हूँ।" यदि कोई प्रियस्त भक्त कहें, "कृपया, पृथ्वी पर अवतरित हो जाइए", तो वह पृथ्वी पर अवतार ले लेते हैं। भक्तेर इच्छाय कृष्णेर सर्व अवतार [चैतन्य-चरितामृत आदि ३.११२]। भगवन के सभी अवतार किसी भक्त के आह्वान पर ही होते हैं। भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन् नमोऽस्तु ते। [भागवत १०.५९.२५]
इस प्रकार, अपने प्रिय भक्त के आह्वान के बिना, गोलोक-बिहारी, पूर्ण ब्रह्म कृष्ण कभी अवतार नहीं लेते। भगवान साधारण कार्यों के लिए अवतार नहीं लेते हैं। उनके अवतार का सदैव बृहद प्रयोजन होता है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थानार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(भगवद गीता ४.७-८)
भगवद-गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, "जब-जब अधर्म बढ़ता है और भगवत-धर्म का पतन होता है, दुष्ट, राक्षस बढ़ते हैं और साधु, भक्तों का उत्पीड़न होता है, उस समय मैं दुष्टों का नाश करने, साधुओं की रक्षा करने और भगवत-धर्म की स्थापना के लिए अवतरित होता हूँ ।" भगवान के अवतरित होने का यही उद्देश्य रहता है।
अद्वैत आचार्य के हृदय की व्याकुलता
एक बार सभी देवता, ब्रह्मा जी के नेतृत्व में, क्षीरसागर के तट पर गए और श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे। उनकी प्रार्थना सुनकर कृष्ण वहाँ प्रकट हुए। उसी तरह, अद्वैत आचार्य की प्रार्थनाओं से द्रवित होकर प्रेम पुरुषोत्तम गौरचंद्र महाप्रभु ने इस भौतिक जगत में प्रकट होकर अपनी वदान्यपूर्ण लीलाओं का प्रदर्शन किया। अद्वैत आचार्य कलियुग के जीवों की पीड़ाजनक स्थिति को सहन न कर सके। उनका हृदय दुःख से व्यथित था । इसलिए उन्होंने सोचा, "मुझे परम भगवान कृष्ण को प्रकट करना चाहिए।"
अद्वैत-आचार्य गोसाञि साक्षातीश्वर।
याँहार महिमा नहे जीवेर गोचर।।
“श्री अद्वैत आचार्य निस्सन्देह साक्षात् भगवान् हैं। उनकी महिमा सामान्य जीवों की कल्पना शक्ति से परे है” । [चैतन्य-चरितामृत आदि ६.६]
अद्वैत-आचार्य कोटि-ब्रह्माण्डेर कर्ता।
आर एक एक मूर्त्ये ब्रह्माण्डेर भर्ता।।
“श्री अद्वैत आचार्य कोटि-कोटि ब्रह्मण्डों के स्रष्टा हैं और अपने विस्तार (गर्भोदकशायी विष्णु) द्वारा वे प्रत्येक ब्रह्मण्ड का पालन करते हैं” । [चैतन्य-चरितामृत आदि ६.२१]
" अद्वैत आचार्य हरि अर्थात परमेश्वर से अभिन्न होने के कारण वे अद्वैत कहलाते हैं और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार करने के कारण आचार्य कहलाते हैं" (चैतन्य-चरितामृत आदि १.१२-१३)। चैतन्य-चरितामृत के अनुसार, अद्वैत-आचार्य गोसाञि साक्षातीश्वर, अर्थात अद्वैत आचार्य ईश्वर(नियंता) हैं, वे हरि से अभिन्न हैं। याँहार महिमा नहे जीवेर गोचर, अर्थात साधारण जीव अद्वैत आचार्य की महिमा को समझ नहीं सकते।
एक अद्भुत प्रतिज्ञा
वह महा-विष्णु के अवतार थे। इसलिए वह कलि-हत जीवों के कष्ट और पीड़ा का अनुभव कर सकते थे क्योंकि सभी जीव महा-विष्णु से ही उत्पन्न होते हैं। उन्होंने देखा कि कलियुग में भक्ति का अभाव है और इसलिए उन्होंने एक अद्भुत प्रतिज्ञा ली, "मुझे भक्ति का प्रचार करने के लिए श्रीकृष्ण को प्रकट करना ही होगा।"
कराइमू कृष्ण सर्व-नयन-गोचर।
तबे से अद्वैत-नाम कृष्णेर-किंकर!।।
“मैं कृष्ण को सबके नेत्रों के समक्ष प्रकट करूँगा, फिर यह "अद्वैत" नाम का व्यक्ति कृष्ण के किंकर के रूप में जाना जाएगा।
(चैतन्य भागवत, आदि-खंड ११.६४)
अद्वैत आचार्य ने अद्भुत प्रतिज्ञा की, "मुझे कृष्ण को यहाँ प्रकट करना चाहिए और सबको दर्शन करवाना चाहिए। अन्यथा मेरा नाम अद्वैत आचार्य, कृष्णेर किंकर व्यर्थ हो जाएगा। मैं यह नाम त्याग दूँगा। "
ऐसी प्रतिज्ञा कौन कर सकता है? केवल अनन्य भक्त ही कृष्ण को प्रकट कर सकते हैं। अन्य कोई नहीं। पूर्व में, ऐसी प्रतिज्ञा न तो किसी ने सुनी होगी और न ही किसी ने की होगी।
प्रतिदिन तुलसी और गंगाजल अर्पण
प्रत्येक दिन, वह तुलसी दल और गंगाजल से शालिग्राम-शिला की पूजा करते और कृष्ण के विभिन्न नामों का उच्चारण करते हुए क्रंदन करते थे।
श्रीचैतन्य-चरितामृत में गौतमीय तंत्र से उद्धृत एक श्लोक है-
तुलसीदल मात्रेण जलस्य चुलुकेन वा।
विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सलः।।
"अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल श्रीकृष्ण अपने आपको उस भक्त के हाथ बेच देते हैं, जो उन्हें केवल तुलसीदल तथा अँजुलीभर जल अर्पित करता है।" (चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला ३.१०४)
हर दिन वह तुलसीदल और गंगाजल अर्पित करते थे। अद्वैत आचार्य ने इस श्लोक पर चिंतन किया। उन्होंने विचार किया-
एइ श्लोकार्थ आचार्य करेन विचारण
कृष्णके तुलसी-जल देय येई जन
तार ऋण शोधिते कृष्ण करेन चिन्तन
जल-तुलसीर सम किछु नाहि धन
अद्वैत आचार्य सतत इस श्लोक के अर्थ पर चिन्तन करते थे: "जो कृष्ण को तुलसीदल तथा जल अर्पित करता है, उसके ऋण की चुकाने की कोई विधि न पाकर भगवान् कृष्ण सोचते हैं, 'मेरे पास ऐसी कोई संपत्ति नहीं जो तुलसीदल तथा जल की समता कर सके।'” (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला ३.१०५-१०६)
तबे आत्म वेचि करे ऋणेर शोधन
एत भावि आचार्य करेन आराधन"
"इस प्रकार भगवान् अपने आपको भक्त के हाथ अर्पित करके अपना ऋण चुकाते हैं।" इस तरह विचार करके आचार्य ने भगवान् की आराधना प्रारम्भ कर दी। (चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला ३.१०७)
इस प्रकार, हर दिन वह तुलसीदल और गंगाजल से शालिग्राम-शिला के रूप में भगवान की पूजा करते थे। बार-बार क्रंदन करते हुए, वह कृष्ण नाम उच्चारण करते और उच्च स्वर में गर्जना करते हुए भगवान को पुकारते, "कृपया अवतार लीजिए! अवतार लीजिए!"
उनका आह्वान गोलोक वृन्दावन में सुनाई दिया
अद्वैत आचार्य के अनेक नामों में से एक नाम है 'नाडा'। एक दिन महाप्रभु ने कहा "नाडैर हूँकार"। हूँकार अर्थात गर्जना। "गर्जती आवाज में, नाडा ने मुझे पुकारा। गोलोक धाम में मेरा सिंहासन कम्पन करने लगा, इसलिए मैं वहाँ ठहर नहीं सका; मुझे पृथ्वी पर अवतार लेना ही पड़ा। उन्होंने मुझे इस धरातल पर अवतरित किया।"
कृष्ण भी पुनः अवतार लेकर भक्ति तत्त्व का उपदेश करना चाहते थे। अंतरंगा-शक्ति योगमाया, भगवान की समस्त लीलाओं का संचालन करती हैं। योगमाया गोलोक में अद्वैत आचार्य के अह्वान का प्रतीक्षा कर रही थीं। इधर, अद्वैत आचार्य शालिग्राम-शिला की पूजा करते हुए प्रतिदिन श्रीकृष्ण को उच्च स्वर से पुकारते। उनकी पुकार भौतिक ब्रह्मांड के सात आवरणों को भेद कर, आध्यात्मिक व्योम में स्थित गोलोक वृंदावन तक पहुँच गई। जब लीला-सूत्र-धरी योगमाया ने यह सुना तो सोचा, "अद्वैत आचार्य पुकार रहे हैं। अब मुझे कृष्ण को पृथ्वी पर गौर रूप में प्रकट करना होगा।" इस तरह योगमाया की व्यवस्था से, प्रेम पुरुषोत्तम गौरचंद्र महाप्रभु प्रकट हुए। यह गौर अवतार के अनेक कारणों में से एक कारण है।
सीतानाथ ने कृष्ण को प्रकट किया
भक्तेर इच्छाय कृष्णेर सर्व अवतार [चैतन्य-चरितामृत आदि ३.११२]; भक्तेच्छोपात्तरूपाय [ श्रीमद् भागवतम् १०.५९.२५], भक्त की इच्छा से ही कृष्ण के सभी अवतार होते हैं। अन्यथा, कृष्ण को कौन प्रकट कर सकता है? केवल शुद्ध भक्त ही कृष्ण को प्रकट कर सकते हैं। कृष्ण के प्रिय भक्त, उनके वत्सल कौन हैं? अद्वैत आचार्य कृष्ण को अतिशय प्रिय हैं क्योंकि वह भक्त-अवतार हैं। वह परम अंतरंग भक्त हैं। इसलिए सीतानाथ ने कृष्ण को प्रकट किया।
महाप्रभु अपने धाम और अपने प्रिय पार्षदों के साथ नदिया जिले में जगन्नाथ मिश्र और शची-माता के पुत्र के रूप में प्रकट हुए। सुदूर शांतिपुर में रहते हुए भी अद्वैत आचार्य समझ गए कि "महाप्रभु प्रकट हो गए हैं।" अतः सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्नी सीता ठाकुरानी को नवद्वीप स्थित मायापुर में श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर भेजा। तत्पश्चात उन्होंने स्वयं पधारकर नवजात शिशु का दर्शन किया। श्रीचैतन्य-चरितामृत में यह अद्भुत वर्णन है-
भक्ष्य, भोज्य, उपहार, संगे लइल बहु भार,
शची-गृहे हैल उपनीत
देखिया बालक-ठाम, सक्षात्गोकुल-कान,
वर्ण-मात्र देखि विपरीत
“जब सीता ठाकुरानी अपने साथ अनेक खाने की वस्तुएँ, वस्त्र तथा अन्य उपहार लेकर शचीदेवी के घर आईं, तो वे नवजात शिशु को देखकर चकित हुईं, क्योंकि उन्हें लगा कि यह शिशु साक्षात् गोकुल के कृष्ण हैं, केवल रंग का अंतर है।" (चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला १३.११५)
वह सक्षात् गोकुलबिहारी श्रीकृष्ण हैं जिनका वर्ण श्याम न होकर गौर है। जब अद्वैत आचार्य प्रभु ने उन्हें देखा तो उन्होंने अत्यधिक प्रसन्नता से कहा " मेरी चिर अभिलाषा पूर्ण हो गई। कृष्ण प्रकट हो गए।"
चैतन्य-भागवत में भी इसका उल्लेख है,
ये पुजार समये ये देव ध्यान करे।
ताहा देखे चारि-दिगे चरनेर तले।।
वे सभी देवता जिनका पूजा काल में ध्यान किया जाता है, भगवान के चरण कमलों के चारों ओर देखे गए। (चैतन्य-भागवत, मध्य-खंड ६.८६)
पूर्ण फलित मेरा जन्म और कर्म
जब अद्वैत आचार्य ने शिशु को देखा, तो उन्हें उसी बालक की छवि दिखाई दी जिसका वह हर दिन शालग्राम-शिला की गंगाजल और तुलसीदल से पूजा करते हुए, ध्यान करते थे। इस प्रकार उन्होंने सुनिश्चित किया "हाँ, कृष्ण प्रकट हो गए हैं।" उन्होंने समाधि में समस्त देवताओं को भगवान् की स्तुति करते हुए देखा। अद्वैत आचार्य अत्यंत परमानंदित हुए और बोले-
"आजि से सफल मोर दिन परकास।
आजि से सफल हैल यत अभिलाष।।
आजि मोर जन्म-कर्म सकल सफल।
साक्षाते देखिलूँ तोर चरण-युगल।।
घोषे मात्रा चारि वेदे, यारे नाहि देखे।
हेना तुमी मोर लागी' हायला परतके।।
(श्रीचैतन्य-भागवत, मध्य-स्कंध ६.१००-१०२)
श्रील अद्वैत आचार्य कहते हैं: “आज मेरा जीवन धन्य हो गया है, क्योंकि आज मैंने अपने आराध्य भगवान के दर्शन किए हैं। मेरी समस्त अभिलाषाएं पूर्ण हो गई हैं। आजि मोर जन्म-कर्म सकल सफल, मेरे जन्म-कर्म सिद्ध हो गए हैं। साक्षाते देखिलूँ तोर चरण-युगल, मैंने साक्षाद भगवान के चरण-युगल के दर्शन किए है। घोषे मात्रा चारि वेदे, यारे नाहि देखे, हेना तुमी मोर लागी' हायला परतके। चार वेदों में भगवान की महिमा वर्णित है, लेकिन कोई उनके साक्षाद दर्शन नहीं कर पाता। परन्तु, आज मैंने भगवान को देखा है। भगवान मेरे लिए ही अवतरित हुए हैं”।
अद्वैत आचार्य श्रीमन महाप्रभु की पूजा करते हैं
महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य से कहा, "हे आचार्य, तुम मेरी पूजा करो।" तब अद्वैत आचार्य ने श्रीमन् महाप्रभु के चरणकमलों की पूजा किया। यह चैतन्य-भागवत में वर्णित है-
प्रथमे चरण धुई' सुवासित जले।
सेसे गंधें परिपूर्ण पाद-पद्मे धाले।।
"उन्होंने पहले भगवान के चरणकमलों को सुगंधित जल से धोया और फिर उनका चन्दन से लेप किया ।" (चैतन्य-भागवत मध्य-खंड ६.१०६)
चन्दने डूबाई' दिव्य तुलसी-मञ्जरी।
अर्घ्येर सहिता दिला चरण-उपरि।।
"उन्होंने चन्दन के लेप में तुलसी मञ्जरियों को डुबोया और उन्हें अर्घ्य की सामग्री के साथ भगवान के चरणकमलों पर रख दिया।" (चैतन्य-भागवत मध्य-खंड ६.१०७)
गंध, पुष्प, धूप, दीप, पंच उपचारे।
पूजा करे प्रेम-जले वहे अश्रु-धारे।।
"उन्होंने भगवान की पूजा चन्दन के लेप, फूलों, धूप, और घी इत्यादि पांच सामग्री से की। भगवान की पूजा करते समय उनके आँखों से प्रेमाश्रु बहते थे।"
पंच-शिखा ज्वलि' पुनः करेन वंदना।
सेसे 'जय-जय'-ध्वनि करये घोषणा।।
"उन्होंने पंच शिखा युक्त घी के दीपक जलाए और फिर प्रार्थनाएँ कीं। अंत में उन्होंने उच्च स्वर में 'जय-जय' ध्वनि उद्घोषित किया।"
प्रेमाश्रु पूर्ण नेत्रों के साथ अद्वैत आचार्य ने पंच-दीपों का प्रज्ज्वलन कर अपने ईष्ट श्रीमन् महाप्रभु की आरती की। इस तरह क्रमशः अद्वैत आचार्य प्रभु ने शिशु गौर हरि के चरणकमलों की अर्चना शास्त्र विदित विधि से सम्पन्न की।
अद्वैत आचार्य की महाप्रभु से प्रार्थनाएं
अंत में उन्होंने महाप्रभु की स्तुति की, जो श्रीचैतन्य-भागवत में वर्णित हैं:
जय जय सर्व-प्राण-नाथ विश्वंभर
जय जय गौरचंद्र करुणा-सागर
जय जय भक्त-वचन-सत्यकारी
जय जय महाप्रभु महा-अवतारी
जय जय सिंधु-सुत-रूप-मनोरम
जय जय श्रीवत्स-कौस्तुभ-विभूषण
जय जय 'हरि-कृष्ण'-मंत्रेर प्रकाश
जय जय निज-भक्ति-ग्रहण-विलास
जय जय महाप्रभु अनंत-शयन
जय जय जय सर्व-जीवेर शरण
(चैतन्य-भागवत मध्य-खंड ६.११४-११८)
जय जय सर्व-प्राण-नाथ विश्वंभर, विश्वंभर महाप्रभु समस्त जीवों के प्राण हैं। जय जय गौरचंद्र करुणा-सागर, करुणा के सागर गौरचंद्र की जय हो।
जय जय भक्त-वचन-सत्यकारी, जो अपने भक्तों की प्रतिज्ञाओं को सदैव सत्य करते हैं, उनकी जय हो। कृष्ण कहते हैं, "जब मेरे भक्त ने मुझे अवतरित होने की प्रतिज्ञा ली है, तो मुझे अवश्य प्रकट होना चाहिए। यदि मैं प्रकट नहीं होता, तो मेरे भक्त के वचन मिथ्या हो जाऍंगे। तब कोई भी मेरा भक्त नहीं बनेगा।" इसलिए वह अपनी प्रतिज्ञा को भूलकर, अपने प्रिय भक्तों की प्रतिज्ञा को सत्य करते है। जय जय महाप्रभु महा-अवतारी, " महाप्रभु (कृष्ण) ही समस्त अवतारों के स्रोत हैं।"
जय जय सिंधु-सुत-रूप-मनोरमा, सिंधु-सुता अर्थात लक्ष्मीदेवी। वह लक्ष्मीदेवी की तरह ही सुंदर हैं। जय जय श्रीवत्स-कौस्तुभ-विभूषण, "उनके वक्ष पर श्रीवत्स-कौस्तुभ विभूषित है।"
जय जय 'हरि-कृष्ण'-मंत्रेर प्रकाश, " जिन्होंने हरे-कृष्ण महामंत्र का प्रचार किया, उन महाप्रभु की जय हो।" जय जय निज-भक्ति-ग्रहण-विलास, "जो स्वयं अपनी ही की भक्ति करने की विधि सिखाने आए, उनकी जय हो।"
जय जय महाप्रभु अनंत-शयन, "अनंत-शेष की शय्या पर विश्राम करने वाले महाप्रभु, जय जय।" जय जय जय सर्व-जीवेर शरण, "जिनके चरण कमलों में सभी जीव आश्रय प्राप्त करते हैं, उन महाप्रभु की जय हो।"
इस प्रकार अद्वैत आचार्य प्रभुपाद ने श्री गौर सुंदर के चरण कमलों में अनेक प्रार्थनाएं अर्पित किया।
अद्वैत आचार्य का वरदान
जब श्रीपाद अद्वैत आचार्य बाल गौरचंद्र की अर्चना और स्तुति कर रहे थे, तब उनके और गौर सुंदर के मध्य वार्तालाप हो रहा था। सब लोग शांतिपूर्वक सुन रहे थे। गौर सुंदर स्मित मुख से बोले, "हे आचार्य, मैं आपकी प्रार्थनाओं से अत्यंत प्रसन्न हूँ। कृपया वरदान माँगिये ।"
चैतन्य-भागवत में अद्वैत आचार्य के इस वरदान का वर्णन है:
अद्वैत बलये, - यदि भक्ति बिलाई
बस्त्री-शूद्र-आदि यत मूर्खरे से दिबा
(चैतन्य-भागवत मध्य-लीला ६.१६७)
अद्वैत आचार्य ने कहा, "आप सबको भक्ति प्रदान कीजिये बिना किसी भेदभाव के- स्त्री, शूद्र, और चांडाल सबको भक्ति प्रदान कीजिए। मेरी यही इच्छा है।"
महाप्रभु ने अद्वैत आचार्य के इस निवेदन को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उनके अंतरंग भक्त, महाप्रभु की सहमति समझ गए और सबने एक साथ कहा, "हरिबोल! हरिबोल! हरि बोल!"
गौर हरि करुणा-सागर है। जो भक्त कहते हैं, महाप्रभु वही सत्य करते हैं, भक्त-वचन-सत्यकारी। ब्रह्मा के लिए भी इसे प्राप्त करना कठिन है। महाप्रभु ने वह दुर्लभ कृष्ण-प्रेम, बिना किसी भेदभाव के सभी पतित, पामर, पापी, पाषंडी, दीन-हीन को प्रदान किया।
इस प्रकार शांतिपुर नाथ, अद्वैत आचार्य के आवाह्न से ही महाप्रभु अवतरित हुए। इसलिए उनका आविर्भाव दिवस बहुत ही शुभ है।
जय करुणामय शांतिपुर-पति अद्वैत आचार्य प्रभु की जय!
"हे अद्वैत आचार्य प्रभु, हम अधम जीवों पर अपनी कृपा वर्षित कीजिए। यदि आप हम पर कृपा करेंगे, तब हमें गौर-निताई प्राप्त हो सकते हैं। अन्यथा, हमारे जीवन का क्या मूल्य है?"
आज हमें इस प्रकार परम करुणामय, शांतिपुर नाथ, श्री श्री अद्वैत आचार्य के चरण कमलों में प्रार्थना करनी चाहिए।
अद्वैत आचार्य प्रभु को प्रार्थनाएँ
(लोचन दास ठाकुर द्वारा)
यह अद्वैत आचार्य प्रभु की संक्षिप्त जीवनी थी। अब अंत में, हम उन्हें लोचन दास ठाकुर द्वारा रचित प्रार्थना अर्पित करंगे।
(१)
जय-जय श्रीअद्वैताचार्य दयामय।
याँर हुँकारे गौर अवतार हय॥
हुंकार का अर्थ है गर्जना, कोलाहल। बादल के समान तेज आवाज के साथ वह पुकारते थे, "कृपया, अवतरित होइए, अवतरित होइए!" याँर हुँकारे गौर अवतार हय, उनके हुंकार से ही गौर प्रकट हुए।
(२)
प्रेम-दाता सीता-नाथ करुणा-सागर।
यारा प्रेम-रसे अ-इला गौरांगा नागर॥
प्रेम दाता सीतानाथ, दया के सागर हैं, जिनके प्रेममय रस से अविर्भूत होकर गौरांग महाप्रभु अवतरित हुए।
(३)
याहारे करुणा करि कृपा दिथे चाय।
प्रेम-रसे से-जन चैतन्य-गुण गाय॥
श्रीमन् महाप्रभु ने अवतरित होकर अद्वैत आचार्य प्रभु पर अपनी कृपा बरसाई। यदि किसी सौभाग्यशाली जीव को अद्वैत आचार्य की कृपा प्राप्त होगी, तभी वह चैतन्य महाप्रभु का महिमामंडन कर सकेगा।
(४)
ताहार पड़ेते येबा ला-इला शरण।
से-जन पा-इला गौर-प्रेम-महा-धन॥
जो व्यक्ति अद्वैत आचार्य के चरणों में शरण लेता है वह अत्यंत भाग्यशाली है। वह निश्चित रूप से अमूल्य निधि गौर-प्रेम प्राप्त करेगा।
(५)
एमन दयार निधि केने ना भजिलूँ।
लोचन बले निज माथे बजर पाडिलूँ॥
एमन दयार निधि, अद्वैत आचार्य प्रभु दया के सागर हैं। मैं ऐसा अभागा हूँ क्योंकि मैं अद्वैत आचार्य प्रभु का भजन नहीं करता हूँ। लोचन दास ठाकुर कहते हैं, बले निज माथे बजर पाडिलूँ, "जो श्रीपाद अद्वैत आचार्य की उपासना नहीं करता वह अपने ही सिर पर वज्रपात करता है।"
जय करुणा-मय शांतिपुर-पति श्री श्री अद्वैत आचार्य प्रभु की जय!
अद्वैत आचार्य प्रभु की शुभ अभिर्भाव-तिथि की जय!
समवेत भक्त वृंद की जय!
गौर-प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
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