श्री नित्यानंद त्रयोदशी
निताई गुण-मणि आमार
“प्रभु नित्यानंद समस्त दिव्य गुणों की खान हैं।”
(श्रील लोचन दास ठाकुर द्वारा विरचित श्री चैतन्य-मंगल से उद्धृत)
(1)
निताई गुण-मणि आमार निताई गुण-मणि
आनिया प्रेमेर वन्या भासाइलो अवनी
(2)
प्रेमेर वन्या लइया निताई आइला गौड़-देशे
डुबिलो भकत-गण दीन हीन भासे
(3)
दीन हीन पतित पामर नाहि बाछे
ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम सबाकारे जाचे
(4)
आबद्ध करुणा-सिंधु निताइ काटिया मुहाँ
घरे घरे बुले प्रेम-अमियार बान
(5)
लोचन बोले हेन निताई जेबा न भजिलो
जानिया शुनिया सेइ आत्म-घाती होइलो
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज द्वारा अनुवाद:
समस्त साधुओं एवं शास्त्रों का मत है कि नित्यानंद प्रभु, गौरांग महाप्रभु से भी अधिक दयावान, उदार, तथा वदान्य हैं। इसलिए हम नित्यानंद प्रभु (की महिमा में श्रील लोचन दास ठाकुर द्वारा विरचित) इस सुन्दर भजन का गान करते हैं।
1. श्रील लोचन दास ठाकुर कहते हैं, “श्रीचैतन्य महाप्रभु के निर्देश पर श्रीनित्यानंद प्रभु, जगन्नाथ पुरी से गौड़-देश में कृष्ण-प्रेम की बाढ़ लेकर आए और उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को आप्लावित कर दिया।"
2. उस दिव्य प्रेम की बाढ़ से श्रीनित्यानंद प्रभु ने इस धरा को प्रेम रस से सराबोर कर दिया। डुबिलो भकत-गण दीन हीन भासे – फलत: भक्तगण आनंदपूर्वक भगवत्प्रेम रूपी बाढ़ में डूब गए, प्रेमेर वन्या। परन्तु दीन-हीन, पतित आत्माएँ उस दिव्य प्रेम रस की सतह पर ही तैरती रहीं।
3. नित्यानंद प्रभु, बिना किसी भेदभाव के सबको परम विशुद्ध भगवत्प्रेम प्रदान करते हैं। कृष्ण प्रेम प्राप्त करना सुदुर्लभ है, परन्तु वे दोनों हाथों से इस प्रेम को वितरित करते हैं! "ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम " वह प्रेम जो ब्रह्मा के लिए भी अप्राप्य है, निताई बिना किसी भेदभाव के उसे पतित, पामर, अयोग्य अथवा योग्य, सभी को प्रदान करते हैं।
4. कृष्ण-प्रेम एक विशालकाय सिंधु के सदृश्य है जो अब तक सीमाओं से बंधा था, परंतु श्रीनित्यानंद प्रभु अपार करुणा के सागर, करुणा-सिंधु हैं, अतएव उन्होंने अपनी अप्रतिम करुणा की तरंगों से प्रेम रसार्णव के दृढ़ तटबंध को पूर्णतया ध्वस्त कर दिया। प्रेम का वह सागर अपरिमित है। अतः बाँध के टूटने से कृष्ण-प्रेम की अमृतमयी धराएँ घर-घर प्रविष्ट हुईं, घरे घरे बुले प्रेम-अमियार । इस प्रकार श्रीनित्यानंद प्रभु की दया से भगवत्प्रेम की बाढ़ ने सम्पूर्ण विश्व को आप्लावित कर दिया।
5. श्रील लोचन दास ठाकुर कहते हैं, "जो नित्यानंद प्रभु का आश्रय स्वीकार नहीं करता, उनका भजन नहीं करता और उनसे कृपा की याचना नहीं करता, वह हतभागी है। वह स्वयं ही आत्मघात कर रहा है, 'आत्म-घाती हइल '।"
जय श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
पतित–पावन श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
पतित–उद्धार श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
दया कोरो मोरे निताई
(श्रील कानु रामदास ठाकुर जी द्वारा विरचित)
(1)
दया कोरो मोरे निताइ, दया कोरो मोरे
अगतिर गति निताई साधु लोके बोले
(2)
जय प्रेम भक्ति दाता-पताका तोमार
उत्तम अधम किछु न कइला बिचार
(3)
प्रेम दाने जगजनेर मन कैला सुखी
तुमि हेन दोयार ठाकुर अमी केने दुखी
(4)
कानू राम दास बोले कि बोलिब आमि
ई बड भरसा मोरे कुलेर ठाकुर तुमि
श्री श्रीमद गौर गोविंद स्वामी महाराज जी द्वारा अनुवाद:
नित्यानंद प्रभु अत्यंत कृपालु हैं। श्रील कानु राम दास ठाकुर जी द्वारा विरचित इस सुन्दर भजन का गान करके हम नित्यानंद प्रभु से कृपा की याचना करते हैं। हमें इस सुन्दर भजन को सीखना चाहिए और इसके भावों पर चिंतन करना चाहिए।
(१) हे नित्यानंद प्रभु! कृपया मुझ पर अपनी कृपावृष्टि कीजिये। सभी साधु-संत यही आशा व मत प्रदान करते हैं कि, "आप अतिशय दयालु होने के कारण पतित आत्माओं को भी परम गंतव्य प्रदान करते हैं।"
(२) नित्यानंद प्रभु के पास सदा एक ध्वज रहता है, जो प्रेम-भक्ति-प्रदायक है। वे कभी भेदभाव नहीं करते हैं, चाहे कोई उत्तम हो या अधम, नित्यानंद प्रभु सभी को समभावसे प्रेम-भक्ति प्रदान करते हैं।
(३) हे नित्यानंद प्रभु, आप समस्त जीवों को प्रेम प्रदान करके सम्पूर्ण विश्व को सुखमय बना देते हैं। अत: आप दया के मूर्तिमंत विग्रह हैं, फिर मैं इतना दुःखी क्यों हूँ?
(४) कानु रामदास कहते हैं, " मैं और क्या कहूँ? हे नित्यानंद प्रभु, आप अत्यंत दयालु हैं और आप हमारी परम्परा के आचार्य है। हैं। यही मेरे लिए एक महान संतोषजनक आशा है।"
"निताई आमार दयार अवधि"
“भगवान नित्यानंद ‘दया की अंतिम सीमा’ हैं।”
(श्रील वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा विरचित)
(1)
अरे भाई! निताइ आमार दयार अवधि!
जीवेर करुणा करि देशे देशे फिरि फिरि
प्रेम-धन याचे निरबधि
(2)
अद्वैतेर संगे रंग, धरणे ना याय अंग
गोरा-प्रेमे गढ़ा तनु-खानि
ढुलिया ढुलिया चले बाहु तुलि हरि बोले
दु'-नयने बहे निताइरा पाणि
(3)
कपाले तिलक शोभे कुटिल कुन्तल लोले
गुंजरा आण्टुनी चूड़ा ताय
केशरी जिनिया कटि कटि तटे नीलधटि
बाजन नूपुर रंगा पाय
(4)
भुबन-मोहन बेश! मजाइल सब देश!
रसाबेशे अट्ट अट्ट हास!
प्रभु मोर नित्यानंद केवल आनंद-कंद
गुण गाय बृंदाबन दास
अनुवाद – श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज जी के द्वारा:
आज हम, पतित-पावन, श्री श्री प्रेम दाता, नित्यानंद ठाकुर का आविर्भाव उत्सव मना रहे हैं, जिनकी कृपा असीम, अनंत व अपार है। नित्यानंद प्रभु दया की पराकाष्ठा हैं। निताई आमार दयार अवधि, अवधि अर्थात् सीमा, निताई, दया की अंतिम सीमा हैं। क्या आप निताई की कृपा प्राप्त कर सकते हैं?
- हे भाई! नित्यानंद प्रभु अत्यंत दयालु हैं और उनकी कृपा अगाढ़ व असीम है। वे दया की पराकाष्ठा हैं! वह संसार के प्रत्येक गाँव, नगर में भ्रमण करते हुए सबको प्रेम धन वितरित करते हैं।
- वे सदैव अद्वैत आचार्य के साथ हास-परिहास करते हैं। उनकी सम्पूर्ण काया गौरांग महाप्रभु के प्रेम से अभिभूत है। वे सदैव प्रेम-रस में उन्मत्त रहते हैं। एक मदमत्त व्यक्ति कैसे चलता है? ढुलिया ढुलिया चले। वे सर्वदा बाहु ऊपर उठाकर, मुख से “हरि बोल! हरि बोल! हरि बोल!” की हुंकार करते हैं! उनके कमल सदृश नेत्र सदा प्रेमाश्रुओं से विह्वल रहते हैं।
- उनका ललाट सुंदर तिलक से विभूषित है और उनके घुंघराले केश अत्यंत मोहक प्रतीत होते हैं। उनके केश लाल गुंजा से गुँथे हुए हैं। उनकी कमर सिंह के समान है जो नील रंग की करधनी से सुशोभित है। उनके चरणकमल लाल वर्ण के प्रतीत होते हैं और नूपुरों से अलंकृत हैं, जिनसे सदा मधुर ध्वनि उद्भव होती रहती है।
- उनकी सम्पूर्ण काया, मुद्रा और स्वरूप अत्यंत सुंदर हैं। सम्पूर्ण विश्व उनकी मनमोहक सुंदरता से विमोहित है। सर्वदा प्रेम-रस में उन्मत्त, वे मुस्कुराते और अट्टहास करते रहते हैं। यही नित्यानंद राम की शोभा है। श्रील वृंदावन दास ठाकुर कहते हैं, "नित्यानंद प्रभु मेरे स्वामी हैं और वे केवल दिव्यानंद से परिपूर्ण हैं।"
अक्रोध परमानंद नित्यानंद राय
“नित्यानंद प्रभु कभी क्रोधित नहीं होते”
(श्रील लोचन दास ठाकुर द्वारा विरचित)
अक्रोध परमानंद नित्यानंद राय।
अभिमान शून्य निताइ नगरे बेड़ाय॥१॥
अधम पतित जीवेर द्वारे द्वारे गिया।
हरिनाम महामंत्र दिच्छेन बिलाइया॥२॥
जारे देखे तारे कहे दंते तृण धरि।
आमारे किनिया लह, भज गौरहरि॥३॥
एत बलि’ नित्यानंद भूमे गढ़ि’ जाय।
सोनार पर्वत जेन धूलाते लोटाय॥४॥
हेन अवतारे जा’र रति ना जन्मिल।
लोचन बले सेइ पापी एल आर गेल ॥५॥
श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी महाराज: श्रीमान नित्यानंद राय कभी क्रोधित नहीं होते। दुष्ट जगाई और मधाई ने नित्यानंद प्रभु के मस्तक पर अपने मदिरा की भांडी से प्रहार किया और उनके मस्तक से रक्त स्राव होने लगा, परन्तु फिर भी वे क्रुद्ध नहीं हुए बल्कि उन्होंने उन दुष्टों का आलिंगन किया। श्रीनित्यानंद राय का स्वभाव अचिंत्य तथा दयापूर्ण है।
- नित्यानन्द राय कभी क्रोधित नहीं होते। वह मिथ्याभिमान से रहित सदैव सर्वोच्च परमानंद में निमग्न रहते हैं। वे ग्राम्य-वार्ता से पूर्णतया अप्रभावित रहते हैं और नदिया ज़िले के अनेक नगरों तथा गाँवों में विचरण करते हुए, निरंतर 'हरे कृष्ण' महामंत्र का कीर्तन करते रहते हैं। इस प्रकार वह सभी जीवों को बिना किसी भेदभाव के कृष्ण-प्रेम वितरित करते हैं।
- निताई घर-घर जाकर द्वार खटखटाते हैं – विशेष रुप से उन स्थानों का जहाँ अत्यंत दुखी, पतित और अधम जीव निवास करते हैं। ऐसे लोगों के पास जाकर वे उन्हें कृष्ण-प्रेम की अमूल्य-संपत्ति प्रदान करते हैं। वे उनसे निवेदन करते हैं, "कीर्तन करो! कृपया कीर्तन करो!"
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
अगर लोग महामंत्र का कीर्तन करने से मना कर दें या घर के द्वार बंद कर लें, तो नित्यानंद प्रभु पृथ्वी पर लोटने लगते और करुण क्रंदन करते हैं!
- वे जिनसे भी मिलते हैं, दाँतो में तृण दबाकर, उनसे विनयपूर्वक याचना करते हैं, "हे मेरे प्रिय भाई! कृपया गौरहरि का भजन करो और मुझे क्रय कर लो!
- ऐसा कहकर, भगवान् नित्यानंद धूल में लोटने लगते हैं और उनके नेत्रों से अविरल प्रेमाश्रु प्रवाहित होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई स्वर्ण पर्वत पृथ्वी पर लोट रहा है। उनका विशुद्ध-सत्त्व मय शरीर पूर्णतया दिव्य है।
- भगवान् नित्यानंद दया की चरम सीमा हैं। श्रील लोचन दास ठाकुर कहते हैं, "जो नित्यानंद-राम के प्रति प्रेम विकसित नहीं करता, वह पापी जन्म-मृत्यु के विषाक्त चक्र में फँसकर रह जाता है, उसका उद्धार नहीं हो सकता है।"
मंगलाचरण
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले।
स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥
वन्देऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च।
श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम्॥
साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं।
श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिता श्रीविशाखान्वितांश्च॥
हे कृष्ण करुणा-सिंधु, दीन-बन्धु जगत्पते।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते॥
तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृंदावनेश्वरी।
वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरि-प्रिये॥
नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नामने गोर-तविशे नमः॥
यदद्वैतं ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनु-भा
य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोऽस्यांश-विभवः।
षडैश्वर्यैः पूर्णो य इह भगवान्स स्वयमयं
न चैतन्यात्कृष्णाज्जगति पर-तत्त्वं परमिह॥
जिसका वर्णन उपनिषदों में निर्विशेष ब्रह्म के रूप में हुआ है, वह उनके शरीर का तेज मात्र है और परमात्मा के रूप में जाने जाने वाले भगवान् उनके स्थानीय पूर्ण अंश हैं। भगवान् चैतन्य छः ऐश्वर्यों से पूर्ण स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्री कृष्ण हैं। वे परम सत्य हैं और अन्य कोइ सत्य न उनसे बड़ा है, न उनके समान है। (चैतन्य चरितामृत अदि-लीला 2.5)
राधा कृष्ण-प्रणय-विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद्
एकात्मानावपि भुवि पुरा देह-भेदं गतौ तौ।
चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चैक्यमाप्तम्
राधा-भाव-द्युति-सुवलितं नौमि कृष्ण-स्वरूपम्॥
“श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ, जो साक्षात् कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं।” (चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 1.5)
चिराददत्तं निज-गुप्त-वित्तं
स्व-प्रेम-नामामृतमत्युदारः।
आ-पामरं यो विततार गौरः
कृष्णो जनेभ्यस्तमहं प्रपद्ये॥
“गौरकृष्ण नाम से विख्यात सर्वाधिक वदान्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने हर एक को - यहाँ तक की अधम से अधम व्यक्तियों को भी - अपने प्रेम तथा अपने पवित्र नाम के अमृत-रूप गुह्य खजाना बाँटा। यह इसके पहले कभी भी लोगों को नहीं दिया गया था। अतएव मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।” (चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 23.1)
गौरः सच्चरितामृतामृत-निधिः गौरं सदैव स्तुवे।
गौरेण प्रथितं रहस्य-भजनं गौराय सर्वं ददे॥
गौरादस्ति कृपालु रत्र न परो गौरस्य भृत्योऽभवं।
गौरे गौरवमाचरामि भगवन्गौर प्रभो रक्षमाम्॥
"मैं श्रीमन् गौरांग महाप्रभु से प्रार्थना करता हूँ, जिनकी दिव्य उन्मादपूर्ण लीलाएँ अमृतमय प्रवाह के भाँति आनंदमय हैं। गौरांग महाप्रभु ने अत्यंत गुह्य भक्ति का मार्ग प्रदान किया है। मैं पूर्ण रूप से गौरांग महाप्रभु के प्रति समर्पित होता हूँ। क्या कोई गौरांग से भी अधिक दयालु है? मैं गौर का तुच्छ दास बनूँगा और उनकी महिमा का प्रचार करूँगा। हे! मेरे प्रभु गौर, कृपया मेरी रक्षा करें।" (गौराङ्ग-विरुदावली, श्रील रघुनंदन गोस्वामी द्वारा विरचित)
जय श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद,
श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द
"मैं श्री कृष्ण चैतन्य, प्रभु नित्यानंद, श्री अद्वैत, गदाधर, श्रीवास और अन्य समस्त भक्त वृन्द को प्रणाम करता हूँ।"
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे,
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
आनन्द लीलामय विग्रहाय।
हेमाभ दिव्य छवि सुन्दराय॥
तस्मै महाप्रेम रसप्रदाय।
चैतन्य चन्द्राय नमो नमस्ते॥
“हे चैतन्यचंद्र! आप अलौकिक आनंदमय लीलाओं की प्रतिमूर्ति हैं। आपका वर्ण पिघले स्वर्ण के सदृश देदीप्यमान है। श्रीकृष्ण के प्रति विशुद्ध महाप्रेम के आप अत्यंत उदार प्रदायक एवं वितरक हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।”
श्री नित्यानंदष्टकम
(श्रील वृंदावन दास ठाकुर द्वारा विरचित)
(1)
शरच्चन्द्रभ्रान्तिं स्फुरदमलकान्तिं गजगतिं
हरिप्रेमोन्मत्तं धृतपरमसत्त्वं स्मितमुखम्।
सदा घूर्णन्नेत्रं करकलितवेत्रं कलिभिदं
भजे नित्यानन्दं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
"मैं भक्ति वृक्ष की अपरिमित जड़ भगवान् नित्यानंद की आराधना करता हूँ। उनका मुखकमल, शरद ऋतु के पूर्ण चंद्रमा से भी अधिक शीतल व उज्ज्वल है। उनकी शारीरिक कांति अद्भुत व अतुलनीय है। उनकी चाल एक मतवाले गज के के समान हैं, इस प्रकार की मंद गति को मृदु-मंथर कहा जाता है। यद्यपि वे स्वयं ही परम सत्य हैं, वे भगवान् हरि के शुद्ध प्रेम में उन्मत्त होकर मुस्कराते रहते हैं। उनके नेत्र प्रेमोन्माद में चारों ओर घूमते हैं। वे अपने हाथ में एक छड़ी पकड़ते हैं (ग्वाल बाल के रूप में) जिससे वे कलियुग की शक्ति को भंग कर देते हैं।"
श्रील लोचन दास ठाकुर कहते हैं, ब्रह्मार दुर्लभ प्रेम सबाकरे जाचे, पतित-पामर नाही बाचे। नित्यानंद प्रभु पापी, तापी, पामर, उत्तम, अधम इत्यादि में कोई भेदभाव नहीं करते। उत्तम अधम किछु ना कइल विचार - यद्यपि यह कृष्ण-प्रेम अत्यंत दुर्लभ है और ब्रह्मा जी के लिए भी अप्राप्य है, फिर भी वह मुक्त हस्त से सभी को कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं।
प्रेमा दाने जगतजनेर मन कैला सुखी।
तुमि हेन दयार ठाकुर आमि केने दुखी॥
(दया करो मोरे निताई - श्रील कानू रामदास ठाकुर द्वारा विरचित)
नित्यानंद प्रभु बिना योग्यता विचारे कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं। इस प्रकार वे सभी जीवों को आनंद विभोर कर देते हैं। परन्तु, उन्होंने मुझे इस दिव्य प्रेम से वंचित रखा है। हे प्रभु! आप अत्यंत दयालु हैं, फिर मैं उदास क्यों हूँ?
अक्रोध परमानंद नित्यानंद राय।
अभिमान शून्य निताइ नगरे बेड़ाय॥
वह कभी क्रोधित नहीं होते और सदा परमानंदित रहते हैं। अभिमान उनको छू तक नहीं सकता है। 'लोग क्या कहेंगे' – इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं है। वह गली-गली, चौक-चौराहे, हर एक स्थान पर जाकर कृष्ण-प्रेम रूपी अमूल्य निधि का वितरण करते हैं।
अधमपतित जीवेर द्वारे द्वारे गिया।
हरिनाम महामंत्र दियेच्छेन बिलाइया॥
"वह प्रत्येक द्वार पर जाते हैं, विशेषतया उनके द्वार पर जो अत्यंत दुखी, पीड़ित, अधम व पतित हैं और उन्हें कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं।"
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे
हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे
जारे देखे तारे कहे दंते तृण धरि।
आमारे किनिया लह, बलो गौरहरि ॥
वह दाँतो के मध्य तृण धारण करके, सभी से इस प्रकार अनुरोध करते हैं - “हे मेरे भाई! कृपया गौर हरि का भजन करो और मुझे क्रय कर लो!”
एत बलि, नित्यानंद भूमे गड़ी’ जाय।
सोनार पर्वत जेन धुलाते लोटाय॥
यह कहकर वे भूमि पर लोटने लगते हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई स्वर्ण वर्णीय पर्वत भूमि पर लोट रहा हो। उनका वदन सर्वथा स्मित, उनके नेत्र चंचल है। उनका दिव्य शरीर विशुद्ध सत्व है और उनका प्रभायुक्त मुखमंडल सदैव मंदहास स्थित में रहता है। उनके हाथ में एक छड़ी है, और उस छड़ी की फटकार से वह कलियुग के दुष्प्रभाव को नष्ट कर देते हैं। ऐसे भक्ति-कल्प-लता के मूल, नित्यानंद को मैं नमन करता हूँ।
(2)
रसानामागारं स्वजनगणसर्वस्वमतुलं
तदीयैकप्राणप्रमितवसुधाजह्नवापतिम्।
सदा प्रेमोन्मादं परमविदितं मन्दमनसाम्
भजे नित्यानन्दं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
"मैं कृष्ण-भक्ति कल्पवृक्ष के असीम आधार, भगवान् नित्यानंद की आराधना करता हूँ। वे भक्ति के मधुर अमृत रसों के धाम हैं और उनसे त्रिभुवन में किसी की भी तुलना नहीं की जा सकती है। वे अपने भक्तों के सर्वस्व हैं और वसुधा एवं जाह्नवा के पति हैं जिन्हें वे उनके जीवन से भी अधिक प्रिय हैं। वे विशुद्ध कृष्ण प्रेम में सदा उन्मत्त रहते हैं और मूर्ख अभक्त समझ नहीं सकते कि वे स्वयं परम पुरुषोत्तम भगवान् हैं।"
(3)
शचीसुनुप्रेष्ठं निखिलजगदिष्टं सुखमयं
कली मज्जज्जीवोद्धरण करणोद्दामकरुणम्।
हरेराख्यानाद्वा भवजलधि गर्वोन्नति हरं
भजे नित्यानंदं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
“मैं भक्ति वृक्ष के निस्सीम आधार, भगवान् नित्यानंद की आराधना करता हूँ। वे शची-देवी के पुत्र को अत्यधिक प्रिय हैं और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड द्वारा पूजे जाते हैं। वे कलीयुग के पतित और अधम जीवों के प्रति अत्यंत कृपालु हैं। वे प्रतिक्षण भगवान् हरि के पवित्र नाम का उच्चारण करते हैं।”
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
इस प्रकार वे कलिपाश से पीड़ित आत्माओं की रक्षा करके, जन्म-मृत्यु रूपी सागर का अभिमान चूर-चूर कर देते हैं। दूसरे शब्दों में, वह मात्र हरिनाम संकीर्तन के द्वारा इस भयावह भौतिक अस्तित्व के महासागर को पार करने का अत्यंत सरल पथ प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे भक्ति-लता के स्रोत, प्रभु नित्यानंद मेरे भजनीय हैं। मैं बारंबार उनका अभिवादन करता हूँ”
(4)
अये भ्रातनृणां कलिकलुषिणां किन्नु भविता
तथा प्रायश्चितं रचय यदनायासत इमे।
व्रजन्ति त्वमित्थं सह भगवता मन्त्रयति यो
भजे नित्यानन्दं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
मैं, भक्ति वृक्ष के असीम आधार भगवान् नित्यानंद की आराधना करता हूँ। उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा, "हे भ्राता, कलीयुग के सभी जीव पापों द्वारा प्रदूषित हो रहे हैं। इन दुःखी व संतप्त आत्माओं का क्या प्रारब्ध है? वे इन पापों का पश्चाताप कैसे करेंगे? कृपया उनके उद्धार हेतु एक सरल उपाय बतलाएँ ताकि वे आपके शीतल चरणकमलों तक सहजता से पहुँच सकें।”
(5)
यथेष्ट रे भ्रातः! कुरु हरिहरिध्वानमनिशं
ततो वः संसाराम्बुधितरणदायो मयि लगेत्।
इदं बाहुस्फोटैरटति रटयन् यः प्रतिगृहं
भजे नित्यानंदं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
“मैं भक्ति वृक्ष के असीम आधार भगवान् नित्यानन्द की आराधना करता हूँ। वे प्रत्येक घर में जाते और अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर सभी गृहस्थों से कहते, “हे भाई, कृपया आप सभी निरंतर भगवान् हरि के पवित्र नाम का उच्चारण कीजिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। यदि आप ऐसा करते हैं, तब आप निश्चित ही जन्म-मृत्यु के इस विकट महासागर से मुक्त हो जायेंगे। मैं यह प्रमाणित करता हूँ। कृपया अपनी मुक्ति का यह उपहार मुझे प्रदान कीजिए।”
(6)
बलात्संसाराम्भोनिधिहरणकुम्भोद्भवमहो
सतां श्रेयः सिन्धुन्नतिकुमुदबन्धुं समुदितम्।
खलश्रेणी-स्फूर्जत्तिमिरहरसूयंप्रभमहं
भजे नित्यानंदं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
"मैं, भक्ति वृक्ष के असीम आधार भगवान् नित्यानंद की आराधना करता हूँ। वे अगस्त्य मुनि के समान हैं जो जन्म-मृत्यु के चक्र रूपी सागर को बलपूर्वक निगल लेते हैं। अत: नित्यानंद प्रभु कलीयुग के अति पापी तथा अधम जीवों के पापकर्मों को अत्यंत सहजता से नष्ट कर देते हैं। वह भक्तों को अत्यंत प्रिय हैं क्योंकि वह सदैव उनका कल्याण करने में व्यस्त रहते हैं। वे असंख्य चंद्रमाओं के सदृश शीतलता प्रदान करते हैं - 'कोटि-चंद्र सुशीतल'। वे प्रदीप्त सूर्य के समान हैं जो पापियों के पापकर्म व मूर्ख अज्ञानियों की अविद्या रूपी अंधकार को बुझा देते हैं।”
(7)
नटन्तं गायन्तं हरिमनुवदन्तं पथि पथि
व्रजन्तं पश्यन्तं स्वमपि नदयन्तं जनगणं।
प्रकुर्वन्तं सन्तं सकरुणदृगन्तं प्रकलनाद्
भजे नित्यानंदं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
“मैं, भक्ति कल्पलता के असीम आधार भगवान् नित्यानंद की आराधना करता हूँ। उन्होंने भगवान हरि के नामों का गान करते हुए, उनकी महिमा का वर्णन करते हुए, नृत्य करते हुए, प्रत्येक मार्ग पर यात्रा की। अपनी स्वयं की रुचियों पर विचार न करते हुए, वे लोगों के प्रति उदार थे और उन्होंने उन लोगों पर अपना दयापूर्ण कृपाकटाक्ष डाला।”
(8)
सुबिभ्राणं भ्रातुः क रसरसिजं कोमलतरं
मिथो वक्त्रालोकोच्छलितपरमानन्दहृदयम्।
भ्रमन्तं माधुर्यैरहह! मदयन्तं पुरजनान्
भजे नित्यानंदं भजनतरुकन्दं निरवधि॥
“मैं, भक्ति कल्पवृक्ष के असीम आधार भगवान् नित्यानंद की आराधना करता हूँ, जो सदैव अपने भाई श्रीचैतन्य के साहचर्य में रहते हैं और उनके कोमल और सुन्दर हाथों को स्नेहपूर्वक पकड़कर चलते हैं। जब वे अपने प्राणनाथ श्रीगौरचंद्र के मुखकमल को निहारते हैं, तब वे प्रेमोन्माद से उन्मत्त हो जाते हैं। वे दोनों एक साथ, अपने मधुर सौंदर्य द्वारा नगर के लोगों को आनंद प्रदान करते हुए, इधर-उधर विचरण करते रहे।”
(9)
रसानामाधारं रसिकवर-सद्वैष्णव-धनं
रसागारं सारं पतित-ततितारं स्मरणतः।
परं नित्यानन्दाष्टकमिदमपुर्वं पठति यः
तदंध्रिद्वन्द्वाब्जं स्फुरतु नितरां तस्य हृदये॥
वृन्दावन दास ठाकुर कहते हैं कि जो प्रतिदिन नित्यानंद प्रभु के नित्यानन्दष्टकं का पाठ करते हैं, उन्हें निश्चित ही नित्यानंद प्रभु की कृपा प्राप्त होगी और वे नित्यानंद प्रभु के सुदुर्लभ चरणकमलों के दर्शन लाभ करेंगे। फिर नित्यानंद प्रभु, जो रसिक भक्तों के प्राणनाथ, सभी रसों के आगार, तीनों लोकों के सार हैं और जिनका स्मरण करने से पापियों के पापकर्म नष्ट हो जाते हैं, उन्हें भक्ति-रस प्रदान करेंगे।
जय श्री नित्यानंद प्रभु की जय! पतित पावन श्री निताईचंद्र की जय!
पतित उद्धार श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
नित्यानंद और बाँका राय
नित्यानंद प्रभु के पिता का नाम श्री हड़ाई ओझा और माता का नाम श्रीमती पद्मावती था। नित्यानंद प्रभु के प्राकट्य के कुछ अंतराल में ही माता पद्मावती ने एक और पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम ‘बाँका राय’ था। दोनों भाई, नित्यानंद और बाँका राय, दोनों भाई एकचक्र ग्राम में प्रकट हुए थे। गाँव के निकट ही यमुना नदी बहती है और बाल्यकाल में, नित्यानंद और बाँका राय अपने मित्रों व संगियों सहित नदी के तट पर विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ किया करते थे, जिसमें श्रीकृष्ण तथा श्रीराम की लीलाएँ भी सम्मिलित थीं।
बाँका अर्थात् ‘त्रिवक्र’ या ‘त्रिभंगी’, अतएव ‘बाँका’ शब्द श्रीकृष्ण को इंगित करता है और ‘राय’ श्रीमती राधारानी को। जब श्रीकृष्ण एवं श्रीमती राधारानी के दिव्य स्वरूप मिलते हैं, तब बाँका राय व गौरांग महाप्रभु का आविर्भाव होता है। अतः ‘बाँका राय’ का अर्थ है राधा-कृष्ण का युगल रूप, अर्थात् श्रीगौरांग महाप्रभु।
द्वापर युग का विशाल सर्प
एक बार दोनों भाई अपने नाना के गाँव मयूरेश्वर गए हुए थे। उस गाँव के पास ही एक घना जंगल था। एक दिन, जब दोनों भाई उस जंगल में प्रवेश करने लगे, तो ग्रामवासियों ने उन्हें रोका, " अरे! जंगल में एक अत्यंत विशाल और विषैला सर्प रहता है, जो भी व्यक्ति वहां जाता है, वे सर्प उसे डस लेता है और वह कभी वापस नहीं लौटता। अतएव वहाँ मत जाओ।" परन्तु, दोनों भाई ग्रामवासियों की चेतावनी को अनसुनी करते हुए जंगल में प्रवेश कर गए।
वहाँ तमाल वृक्ष के नीचे एक अत्यंत विषैला सर्प रहता था। जैसे ही दोनों भाइयों ने जंगल में प्रवेश किया, वह अपना फन फैलाकर बाहर आया। नित्यानंद प्रभु पूर्ण निर्भीकता से अपनी दोनों भुजाएँ उठाकर कहने लगे, “अरे दुष्ट! वहीं रुक जा! आगे मत बढ़!” नित्यानंद प्रभु की गर्जना सुनकर साँप वहीं रुक गया। “तुम निर्दोष व्यक्तियों को क्यों डस रहे हो?” नित्यानंद प्रभु नागराज ‘अनंत-शेष’ हैं, इसलिए उनका निर्देश सुनकर सर्प रुक गया। तब उस सर्प ने उन्हें द्वापरयुग का अपना इतिहास बताया।
एकचक्र ग्राम में पाण्डव
सर्प कहने लगा, “द्वापरयुग में, लाक्षागृह दहन के पश्चात्, ब्राह्मणों के वेश में पाँचों पाण्डव विभिन्न गाँवों में विचरण करते हुए गुप्त रुप से भिक्षाटन कर रहे थे।। उसी समय वे एकचक्र गाँव भी पधारे जहाँ उनकी भेंट श्रील व्यासदेव से हुई। व्यासदेव ने उन्हें वेदश्रवा नामक ब्राह्मण के घर पर निवास करने का निर्देश किया। वेदश्रवा एक निर्धन ब्राह्मण था और भिक्षाटन करने के लिए प्रतिदिन भिन्न-भिन्न द्वारों पर जाता था। ऐसी दयनीय स्थिति में भी उसने अपने घर का आधा भाग पाण्डवों तथा माता कुंती को रहने के लिए दे दिया। तत्पश्चात प्रतिदिन चार भाई क्रमिक रूप से भिक्षाटन करने के लिए बाहर जाने लगे, और एक भाई माता कुंती के साथ रहता था। यह क्रम प्रतिदिन बदलता था।"
दानव बक़ासुर
एक दिन, क्रमानुसार जब भीमसेन माता कुंती के साथ रुके, तो कुंतीदेवी ने वेदश्रवा की पत्नी, को क्रंदन करते हुए सुना। वे उसके पास गयीं और पूछा, "बहन, तुम्हारे रुदन का क्या कारण है?"
ब्राह्मणी ने बतलाया, "गाँव से चार-पाँच मील दूर बक़ासुर नामक एक दानव रहता है। पूर्वकाल में वह दानव प्रतिदिन गाँव में आकर अत्यंत निर्दयता से अनेक जानवरों तथा मनुष्यों को मारकर खा जाता था। तदुपरांत एक बार गाँव के सभी निवासियों ने एकत्रित होकर पंचायत की और सर्वसम्मति से एक निर्णय लिया। उन्होंने दानव से अनुरोध किया कि वह प्रतिदिन गाँव में आकर जीवों की हत्या न करे, गाँववासी प्रतिदिन उसके आहार हेतु एक मानव, एक अन्न से भरा शकट, चावल, पीठा और दो भैंसे स्वत: ही भेज देंगे। इसके पश्चात उसे गाँव में आकर उपद्रव मचाने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।
वह दानव अत्यंत प्रसन्न हुआ और बोला, "हाँ, यह बहुत सुंदर व्यवस्था है! अगर तुम सब प्रतिदिन मेरे भोजन हेतु पर्याप्त मात्रा में आहार भेज दोगे, तो फिर मैं यहाँ क्यों आऊँगा?" इस प्रकार, एक-एक ग्रामवासी, क्रम के अनुसार प्रतिदिन अपने घर से दानव के लिए निश्चित खाद्य सामग्री भेजता है।” एकचक्र अत्यंत विशाल गाँव था और समस्त ग्रामवासी एकमत थे। अतः प्रत्येक गृहस्थ की बारी तैंतीस वर्ष, दो महीने और बीस दिन में एक बार आती थी।
भीम बक़ासुर का वध करता है
एक दिन पहले गाँव के उद्घोषक ढोल बजाकर आगामी बारी की घोषणा किया करते थे। अतएव उन्होंने घोषणा की, "कल वेदश्रवा की बारी है।" उस गरीब ब्राह्मण के परिवार में केवल चार व्यक्ति थे: ब्राह्मण वेदश्रवा, उनकी पत्नी उमादेवी, उनका दस वर्षीय पुत्र विद्याधर और उनकी आठ वर्षीय पुत्री भानुमति।
अतः ब्राह्मण ने दो भैंसे, एक शकट अनाज, चावल और पीठा तैयार कर लिए। फिर अगला प्रश्न यह उठा कि बक़ासुर तक उसका भोजन लेकर कौन जाएगा? वेदश्रवा ने कहा, "मैं जाऊँगा।" उनके पुत्र ने कहा "नहीं, नहीं पिताजी। आप मत जाइए, मैं जाऊँगा।" जब बेटे ने ऐसा कहा, तो ब्राह्मणी रोने लगी। यह सुनकर कुंतीदेवी वहाँ आयीं और ब्राह्मणी ने उन्हें यह वृतांत सुनाया।
यह सुनकर कुंतीदेवी ने कहा, "कृपया क्रंदन मत कीजिए। तुम्हारा एक ही पुत्र है, परंतु मेरे पाँच पुत्र हैं, अत: मैं उनमें से एक का बलिदान दूँगी।" कुंतीदेवी भीम के पराक्रम से भलीभाँति अवगत थीं, अत: उन्होंने कहा, "मैं भीम को भेजूँगी। भीम अवश्य उस राक्षस का वध कर देगा और इस प्रकार गाँव के सभी निवासियों की रक्षा होगी।"
तत्पश्चात कुंतीदेवी ने भीम से कहा, "प्रियपुत्र भीम, तुम उस दानव बक़ासुर के पास जाओ। इस ब्राह्मण परिवार ने विपत्ति के समय हमें आश्रय प्रदान करके हम पर महान उपकार किया है। अतएव कठिन समय में अब हमें उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका केवल एक ही पुत्र है और आज उसे बक़ासुर का भोजन बनना पड़ेगा, जिसके कारण पूरा परिवार विलाप कर रहा है। इसलिए तुम्हें दानव तक उसका भोजन ले जाना चाहिए और उस दानव का वध करना चाहिए।"
यह सुनकर भीमसेन अत्यंत प्रसन्न हुए, " निश्चित रूप से माता! मैं अवश्य ही उस दानव के पास जाऊँगा!" अतएव भीम ने अनाज से भरी शकट, चावल और पीठे के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। अन्न और पीठा खाते हुए वे पूरे रास्ते उच्च स्वर में दानव को ललकार रहे थे, "अरे दानव बक़ासुर, कहाँ है तू? बाहर निकल! बाहर निकल!" जब उस दानवने देखा कि उसकी भोज्य सामग्री कोई और खा रहा है, तो वह कुपित हो उठा और उसने एक विशाल वृक्ष उखाड़ कर भीमसेन पर फेंका। प्रत्युत्तर में भीम ने भी एक विशाल वृक्ष उखाड़ कर दानव पर फेंका। तदुपरांत दोनों के मध्य भीषण युद्ध हुआ। अंतत: भीम ने उस दानव का वध कर दिया और वे पूरा भोजन खाकर रिक्त गाड़ी सहित गाँव वापस लौटने लगे।
अर्जुन का नागपाश
इसी बीच, अर्जुन भिक्षाटन करके वापस लौटे और उन्होंने देखा कि उनके अग्रज भ्राता भीम घर पर नहीं हैं। उन्होंने माता कुंती से पूछा, "भीम कहाँ हैं?" माता कुंती ने उन्हेंपूरा वृतांत सुनाया और बताया कि भीम बक़ासुर नामक राक्षस से युद्ध करने गए हैं। अर्जुन चिंतावश होकर विचार करने लगे, " भ्राता भीम अकेले ही उस दानव से युद्ध कर रहे होंगे और अवश्य विपत्ति में होंगे।" अर्जुन ने माता कुंती से कहा, "माँ, मैं भ्राता भीम की सहायता के लिए जा रहा हूँ। कृपया आप ब्राह्मण के घर में ही ठहरें।"
अर्जुन ने अपना गाण्डीव उठाया और युद्धक्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। पथ पर उनके मन में विचार आया, "मुझे वहाँ पहुँचने में विलम्ब हो जाएगा और भ्राता भीम निश्चित ही व्याकुल हो रहे होंगे।" इस प्रकार चिंतामग्न मन: स्थिति में अर्जुन ने नागपाश अस्त्र प्रक्षेपित करने का निर्णय लिया। तत्पश्चात उन्होंने नागपाश अस्त्र के प्रयोग हेतु मंत्रोच्चारण किया, "हे नाग! जाओ और उस दानव को बंदी बना लो।"
मार्ग पर आगे अर्जुन ने देखा कि भीम वापस आ रहे हैं। भीम ने बताया कि उन्होंने दानव का वध कर दिया है। अर्जुन ने कहा, "ओह! परंतु मैं तो नागपाश छोड़ चुका हूँ। वह उस दानव की तलाश में वहीं घूम रहा होगा और जब तक उसे वह दानव नहीं मिलेगा वह प्रत्येक प्राणी को निगल जाएगा। इसलिए मैं उसका शमन करने जा रहा हूँ।"
वहाँ पहुँचने पर अर्जुन ने देखा कि वह नाग इधर-उधर भ्रमण कर रहा है। अर्जुन ने उससे कहा, "हे नाग, तुम इस तमाल वृक्ष के नीचे रहो। तुम्हें कहीं अन्यत्र जाने और किसी को क्षति पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है।" तब उस नाग ने पूछा, "किंतु मैं जीवित कैसे रहूँगा? मैं भोजन क्या करूँगा?" अर्जुन ने कहा, "जो कोई भी इस तमाल वृक्ष के निकट आएगा, तुम उसे निगल लेना, परंतु इस वृक्ष से तनिक भी दूर मत जाना।"
इस प्रकार उस नाग ने नित्यानंद प्रभु को अपनी जीवन गाथा सुनाई, "अतः मैं, उस दिन सेलेकर अब तक इस तमाल वृक्ष के नीचे रहता आया हूँ और जो कोई भी यहाँ आता है मैं उसे निगल जाता हूँ।"
नित्यानंद प्रभु के पास केवल एक कुण्डल है
तत्पश्चात, नित्यानंद प्रभु ने नाग से कहा, "तुम इस छिद्र (बिल) के भीतर निवास करो। बाहर आकर किसी भी जीव को निगलने की आवश्यकता नहीं है।" यह सुनकर नाग ने पूछा, "मैं आहार के बिना जीवित कैसे रहूँगा?"नित्यानंद प्रभु ने उत्तर में कहा, "आज से स्थानीय लोग यहाँ आकर तुम्हारी पूजा-अर्चना करेंगे और तुम्हें भोग अर्पित करेंगे। तुम केवल वह भोग को ग्रहण करना। तुम्हें किसीमनुष्य, पशु या अन्य जीव का भक्षण करने की आवश्यकता नहीं है।"
नित्यानंद प्रभु ने अपने कर्ण से एक स्वर्ण का कुण्डल उतारकर छिद्र के मुख पर रख दिया। उस दिन से नित्यानंद प्रभु अथवा बलराम के पास केवल एक ही कुंडल है। वह कुंडल धीरे-धीरे एक बृहत् शिला में बदल गया, और आज उसके ऊपर एक अति सुंदर मंदिर स्थित है। अब यह पवित्र स्थान कुंडली-ताल, या कुंडली-दमन के नाम से जाना जाता है। आज भी, बहुत से लोग उस नाग की पूजा करने और भोग चढ़ाने जाते हैं।
बाँका राय का तिरोभाव
एक बार, बाँका राय एक खेत की रखवाली कर रहे थे। वह लगभग पाँच या दस हेक्टेयर की कृषि भूमि थी, परन्तु उस भूमि के अधिकांश भाग में खरपतवार उगेहुए थे। कुछ श्रमिक मिलकर उन्हें साफ़ कर रहे थे। मध्याह्न के समय बाँका राय ने श्रमिकों से कहा, "आपको भूख लगी होगी, घर जाकर भोजन कर लीजिए और अल्प विश्राम के उपरांत, अपराह्न में यह कार्य समाप्त कर लेना।"
श्रमिकों के जाने के पश्चात, बाँका राय ने स्वयं पूरे क्षेत्र की खरपतवार को एक घंटे से भी कम समय में निर्मूलित कर दिया। वास्तव में, यह कार्य पचास श्रमिक एक साथ मिलकर भी नहीं कर सकते थे।
जब श्रमिकों ने बाँका राय के इस अद्भुत कार्य को देखा, तो वे बाँका राय के पिता के पास गए और कहने लगे, "पंडित जी, हमारी श्रांतता देख आपके छोटे पुत्र बाँका राय ने हमें घर जाकर भोजन और विश्राम करने के लिए कहा, और फिर उन्होंने स्वयं ही एक घंटे के भीतर सभी खरपतवार साफ़ कर दिए; यह अत्यंत ही अद्भुत है। खरपतवार का ढेर अभी भी वहीं पर हैं।" यह सुनकर, सभी ग्रामीण पिता हड़ाई पण्डित और माता पद्मावती सहित इस अद्भुत दृश्य को देखने हेतु गए। सभी ने खरपतवार का ढेर देखा किंतु बाँका राय उन्हें कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुए क्योंकि वह अप्रकट हो गए थे।
नित्यानंद प्रभु ने बंकिम देव का विग्रह स्थापित किया
जब माता पद्मावती और सभी ग्रामीण क्रंदन करने लगे, तब अकस्मात् आकाशवाणी हुई, "आप अब मुझे नहीं देख पाएँगे, परन्तु आगामी एकादशी के दिन, आप मुझे एक दारु के रूप में यमुना नदी पर तैरते हुए पाएँगे। आप मेरी उसी रूप में सेवा-अर्चना कीजिएगा।" एकादशी के दिन कदंब-खंडी नामक स्थान पर ग्रामीणों को यमुना नदी पर एक दारू तैरता हुआ मिला। नित्यानंद प्रभु ने स्वयं उस दारु से बंकबिहारी, कृष्ण का एक विग्रह उत्कीर्ण किया और विग्रह को बंकिम देव के रूप में स्थापित किया। आज वहाँ बंकिम राय जी का एक अत्यंत सुन्दर मंदिर है और प्रत्येक नित्यानंद त्रयोदशी पर, मंदिर में धूम-धाम से एक विशाल उत्सव का आयोजन किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नित्यानंद प्रभु उन्ही विग्रह में प्रविष्ट होकर अप्रकट हुए थे ।
जय पतित-पावन महा अद्भुत करुण्यमय कारुणिक विग्रह
श्री श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
श्री नित्यानंद पतित-पावन
श्री श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
कली कलमशन अद्भुत दोयल करुणिक पतित-पावन
श्री श्री नित्यानंद प्रभु की जय!
गौर-निताई प्रेमनांदी! हरि हरिबोल!
गौर-निताई प्रेमनांदी! हरि हरिबोल!
निताई-गौर प्रेमनांदी! हरि हरिबोल!
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