श्री गुरु - हमारे शाश्वत शुभचिंतक

 

प्रिय पाठकगण,

श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम परंपरा आचार्यों की शिक्षाओं का स्मरण व चिंतन कर रहे हैं। भक्त-भागवत से भक्ति विधि का श्रवण किए बिना तथा इसका अभ्यास किये बिना कोई भी भागवत-धर्म में प्रवेश नहीं कर सकता। श्रीमद्-भागवतम [११.३.२२] में भागवत धर्म सीखने के उपाय वर्णित है:

“प्रमाणिक गुरु को प्राण एवं आत्मा तथा आराध्य देव मानते हुए शिष्य को चाहिए कि उनसे शुद्ध भक्ति कि विधि सीखे। समस्त आत्माओं के आत्मा भगवान हरि अपने आपको अपने शुद्ध भक्त को सौंपने के लिए उद्यत रहते हैं। इसलिए शिष्य को अपने गुरु से द्वैतरहित होकर भगवान की श्रद्धापूर्ण तथा उपयुक्त विधि से सेवा करना सीखना चाहिए, जिससे वे तुष्ट होकर श्रद्धालु शिष्य को अपने आपको सौंप सकें।”

इस श्लोक से दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं। पहली यह कि  शिष्य,  गुरु को  प्राण तथा आत्मा के रूप में स्वीकार करे और दूसरी कि वह गुरु को अपना आराध्य-देव मानकर उनसे भक्ति विधि का प्रशिक्षण ग्रहण करे। हम भागवत-धर्म सीखने हेतु गुरुदेव का आश्रय ग्रहण करते हैं। हमें नवधा-भक्ति के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण और उनके प्रियस्त भक्तों के साथ सम्पन की गई उनकी विलक्षण लीलाओं का श्रवण एवं कीर्तन तथा उनका स्मरण करना है। इसे ही भागवत धर्म कहते हैं। यदि हम प्रमाणिक गुरु के अनुगत हुए बिना इस भागवत धर्म में प्रशिक्षित होने का प्रयास करते हैं, तो हम इसके अंतिम लक्ष्य(प्रयोजन), कृष्ण-प्रेम को कभी प्राप्त नहीं कर पाऍंगे। हमें भगवान हरि को प्रसन्न करने के लिए उनके इन गुह्य सूत्रों का अनुगमन करना होगा। कोई यह प्रश्न कर सकता है कि हम भजन कर रहे हैं, कीर्तन कर रहे हैं और साथ में शास्त्र-अध्ययन भी कर रहे हैं, तो इसके अतिरिक्त कुछ और सीखने की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर है कि, यद्यपि हम श्रवण-कीर्तन में संलग्न रहते हैं किंतु तब भी हम इनके माध्यम से भगवान हरि को प्रसन्न करना बिल्कुल नहीं जानते। फिर हम अपने आध्यात्मिक क्रियाकलापों द्वारा प्रत्येक क्षण कृष्ण को प्रसन्न कैसे कर सकते हैं? यह सूत्र हमें एक भक्त-भागवत से सीखने होंगे, अन्यथा हम प्रेम-प्राप्ति नहीं कर पाऍंगे।

किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारा श्रवण-कीर्तन निष्फल हो जाएगा। हम अपनी साधना के बल पर अधिक से अधिक मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, परंतु यदि हम वास्तव में प्रेम प्राप्त करने के लिए  गंभीर हैं, तो हमें भक्त-भागवत का अनुसरण करना होगा जिनसे हम  जान सकेंगे कि  कृष्ण हमारे कार्यकलापों से प्रसन्न हैं या नहीं। सच यह है कि जितना अधिक हम एक भक्त-भागवत का संग करेंगे, उतना अधिक हम अपने जीवन के प्रत्येक क्षण कृष्ण को सुख प्रदान करने के बारे में सोच पाऍंगे, जो  निश्चित ही हमारे जीवन को भगवद्-प्रेम की दिशा में ले जाएगा। यदि हम कृष्ण को आनंदित करने की दिशा में चिंतन नहीं करते परन्तु   विभिन्न आध्यात्मिक कार्यों में नियुक्त रहते हैं, तो भी  हमें  लाभ अवश्य मिलेगा,  लेकिन  इस लाभ में और एक भक्त-भागवत के दिव्य संग से प्राप्त लाभ में, स्वर्ग और नरक का  अंतर है। इसलिए हमें अपना पूरा ध्यान भक्ति की वैज्ञानिक पद्धति पर केंद्रित करना चाहिए।  यह वैज्ञानिक पद्धति क्या है? शिक्षेद् गुर्वात्मदैवत: [श्रीमद्-भागवतम ११.३.२२]। इसका अर्थ है कि एक शिष्य के लिए गुरु उसके प्राण एवं आत्मा तथा उसके आराध्य-देव हैं। हमारी भक्ति-प्रक्रिया में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है। हमारी परंपरा में इन दोनों शिक्षाओं पर सबसे अधिक बल दिया जाता है। जब भी हम इनपर ध्यान नहीं देते, तो इसका मतलब यह है कि हम अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं कर रहे हैं। दक्ष साधक अपने सभी भक्तिमय कार्यकलाप, गुरु या किसी भक्त-भागवत के मार्गदर्शन में करते हैं। उनके जीवन का प्रत्येक सोपान इसी सिद्धांत पर आधारित होता है। परंतु दांभिक व्यक्ति इस विषय पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते।

यदि कोई किसी गुरु से दीक्षा ग्रहण करने के उपरांत शरणागत नहीं होता, तो उसे क्या लाभ प्राप्त होगा? जब तक कोई गुरु के गुरुत्व को या दूसरे शब्दों में कृष्ण की कृपा-शक्ति को उनके माध्यम से कार्य करते हुए नहीं देखता, तब तक वह उनकी शिक्षा व भजन-विधि को कैसे स्वीकार करेगा? यदि कोई व्यक्ति गुरु के श्रीचरणों में शरणागत नहीं होता, उनसे दृढ़ संबंध स्थापित नहीं करता या अपने जीवन में   उनके महत्त्व को नहीं स्वीकारता, तो वह केवल अपना अमूल्य समय नष्ट कर रहा है। हमें इस बिंदु पर अत्यंत गंभीरतापूर्वक आत्म-विश्लेषण करना होगा कि क्या वास्तव में गुरु ने हमें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया है या नहीं? क्या गुरुदेव हम पर अपना शासन प्रयुक्त कर रहे हैं? या हमारा वर्जन कर रहे हैं? क्या वे हमारे उद्धार हेतु हृदय से हमें तत्त्व-ज्ञान प्रदान कर रहे हैं? यदि हम इन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान नहीं देंगे, तब गुरु के साथ हमारा तथाकथित संबंध निरर्थक हो जाएगा। हमें गुरुदेव का संग केवल उनसे भजन संबन्धी शिक्षा प्राप्त करने के लिए करना है और शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात हमें प्रत्येक क्षण यह अनुभव करना है कि हम वैकुण्ठ की ओर अग्रसरित हो रहे हैं।

भागवत धर्म समझने के लिए गुरु एवं शिष्य के मध्य एक स्वाभाविक संबंध होना चाहिए, जिसमें शिष्य सोचता है, “मेरे गुरुदेव मुझे  हर कदम पर अनुशासित करेंगे जिससे मेरा जीवन मंगलमय  हो जाएगा। वे निरन्तर मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं और मुझे सर्वोत्कृष्ट   दिशा में जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मैं अंधकार में नहीं हूँ क्योंकि गुरुदेव मुझे आध्यात्मिक प्रकाश से प्रज्ज्वलित मार्ग दिखला रहे हैं। हर क्षण वे मेरा अंधापन  दूर कर मुझे यह अनुभव  करा रहे हैं कि मैं गलत रास्ते पर जा रहा हूँ और मुझे सही पथ पर आगे बढ़ना  है।” हृदय के भीतर हमें यह अनुभव होना चाहिए कि, जैसे एक कपड़े में धागे एक साथ सिल दिए जाते  हैं, ठीक वैसे  ही हम अपने आध्यात्मिक जीवन में  गुरुदेव से एक गहन संबन्ध रखते हैं। जब तक हम अपने भजन-पथ में गुरुदेव की अतिशय अनिवार्यता  को नहीं समझेंगे तब तक हम आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकते। यही गुर्वात्मदैवत:   कहलाता है। यह शब्द हमारे गौड़ीय संप्रदाय की धरोहर है। हम अनेक आध्यात्मिक तथा भौतिक अवरोधों का सामना करते हैं और इन अवरोधों को पार करने के लिए कभी-कभी दुविधा में पड़ जाते हैं, “क्या मैं यह करूँ या वह करूँ”। परंतु एक वास्तविक शिष्य भक्ति-जीवन का सूत्र और सही रास्ता जानता है, “कृष्ण ने मुझे गुरुदेव के हाथों में सौंप दिया है। उन्होंने मुझे आश्रय प्रदान कर मुझे अपना लिया है। अत: मुझे केवल उनकी कृपा तथा प्रेम की आवश्यकता है। उनके अतिरिक्त कौन मेरी सहायता कर सकता है? मैं पापी एवं दुखी व्यक्ति हूँ,  एक महान अपराधी हूँ और साथ ही  अपने आध्यात्मिक जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना कर रहा हूँ, किंतु मुझे यह भली-भाँति ज्ञात है कि मेरे गुरुदेव के चरणकमलों की धूल का एक कण इतना सशक्त है है   कि वह मेरे जीवन की सारी समस्याओं का समाधान करने में पूर्ण सामर्थ्य  रखता है। इसलिए भजन पथ के प्रत्येक सोपान पर मैं केवल अपने गुरुदेव के मुखकमल की ओर ही देखूँगा  कि क्या वे मेरी सेवा और भजन से प्रसन्न हैं या नहीं । क्योंकि कृष्ण की प्रसन्नता उनकी प्रसन्नता पर निर्भर करती है। “जब वे मेरी सेवा से प्रसन्न हो जाएँगे, तब वे मुझे भजन करने का रहस्य प्रदान करेंगे और मुझे आध्यात्मिक शक्ति से संचारित कर देंगे। वही मेरी वास्तविक संपत्ति होगी। मुझे पद्वी या ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं, अपितु गुरुदेव की हृदयानुभूति   श्रवण करने हेतु सदैव उनके निकट रहना है। मुझे उनकी अमूल्य संपत्ति प्राप्त करने की तीव्र लालसा विकसित करनी है और उसके लिए मैं अत्यधिक लोभी हूँ।” हमारा ऐसा मनोभाव होना चाहिए।

यदि कोई गुरु के समक्ष अपना हृदय नहीं व्यक्त नहीं कर पाता, तो वह उनसे अमूल्य रत्न प्राप्त कैसे करेगा? गुरु और शिष्य के मध्य का संबंध अत्यंत गहरा और प्रीतिपूर्ण होता है जिसकी गहराई असीमित है, इसलिए हम गुरु-पूजा में गाते हैं, ‘जन्मे-जन्मे प्रभु सेइ’। वास्तव में [वर्तमान में ] गुरुदेव हमारे प्रिय नहीं हैं, किंतु जब प्रियत्व व आत्मीयता की भावना अत्यधिक प्रगाढ़ हो जाएगी, तो वही भावना प्रेम को जन्म देगी। हम सबको अपनी हार्दिक इच्छाऍं नहीं बतला सकते। गुरुदेव हमारे हृदय के स्वामी तथा ईश्वर हैं, इसलिए हमें उनके समक्ष अपना हृदय व्यक्त करना होगा। हम अनेक दोषों, गलत आदतों व संस्कारों के साथ उनका आश्रय ग्रहण करते हैं, उस समय हमारी भावना यही रहती है, “यद्यपि मैं अत्यंत निकृष्ट, पापी और दांभिक व्यक्ति हूँ, किंतु फिर भी मैं आपका बनना चाहता हूँ।” विनम्र तथा आशा से पूर्ण मनोभाव के साथ हमें अपना शरीर, मन, प्राण तथा सर्वस्व  श्रीगुरु के चरणकमलों में समर्पित करना होगा। तभी हम हृदय में आंतरिक संरक्षण का अनुभव कर सकेंगे और समझ सकेंगे कि गुरुदेव सर्वदा मेरा मार्गदर्शन, संरक्षण और पालन कर रहे हैं। केवल इतना ही नहीं, हमारे असंख्य दोष होने के बावजूद वे शरीर से नहीं, अपितु अपने प्रेम तथा स्नेह द्वारा हमारा गाढ़ आलिंगन करेंगे।

परंतु हम में से कितने भक्त इस भावना के साथ गुरुदेव के चरणों में आश्रित हैं? सरलता अनिवार्य है। यदि हम सरलतापूर्वक अपना हृदय एवं मन पूर्ण रूप से गुरुदेव के लिए खोल देंगे, तो गुरुदेव हमारे लिए गोलोक वृंदावन का गुह्यतम सदन खोल देंगे।

यदि हम ध्यानपूर्वक देखे, तो इस भौतिक जगत में गुरु और शिष्य जैसा सुदृढ़ तथा अटूट संबंध कोई दूसरा नहीं है। वास्तविक भजन व भक्ति तब आरंभ होती है जब गुरुदेव के साथ हमारा संबंध इस स्थिति प्राप्त कर लेता है: गुर्वात्मदैवत:। बाह्य दृष्टिकोण से गुरुदेव संन्यासी या परमहंस हो सकते हैं, परंतु एक सच्चे शिष्य के लिए वे सदैव देव हैं। यदि हमारा उनके प्रति देवता (भगवान के समान) भाव नहीं है, तो यह उनके साथ हमारे संबंध में कमी या दूरी दर्शाता है। यह केवल प्रचार या बुद्धिमता के लिए कही गई बाते नहीं है, अपितु आध्यात्मिक जीवन के गुह्यतम ज्ञान को प्राप्त करने के लिए इस मनोभाव का होना अनिवार्य है। हमें स्वयं को आश्वस्त करना होगा कि गुरुदेव हमें कृष्ण प्रदान करने में, हमारा दायित्व लेने में और अपनी कृपा वर्षित करने में पूर्णत: समर्थ हैं। उनकी कृपा से असंभव भी संभव हो सकता है।

गुरुदेव की कृपा से हमारा जीवन न केवल सर्वमंगलमय हो जाएगा, अपितु उनकी कृपादृष्टि से एक क्षण में हमारे आध्यात्मिक जीवन के सभी अनर्थ तथा अवरोधक भी  विनष्ट हो जाएँगे। जिस भक्त की गुरुदेव के प्रति दृढ़ श्रद्धा और प्रियत्व भाव होता है वह पूर्ण रूप से निर्भीक हो जाता है। जिस प्रकार राजा के पुत्र की अनुमति के बिना किसी को भी फाँसी नहीं दी जा सकती उसी प्रकार एक वास्तविक शिष्य का मनोभाव भी कुछ ऐसा ही होता है, “गुरुदेव और कृष्ण मेरे स्वामी हैं। मैंने स्वयं को एक पशु की तरह उनके चरणकमलों में बेच दिया है। वे ही मेरे रक्षक एवं पालक हैं और मेरी सभी जिम्मेदारियाँ सम्हालना अब उनका दायित्व है।” दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात एक वास्तविक शिष्य का यही भाव विकसित हो जाता है। हम जाने-अंजाने में अनेक भूल तथा अपराध करते हैं।  ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण हमें हमारे अपराधों व पापों के लिए कभी क्षमा नहीं करेंगे। परंतु हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि जब राजा एक अपराधी को फाँसी दण्ड देता है, तो राजा के पुत्र  के अतिरिक्त कोई दूसरा व्यक्ति उस अपराधी की रक्षा नहीं कर सकता। यदि पुत्र राजा से निवेदन करता है, “कृपया इस अपराधी को क्षमा कर दीजिए”, तब राजा क्या कर सकता है? उसी प्रकार जब गुरुदेव हमारे लिए कृष्ण से निवेदन करेंगे, तो कृष्ण अवश्य ही हमें क्षमा कर देंगे। अत: हमें अपने जीवन में श्रीगुरुदेव के संग के महत्त्व को समझना होगा।

दासानुदास

हलधर स्वामी

   

 

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