श्री गदाधर पंडित का जीवन-चरित

 

मंगलाचरण

श्री श्रीमद गौर गोविन्द स्वामी महाराज द्वारा संकलित। वे श्रीचैतन्य चरित्रामृत पर प्रवचन देने से पूर्व सदैव निम्नलिखित श्लोकों का उच्चारण करते थे।

ऊँ अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।

चक्षुर उन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम:

 

“मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आँखें खोल दीं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।”

 

श्रीचैतन्य मनोभीष्टं स्थापितं येन भूतले।

स्वयं रूप: कदा मह्यं ददाति स्वपदांतिकम ॥

 

“श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे, जिन्होंने इस जगत में भगवान चैतन्य की इच्छापूर्ति के लिए प्रचार अभियान की स्थापना की है?”

 

वंदे अहं श्रीगुरो: श्रीयुतपदकमलं

श्रीगुरून वैष्णवांश च

श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथानवितं तं सजीवम।

साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं

श्रीराधाकृष्णपादान सहगणललिताश्रीविशाखान्वितांश च ॥

 

“मैं अपने गुरु तथा समस्त वैष्णवों के  चरणकमलों को नमस्कार करता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके अग्रज श्रील सनातन गोस्वामी सहित श्री रघुनाथदास, श्रीरघुनाथभट्ट, श्रीगोपालभट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के चरणकमलों में  सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान श्री कृष्णचैतन्य तथा भगवान नित्यानंद के साथ श्री अद्वैत आचार्य, श्रील गदाधर पण्डित, श्रीवास तथा अन्य पार्षदों को सादर प्रणाम करता हूँ। मैं श्रीललिता देवी, श्रीविशाखा देवी एवं अन्य सखि-मंजरियों सहित श्रीराधा-कृष्ण के पदकमलों में सादर नमस्कार करता हूँ।

 

हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते ।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोस्तुते ॥

 

हे कृष्ण! आप करुणा के सागर है। आप दीनजनों के सुहृद तथा सृष्टी के स्त्रोत हैं। आप गोप-गोपियों के स्वामी तथा विशेष रूप से श्रीमती राधारानी के अत्यंत प्रिय  हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।

 

तप्त-कांचन गौरांगी राधे वृन्दावनेश्वरी ।
वृषभानु सुते देवी, प्रणमामि हरी प्रिये ॥

 

मैं राधारानी को प्रणाम करता हूँ जिनकी शारीरिक काँति पिघले सोने के सदृश है, जो वृन्दावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानू की पुत्री हैं और भगवान् श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं।

 

वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिंधुभ्य एव च

पतितानाम् पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ॥

 

मैं भगवान के उन समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ जो सब की इच्छा को पूर्ण करने के लिए कल्पतरु के सामान है, दया के सागर है तथा पतितों का उद्धार करने वाले हैं।

 

नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते

कृष्णाय कृष्णचैतन्यनाम्ने गौरत्विषे नमः ॥

 

हे परम करुणामय अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं| (श्री चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला 19.53)

 

यदद्वैतम ब्रहमोपनिषदी तद्प्स्य तनु-भा

य आत्मान्तर्यामी पुरुषा इति सोस्यांश-वैभव:।

षड-एश्वर्ये: पूर्णों य इह भगवान्स स्वयमयम

न चैतन्यात्कृष्णज्जग्ती पर-तत्वम परमिह॥

 

“जिसे उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म कहा गया है, वास्तव में वह उनके शरीर का तेजमात्र है और जो भगवान परमात्मा के रूप में जाने जाते हैं, वे उनके अंशमात्र हैं। भगवान चैतन्य छहों एश्वर्यों से युक्त स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण हैं। वे परम सत्य हैं और कोई भी अन्य सत्य न ही उनसे बड़ा है, न ही उनके तुल्य है।” (श्री चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला 1.3)

 

 

राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद

एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदम गतौ तौ ।

चैतन्याख्यम प्रकटमधुना तद्द्व्यम चैक्यमाप्तं

राधा-भाव-धुती-सुवलितम नौमी कृष्ण-स्वरूपम॥

 

“श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान की अंतरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गये हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारनी के भाव तथा अंगकांति के साथ प्रकट हुए हैं।” (श्री चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला 1.5)

 

चिरादद्त्तं निज-गुप्त-वितं

स्व-प्रेम-नामामृतंत्युदार: ।

आ-पामरं यो विततार गौर:

कृष्णो जनेभ्यस्तम अहं प्रपद्ये ॥

 

“गौरकृष्ण नाम से विख्यात सर्वाधिक वदान्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने हर एक को—यहाँ तक कि अधम से अधम व्यक्तियों को भी अपने प्रेम तथा अपने पवित्र नाम के अमृत-रूपी गुह्य खजाना बाँटा। यह इसके पहले कभी भी सामान्य लोगों को नहीं दिया गया था। अतएव मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।” (श्री चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला 23.1)

 

गौर: सच्चरितामृतामृतनिधि: गौरं सदैव-स्तवे

गौरेण प्रथितं रहस्यभजनं गौराय सर्वं ददे ।

गौरादस्ति कृपालु-रत्र न परो गौरस्य भ्रित्योऽभवम्

गौरे गौरवमाचरामि भगवन गौर-प्रभो रक्ष माम॥

 

“जिनकी दिव्य, प्रेमोन्मत्त करने वाली लीलाएँ अमृत की निरवधि नदी के समान हैं, ऐसे श्रीमन गौरांग महाप्रभु की मैं स्तुति करता हूँ। उन्होंने हमें गुह्य भक्तिमय सेवा का पथ प्रदान किया है। अत: मैं उनके चरणकमलों में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाऊँगा। क्या उनसे अधिक दयालु कोई है? मैं उनका सेवक बनूँगा और उनकी महिमा का प्रचार करूँगा। हे मेरे प्रभु गौर! कृपया मेरी रक्षा कीजिए।” [श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी विरचित गौरांग विरुदावली, श्लोक 110]

 

माधुर्ये-मधुभि: सुगम्भि-भजन स्वर्णाम्भु जानां वनम

कारुण्यामृत निर्झरैर उपचितह सत्प्रेम हेमाचल:।

भक्ताम्बोधर धारणी वि जयनी निष्कम्प सम्पावली

दैवो न: कुल दैवतां वि जयतां चैतन्य-कृष्ण-हरि:॥

 

“जो गौरवर्ण धारण कर माधुर्य रस के सर्वाकर्षक दिव्य रसों में पूर्ण रूप से डूबे रहते हैं, ऐसे श्रीचैतन्य महाप्रभु की मैं आराधना करता हूँ। मेरी आशा है कि जिस दिव्य कृष्ण-प्रेम का वितरण महाप्रभु कर रहे हैं, वह प्रेम संपूर्ण पृथ्वी पर अमृत के झरने की भाँति वर्षित हो! श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!”

 

अजानुलम्बित्भुजौ कनकावदातौ,

संकीर्तनैकपितरौ कमलायताक्षौ ।

विश्वम्भरौ द्विजवरौ युगधर्मपालौ,

वंदे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥

 

“जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, जिनका सुंदर वर्ण पिघले हुए स्वर्ण के समान देदीप्यमान हैं और जिनके दो नयन कमलदल सदृश विस्तीर्ण हैं, जो हरिनाम के एकमात्र पिता, समस्त संसार का भरण पोषण कर्ता, युगधर्म रक्षक, सभी जीवों के सर्वोत्तम शुभचिंतक, ब्राह्मणों में शिरोमणी और सर्वाधिक करुणामय अवतार हैं, ऐसे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु और श्रीनित्यानंद प्रभु की मैं वंदना करता हूँ।” (श्रीचैतन्य भागवत आदिखंड 1.1)

 

अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ

समर्पयितुमुन्न्तोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्‌ ।

हरिः पुरट-सुंदर-द्युति-कदम्ब-संदीपितः

सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नंदनः ॥

 

“श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय की गहराई में दिव्य रूप से विद्यमान हों। पिघले सोने की आभा से दीप्त, वे कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व किसी अवतार ने नहीं प्रदान किया था, प्रदान करने के लिये अवतीर्ण हुए हैं।” (विदग्ध माधव 1.2,  श्री चैतन्य- चरितामृत आदि-लीला 1.4 उद्धरित)

 

श्रीकृष्ण-चैतन्यदेव रति-मति भवेभज

प्रेमकल्पतरुबरदाता

श्रीव्रजराजनंदन राधिकाजीवनधन

अपरूप एइ सब कथा

 

“हे भ्राता! कृष्ण के विशुद्ध-प्रेम रूपी कल्प वृक्ष का निरपेक्ष भाव से वितरण करने वाले महान दार्शनिक श्रीकृष्ण चैतन्यदेव की आराधना करो। श्रीचैतन्य महाप्रभु वास्तव में स्वयं व्रजराज नंद के पुत्र और श्रीमती राधारानी के प्राणप्रिय श्रीकृष्ण हैं। उनका वर्णन भौतिक नहीं, अपितु पूर्ण रूप से आध्यात्मिक है।” [प्रेम-भक्ति-चंद्रिका श्लोक 12]

 

नवद्वीपे अवतरि’ राधा-भाव अंगीकरि’

ताँर कांति अंगेर भूषण

तीन वाँछा अभिलाषी’ शचि-गर्भे परकाशि’

संगे लाँय परिषदगण

 

“भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणवल्लभा श्रीमती राधारानी के अद्वितीय प्रगाढ़ प्रेम को समझने के लिए नवद्वीप में प्रकट हुए। उन्होंने श्रीमती राधारानी की कांति को अपने शारीरिक आभूषण के रूप में स्वीकार किया। तीन अभिलाषाओं की पूर्ती हेतु वे शचिमाता के गर्भ में अवतरित हुए। जब भगवान इस तरह भौतिक संसार में प्रकट हुए, तो उनके पार्षदगण भी उनका अनुसरण करते हुए इस जगत में प्रकट हुए।” [प्रेम-भक्ति-चंद्रिका श्लोक 13]

 

गौर-हरि अवतरि प्रेमेर वादर करि’

साधिला मनेर तीन काज

राधिकार प्राणपति किवा भावे काँदे निति

इहा बुझे भकत-समाज

 

“भगवान गौरवर्णरूपी श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने कृष्ण के विशुद्ध-प्रेम का प्रचार किया। इस तरह उन्होंने अपने मन की तीन इच्छाओं की पूर्ती की। केवल भक्त ही यह समझ सकते हैं कि श्रीकृष्ण, जो श्रीमती राधारानी के प्राणनाथ हैं, ने प्रेमोन्माद में किस प्रकार निरंतर अद्भुत क्रंदन किया।” [प्रेम-भक्ति-चंद्रिका श्लोक 14]

 

उत्तम अधम किछु ना बाचिल याचिया दिलेक कोल

कहे प्रेमानंद एमन गौरांग हृदये धरिया बोल

भज गौरांग कह गौरांग लह गौरांग नाम (रे)

ये जन गौरांगे भजे सेइ हय आमार प्राण (रे)

[प्रेमानंद दास]

 

“उत्तम या अधम का विचार किए बिना और सभी प्रकार के भेदभाव से पूर्णत: रहित होकर सचिमाता के पुत्र सभी जीवों को अपने परम और्दार्यमय, प्रेमपूर्ण आलिंगन द्वारा स्वीकार करते हैं। इसलिए प्रेमानंद दास सभी से हृदय के सर्वाधिक आंतरिक भाग में सचिमाता के पुत्र को धारण कर, निरंतर श्रीकृष्ण के दिव्य मधुर नाम का कीर्तन करने की भिक्षा माँगते हैं। गौरांग महाप्रभु की आराधना करिए! उनके विषय में कहिए! कृपया गौरनाम का उच्चारण करिए! जो भी ऐसा करता है, वह मेरे प्राण एवं आत्मा है।”

 

यस्यैव पादाम्बुज-भक्ति-लाभ्य:

प्रेमाभिधान: परम: पुमर्थ:

तस्मै जगन-मंगल-मंगलाय

चैतन्य-चंद्राय नमो नमस्ते

 

“हे श्रीचैतन्य चंद्र! आपके चरणकमलों की भक्तिमय सेवा करने से एक जीव परम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति विशुद्ध प्रेम विकसित कर सकता है, जोकि सभी प्रयासों का अंतिम फल है। हे श्रीचैतन्य चंद्र! आप इस जगत का मंगलस्वरूप हैं, अत: मैं बारंबार आपके चरणकमलों में अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ।” [श्रील प्रभोधानंद सरस्वती, श्री चैतन्य चंद्रामृत, श्लोक 9]

 

आनंद-लीलामय-विग्रहाय

हेमाभदिव्य-छवि-सुंदराय ।

तस्मइ महाप्रेम-रस-प्रदाय

चैतन्य चंद्राय नमो नमस्ते ॥

 

“हे श्री चैतन्य चंद्र! हे प्रभु! जिनका स्वरूप आनंदमय लीलाओं से परिपूर्ण है, जिनका वर्ण सोने के समान देदीप्यमान है, जो दान में श्रीकृष्ण के विशुद्ध प्रेम का अमृत प्रदान करते हैं, मैं आप को सादर प्रणाम करता हूँ।” (श्री चैतन्य-चंद्रामृत श्लोक 11)

 

श्री गदाधर पण्डित का जीवन-चरित

    

 सेइ सेइ, - आचार्येर कृपार भजन।

अनायासे पाइल सेइ चैतन्य-चरण॥

 

“अद्वैत आचार्य की कृपा से जिन भक्तों ने चैतन्य महाप्रभु के मार्ग की दृढ़ता से पालन किया, उन्हें चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का आश्रय सहज की प्राप्त हो गया।” [चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 12.74]

 

अच्युतेर येइ मत, सेइ मत सार।

आर यत मय सब हैल छारखार॥

 

“अतएव यह निष्कर्ष यह निकलता है कि अच्युतानंद का मार्ग ही आध्यात्मिक जीवन का सार है। जिन लोगों ने इस मार्ग का पालन नहीं किया, वे मात्र तितर-बितर होकर रह गये।” [चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 12.75]

 

सेइ आचार्य-गणे मोर कोटि नमस्कार।

अच्युतानंद-प्राय, चैतन्य – जीवन याँहार॥

 

“अत: मैं अच्युतानंद के उन असली अनुगामियों को कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ, जिनके जीवनाधार श्री चैतन्य महाप्रभु थे।” [चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 12.76]

 

एइ त’ कहिल आचार्य-गोसाइंर गण।

तिन स्कंध-शाखार कैल संक्षेप गणन॥

 

“इस तरह मैंने संक्षेप में श्री अद्वैत आचार्य के वंशजों की तीन शाखाओं (अच्युतानंद, कृष्ण मिश्र तथा गोपाल) का वर्णन किया है।” [चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 12.77]

 

शाखा-उपशाखा, तार नाहिक गणन

किछु-मात्र कहि’ करि दिग्दरशन॥

 

“ अद्वैत आचार्य की असंख्य शाखाएँ तथा उपशाखाएँ हैं। उन सबकी पूर्णरूपेण गणना कर पाना अत्यंत कठिन है। मैंने तो पूरे तने तथा इसकी शाखाओं-उपशाखाओं की झाँकी मात्र प्रस्तुत की है।” [चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 12.78]

 

श्री-गदाधर पण्डित शाखाते महोत्तम।

ताँर उपशाखा किछु करि ये गणन॥

 

“अद्वैत आचार्य की शाखाओं तथा उपशाखाओं का वर्णन करने के बाद मैं अब श्री गदाधर पण्डित के कुछ वंशजों का वर्णन करने का प्रयास करूँगा, क्योंकि यह प्रधान शाखाओं में से एक है।” [चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 12.79]

 

अगम अगोचरा गोरा अखिल ब्रह्म-पर वेद उपर,

ना जाने पाषण्डी मति-भोरा

नित्य नित्यानंद चैतन्य गोविंद पण्डित गदाधर राधे

चैतन्य युगल-रूप केवल रसेर कूप अवतार सदा-शिवे साधे

अंतरे नव-घन बाहिरे गौरतनु युगल-रूप परकाशे

कहे वासुदेव घोष युगल-भजन-रसे जनमे जनमे रहु आशे

 

“भगवान गौरसुंदर, जो वेदों की परिधि के परे हैं, कभी भी बुद्धिहीन नास्तिकों द्वारा समझे नहीं जा सकते। नित्यानंद प्रभु उनके नित्य स्वरूप हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान गोविंद हैं और गदाधर पण्डित कोई अन्य नहीं, अपितु स्वयं श्रीराधा हैं। यह दिव्य युगल, जो श्रीचैतन्य महाप्रभु में उपस्थित हैं, वास्तव में प्रेममयी रसों का सागर हैं। अद्वैत आचार्य (सदाशिव) ने उनके अवतरण के लिए घोर प्रार्थना की थी। यह युगल रूप अंदर से श्याम वर्ण, किंतु बाह्य गौरवर्ण धारण करके श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुआ है। अत: वासुदेव घोष इस दिव्य युगल, श्री गदाइ-गौरांग की अद्भुत सुंदरता का गान करते हैं, जिनकी सेवा में वह पूर्ण रूप से वशीभूत हो गए हैं और उनसे जन्म-जन्मांतर उनकी सेवा में नियुक्त रहने की प्रार्थना करते हैं।” [श्री वासुदेव घोष ठाकुर विरचित श्री-साधन-दीपिका]

 

श्री गदाधर पण्डित के (कुल/भक्तियोग की शाखा) के विषय में चर्चा करने से पूर्व, मैं उनके सुपवित्र जीवन चरित का विवरण करूंगा, जिसे वैष्णवों को जानना आवश्यक है।

 

गौर लीला में श्रीमती राधारानी ही गदाधर पण्डित हैं

 

श्रीगौरगणोद्देश-दीपिका में सूचित किया गया है कि कृष्ण-लीला में वृषभानु-सुता, श्रीमती राधारानी ही गौर-लीला में श्री गदाधर पण्डित के रूप में प्रकट हुई हैं। श्री स्वरूप दामोदर गोस्वामी अपने (ज्ञापन -kadaca) में इसका प्रमाण देते हैं तथा श्री वासुदेव घोष ठाकुर भी ने भी यही उल्लेख किया है -

 

नित्य नित्यानंद चैतन्य गोविंद पण्डित गदाधर राधे

चैतन्य युगल-रूप केवल रसेर कूप अवतार सदा-शिवे साधे

अंतरे नव-घन बाहिरे गौरतनु युगल-रूप परकाशे

कहे वासुदेव घोष युगल-भजन-रसे जनमे जनमे रहु आशे

 

श्रीकृष्ण एवं श्रीमती राधारानी दोनों गौर-रूप में प्रकट हैं। आंतरिक रूप से श्रीगौरांग महाप्रभु नवीन नीरद के समान श्याम-वर्णीय कृष्ण हैं और बाह्य रूप से उन्होंने पिघले हुए सोने की अंगकांति, गौर-वर्ण धारण किया है। वृषभानु-नंदिनी श्रीमती राधारानी गदाधर पण्डित के रूप में प्रकट हुई हैं। अतः ब्रज नव युगल-स्वरूप श्रीमती राधारानी और श्रीकृष्ण नवद्वीप में श्रीगौर गदाधर के रूप में प्रकट हुए हैं। श्रीगौरांग महाप्रभु के प्रियस्त परिकर वासुदेव घोष व्यक्त करते हैं, “मेरी एकमात्र आकांक्षा इस युगल रूप की जन्म-जन्मांतर सेवा में नियुक्त रहने की है।”

 

महाप्रभु और गदाधर अन्तरंग संगी थे -

 

श्री गदाधर पण्डित अपनी तरुणावस्था से ही महाप्रभु के घनिष्ट मित्र थे। उनके पिता का नाम माधव मिश्र एवं माता का नाम रत्नावती देवी था। वे मायापुर में श्री जगन्नाथ मिश्र के घर के निकट ही निवास करते थे। रत्नावती देवी शचिमाता का अपनी अग्रजा के सदृश्य आदर करती थीं और सदा उनकी सुसंगत में रहती थीं। अपनी मनोहर बाल-लीला प्रकट करते समय, श्रीचैतन्य महाप्रभु और गदाधर पण्डित एकसंग खेलकूद करते थे। कभी वे शचिमाता के आँगन में खेलते थे तो कभी रत्नावती देवी के आँगन में बाल-क्रीड़ा करते थे। वे दोनों की पाठशाला में शिक्षण ग्रहण किया करते थे। गदाधर पण्डित आयु में महाप्रभु से एक-दो वर्ष छोटे थे तथा वे दोनों एक दूसरे का संग कभी नहीं छोड़ना चाहते थे।

 

गदाधर-प्राणनाथ

 

पण्डितेर भाव-मुद्रा कहन ना याय।

गदाधर-प्राणनाथ नाम हइल याय ॥

 

“कोई भी व्यक्ति गदाधर पण्डित की भाव-भंगिमाओं तथा प्रेम का वर्णन नहीं कर सकता। इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु का दूसरा नाम ‘गदाधर प्राणनाथ’ अर्थात् ‘गदाधर पण्डित के प्राण’ है।”

पण्डिते प्रभुर प्रसाद कहन ना याय।

गदाइर गौरांग’ बलि’ याँरे लोके गाय॥

 

“कोई कह नहीं सकता कि महाप्रभु गदाधर पण्डित पर कितने कृपालु हैं। वास्तव में लोग महाप्रभु को ‘गदाइर गौरांग’ अर्थात् ‘गदाधर पण्डित के गौरांग महाप्रभु’ के रूप में जानते हैं।” [श्री चैतन्य चरितामृत अंत्य-लीला 7.163-164]

 

श्रीचैतन्य भागवत में वर्णन है कि जब ईश्वर पुरी नवद्वीप, मायापुर में श्री गोपीनाथ आचार्य के घर कुछ माह के प्रवास हेतु आए थे, तब उन्होंने श्री गदाधर पण्डित को स्वरचित ग्रन्थ कृष्ण-लीलामृत का अध्ययन करने हेतु अनुरोध किया 

 

गदाधर पण्डितेरे आपनार कृत।

पुंथि पढ़ायेन नाम ‘कृष्ण-लीलामृत’॥

[चैतन्य भागवत, आदि-खण्ड 11.100]

 

गदाधर पण्डित श्री गौरसुंदर की चंचलता को प्रोत्साहित नहीं करते थे

 

अपने प्रारंभिक जीवनकाल से ही गदाधर पण्डित गंभीर एवं शांत स्वभाव के थे तथा एकांत वास में रुचि रखते थे। वे भौतिक गतिविधियों से पूर्णतया विरक्त थे, वहीं श्री गौरसुंदर अपने बाल्य-काल में अत्यंत चंचल थे। गदाधर पण्डित श्री गौरसुंदर के चंचल स्वभाव को प्रेरित नहीं करते थे और इसी कारण से वे प्रायतः श्री गौरसुंदर से दुराव रखते थे, किंतु गौरसुंदर कभी भी गदाधर का संग नहीं छोड़ना चाहते थे। कभी-कभी गौरसुंदर उनसे कहते थे, " गदाधर, एक दिन आप देखेंगे कि कुछ समय पश्चात मैं भी आपके जैसा वैष्णव बन जाऊँगा। तब ब्रह्मा, शिव और समस्त देवगण हमारे घर पधारेंगें।"

 

श्री पुण्डरीक विद्यानिधि प्रगाड़ भौतिकवादी प्रतीत होते हैं

 

मुकुंद दत्त श्री गदाधर पण्डित को अत्यंत प्रिय थे। जब भी नवद्वीप में किन्हीं साधु-वैष्णव का आगमन होता, मुकुंद दत्त श्री गदाधर पण्डित को सूचित कर देते और वे दोनों उन साधु-वैष्णव के दर्शन करने जाते थे।

एक समय, जब श्री पुण्डरीक विद्यानिधी नवद्वीप में आए थे, तब मुकंद दत्त श्री गदाधर पण्डित के साथ उनके दर्शन के लिए गए। बाह्य दृष्टि से, श्री पुण्डरीक विद्यानिधी एक भौतिकवादी के सदृश प्रतीत हो रहे थे। उन्होंने भव्य वस्त्र धारण किए थे और उनकी सर्व-अंगुलियाँ बहुमुल्य रत्न और मणियों से सुसज्जित स्वर्ण मुद्रिकाओं से अलंकृत थीं। वे पान का सेवन कर स्वर्ण पात्र में निष्ठीव कर रहे थे। उन्हें मखमल की गद्दी पर विराजमान देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो  एक महान भौतिकवादी  विषयासक्त जीवन का आनंद उठा रहे हों, किंतु यह केवल एक बाह्य प्रदर्शन ही था। श्री पुण्डरीक विद्यानिधी वास्तव में एक महा-भागवत थे, किंतु कोई भी उनकी वास्तविकता का अनुभव नहीं कर सका। इसे वंचन कहा जाता है। साधु की दो विशेषताएँ होती हैं - कृपा और वंचन। जो व्यक्ति कृपा के योग्य होते हैं, वे साधु की कृपा लाभ करते हैं और जो कपटता के अधिकारी होते हैं, वे वंचन के पात्र बनते हैं। वास्तविक साधु भलीभाँति जानते हैं कि आप कृपा प्राप्त करने के योग्य हैं या वंचन। इसी प्रकार से, श्री पुण्डरीक विद्यानिधी की भौतिक बाह्यरूप उनकी प्रवंचना थी। उनकी इस वेशभूषा का दर्शन करके गदाधर पण्डित विचार करने लगे, "मुकुंद दत्त मुझे ऐसे भौतिकवादी से भेंट कराने क्यों लाए हैं? यह व्यक्ति एक भौतिकवादी क्यों प्रतीत हो रहे हैं?" किंतु मुकुंद दत्त श्री पुण्डरीक विद्यानिधी की श्रेष्ठ स्थिति से अभिज्ञ थे। वे जानते थे कि श्री पुण्डरीक विद्यानिधी एक महा-भागवत एवं वरिष्ट वैष्णव हैं। इस बात का बोध होते ही उन्होंने तत्क्षण श्रीमद् भागवतम के सुप्रसिद्ध श्लोक का उच्चारण किया।

 

श्री कृष्ण केवल सद्गुण स्वीकार करते हैं

 

अहो बकी यं स्तनकालकूटं

जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।

लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं

कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥

[श्रीमद्-भागवतम 3.2.23]

 

बकी (बकासुर की बहन) अर्थात पूतना ने अपने स्तनों को भीषण विष से लिप्त कर दिया और नवजात शिशु कृष्ण को स्तनपान कराने लगी। यद्यपि, उसका उद्देश्य कृष्ण को मारने का था, किंतु उसने माता यशोदा के समान कृष्ण को अपना स्तनपान करवाया, जो एक माँ का कर्तव्य होता है। इसीलिए, कृष्ण ने उसका यह सद्गुण स्वीकार किया। पूतना का स्तनपान करते हुए, कृष्ण ने उसके प्राणों को भी खींच लिया। क्या कोई शिशु इस प्रकार किसी के प्राण ले सकता है? अतएव किसी को भी यह विचारना नहीं रखनी चाहिए कि कृष्ण साधारण शिशु हैं, वे परम भगवान हैं। कम वा दयालुम शरणम् व्रजेम, इस श्लोक का तात्पर्य है कि कृष्ण अतिशय करुणाशील हैं कि वे केवल हमारे सद्गुण ही स्वीकार करते हैं। अंततः पूतना की मृत्यु हुई परन्तु कृष्ण ने उसे माता का स्थान प्रदान किया।

 

गदाधर पण्डित से घोर अपराध हुआ

 

जिस क्षण मुकुंद दत्त ने अपने मधुर स्वर में इस श्लोक का उच्चारण किया, श्री पुण्डरीक विद्यानिधी का आंतरिक भाव प्रेमोन्माद से उमड़ता गया। श्रीमद् भागवतम् के इस श्लोक में वर्णित श्रीकृष्ण की अप्रतिम लीला का श्रवण करते ही, वे भावविभोर हो उठे और "कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण" नाम का उच्चारण करने लगे। वे नेत्रों से अश्रुपात कर तल पर  लोटने लगे और उन्होंने अपनी गद्दी, स्वर्ण-पात्र एवं समस्त वस्तुओं को अपने पदकमलों से विक्षेपित कर दिया। उन्मादपूर्ण स्थिति प्रकट होते ही उनके अश्रु गंगा की धारा के अनुरूप प्रवाहित होने लगे, गंगा रहिलात्वः और अंततोगत्वा वे मूर्छित हो गए। गदाधर पण्डित उनकी इस स्थिति का दर्शन करके लज्जित हो गए और मन में स्वयं को कोसने लगे, " यह मुझसे क्या हो गया? मैनें एक महा-भागवत को भौतिकवादी समझकर एक जघन्य अपराध किया है। मैं अपने इस अपराध के दोष से कैसे मुक्त हो पाऊँगा? मैं दंडनीय हूँ। मुझे अवश्य दंड मिलना चाहिए। यदि मुझे इन महाभागवत ने दंडित न किया, तो मेरे अपराध नष्ट नहीं हो सकेंगें। अतः मुझे इनका शिष्य बनकर मंत्र प्राप्त करना होगा।  फिर ही वे मुझे इस अपराध के लिए दंडित करेंगें।

 

पुण्डरीक विद्यानिधी को एक अनमोल रत्न प्राप्त हुआ

 

मुकुंद दत्त ने श्री पुण्डरीक विद्यानिधी को गदाधर पण्डित का परिचय दिया और उनका मनोभाव प्रकट किया। यह सुनते ही श्री पुंडरीक विद्यानिधी अत्यधिक प्रसन्न हुए।

 

शुनिया हासेन पुण्डरीक विद्यानिधि।

आमारे त’ महारत्न मिलाइला विधि॥

 

“यह श्रवण कर पुण्डरीक विधानिधि हँसते हैं और कहते हैं, “विधाता की व्यवस्था से मुझे आज एक अमूल्य रत्न प्राप्त हुआ है।” [चैतन्य भागवत, मध्य-खण्ड 7.117]

 

कराइमु, इहाते संदेह किछु नाइ।

बहु जन्म-भाग्ये से एमत शिष्य पाइ॥

 

“मैं निश्चित रूप से इन्हें दीक्षा प्रदान करूँगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। सौभाग्य के कारण, अनेक जन्मों के पश्चात किसी को ऐसा शिष्य प्राप्त होता है।” [चैतन्य भागवत, मध्य-खण्ड 7.118]

 

श्री पुण्डरीक विद्यानिधी ने गदाधर पण्डित से अत्यंत प्रसन्न हुए और उनकी प्रशंसा करने लगे, "मैं अत्यंत सौभाग्यशाली हूँ कि आप मुझे शिष्य के रूप में प्राप्त हुए। परमेश्वर ने अपनी असीम कृपा से मुझे ऐसा शिष्य प्रदान किया है। जब तक कोई भाग्यवान न हो, उसे आपके जैसा शिष्य प्राप्त नहीं हो सकता। मैं अवश्य इन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करूंगा और मंत्र प्रदान करूंगा।"

अतः गदाधर पण्डित ने श्री पुण्डरीक विद्यानिधी से एक शुभ दिवस पर मंत्र ग्रहण किया और वे उनके मंत्र-शिष्य बन गए।

 

आप तीर्थों को भी पवित्र करने वाले हैं

 

प्रभु बले, - “गया-यात्रा सफल आमार।

यत-क्षणे देखिलाँया चरण तोमार॥

भगवान ने कहा, “जिस क्षण मैंने आपके चरणकमलों का दर्शन किया, उसी क्षण मेरी गया-यात्रा सफल हो गई थी।” [चैतन्य भागवत, आदि-खण्ड 17.50]

 

तीर्थे पिण्ड दिले से निस्तारे पितृगण।

सेह, - यारे पिण्ड देय, तरे’ सेइ जन॥

तोमा’ देखिलेइ मात्र कोटि-पितृगण।

सेइ क्षणे सर्व-बंध पाय विमोचन॥

 

“यदि कोई किसी तीर्थ स्थान पर अपने कुछ पितृगणों का पिण्डदान करता है, तो केवल उन्हीं पितृगणों का उद्धार होता है जिनका पिण्ड दान किया गया हो। परंतु, केवल आपके दर्शन मात्र से तत्क्षणात किसी के भी कोटि पितृगण भौतिक बंधन से मुक्त हो जाते हैं।” [चैतन्य भागवत, आदि-खण्ड 17.51-52]

 

अतएव तीर्थ नहे तोमार समान।

तीर्थेर ओ परम तुमि मंगल प्रधान॥

 

“अतएव तीर्थ स्थान भी आपके समान नहीं हैं, क्योंकि आप तो तीर्थों को भी पवित्र करने वाले हैं।” [चैतन्य भागवत, आदि-खण्ड 17.53]

 

संसार-समुद्र हइते उद्धारह मोरे।

एइ आमि देह समर्पिलाँया तोमारे॥

 

“कृपया मेरा इस भौतिक संसार के समुद्र से उद्धार कर दीजिए। मैं अपना सर्वस्व आपके चरणकमलों में समर्पित करता हूँ।” [चैतन्य भागवत, आदि-खण्ड 17.54]

 

आप परम तीर्थ हैं

 

महाप्रभु अपने पिता श्रीजगन्नाथ मिश्र का पिण्ड दान करने गया गए थे और वहाँ उनकी भेंट उनके आध्यात्मिक गुरु, श्रील ईश्वर पुरी से हुई। जब महाप्रभु गया से लौटे, तो उन्होंने कहा,

 

प्रभु बले, - “गया-यात्रा सफल आमार।

यत-क्षणे देखिलाँया चरण तोमार॥

तीर्थे पिण्ड दिले से निस्तारे पितृगण।

सेह, - यारे पिण्ड देय, तरे’ सेइ जन॥

तोमा’ देखिलेइ मात्र कोटि-पितृगण।

सेइ क्षणे सर्व-बंध पाय विमोचन॥

अतएव तीर्थ नहे तोमार समान।

तीर्थेर ओ परम तुमि मंगल प्रधान॥

 

“हे श्रील ईश्वर पुरी पाद! मेरी गया यात्रा अब सफल हो गई है, क्योंकि मुझे आपके चरणकमलों का दर्शन प्राप्त हो गया है। जब कोई तीर्थ स्थान पर अपने पितृ-पुरुष का पिण्ड दान करने जाता है, तो उससे केवल उसी पितृ-पुरुष का उद्धार होता है जिसके लिए पिण्ड दान किया गया हो, किंतु जब कोई आप जैसे सर्वोत्तम श्रेणी के वैष्णव का दर्शन करता है, तो उसके कोटि-कोटि पितृ-पुरुषों का उद्धार हो जाता है। अत: यह गया तीर्थ आपके समान नहीं है। वास्तव में आप ही तीर्थों के तीर्थ, परम-तीर्थ हैं।” [चैतन्य भागवत, आदि-खण्ड 17.50-53]

 

संसार-समुद्र हइते उद्धारह मोरे।

एइ आमि देह समर्पिलाँया तोमारे॥

 

तब महाप्रभु ने कहा, “कृपया मेरा इस भौतिक संसार से उद्धार कर दीजिए। मैं आपके चरणकमलों में पूर्ण रूप से शरणागत होता हूँ।” [चैतन्य भागवत, आदि-खण्ड 17.54]

 

महाप्रभु का रूपांतरण

 

गया से लौटने के पश्चात, महाप्रभु पूर्ण रूप से परिवर्तित हो चुके थे। वे कृष्ण-प्रेम के महासागर में प्लावित थे। उनके नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के भांति नित्य प्रेमाश्रु प्रवाहित हो रहे थे। जब गदाधर पण्डित ने महाप्रभु के इस अद्भुत रूपांतरण का दर्शन किया, कि वे निरंतर कृष्ण के लिए क्रंदन कर रहे हैं एवं कृष्ण-प्रेम में उन्मत्त हो गए हैं, वे स्वयं कृष्ण के लिए विलाप करने लगे। उस दिन से, गदाधर पण्डित ने महाप्रभु का संग क्षणभर के लिए भी नहीं छोड़ा।

 

कृष्ण आपके हृदय में विद्यमान हैं

 

जिस प्रकार श्रीमती राधारानी कृष्ण को ताम्बूल अर्थात पान अर्पित करती हैं, उसी प्रकार गदाधर पण्डित एक दिन महाप्रभु को पान अर्पित कर रहे थे। महाप्रभु अत्यंत प्रेमोन्मत्त रहते थे। वे सर्वदा कृष्ण का चिंतन करते हुए क्रंदन करते थे। उन्होंने कहा, "हे गदाधर, पीत-वासा-सुंदरी कहाँ हैं?” अर्थात जो पीले वस्त्र धारण करते हैं, वे श्यामसुंदर कहाँ हैं? इतना कहते ही वे अनवरत क्रंदन करने लगे। गदाधर पण्डित को समझ नहीं आ रहा था कि वे उन्हें क्या उत्तर दें, गम्भीर असमंजस की स्थिति में उन्होंने  कहा, "कष्ण आपके हृदय में विद्यमान हैं।" गदाधर पण्डित के ऐसे कहते ही महाप्रभु अपने हृदय को नाखुनों से विदारित करने लगे। गदाधर की सूझ-बूझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें और वे भयभीत हो गए। उन्होंने महाप्रभु को रोकने के लिए तुरंत उनका हाथ थाम लिया। महाप्रभु ने अनुरोध किया, "गदाधर, कृप्या मेरा हाथ छोड़ दीजिए। मैं कृष्ण के दर्शन करना चाहता हूँ। कृष्ण के दर्शन किए बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। कृप्या मुझे मत रोकिए, मेरा हाथ छोड़ दीजिए।" गदाधर पण्डित ने तत्क्षण कुछ और सोचा और कहा, " हे गौरसुंदर, कृप्या धैर्य रखें! कृष्ण आएँगें। कृष्ण अभी आते ही होंगें। आप कृप्या धैर्य रखें।" तदुपरांत महाप्रभु शांत हो गए।

श्रीचैतन्य भागवत में वर्णन है कि माता शचि कुछ दूरी से इस दृश्य का अवलोकन कर रहीं थी। वे दौड़ते हुए आईं और बोलीं, "हे गदाधर, यद्यपि आप एक छोटे बालक हो, फिर भी इतने बुद्धिमान हो।"

मुइँ भये नाही पारी सम्मुख हाइते।

शिशु हये केमन प्रबोधिला भाल मते॥

 

शचिमाता ने कहा, "मैं निमाई के समक्ष आने में अत्यंत चिंतित हो गई थी, किंतु आपने कितनी बुद्धिमता से उसे शांत कर दिया। गदाधर आपको सदा निमाई के साथ रहना चाहिए। यदि आप निमाई के साथ होंगें, तो मैं चिंता-मुक्त हो जाऊँगी।" [चैतन्य भागवत, मध्य-खण्ड 2.210]

 

कृष्ण-लीला कीर्तन

 

एक समय शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के घर, महाप्रभु बरामदे में कृष्ण-लीला का कीर्तन कर रहे थे। कृष्ण-लीला के सुंदर कीर्तन का श्रवण करते हुए, गदाधर वहां से उठे और घर के भीतर जाकर बैठ गए। कृष्ण-कथा करते हुए महाप्रभु भाव-विभोर हो गए। भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य-लीला से निःसृत मधुर लीला-रस के आस्वादन से उनके अश्रु बहने लगे। श्रील गदाधर पण्डित को कक्ष के भीतर सब सुनाई पड़ रहा था, अतः वे भी भाव-विभोर होकर  क्रंदन करने लगे। महाप्रभु ने उन्हें क्रंदन करते हुए सुन लिया; उन्होंने एकत्र सभी भक्तों से प्रश्न किया, " कक्ष के भीतर कौन क्रंदन कर रहा है?" शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया, "यह आपके गदाधर हैं।" महाप्रभु ने कहा, "हे गदाधर! आप अत्यंत सौभाग्यशाली हैं। इस छोटी आयु से ही आपके हृदय में कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ प्रेम विकसित हो गया है। मैं बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हूँ। मेरा समग्र जीवन व्यर्थ हो गया है।  श्रीकृष्ण के प्रति आपके हृदय में जो प्रेम है,  मैं वह कभी विकसित नहीं कर सकता। यह मेरा कर्म-दोष है। मैं कृष्ण को ढूंढने में असमर्थ हूँ। आप बहुत भाग्यवान हैं। आपको बाल्यावस्था से ही कृष्ण-प्राप्ति हो गई है एवं आपने उनके प्रति प्रगाढ़ प्रेम विकसित कर लिया है। मुझे उनके प्रति अंशमात्र भी प्रेम नहीं है।" तत्पश्चात महाप्रभु ने गदाधर पण्डित का प्रेमालिंगन किया।

 

राइ-कानाइ ही गौर-गदाधर हैं

 

श्रीचैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण हैं और गदाधर श्रीमती राधारानी। ब्रजभूमि में वे दोनों राइ-कानाइ के रूप में विद्यमान हैं। राइ अर्थात श्रीमती राधारानी और कानाइ का अर्थ है कान्हा, अर्थात् श्रीकृष्ण। वे राइ-कानाइ ही इस धरा पर गौर-गदाधर के रूप में प्रकट हुए हैं। जिस प्रकार यमुना के तट पर राधा-कृष्ण ने अपनी नित्य-लीला प्रकट करते हैं, उसी प्रकार गौर-गदाधर नवद्वीप में गंगा के तट पर दिव्य-लीला प्रकाशित कर रहे हैं।

 

संध्या आरती संगीत

 

एक दिन महाप्रभु गंगा के तट पर आए और ब्रज-लीला का स्मरण करते हुए एक उपवन में प्रविष्ट हो गए। उसी समय मुकुंद दत्त ने मधुर स्वर में कृष्ण की ब्रज-लीला को दर्शाते हुए संगीतमय गायन आरंभ कर दिया। उस क्षण महाप्रभु उल्लासित हो गए। जिस तरह वृंदावन में श्रीमती राधारानी कृष्ण के ग्रीवा में पुष्पमाला डालती हैं, उसी तरह से गदाधर उपवन से कुछ पुष्प लाए और उसकी सुंदर माला गूँथकर महाप्रभु को पहनाने लगे। तत्पश्चात वे महाप्रभु का सुंदर श्रृंगार करने लगे जैसे श्रीमती राधारानी कृष्ण का श्रृंगार करती हैं। मुकुंद दत्त और अन्य भक्त  मधुर गायन करने लगे एवं कुछ ने नृत्य करना प्रारंभ कर दिया। गदाधर के संग गौरसुंदर एक वृक्ष के नीचे उच्च स्थान पर विराजमान हो गए। श्रील गदाधर पण्डित श्रीचैतन्य महाप्रभु के बाएं ओर स्थित थे। अद्वैत आचार्य ने आरती के लिए समस्त सामग्री का प्रबंध किया। उस समय श्रील नित्यानंद प्रभु भी वहाँ उपस्थित हुए और श्रीचैतन्य महाप्रभु के दाएं ओर विराजमान हो गए, तदनुसार दखीने निताई-चाँद, बामे गदाधर की व्याखयान संध्या आरती संगीत में दी गई है।

 

श्रीवास पण्डित वन से अधिकतर पुष्प एकत्र कर लाए और गौर-गदाधर एवं नित्यानंद प्रभु के श्रृंगार हेतु सुंदर मालाएँ गूँथकर अर्पित करने लगे। नरहरि आदि कोरी, चामर डुलाए, अर्थतः नरहरि सरकार एवं अन्य पार्षद उन्हें चामर कर रहे थे और शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी उनके ललाट पर चंदन-लय लगा रहे थे। मुरारी गुप्त "जय ध्वनि" का गान कर रहे थे और माधव, वसुदेव, पुरुषौत्तम, विजय एवं मुकुंद आदि कीर्तन करते हुए नृत्य कर रहे थे। यह गौरसुंदर की अद्भुत नवद्वीप लीला का वर्णन है।

 

महाप्रभु और गदाधर पण्डित ने जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किया

 

श्रीचैतन्य महाप्रभु के सन्यास धारण करने के पश्चात, शचिमाता के आग्रह पर जगन्नाथ पुरी में ही निवास कर रहे थे। जब महाप्रभु नीलाचल, पुरुषौत्तम धाम, जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान कर रहे थे तब गदाधर पण्डित भी उनके साथ गए। पुरी में गदाधर पण्डित अहर्निश श्री टोटा गोपीनाथ की सेवा में संलग्न रहते। श्रीचैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन श्रील गदाधर पण्डित के प्राणधन व सेवित विग्रह श्री टोटा गोपीनाथ जी के मंदिर आते और वहां कृष्ण-कथा एवं कृष्ण-कीर्तन का गान करते हुए उन्मादपूर्ण होकर नृत्य करते थे। जब श्रीचैतन्य महाप्रभु पुरी से वृंदावन की यात्रा के लिए प्रस्थान कर रहे थे, तब गदाधर पण्डित श्रीचैतन्य महाप्रभु से विरह की वेदना अनुभव करने लगे। उन्होंने महाप्रभु से उनके संग चलने की इच्छा व्यक्त की, किंतु महाप्रभु उन्हें साथ नहीं ले जाना चाहते थे। इसलिए महाप्रभु ने उनसे कहा, "नहीं, आप यहीं रहकर श्री टोटा गोपीनाथ की सेवा कीजिए।" किसी तरह से महाप्रभु ने उन्हें शांत किया और वहीं ठहरने के लिए कहा।

 

श्री टोटा गोपीनाथ के विग्रह नीचे बैठ गए

 

श्रीगदाधर पण्डित प्रतिदिन श्रीमद् भागवतम का अध्ययन करते थे और श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने अन्य पार्षद सहित उनसे भागवत-श्रवण हेतु आते थे। इस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु गदाधर पण्डित के श्रीमुख से श्रीमद् भागवतम के अमृतमय मधुर रस-प्रवाह का आस्वादन करते थे।

 

 श्रीचैतन्य महाप्रभु और गदाधर पण्डित की यह लीलाएँ अतीव सुरम्य व अद्भुत हैं। टोटा गोपीनाथ मंदिर आज भी पुरी क्षेत्र में स्थित है। श्री टोटा गोपीनाथ जी गदाधर पण्डित के सेवित विग्रह थे और गदाधर पण्डित नित्य उनकी पूजा-अर्चना करते थे।

 

महाप्रभु की प्रकट-काल अथवा भौम्य-लीला अड़तालीस(48) वर्ष तक थीं। भक्ति-रत्नाकर में वर्णन  है कि  महाप्रभु अपनी तिरोभाव लीला में,  प्रवेशिला एइ गोपीनाथ मंदिरे हइले दर्शन, श्री टोटा गोपीनाथ जी के विग्रह में प्रवेश किया और वे भगवान से एकाएक नहीं हुए थे। अभी भी  विग्रह के घुटने में वह छिद्र है जहां से महाप्रभु ने प्रवेश किया था। आदि रूप से विग्रह खड़े थे किंतु अब वे बैठने की मुद्रा में प्रतिष्ठित हैं। हालांकि बैठने की मुद्रा में भी वे विग्रह अत्यंत विशाल हैं और उन्हें इस तरह से प्रसाधित किया जाता है कि वे सभी ओर से आवृत  हैं। यह कोई नहीं जानता कि इतने विशाल विग्रह किस प्रकार से खड़े होने की मुद्रा से बैठने की स्थिति में परिवर्तित हो गए। जब गदाधर पण्डित अपनी वृद्धावस्था में थे, उनका शरीर झुक गया था और उन्हें गोपीनाथ के विशाल विग्रह को पुष्पमाला अर्पित करने में बहुत कठिनाई होती थी किंतु गोपीनाथ, कृष्ण भक्त-वत्सल हैं। वे देख रहे थे कि, "मेरे भक्त के लिए मुझे माला अर्पण करना असाध्य हो रहा है।" इसलिए वे स्वयं बैठने की मुद्रा में परिवर्तित हो गए। यह उनकी लीला है।

 

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने एक सुंदर गीत की रचना की है, जिसे हम दोहरा सकते हैं -

 स्मर गौर-गदाधर-केलि-कलां

भव गौर-गदाधर-पक्ष-चर: ।

शृणु गौर-गदाधर-चारु-कथां

भज गोद्रुम-कानन-कुँज विधुम॥

 

“केवल गौर और गदाधर के उन कलात्मकता से पूर्ण अद्भुत लीलाओं का स्मरण करो। केवल गौर और गदाधर के पक्ष के निष्ठावान अनुगामी बन जाओ। केवल गौर और गदाधर की आकर्षक कथाओं का श्रवण करो और गोद्रुम के वनों में स्थित कुँज के उन सुंदर चंद्रमा की आराधना करो।” [श्री गोद्रुम-चंद्र-भजन-उपदेश, श्लोक 20]

 

जय गदाधर पण्डित की जय!

गौर-गदाधर की जय!

आप सभी को गौर-गदाधर की कृपा प्राप्त हो!

 

प्रश्नोत्तर

भक्त: क्या भक्तिविनोद ठाकुर गौर-गदाधर विग्रहों की सेवा करते थे?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: हाँ। यदि आप राधा-कृष्ण के साथ गौर को भी एक ही वेदी पर स्थापित करते हैं, तो आप गदाधर को भी उसी वेदी पर स्थापित कर सकते हैं। किंतु फिर आप नित्यानंद प्रभु को उस वेदी पर स्थापित नहीं कर सकते।

हम अपने मंदिरों में कभी भी गौर के बिना राधा-कृष्ण की आराधना नहीं करते। यही गौड़ीय आचार्य द्वारा स्थापित मंदिरों की विशेषता है। जिस मंदिर में राधा-कृष्ण हैं, परंतु गौर नहीं हैं,  समझ जाना चाहिए कि वह मंदिर गौड़ीय नहीं है। यही हमारी गौड़ीय-धारा है कि राधा-कृष्ण के साथ गौर का होना अनिवार्य है, क्योंकि गौर की कृपा के बिना राधा-कृष्ण को प्राप्त कर पाना असंभव है। यह हमारा गौड़ीय सिद्धांत है। यदि आप गौर के साथ वेदी पर किसी अन्य विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं, तो वह गदाधर के विग्रह होने चाहिए। राधा-कृष्ण के साथ एक ही वेदी पर केवल गौर-गदाधर हो सकते हैं, गौर-नित्यानंद नहीं। या तो केवल गौर या फिर गौर-गदाधर।

भक्त: गौर-निताइ के साथ या गौर-गदाधर के साथ?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: नहीं, नहीं। राधा-कृष्ण के साथ या तो केवल गौर होंगे या फिर गौर-गदाधर। गौर-निताइ राधा-कृष्ण के साथ उसी वेदी पर नहीं विराजमान हो सकते। यदि आप गौर-निताइ की स्थापना करना चाहते हैं, तो आपको उनके लिए अलग वेदी बनवानी होगी।

भक्त: क्या यहाँ [भुवनेश्वर में] हम राधा-कृष्ण मंदिर में केवल गौर की स्थापना करेंगे?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: हाँ, यहाँ राधा-गोपीनाथ के साथ वेदी पर केवल गौर होंगे।

भक्त: क्या गौर-गदाधर विग्रह की आराधना, जिस प्रकार भक्तिनिवोद ठाकुर कर रहे थे, रसिक स्तर के भक्तों के लिए है?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: हाँ, गौर-गदाधर की आराधना राधा-कृष्ण के साथ कीजिए। अकेले गौर-गदाधर की आराधना मत कीजिए। भक्तिविनोद ठाकुर गौर-गदाधर की आराधना राधा-कृष्ण के साथ किया करते थे।

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