श्रीबलराम – मूल भक्तावतार

 

मंगलाचरण: 

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

“विजय के साधनस्वरूप इस श्रीमद् भागवत का पाठ करने (सुनने) के पूर्व पूर्व मनुष्य को चाहिए कि वह श्री भगवान नारायण को, नरोत्तम नरनारायण ऋषि को, विद्या की देवी माता सरस्वती को तथा ग्रंथकार श्रील व्यास देव को नमस्कार करे।” (श्रीमद् भगवत १.२.४)

 

वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा।

आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ॥

“वैदिक साहित्य में, जिसमें रामायण पुराण कथा महाभारत सम्मिलित है, उसके आदि से अंत तक और मध्य में भी केवल हरि जो परम पुरुषोत्तम भगवान हैं उनका ही वर्णन है।” (हरिवंश, चैतन्य चरितामृत आदि लीला ७.१३१ के तात्पर्य में उद्धृत)

 

मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम्।

यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्॥

“परम पुरुषोत्तम भगवान सच्चिदानंद विग्रह – दिव्य आनंद, ज्ञान तथा शाश्वतता के मूर्तीमान रूप हैं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ, जिनकी कृपा से गूँगा वक्ता बन जाता है और लंगड़ा पर्वत को लाँघ जाता है। ऐसी है भगवान की कृपा।” (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १७.८०)

 

परमानंद हे माधव

पदुन्‌गलुचि मकरन्द॥१॥

से मकरन्द पान-करि

आनन्दे बोलो हरि-हरि॥२॥

हरिंक नामे वान्द वेला

पारि करिबे चका-डोला॥३॥

से-चका- डोलांक-पायारे

मन-मो रहू निरन्तरे॥४॥

मन मो निरन्तरे रहू

‘हा कृष्ण’ बोलि जावू जीव

मोते उद्धार राधा-धव॥५॥

१) “हे परम आनन्दसिंधु माधव! आपके चरण कमलों से अमृत रस प्रवाहित हो रहा है।” 

(२) “उस मधुर अमृत रस का पान करने के पश्चात मैं दिव्य उन्माद में ‘हरि! हरि!’ का उच्चारण एवं गान कर रहा हूँ।” 

 (३) “मैं हरिनाम के माध्यम से ऐसी नाव का निर्माण कर रहा हूँ जिससे भगवान्‌ जगन्नाथ मुझे इस भवसागर के पार ले जाऐंगे।” 

(४) “मेरा मन सदैव उन भगवान जगन्नाथ के चरणकमलों में अनुरक्त रहता है जिनके विशाल एवं गोल नेत्र हैं।” 

(५) “इस प्रकार ऐसी अवस्था में मैं ‘हा कृष्ण!’ पुकार कर अपने प्राण त्यागना चाहता हूँ। हे राधाकांत! कृपया मेरा उद्धार कीजिए।” 

 

धर्म: प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां

वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।

श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वर:

सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभि: शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्

“यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्णतया शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो जो माया से पृथक होते हुए सबों के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के संतापों को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि वेदव्यास द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सौंदर्य पूर्ण श्रीमद् भागवत ईश्वर साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी शास्त्र की क्या आवश्यकता है? जैसे जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के संदेश को सुनता है, वैसे वैसे ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके ह्रदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।”  (श्रीमद् भगवतम् १.१.२)

 

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं

शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।

पिबत भागवतं रसमालयं

मुहुरहो रसिका भुवि भावुका: ॥

“हे विज्ञ एवं भावुक जनों, वैदिक साहित्य रूपी कल्पवृक्ष के इस परिपक्व फल श्रीमद् भागवत को ज़रा चखो तो। यह श्री शुकदेव गोस्वामी के मुख से निस्सृत हुआ है, अतएव यह और भी रुचिकर हो गया है यद्यपि इसका अमृत रस मुक्त जीवों समेत समस्त जनों के लिए पहले से आस्वाद्य था।” (श्रीमद् भागवतम् १.१.३)

 

अनर्थोपशमं साक्षाद्भक्तियोगमधोक्षजे ।

लोकस्याजानतो विद्वांश्चक्रे सात्वतसंहिताम् ॥

“जीव के भौतिक कष्ट जिन्हें वह अनर्थ समझता है, भक्तियोग द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कम किए जा सकते हैं। किंतु अधिकांश जन इसे नहीं जानते, इसलिए विद्वान वेदव्यास ने इस वैदिक साहित्य का संकलन किया है जिसका संबंध परम सत्य से है।” (श्रीमद् भागवतम् १.७.६)

 

यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपूरुषे ।

भक्तिरुत्पद्यते पुंस: शोकमोहभयापहा ॥

“इस वैदिक साहित्य के श्रवण मात्र से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की प्रेमा भक्ति की भावना तुरंत अंकुरित होती है जो शोक, मोह तथा भय की अग्नि को तुरन्त बुझा देती है।” (श्रीमद् भागवतम् १.७.७)

 

श्रीमद्भ‍ागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं

यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते ।

तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं

तच्छृण्वन् सुपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नर:॥

“श्रीमद्भागवत पुराण निर्मल है। यह वैष्णवों को अत्यंत प्रिय है क्योंकि यह परमहंसों के शुद्ध तथा सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन करने वाला है। यह भागवत समस्त भौतिक कर्म से छूटने के साधन के साथ ही दिव्य ज्ञान वैराग्य तथा भक्ति की विधियों को प्रकाशित करता है। जो कोई भी श्रीमद्भागवत को गंभीरता पूर्वक समझने का प्रयास करता है, जो समुचित ढंग से श्रवण करता है और भक्ति पूर्वक कीर्तन करता है, वह पूर्णत: मुक्त हो जाता है।” (श्रीमद् भागवतम् १२.१३.१८)

 

अर्थोयं ब्रह्मसूत्राणां भारतार्थविनिर्णयः ।

गायत्रीभाष्यरूपोऽसौ वेदार्थ परिबृंहितः॥

“वेदांत सूत्रों का अर्थ, महाभारत का पूर्ण तात्पर्य, ब्रह्म गायत्री पर भाष्य, एवं वेदों का समुचित रूप से विस्तारित ज्ञान, सभी कुछ श्रीमद्भागवत में उपस्थित है।” (गरुड़ पुराण)

 

सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्‍धृतम्।

“समस्त वैदिक साहित्य एवं इतिहासों का सार श्रीमद् भागवत में एकत्रित किया गया है।” (श्रीमद् भागवतम् १.३.४१)

 

सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते ।

तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रति: क्‍वचित् ॥

“श्रीमद्भागवत को समस्त वैदिक दर्शन का सार कहा जाता है। जिसे इसके अमृतमय रस से तुष्टि हुई है वह कभी अन्य किसी ग्रंथ के प्रति आकृष्ट नहीं होगा।” (श्रीमद् भागवतम् १२.१३.१५)

 

‘कृष्ण-भक्ति-रस-स्वरूप’ श्री-भागवत ।

ताते वेद-शास्त्र हैते परम महत्त्व’ ॥

“श्रीमद् भागवत कृष्ण-भक्ति से उत्पन्न रस की सीधी सूचना देता है। अत: यह सारे वैदिक ग्रंथों से अधिक महत्त्वपूर्ण है।” (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला २५.१५0)

 

चारि-वेद-उपनिषदे यत किछु हय ।

तार अर्थ लञा व्यास करिला सञ्चय ॥

“व्यास देव ने "चारों वेदों एवं एक सौ आठ उपनिषदों में जितने वैदिक सिद्धांत हैं, उन्हें व्यासदेव ने संचित करके वेदांत सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया।” (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २५.९८)

 

येइ सूत्रे येइ ऋक विषय वचन ।

भगवते सेई ऋक श्लोके निबंधन ॥

“वेदांत-सूत्र में समस्त वैदिक ज्ञान का अर्थ बतलाया गया है और श्रीमदभागवतम में वही अर्थ अठारह हजार श्लोकों में वर्णित हुआ है।”  (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २५.९९)

 

जीवेर निस्तार लागी' सूत्र कैल व्यास ।

मायावादी भाष्य शुनिले हय सर्वनाश ॥

“श्रील व्यास देव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदांत-दर्शन प्रस्तुत किया, किंतु यदि कोई व्यक्ति शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है।” (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला ६.१६९)

 

याह भागवत पड़ वैष्णवेर स्थाने ।

एकांत आश्रय कर चैतन्य चरणे ॥

उन्होंने कहा “यदि तुम श्रीमद्भागवत समझना चाहते हो, तो तुम्हें किसी स्वरूपसिद्ध वैष्णव के पास जाकर उससे सुनना चाहिए। तुम ऐसा तब कर सकते हो, जब तुम श्री चैतन्य महाप्रभु के चरण कमलों में पूरी तरह से शरण ग्रहण करते हो।” (चैतन्य चरितामृत अंत्य लीला ५.१३१)

 

भागवत ये ना माने सेई यवन सम ।

तारा सष्ठ आछे जन्मे जन्मे प्रभु यम ॥

“जो व्यक्ति श्रीमद भगवतम को स्वीकार नहीं करता वह यवन के समान है और यमराज उसे जन्म पर्यंत जन्म दंड देते हैं।” (चैतन्य भागवत आदि खंड २.३९)

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥

 

भगवान बलराम का आविर्भाव

 

ते पीडिता निविविशुः कुरुपञ्चालकेकयान् ।

शाल्वान्विदर्भान्निषधान्विदेहान्कोशलानपि ॥

“असुर राजाओं द्वारा सताये जाने पर यादवों ने अपना राज्य छोड़ दिया और कुरुओं, पञ्चालों, केकयों, शाल्वों, विदर्भों, निषधों, विदेहों तथा कोशलों के राज्य में प्रविष्ट हुए।” (श्रीमद् भागवतम् १0.२.३)

 

एके तमनुरुन्धाना ज्ञातयः पर्युपासते ।

हतेषु षट्स बालेषु देवक्या औग्रसेनिना ॥

सप्तमो वैष्णवं धाम यमनन्तं प्रचक्षते ।

गर्भो बभूव देवक्या हर्षशोकविवर्धनः ॥

“किन्तु उनके कुछ सम्बन्धी कंस के इशारों पर चलने लगे और उसकी नौकरी करने लगे। जब उग्रसेन का पुत्र कंस देवकी के छह पुत्रों का वध कर चुका तो देवकी के गर्भ में कृष्ण का स्वांश प्रविष्ट हुआ, जिससे उसमें कभी सुख की तो कभी दुख की वृद्धि होती। यह स्वांश महान् मुनियों द्वारा अनन्त नाम से जाना जाता है और कृष्ण के द्वितीय चतुर्व्यूह से सम्बन्धित है।” (श्रीमद् भागवतम् १0.२.४–५)

 

कुछ प्रमुख भक्तगण, यथा अक्रूर कंस के साथ उसकी तुष्टि के लिए रहते रहे। ऐसा उन्होंने कई उद्देश्यों से किया। उन सबको आशा थी कि कंस द्वारा देवकी के अन्य पुत्रों के वध के पश्चात् आठवें पुत्र के रूप में भगवान् प्रकट होंगे अतः वे उत्सुकतापूर्वक उनके प्राकट्य की प्रतीक्षा करने लगे। कंस के साथ रहने से वे भगवान को जन्म लेते तथा बाल लीलाएँ करते देख सकेंगे और भविष्य में अक्रूर कृष्ण तथा बलराम को वृन्दावन से मथुरा ले जाने के लिए जाएँगे ही। पर्युपासते शब्द महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह सूचित करता है कि कुछ भक्त कंस के पास इसलिए रुकना चाहते थे ताकि वे भगवान् की इन समस्त लीलाओं का दर्शन कर सकें। कंस ने जिन छह बालकों का वध किया था वे पूर्वजन्म में मरीचि के पुत्र थे किन्तु एक ब्रह्मा के श्रापवश उन्हें हिरण्यकशिपु के नातियों के रूप में जन्म लेना पड़ा। कंस ने कालनेमि के रूप में जन्म लिया था और अब वह अपने ही पुत्रों को मारने के लिए विवश था। यही वह रहस्यपूर्ण बात थी। ज्योंही देवकी के पुत्र मारे जाते, वे अपने मूल स्थान लौट जाते। भक्तगण इसे भी देखना चाहते थे। सामान्यतया कोई भी व्यक्ति अपने भाँजों को नहीं मारता किन्तु कंस इतना क्रूर था कि बिना किसी झिझक के वह ऐसा करता था। अनन्त या संकर्षण द्वितीय चतुर्व्यूह से सम्बन्धित हैं। यह अनुभवी टीकाकारों का मत है। (10.2.4-5 तात्पर्य)

 

अक्रूर इत्यादि कुछ प्रमुख भक्त, कंस की प्रसन्नता हेतु उसके साथ मथुरामंडल में ही रुके रहे। कंस ने पहले ही देवकी के छः पुत्रों का वध कर दिया था, अतः सातवीं गर्भावस्था के आगमन पर उन्हें सुख और विलाप दोनों का एक साथ अनुभव हो रहा था। कृष्ण के द्वितीय चतुर्व्यूह विस्तार को महान साधुओं द्वारा अनंत के रूप में जाना जाता है। देवकी के सातवें गर्भ के समय वसुदेव की, तब दूसरी पत्नी रोहिणी भी गर्भवती थीं। जब वसुदेव ने देखा कि रोहिणी गर्भवती हैं तो उन्होंने रोहिणी को नंद-गोकुल भेज दिया।

 

श्रीमद् भगवतम के दशम स्कंध में वर्णन है –

गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्क तम् ।

रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुले ।

अन्याश्चकंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥

भगवान् ने योगमाया को आदेश दिया: “हे समस्त जगत द्वारा पूज्या तथा समस्त जीवों को सौभाग्य प्रदान करने वाली शक्ति, तुम ब्रज जाओ जहाँ अनेक ग्वाले तथा उनकी पत्नियाँ रहती हैं। उस सुन्दर प्रदेश में जहाँ अनेक गौवें निवास करती हैं, वसुदेव की पत्नी रोहिणी नन्द महाराज के घर में रह रही हैं। वसुदेव की अन्य पत्नियाँ भी कंस के भय से वहीं अज्ञातवास कर रही हैं। कृपा करके वहाँ जाओ।” (श्रीमद् भागवतम् १०.२.७)

 

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।

तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ॥ 

“देवकी के गर्भ में संकर्षण या शेष नाम का मेरा अंश है। तुम उसे बिना किसी कठिनाई के रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित कर दो।” (श्रीमद् भागवतम् १०.२.८)

 

कृष्ण के अंशावतार, अंनत शेष या संकर्षण, अपने एक फण पर भौतिक ब्रह्मांड को सरसों के दाने की भाँति धारण करते हैं। उन्हें अनंतदेव भी कहा जाता है क्योंकि वह अपने फणों पर अनंतकोटी ब्रह्मांडों को धारण करते हैं। अनंतदेव अपने अनंत मुखों से  निरन्तर कृष्ण-कथा का वर्णन करते रहते हैं। वे अनादि काल से कृष्ण का गुणगान कर रहे हैं, जो अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। श्री बलराम रोहिणी के शाश्वत पुत्र हैं। यद्यपि, वे सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में प्रकट हुए, वे योगमाया द्वारा रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिए गए। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि वे पहले देवकी के गर्भ में क्यों प्रकट हुए? वे सीधे रोहिणी के गर्भ में क्यों नहीं आए? योगमाया को उन्हें स्थानांतरित करने का निर्देश क्यों दिया गया? क्या कोई उत्तर दे सकता है?

भक्त: उन्होंने कृष्ण के अवतरण के लिए देवकी के गर्भ को तैयार किया?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: बलराम ने ही गर्भ क्यों तैयार किया? किसी अन्य ने क्यों नहीं?

भक्त: बलराम दास्य भाव में हैं, इसलिए वे सेवक की तरह पहले आकर कृष्ण के लिए सभी व्यवस्था करते हैं।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: रस दो प्रकार के होते हैं; साख्य और दास्य। बलराम सदा दास्य रस में रहते हैं। वे कृष्ण के बड़े भाई हैं। चैतन्य चरितामृत में कहा गया है कि:

 

आनेर कि कथा, बलदेव महाशय।

याँर भाव शुद्ध-सख्य-वात्सल्यादि-मय ॥

“औरों की बात छोड़िये, यहाँ तक कि भगवान् बलदेव भी शुद्ध साख्य तथा वात्सल्य-प्रेम जैसी भावनाओं से परिपूर्ण हैं।” (श्रीचैतन्य चरित्रामृत आदि लीला ६.७६)

तेंहो आपनाके करेन दास-भावना।

कृष्ण-दास-भाव विनु आछे कोन जना ॥

“वे भी स्वयं को भगवान् कृष्ण का दास समझते हैं। निस्सन्देह, ऐसा कौन होगा जो भगवान् कृष्ण का दास होने का यह भाव नहीं रखेगा?” (श्रीचैतन्य चरित्रामृत आदि लीला ६.७७)

 

बलराम स्वयं को कृष्ण का दास मानते है, इसलिए वह निरन्तर कृष्ण की सेवा में रत रहते हैं।

 

बलराम दस रूपों में कृष्ण की सेवा करते हैं

 

सहस्र-वदने येंहो शेष-सङ्कर्षण ।

दश देह धरि' करे कृष्णेर सेवन ॥

“वे जो शेष रूपी संकर्षण हैं, वे अपने हजारों मुखों से, दस रूपों को प्रकट श्रीकृष्ण की सेवा करते हैं।“ (श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ६.७८)

 

बलराम कृष्ण की सेवा के लिए दस रूप धारण करते हैं - शय्या, आसन, तकिया, चामर, पादुका, पंखा, छत्र, वस्त्र, आभूषण और यज्ञोपवीत (जनेऊ)। श्रीकृष्ण के निर्देश पर बलराम सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में प्रकट हुए, और उन्होंने गर्भ को पवित्र व शय्या के रूप में विस्तार करके श्रीकृष्ण की सेवा की। तत्पश्चात कृष्ण ने योगमाया को उन्हें देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित करने का आदेश दिया।

 

देवकी की गर्भ में छः प्राकृत जीव कैसे प्रकट हो सकते हैं?

जब योगमाया ने बलराम को रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित किया, तो उन्हे यह स्वप्नवत लगा। देवकी एवं रोहिणी, दोनों को प्रत्यक्षतः कुछ भी अनुभव नहीं हुआ।

 

देवकी भगवान की माँ हैं, अतः उनका गर्भ भौतिक गर्भ नहीं हो सकता है। वे शुद्ध-सत्व-मयी हैं। फिर, उनके गर्भ में छः प्राकृत जीव कैसे उत्पन्न हुए जिनकी कंस ने हत्या की थी? क्या आप इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं?

 

भक्त: ये पुत्र छः दुर्गुणों के प्रतीक हैं।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: कौन से दुर्गुण?

भक्त: क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: यह उचित उत्तर नहीं है। मैं आगे इसका विस्तार से वर्णन करूँगा। परन्तु, मेरा प्रश्न अलग है, ऐसा किस प्रकार संभव है कि छः भौतिक बद्धजीव देवकी के गर्भ में प्रकट हुए, जो शुद्ध-सत्त्व मय है?

 

देवकी का गर्भ अस्पृश्य रहा

भक्त: देवकी का गर्भ उसी तरह अस्पृश्य रहा, जैसे प्रलय के समय महा-विष्णु के दिव्य-शरीर में जीवों के प्रवेश करने पर भी उनका शरीर उन सभी जीवात्माओं से अस्पृश्य रहता है।

 

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: आपको उत्तर ज्ञात है।

 

जब महा-प्रलय होती है, तो जीव और भौतिक प्रकृति महाविष्णु के शरीर में प्रवेश करते हैं, फिर भी वह अस्पृश्य रहते हैं। उसी तरह इन छः भौतिक जीवों के देवकी के गर्भ में प्रवेश करने पर भी देवकी का शुद्ध-सत्व मय गर्भ अस्पृश्य रहा। यह भगवान की योग शक्ति से ही संभव है। भगवद् गीता के नौवें अध्याय में कृष्ण ने कहा है-

 

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना I

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ॥

 “सभी जीव मुझमें उपस्थित हैं परंतु मैं उनमें नहीं हूँ।” सभी जीव कृष्ण में उपस्थित हैं किंतु कृष्ण का उनसे कोई संबंध नहीं है। वह सदैव भगवद्-राज्य में निवास करते हैं। उसी प्रकार यह छः असुर पुत्र देवकी के गर्भ में प्रविष्ट तो हुए परंतु वे अस्पृश्य रहीं और उनका उन छः पुत्रों से कोई संबंध नहीं था।

 

देवकी के छः पुत्रों का रहस्य

देवकी के छः पुत्र कौन थे? वे क्यों प्रकट हुए? श्रील प्रभुपाद तात्पर्य में कहते हैं कि यह एक रहस्य है:

“देवकी के छह पुत्र जिनका वध कंस द्वारा हुआ था, पूर्वत: वे मरीची ऋषि के पुत्र थे। किंतु ब्रह्मा द्वारा श्रापित होने के कारण उन्होंने हिरण्यकशिपु के नातियों के रूप में जन्म लिया। उसी समय कंस ने कालनेमी के रूप में जन्म लिया था और विधान के अनुसार उसे अपने पुत्रों का वध करना था। यह एक रहस्य है।” परंतु, वह रहस्य क्या है?

हिरण्यकशिपु के पुत्र कालनेमी के छह पुत्र थे। उनके नाम हंस, सुविक्रम, क्राथ, दमन, रिपूरमर्दन और क्रोधहन्ता थे। उन्हें षड्-गर्भ कहा जाता था। वे अत्यंत शक्तिशाली और युद्ध कला में निपुण थे। ये षड्-गर्भ अपने पितामह हिरण्यकश्यपु का परित्याग कर ब्रह्मा जी की तपस्या करने लगे। ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर उन्हें स्वेच्छा से वरदान माँगने की आज्ञा दी। षड्-गर्भों ने कहा, "हे ब्रह्मा जी, आप हमें यह वरदान दें कि हम किसी भी देवता, महा-रोग, यक्ष, गंधर्व-पति, सिद्ध, चारण, महान ऋषि या मनुष्य द्वारा न मारे जाएँ।" ब्रह्मा जी ने कहा, "तथास्तु।"

 

जब हिरण्यकशिपु को यह ज्ञात हुआ, तो वह अपने पौत्रों पर बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने कहा, "तुम लोग मेरा संग छोड़कर भगवान ब्रह्मा की उपासना कर रहे हो। अब मुझे तुमसे कोई प्रेम नहीं है। तुमने स्वयं की देवताओं से सुरक्षा के लिए प्रयास किया है, लेकिन मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हारा पिता ही कंस के रूप में तुम सबकी हत्या कर डालेगा। तुम सभी देवकी के पुत्रों के रूप में जन्म लोगे।" इस श्राप के कारण षड्-गर्भों को देवकी के गर्भ से जन्म लेना पड़ा और वे सभी कंस द्वारा मारे गए। यह कथा हरिवंश और विष्णु पुराण में वर्णित है।

 

श्रील जीव गोस्वामी कृत वैष्णव-तोषिणी के अनुसार, षड्-गर्भ अपने प्रथम जन्म में मरीचि के पुत्र थे। द्वितीय जन्म में वे कालनेमी, और तृतीय जन्म में देवकी के पुत्र हुए। कंस द्वारा वध के पश्चात वे सब सुतल लोक में बलि महाराज के पास चले गए।

 

जब अक्रूर बलराम और कृष्ण को मथुरा ले गए, तो देवकी ने भगवान् से कहा, "मैं अपने छह पुत्रों को पुनः देखना चाहती हूँ"। इसलिए, बलराम और कृष्ण, बलि महाराज के निवास स्थान पदम  गए, और अपने छः भाइयों को वापस लाकर माता देवकी को उपहार में दिया । उस समय, अति स्नेहवश, देवकी ने अपने सबसे छोटे पुत्र कृष्ण को  स्तनपान कराया। इससे पूर्व कंस के कारागार में, कृष्ण चतुर्भुज वासुदेव रूप में प्रकट हुए थे। देवकी ने अनुरोध किया, "कृपया शिशु रूप धारण करें प्रभु।" परन्तु शिशु रूप में कृष्ण ने आदेश दिया, "मुझे शीघ्र नंद-गोकुल पहुँचा दो"। अतः जन्म के समय देवकी को स्तनपान कराने का अवसर नहीं मिला था। कृष्ण मूलतः यशोदा मैय्या के पुत्र हैं। इसलिए वे यशोदा का स्तनपान करते थे।  परन्तु, आज प्रथम बार वे देवकी का स्तनपान कर रहे थे। इस प्रकार जब बलराम और कृष्ण अपने छ: भाइयों को सुतल लोक से वापस लाए, तो देवकी ने सर्वप्रथम अपने सबसे छोटे पुत्र कृष्ण को स्तनपान कराया, और फिर अपने अन्य पुत्रों को। कृष्ण का अवशेष या प्रसाद पाकर षड्-गर्भ देव लोकों में चले गए।

 

छ: शत्रु

इन छ: पुत्रों के पिता मरीचि ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं। वास्तव में ये छ: पुत्र मन के छ: शत्रु, छ: भौतिक सुख अथवा षड् विषय-भोग हैं। पाँच ज्ञानेंद्रियों के विषय को पंच तन्मात्र कहते हैं। इसके अंतर्गत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध आते हैं। हमारा मन ज्ञानेंद्रियों द्वारा भोग-विलास में रत रहता है। अतः ये पाँच विषय और मन, षड् विषय-भोग कहलाते हैं।

 

देवकी भक्त-अवतार हैं, जिनके गर्भ में परमेश्वर स्वयं प्रकट हुए। कंस हमेशा कृष्ण से भयभीत रहता था, और कृष्ण को साक्षात् काल के रूप में देखता था, जो प्रतिक्षण उसे मारने आ रहा हो। कृष्ण का नाम सुनकर कंस भय से कांप उठता था। अतः कंस भय अवतार है।

 

जब कंस ने देवकी के छ: पुत्रों का वध किया, जो वास्तव में षड् विषय-भोग हैं, तब देवकी की कोख शुद्ध सत्त्वमयी हो गई। जब षड् विषय-भोग  नष्ट हो जाते हैं, तब शुद्ध भक्ति का उदय होता है। प्रामाणिक साधु गुरु के मुख से कृष्ण कथा का श्रवण और भगवन्नाम का जप करने से ये षड् विषय-भोग  क्रमशः कम होते जाते हैं और अंततः पूर्णतः समाप्त हो जाएंगे। तब शुद्ध भक्ति का उदय होता है। जब देवकी के छः पुत्रों का विनाश हो जाएगा, तो सातवें गर्भ में अनन्तदेव या बलराम होंगे, जो कृष्ण की शय्या का रूप धारण करते हैं। तत्पश्चात, आठवें गर्भ में स्वयं परमेश्वर श्री कृष्ण का प्रादुर्भाव होता है।

 

रोहिणी का गर्भ अनंत धाम बन गया

जब रोहिणी तीन माह की गर्भवती थी, तब वासुदेव ने उन्हें श्रावण मास की एक संध्या को गुप्त रूप से गोकुल भेज दिया और आज श्रवण पूर्णिमा है, इसी पवित्र तिथि में बलराम का प्राकट्य हुआ था। रोहिणी अश्व पर सवार होकर नन्द महाराज के घर आयीं थी। उनके आगमन से, समस्त शुभ लक्षण भी प्रकट हो गए। नन्द महाराज के परिवारिक सदस्य जैसे गोप, यशोदा और अन्य सभी गोपियाँ अति प्रसन्न और प्रमुदित थे।

 

यशोदा और रोहिणी अत्यधिक घनिष्ठ सखियाँ थीं। जीव गोस्वामी द्वारा रचित गोपाल-चंपू में उल्लेख है कि जब रोहिणी नंद-गाँव आईं तब वो तीन महीने की गर्भवती थी। श्री कृष्ण माघ मास में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को योगमाया देवी के साथ यशोदा के गर्भ में प्रकट हुए थे।

 

रोहिणी की गर्भावस्था के सातवें महीने में, योगमाया ने देवकी को गर्भपात के रूप में चित्रित करने की व्यवस्था की और बलराम को रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया। स्थानांतरण के समय रोहिणी गहरी निद्रा में थीं और उन्हें यह सब स्वप्नवत प्रतीत हुआ। रोहिणी का गर्भ अनंत धाम बन गया और नंद-गाँव में अनेक शुभ लक्षण प्रकट हुए। रोहिणी के आगमन के उपरांत नंद भवन में प्रतिदिन भव्य उत्सव होने लगे। समस्त गोप और गोपियाँ अपार हर्ष और आनंद का अनुभव कर रहे थे।

 

बलराम श्रावण पूर्णिमा को प्रकट हुए

माघ माह तक रोहिणी सात महीने की गर्भवती थीं, परंतु बलदेव श्रावण पूर्णिमा में प्रकट हुए। सात मास और माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण मिलाकर १४ मास हुए, अर्थात भगवान् बलराम १४ मास तक रोहिणी के गर्भ में रहे। श्रावण नक्षत्र के शुभ मुहूर्त में पूर्णिमा के दिन बलराम प्रकट हुए। समस्त गोकुल नगर अति हर्षित और आनंदित था। शिशु बलराम की शारीरिक कांति पूर्णिमा के चाँद की भाँति उज्ज्वल थी। उनकी भुजाएँ दीर्घ, अजानु-लंबित-भुजौ, और उनके नेत्र पूर्ण विकसित कमल के सदृश विस्तृत थे। उनके चंद्र वदन में उन्नत नासिका थी। इस प्रकार उनके शरीर में सभी महापुरुष के लक्षण विद्यमान थे। जब भगवान बलराम रोहिणी के गर्भ से बाहर आए, तो स्वर्गलोक से देवताओं ने उच्च स्वर में "जय, जय बलराम!" का उद्घोष किया। ढोल और अन्य वाद्य यंत्र बजाते हुए देवताओं ने नंद महाराज के आगार पर पुष्प वर्षा किया।

 

बलराम के प्रकट होने के उपरांत गोकुल समस्त वैभव, धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। महाराज वसुदेव ने बालक का जात-संस्कार करने के लिए ब्राह्मणों को गोकुल में भेजा।

 

बलराम पाँच अन्य रूपों में भी सेवा करते हैं

बलराम, श्रीकृष्ण की दस रूपों में सेवा करते हैं, "दश देह धरि करें कृष्णेर सेवन"। साथ ही, वे "पंच-रूप", में कृष्ण की लीलाओं में सहायक होते हैं – संकर्षण, अनंत शेष और तीन पुरुष-अवतार: कारणोदकशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु और क्षीरोदकशायी विष्णु। बलराम मथुरा और द्वारका में सदैव कृष्ण के साथ रहते हैं और मूल संकर्षण के रूप में उनकी सेवा करते हैं। अनंत शेष के रूप में अनादि काल से अनवरत श्रीकृष्ण का महिमामंडन कर रहे हैं और आज भी वह चल रहा है। साथ ही, वे अपने फणों पर अनंत ब्रह्मांडों को धारण करते हैं। तीन पुरुष-अवतारों के रूप में वे इस भौतिक धरातल की सृष्टि करने में श्रीकृष्ण की सहायता करते हैं।

 

त्रिपुरुषावतार

प्रथम पुरुषावतार, कारणोदकक्षायी विष्णु, या महाविष्णु, प्रकृति-अंतर्यामी-पुरुष  हैं। कारण सागर पर लेटे हुए वे भौतिक प्रकृति पर दृष्टि डालकर उसे गर्भवती करते हैं। उनकी त्वचा के रोमकूपों से असंख्य ब्रह्मांड निकलते हैं। द्वितीय पुरुषावतार गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में, वे प्रत्येक ब्रह्मांड में प्रवेश करते हैं, अतः उन्हें ब्रह्मांड-अंतर्यामी  भी कहा जाता है। तृतीय पुरुषावतार क्षीरोदकशायी विष्णु या परमात्मा के रूप में, वे समस्त प्राणियों के हृदय में प्रवेश करते हैं और उन्हें भूत-अंतर्यामी के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार, बलराम पाँच अलग-अलग रूपों में कृष्ण की लीलाओं में सहायता करते हैं। यद्यपि ये तीन पुरुष-अवतार, कारणोदकक्षायी, गर्भोदकशायी और क्षीरोदकशायी विष्णु माया के संपर्क में रहते हैं, फिर भी वे माया के प्रभाव से अस्पृष्य रहते हैं।

 

महा संकर्षण समस्त जीवों के आश्रय हैं

बलराम मूल संकर्षण हैं। वैकुंठ में उनके विस्तार को महासंकर्षण कहा जाता है। जीव महासंकर्षण की शरण लेते हैं। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी और श्रील जीव गोस्वामी ने इसका उल्लेख किया है।

 

जीव-नाम तटस्थाख्य एक शक्ति हय।

महा- सङ्कर्षण – सब जीवेर आश्रय ॥

“एक तटस्थ शक्ति है, जो जीव कहलाती है। महा-संकर्षण उन सभी जीवों के आश्रय हैं।” (श्रीचैतन्य-चरितामृत आदि लीला ५.४५)

 

भगवान् की अनेक शक्तियों में से एक तटस्था शक्ति या जीव शक्ति है। महासंकर्षण - सब जीवेर आश्रय, सभी तटस्थ जीव महासंकर्षण की शरण लेते हैं।

अपने संदर्भो में श्रील जीव गोस्वामी ने उल्लेख किया है कि तटस्था-शक्ति जीव परमात्मा के ‘परमात्मा-वैभव’ हैं। "ममैवांशो जीवलोके", जीव परमात्मा के अंश हैं।

 

इस प्रकार बलराम कृष्ण की वृन्दावन-लीला, मथुरा-लीला, द्वारका-लीला, वैकुंठ-लीला, सृष्टि-लीला और अन्य सभी लीलाओं में सर्वोच्च सहायता प्रदान करते हैं।

 

द्वारका में भी वे आदि चतुर्व्यूह हैं, मथुरा में मूल संकर्षण हैं। प्रथम चतुर्व्यूह विस्तार मूल संकर्षण के रूप में, वे सदैव मथुरा और द्वारका में कृष्ण के संग रहते हैं। दूसरे चतुर्व्यूह विस्तार महासंकर्षण के रूप में वे वैकुंठ धाम में निवास करते हैं और वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध और प्रद्युम्न के रूप में विस्तारित होते हैं। गोकु​ल में वे बलराम के रूप में लीलाएँ प्रतिपादित करते हैं।

 

भाग -

 

भगवान बलराम की अद्भुत शक्ति

मुझे हरि-कथा, विशेषकर श्री श्री बलराम जी का गुणगान करने का सुअवसर प्रदान करने के लिए आप सभी का बहुत–बहुत धन्यवाद। आज अत्यंत शुभ दिन है। भगवान बलराम का आविर्भाव इस तिथि पर ही हुआ था। आज प्रातःकालीन कक्षा में हमने भगवान बलराम के बारे में चर्चा किया था। अब मैं पुनः बलराम जी के बारे में आगे कहना चाहता हूं।

 

श्री बलदेव प्रणाम मंत्र

नमस्ते हलाग्रह: नमस्ते मूसलायुधा |

नमस्ते रेवतीकांत नमस्ते भक्त वत्सल: ॥

नमस्ते बलानाम् श्रेष्ठ नमस्ते धरणीधर: |

प्रलंबारे नमस्तेस्तु त्राहि माम् कृष्ण पूर्वज:॥

“हे हलधर! आपको प्रणाम है, हे गदा वाहक! आपको प्रणाम है। हे रेवती के प्रिय स्वामी! आपको प्रणाम है। हे भक्तवत्सल! आपको प्रणाम है। हे धरणीधार! आपको प्रणाम है। हे बलवानों के बल के स्रोत! आपको प्रणाम है। हे प्रलंबासुर के संहारक! आपको प्रणाम है। हे कृष्ण के अग्रज, कृपया मुझ पर दया करें और मेरी रक्षा करें।”

 

श्री बलराम जी की जय!!

श्री बलराम शुभ आविर्भाव तिथि महा–महोत्सव की जय!!

 

बलराम जी के तीन नाम

वसुदेव ने ब्राह्मणों को व्रजभूमि भेजा ताकि वे बलराम का नामकरण संस्कार कर सकें। गर्गमुनि ने बलराम को तीन नाम प्रदान किये- राम, संकर्षण, और बलभद्र। श्रीमद्भागवतम के दशम स्कंध में वर्णन है,

 

गर्भसङ्कर्षणात् तं वै

प्राहु: सङ्कर्षणं भुवि ।

रामेति लोकरमणाद्

बलभद्रं बलोच्छ्रयात् ॥

“देवकी के गर्भ से निकालकर रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित होने के कारण रोहिणी का पुत्र संकर्षण भी कहलाएगा। वह गोकुल के सभी निवासियों को प्रसन्न रखने की क्षमता होने के कारण राम कहलाएगा और अपनी प्रचुर शारीरिक शक्ति के कारण बलभद्र कहलाएगा।”  (श्रीमद भागवतम १०.२.१३)

योगमाया ने उन्हें देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित किया। स्थानांतरण की इस प्रक्रिया को संकर्षण कहते हैं इसलिए उनका एक नाम संकर्षण भी है। "राम" का अर्थ है जो सभी को आनंद प्रदान करते हैं। भगवान बलराम भक्तों में श्री कृष्ण-रति का अभिनिवेश करते हैं। इसलिए उन्हें ‘राम’ के नाम से जाना जाता है।

 

वे अत्यंत शक्तिशाली हैं, शारीरिक शक्ति में उनके समान कोई नहीं है बलोच्छ्रयात्, इसलिए उन्हें बलभद्र भी कहा जाता है। बलदेव मूल संकर्षण हैं, और उनका पूर्णांश, महा-संकर्षण, वैकुंठ में रहते हैं। पाताल में, बलदेव का एक अन्य पूर्णांश संकर्षण अथवा शेष विराजमान हैं। भगवान शेष को अनंतदेव भी कहा जाता है क्योंकि उनके अनंत फण हैं। अनंतदेव, इस भौतिक ब्रह्मांड को अपने एक फण में सरसों के दाने की भाँति धारण करते हैं। इसलिए उन्हें धरणी-धर भी कहते हैं।

 

कृष्ण-कथा के मूल वक्ता

भगवान् संकर्षण, एक अद्भुत वक्ता हैं। वे अनादिकाल से भागवत-कथामृत का गान कर रहे हैं,जो बिना किसी अवरोध के अनवरत रूप से प्रचलित है। सनक के नेतृत्व में चार कुमार उनसे श्रीमद्भागवतम का श्रवण कर रहे हैं। जो भी वैष्णव अतीव मधुरता एवं वाक्पटुता से प्रवचन करते हैं, उनकी वाक् शक्ति के स्रोत अनंतशेष ही हैं। अतः संकर्षण या शेष प्रभु ही कृष्ण-कथा के मूल वक्ता हैं। इस संसार में, भौतिक विषयों के निपुण प्रवक्ता की वक्तृत्व शक्ति, मूल वक्ता शेष प्रभु की शक्ति का विकृत प्रतिबिंब है। यदि कोई भाग्यवान जीव बलराम प्रभु की कृपा प्राप्त करता है, तो उनके अनर्थ, विशेषकर ह्रदय-दौर्बल्य, नष्ट हो जाएँगे और उनके हृदय में कृष्ण के प्रति रति, प्रेम उदित होगा।

 

चार प्रकार के अनर्थ

श्रील रूप गोस्वामी द्वारा रचित भक्ति-रसामृत-सिंधु के अनुसार, चार प्रकार के अनर्थ होते हैं:

 

१. असत्-तृष्णा

२. हृदय-दौर्बल्य

३. विषमय-अपराध

४. स्वरूप-भ्रम अथवा तत्त्व-भ्रम

 

असत-तृष्णा का अर्थ है कृष्ण से विलग इच्छाओं का पोषण करना। असत-तृष्णा चार प्रकार की होती है: १) पारात्रिकेषु चैष्णा - इस जीवन में भौतिक सुख की कामना, २) ऐहिकेशवैष्णा - अगले जीवन में सुख की कामना, ३) भुक्ति-काम - योगिक शक्तियों की कामना, और ४) मुक्ति-काम - मुक्ति की कामना।

 

दूसरा अनर्थ है हृदय-दौर्बल्य जिसके बारे में मैं विस्तार से वर्णन करूँगा। बलराम प्रभु विशेष रूप से इस अनर्थ को नष्ट करते हैं। इसके भी चार प्रकार होते हैं: १) कृष्णेतर विषयासक्ति - कृष्ण के अतिरिक्त अन्य विषयों में आसक्ति, २) कुटिनाटी - कापट्य, दुष्टता, दोषदर्शन की प्रवृत्ति, ३) परष्कातृ अथवा मात्सर्य - ईर्ष्या, और ४) प्रतिष्ठाशा - नाम, प्रसिद्धि और प्रशंसा की कामना। बलराम प्रभु की कृपा से हृदय-दौर्बल्य नष्ट हो जातें हैं।

 

तृतीय अनर्थ है विषमय-अपराध। इस अनर्थ के भी चार प्रकार होते हैं: १) नाम-अपराध, २) स्वरूप-अपराध, ३) वैष्णव-अपराध, और ४) और अन्य जीवों के प्रति अपराध।

 

चतुर्थ अनर्थ स्वरूप-भ्रम या तत्त्व-भ्रम है, अर्थात तत्त्व के बारे में भ्रम। इसके भी चार प्रकार होते हैं:

 

१. स्व-तत्त्वे-भ्रम: अपनी वास्तविक पहचान अर्थात जीव-तत्त्व के विषय में भ्रम,

२. कृष्ण-तत्त्वे-भ्रम: कृष्ण-तत्त्व के विषय में भ्रम,

३. साध्य-साधन-तत्त्वे-भ्रम: साधन और प्रेमा -भक्ति की प्रक्रियाओं के विषय में भ्रम,

४. विरोधी-विषय-भ्रम: विरोधी तत्त्व के विषय में भ्रम।

 

बलराम प्रभु विशेष रूप से हृदय-दौर्बल्य अनर्थ को नष्ट करते हैं। वे कुटिनाटी, कपटता, दोषदर्शन की प्रवृत्ति, मात्सर्य, प्रतिष्ठाशा को नष्ट करते हैं। अत्यंत भाग्यशाली व्यक्ति पर ही बलराम प्रभु कृपा करते हैं। परिणामस्वरूप, उसके हृदय में कृष्ण-प्रेम उत्पन्न होता है। इसलिए उनका नाम राम है।

 

संधिनी-शक्ति के स्वामी

भगवान की अन्तरंगा शक्ति के तीन प्रकार है: सत्, चित, आनंद — आनन्दांशे ह्लादिनी, सदंशे सन्धिनी चिदंशे सम्वित। भगवान बलराम विशेष रुप से संधिनी-शक्ति के स्वामी हैं। जब तक कोई संधिनी-शक्ति के स्वामी भगवान बलराम की कृपा प्राप्त नहीं करता, तब तक वह राधा-गोविंद के प्रति रति अर्थात प्रेम विकसित नहीं कर सकता।

 

बलराम ही नित्यानंद हैं

नरोत्तम दास ठाकुर ने अपने स्वरचित वैष्णव गीत ‘निताई पद कमल’ में श्रीनित्यानंद प्रभु का अतीव सुंदरता से स्तुतिगान किया है:

हेन निताइ बिने भाइ, राधा-कृष्ण पाइते नाइ ।

दृढ कोरि ‘धरो निताइर पाय ॥

 

वस्तुतः जो श्रीकृष्ण लीला में बलराम हैं, वही गौर लीला में नित्यानंद हैं, बलराम हइल निताई । इसलिए, हेन निताइ बिने भाइ, राधा-कृष्ण पाइते नाइ, नित्यानंद राम की कृपा के बिना कोई भी राधा-कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः नरोत्तम दास ठाकुर सभी भक्तों से नित्यानंद प्रभु के चरण कमलों को दृढ़ता से पकड़ने का अनुरोध करते हैं।

 

आप स्व प्रयास से कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकते

भगवान बलराम संधिनी-शक्ति के स्वामी हैं। इसलिए, उनकी कृपा प्राप्त करके ही जीव कृष्ण-संधान प्राप्त कर सकता है। किसी भाग्यशाली जीव पर ही बलराम प्रभु शक्ति संचार करते हैं और इस कृपा से जीव को कृष्ण प्राप्ति उपाय मिल जाता है। जीव स्वयं के प्रयास से कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकता है। जो जीव अपने स्वयं के प्रयास से कृष्ण को प्राप्त करने और समझने की चेष्ठा करते हैं उन्हें अरोह वादी कहा जाता है। मायावादी या ब्रह्मवादी आरोही पथ को अपनाते हैं। परन्तु, उनको फल क्या मिलता है? वे निर्विशेषवादी हो जाते हैं। इस प्रकार उनका पतन हो जाता है और वे निम्न योनियों अथवा स्थावर योनियों में देह प्राप्त करते हैं। परन्तु, वैष्णव-भक्त भगवान बलराम की शरण ग्रहण कर उनसे कृपा याचना करते हैं ।

 

भगवान बलराम की कृपा से वे अवरोही प्रक्रिया को अपनाते हैं, और परिणामतः उन्हें कृष्ण के चरण कमलों की प्राप्ति का उपाय मिल जाता है।

 

आध्यात्मिक शक्ति के मूल कारण

अपरिमेय शारीरिक बल के कारण, उनका तृतीय नाम बलभद्र है- बलभद्रं बलोच्छ्रयात्। बलराम सदृश कोई भी शक्तिशाली नहीं है। वे समस्त आध्यात्मिक शक्ति के मूल कारण हैं। उनके अंशांश, अथवा कला भी असाधारणरुप से शक्तिशाली होते हैं। कोई भी भौतिकवादी व्यक्ति, जो भौतिक ज्ञान या भौतिक शक्ति के कारण अत्यंत गर्वित होता है, बलराम जी के सामान शक्ति प्रदर्शन की कल्पना भी नहीं कर सकता है।

 

मूल संकर्षण

बलराम मूल संकर्षण हैं। उनका विस्तार महा-संकर्षण हैं, जो वैकुण्ठ में रहते हैं। महा-संकर्षण के पूर्ण-अंश, प्रथम पुरुष-अवतार हैं जिन्हें कारणोदकशायी विष्णु या महा-विष्णु कहा जाता है। उनसे द्वितीय पुरुष-अवतार, गर्भोदकशायी विष्णु का प्रादुर्भाव होता है और क्षीरोदकशायी विष्णु से समस्त अवतार प्रकट होते हैं यथा मत्स्य, कूर्म, वराह, राम, नृसिंह, हयग्रीव, परशुराम, कल्कि इत्यादि। इस प्रकार समस्त अवतार, भगवान बलराम के अंश और कला हैं। तीनों लोकों में कोई भी इन अवतारों की शक्ति की कल्पना नहीं कर सकता है। फिर बलभद्र के बल की तो बात ही क्या?

 

भगवान के अवतारों की शक्ति

भगवान् मत्स्य-देव स्वयंभुव मन्वंतर में प्रकट हुए। उन्होनें हयग्रीव नामक भयानक और शक्तिशाली असुर का वध किया जिसने सभी वेदों को चुरा लिया था। दूसरा उदाहरण कूर्म-देव का है। जब देवता और दानव समुद्र मंथन कर रहे थे, तब वे कच्छप के रूप में अवतरित हुए और अपनी विशालकाय पीठ पर मंदराचल पर्वत को उठा लिया। यह पर्वत इतना विशाल था कि भगवान् के अतिरिक्त कोई और नहीं उठा सकता था। अतः भगवान् बलभद्र की शक्ति अपरिमेय है!

 

स्वायंभुव-मन्वंतर में जब पृथ्वी रसातल में डूब रही थी, तब वराहदेव प्रकट हुए और उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी को उठा लिया। पृथ्वी को कोई मनुष्य उठा सकता है? नहीं। अतः भगवान् के पास अगाध शक्ति है। भगवान् के सामर्थ्य की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

 

वराहदेव पुनः छठे चक्षुष-मन्वंतर में प्रकट हुए और उन्होंने हिरण्यकशिपुपु के ज्येष्ठ भ्राता, हिरण्याक्ष का वध किया। हिरण्याक्ष के समान शक्तिशाली तीनो लोकों में कोई नहीं था। कोई भी उससे द्वंदयुद्ध के लिए तैयार नहीं था, परन्तु भगवान् ने उसका वध कर दिया।

 

अगला उदहारण भगवान रामचंद्र का है, जिन्होंने दशानन रावण का वध किया। रावण इतना शक्तिशाली था कि उसने तीनों लोकों को जीत लिया था और देवताओं को अपने दास के रूप में रखा था, ऐसे प्रचण्ड शक्तिशाली राक्षस का भगवान श्री रामचंद्र ने संघार किया।

 

अग्रिम उदाहरण भगवान नृसिंहदेव का है जिन्होंने हिरण्यकशिपु का वध किया। हिरण्यकशिपु अत्यंत बलवान और शक्तिशाली था; उसने तीनों लोकों को वश में कर लिया था। वो कहता था, "मैं त्रिलोकाधीश हूँ।" परन्तु उसका ५-६ वर्ष का पुत्र प्रह्लाद भगवान का महान भक्त था। जब प्रह्लाद भगवान नारायण या कृष्ण के बारे में बोलने लगे, तो उनके पिता हिरण्यकश्यपु अपने ही पुत्र प्रह्लाद का शत्रु बन गया और विभिन्न उपायों द्वारा उनकी हत्या करने  का प्रयत्न किया। परन्तु इतना शक्तिशाली पिता अपने ५-६ वर्षीय पुत्र प्रह्लाद को नहीं मार सका। वह अपने पुत्र का वध क्यों नहीं कर पाया? क्योंकि प्रह्लाद भगवान के प्रिय भक्त थे और भक्त सदा भगवान द्वारा रक्षित होता है। बलराम के अंश का एक अंश अर्थात कला, भगवान् नृसिंहदेव है। उन्होंने अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद के हृदय में आध्यात्मिक शक्ति का संचार किया, इसलिए हिरण्यकश्यपु जैसा शक्तिशाली राक्षस भी उन्हें मार नहीं सका।

 

हयशीर्ष अवतार में भगवान् ने दो असुर भाइयों मधु और कैटव का वध किया। वे असुर अत्यंत शक्तिशाली थे और सभी उनसे डरते थे। हयशीर्ष भगवान ने उनका सहजता से वध कर दिया और वेदों को उनके चंगुल से मुक्त किया।

 

फिर परशुराम अवतार का उदाहरण है, जिन्होंने क्षत्रियों की इक्कीस पीढ़ियों का संघार किया क्योंकि वे ब्राह्मण संस्कृति के विरोधी हो गए थे। वह इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने इक्कीस पीढ़ियों तक जगत को क्षत्रियों से मुक्त कर दिया।

 

अंतिम उदाहरण कल्कि अवतार हैं। ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वाले नास्तिकों का वध करने हेतु भगवान कल्कि अवतार में आते है। वे अपनी शारीरिक शक्ति पर गर्व करने वाले चोरों और हत्यारों का वध करते हैं।

 

इसलिए, आप अनुमान कर सकते हैं कि यदि भगवान बलराम के अंश के अंश अर्थात कला में जब इतनी असाधारण और असामान्य शक्ति है, तो मूल संकर्षण, भगवान बलराम की शक्ति कितनी असाधारण होगी?

 

भगवान बलराम हमें शक्ति प्रदान करते हैं

मैं आज प्रातःकाल तृतीय पुरुष-अवतार, क्षीरोदकशायी विष्णु का वर्णन कर रहा था। वे बलराम के अंश के अंश हैं तथा सभी जीवों के हृदय में द्वेष्टि अंतर्यामी के रुप में रहते हैं। उन्हीं के द्वारा प्रदत्त शक्ति के बल पर हम कुछ सामर्थ्य प्रदर्शित करने में सक्षम हैं। यही भगवान बलराम की दयालुता है। यदि वे हमारे हृदय में नहीं होंगे, तो हमें शक्ति कहाँ से मिलेगी? अगर वे अपनी शक्ति को वापस ले लेंगे तो फिर हममें क्या सामर्थ्य है? आप पूर्णतः लकवाग्रस्त हो जायेंगे और एक तृण भी नहीं उठा पाएंगे।

 

भगवान बलराम कृष्ण का द्वितीय देह हैं

भगवान बलराम कृष्ण के प्रथम विस्तार हैं। वे कृष्ण के द्वितीय देह हैं - बलराम कृष्णेर द्वितीय देह। बलराम हमेशा कृष्ण के संग रहते हैं। वर्ण-मात्र-भेद, केवल शारीरिक वर्ण का भेद है; कृष्ण श्याम हैं और भगवान बलराम शुक्ल हैं। अन्यथा वे कृष्ण से अभिन्न हैं।

 

देवकी के गर्भ में क्यों आए?

देवक्या हर्षशोकविवर्धनः - उग्रसेन के पुत्र कंस द्वारा देवकी के छह पुत्रों की हत्या के बाद, कृष्ण के एक पूर्ण-अंश ने देवकी के गर्भ में सातवीं संतान के रूप में प्रवेश किया। इस संतान के आगमन से देवकी को हर्ष और शोक दोनों का एकसाथ अनुभव हो रहा था।

 

बलराम रोहिणी के मूल पुत्र हैं, रोहिणी-नंदन, रोहिणी-सुत कहलाते हैं । वे देवकी के गर्भ को शुद्ध करने और कृष्ण के लिए शय्या तैयार करने के लिए वहाँ प्रकट हुए। बलराम दस रूपों में कृष्ण की सेवा करते हैं, उनमे से एक है शय्या। उन्होंने अपने अंशांश, शेषदेव को देवकी के गर्भ में छोड़ दिया, जो कृष्ण की शय्या के रूप में सेवा करते हैं।

 

विष्णु-वैष्णव-विद्वेषी

अपनी भौम्य-लीला के समय बलराम ने अनेक राक्षसों का वध किया। सब राक्षस उनके अंश, व अंशांश  द्वारा मारे गए। बलराम ने पाँसा खेलते समय शिशुपाल के मित्र रुक्मी का वध किया। रुक्मी कृष्ण का शत्रु था और सदा कृष्ण की निंदा किया करता था। अतः वह एक अपराधी था। इसलिए बलराम ने अपनी गदा से उसका वध कर दिया। विष्णु-वैष्णव-विद्वेषी, जो विष्णु और वैष्णवों का विरोध करते हैं, उनकी निंदा और अपमान करते हैं, उन्हें अंततः भगवान बलराम द्वारा मार दिया जाएगा। भगवान बलराम ने इस लीला द्वारा यही प्रदर्शित किया।

 

बलराम पाखंडियों को अनावृत करते हैं

भगवान बलराम ने तीर्थ पदयात्रा लीला के समय, नैमिषारण्य में रोमहर्षण सुत को एक तिनके से मार डाला। रोमहर्षण व्यासासन पर आसीन था। जब भगवान बलराम पधारे, तो अभिमानवश वह भगवान् के अभिवादन के लिए खड़ा तक नहीं हुआ। इसलिए भगवान बलराम ने मर्यादा की रक्षा के लिए, उसका एक तिनके से वध कर दिया।

 

भगवान बलराम उन पाखंडियों को अनावृत करते हैं जो केवल बाह्य रूप से वैष्णव होने का दिखावा करते हैं। वे महान पाखंडी और अभिमानी होते हैं, जिन्हें धर्मध्वजी या दम्भिक कहा जाता है। "क्या आप नहीं जानते कि मैं कौन हूँ? मैं एक महान साधु हूँ, एक महान आचार्य हूँ, एक महान वैष्णव हूँ।" ऐसे अभिमानी और पाखंडी लोगों का गर्व भगवान बलराम द्वारा चूर-चूर कर दिया जाएगा। ठीक वैसे ही जैसे भगवान बलराम ने रोम-हर्षण सुत का अभिमान भंग किया था।

 

गुरुदेव बलराम के स्वरूप हैं

बलराम, संधिनी-शक्ति के स्वामी के रूप में, कृष्ण प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे कृष्ण की दस रूपों में सेवा करते हैं। गुरु भी उनके ही स्वरूप हैं, जो विभिन्न रूपों में कृष्ण की सेवा करते हैं।

 

सभी जीवों का धर्म - भगवान बलराम की पूजा करें

हमारी आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत भगवान बलराम हैं। यह कृपा शक्ति है। इसलिए इस जगत के सभी जीवों का धर्म है कि वे भगवान बलराम की पूजा करें। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए है। भगवान बलराम की पूजा समग्र विश्व में प्रचलित होनी चाहिए। जब भगवान बलराम प्रसन्न होते हैं तो वे सभी के हृदय में आध्यात्मिक शक्ति का संचार करते हैं। यदि संसार के लोग इस सत्य को समझ लें, और विशेष रूप से आज भगवान बलराम के शुभ आविर्भाव दिवस पर उनकी पूजा प्रारम्भ करें, तो उन्हें आध्यात्मिक बल के रूप में उनकी कृपा प्राप्त होगी, और उनका जीवन सफल हो जाएगा।

 

अन्य कोई पथ नहीं है

इस ब्रह्मांड के समस्त बुद्धिमान ​​और विवेकी जीवों - स्त्री, पुरुष, युवा, वृद्ध - को इस शिक्षा पर अमल करना चाहिए और भगवान बलराम की पूजा करनी चाहिए। तब उन्हें बलराम द्वारा प्रदत्त आध्यात्मिक शक्ति, चित्त-बल, प्राप्त होगा। वे आध्यात्मिक रूप से बलवान होंगे और उनके समक्ष कृष्ण प्राप्ति का मार्ग अनावृत होगा। इसमें कोई संशय नहीं है। इसके अतिरिक्त, कृष्णभावनाभावित होने का कोई अन्य पथ नहीं "नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय"।

 

आज भगवान बलराम के प्रकटोत्सव पर, हम वैष्णव दृढ़तापूर्वक घोषणा करते हैं, "जो कोई भी भगवान बलराम की पूजा करेगा, उन्हें उनकी कृपा प्राप्त हो और वे आध्यात्मिक रूप से सशक्त बनें!"

 

बलराम की कृपा के बिना कृष्ण को समझने व उन्हें प्राप्त करने का कोई अन्यत्र उपाय  नहीं है।  श्रील व्यासदेव, जो श्रीचैतन्य लीला में श्री वृन्दावन दास ठाकुर के रूप में a, इस तथ्य की पुष्टि करते हैं:

 

संसारेर पार हय भक्तिर सागरे ।

येई डुबिबे, सेई भजुका निताई चंदेरे ॥

“जो इस भौतिक भवसागर को पार करने एवं भक्तिमय सेवा के महासागर में डूबने की अभिलाषा रखते हैं उन्हें भगवान नित्यानंद की सेवा करनी चाहिए।”

इस भयावह भौतिक संसार रूपी सागर को पार करने और भक्ति के सागर में डूबने के इच्छुक गंभीर भक्तों को नित्यानंद-राम, जो बलराम से अभिन्न हैं, का भजन करना चाहिए।

 

आपके हृदय में पहले बलदेव फिर कृष्ण प्रकट होंगे

कृष्ण जन्माष्टमी से ठीक आठ दिन पहले हम भगवान बलराम का आविर्भाव उत्सव मनाते हैं। क्योंकि सर्वप्रथम हमें भगवान बलराम की कृपा प्राप्त करनी चाहिए। तब हमारे अनर्थ, विशेष रूप से हृदय-दौर्बल्य, नष्ट हो जाएंगे। फलस्वरूप, हमारा हृदय शुद्ध होगा और हमें आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होगी। अतः सर्वप्रथम हृदय में भगवान बलदेव का प्रकट होना अनिवार्य है, तभी वहाँ कृष्ण विराजमान होंगे। बलराम के बिना हृदय में कृष्ण के प्रकट होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

 

इसी कारणवश भगवान बलदेव पहले देवकी के गर्भ में आए, और तत्पश्चात श्रीकृष्ण का आगमाँ हुआ। यही तत्व है। इसलिए बलदेव की कृपा के बिना, कोई भी राधा-गोविंद की कृपा प्राप्त नहीं कर सकता।

 

बलदेव की कृपा ही हमारी एकमात्र आवश्यकता है

बलदेव को नित्यानंद-राम के रूप में भी जाना जाता है, और गुरुदेव नित्यानंद-राम के ही स्वरूप हैं। गुरुदेव की कृपा के बिना अनर्थ नष्ट और हृदय विशुद्ध नहीं हो सकता; फलस्वरूप हृदय में कृष्ण प्रकट नहीं होंगे। यही हमारा तत्व है। अतः सार यह है की बलदेव की कृपा ही हमारी एकमात्र आवश्यकता और संपत्ति है। इसलिए इस अवसर पर, बलदेव की कृपा, जो गुरु-कृपा की अभिव्यक्ति है, हमारी एकमात्र आवश्यकता है।

 

कृष्ण जन्मोत्सव में कैसे भाग लें?

 

नंद और वसुदेव ने कृष्ण की प्रसन्नता के लिए एक भव्य कृष्ण-अविर्भाव-उत्सव का आयोजन किया। हम भी उत्सव मनाते हैं। उत्सवों के आयोजन का उद्देश्य क्या है?

 

भक्त: कृष्ण की प्रसन्नता।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: अरे बाबा! संसारी लोग क्यों उत्सव मनाते हैं?

भक्त: इन्द्रिय तृप्ति के लिए।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ। सब दिखावा करते हैं, बद्धजीव केवल स्वयं की इंद्रियों को तृप्त करना चाहते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि हम कृष्ण-अविर्भाव उत्सव में तब तक भाग लेने में अक्षम हैं, जब तक कि पूर्ण रूप से गुरु-पाद-पद्म के चरण कमलों में समर्पित भक्त, इसका आयोजन न करें। भौतिकवादी व्यक्ति कृष्ण अवतार के सुख को नहीं समझ सकते हैं। केवल और केवल नंद-वसुदेव जैसे समर्पित भक्त ही इसे समझ सकते हैं।

 

कंस के कारागार में कृष्ण चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। वसुदेव उस समय कारगार में थे इसलिए उन्होंने मानसिक उत्सव मनाया। वास्तविक कृष्ण जन्मोत्सव नंद-गोकुल में हुआ जिसमे समस्त व्रजवासी सम्मलित हुए। व्रजवासी पूर्णरूप से कृष्ण के चरण कमलों में समर्पित हैं। वे तन, मन और वाणी से सदैव कृष्ण की इंद्रियों को सुख देने में संलग्न रहते हैं। उन्हें स्वयं के इंद्रिय सुख की कोई अभिलाषा नहीं है । ऐसे भक्त ही नंदोत्सव मना सकते हैं।

 

गुरुदेव, बलराम के कृपा शक्ति की अभिव्यक्ति हैं

इसीलिए, हम आज भगवान बलराम का प्रकटोत्सव मना रहे हैं। हम उनसे कृपा की याचना करते हैं कि वे हमारे हृदय में आध्यात्मिक शक्ति का संचार करें, हमारे सभी अनर्थों को नष्ट करें और हमें कृष्ण-जन्मोत्सव में भाग लेने के लिए सक्षम बनायें। अन्यथा हमारे पास कृष्ण-जन्मोत्सव में भाग लेने की कोई आशा नहीं। बलराम की कृपा या दूसरे शब्दों में गुरु-कृपा ही, हमारी एकमात्र संपत्ति है।

 

क्या कोई है जो कृष्णदास नहीं है?

भक्त:  यह मान्यता है कि गुरु बलराम की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हैं।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ, नित्यानंद-राम के भी।

भक्त: तो आप बता रहे थे कि बलराम से अनेक अंश और कला निर्गत होते हैं। तो गुरु बलराम के अंश हैं, कला हैं या पूर्ण?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: गुरु पूर्ण हैं! वे अंश अथवा कला नहीं हैं। वे साक्षात् नित्यानंद-राम की अभिव्यक्ति हैं।

 

कृष्णेर समता हइते बड़ा भक्त पद।

आत्मा हइते कृष्णेर भक्त हय प्रेमास्पद ॥

“भक्त होना भगवान् कृष्ण की समता से बढ़कर है, क्योंकि भक्तगण भगवान् कृष्ण को अपने से भी अधिक प्रिय हैं।” (श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.१००)

 

कृष्ण के समान कोई भी नहीं हो सकता। कृष्ण ने भगवत गीता में कहा है, ‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय’, कोई भी मेरे समान नहीं है और मुझसे उत्कृष्ट नहीं है।"

 

यह असमोर्ध्व तत्त्व है, कोई समान नहीं एवं कोई बड़ा नहीं। मैंने इस विषय का वर्णन पहले भी किया था।

 

अनेर की कथा बलदेव महाशय।

याँर भाव शुद्ध साख्य वात्सल्यादि-मय ॥

“औरों की बात छोड़िये, यहाँ तक कि भगवान् बलदेव भी शुद्ध सख्य तथा वात्सल्य-प्रेम जैसी भावनाओं से पूर्ण हैं।” ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.७६)

 

तेंहो अपनाके करेन दास-भावना।

कृष्ण-दास-भाव विनु आछे कौन जना ॥

“वे भी अपने आपको भगवान् कृष्ण का दास समझते हैं। निस्सन्देह, ऐसा कौन होगा जो भगवान् कृष्ण का दास होने का यह भाव न रखता हो?”  (श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.७७)

 

यहाँ तक कि बलराम, जो कृष्ण के प्रथम विस्तार अथवा द्वितीय देह कहलाते हैं, दास्य-भाव  में श्रीकृष्ण की नित्य आराधना करते हैं, “मैं कृष्ण का सेवक हूँ।“ उनका मनोभाव शुद्ध-सख्या-वात्सल्य है। अगर बलराम कृष्ण की दस रूपों में सेवा करते हैं तो फिर अन्यों की क्या बात? “कृष्ण- दास- भाव विनु आछे कौन जना”, क्या कोई ऐसा है जो कृष्ण-दास नहीं है?

 

केह माने केह ना माने, सब ताँर दास।

ये न माने, तार हई सेई पापे नाश ॥

“कुछ लोग उन्हें स्वीकार करते हैं और कुछ नहीं करते, तो भी सारे लोग उनके दास हैं। जो उन्हें स्वीकार नहीं करता, वह अपने पापकर्मों से विनष्ट हो जायेगा।”  (श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.८५)

 

प्रेमी भक्त कृष्ण को अति प्रिय हैं

भक्त प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि वे कृष्ण-दास हैं, लेकिन नास्तिक या भौतिकवादी इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिए, वे अपराधी हैं और पापों के कारण नष्ट हो जाते हैं। चैतन्य चरितामृत में उल्लेख है कि –

 

कृष्णेर समता होईते बड़ा भक्त पद।

आत्म होईते कृष्णेर भक्त हय प्रेमसंपद ॥

“भक्त होना भगवान् कृष्ण की समता से बढ़कर है, क्योंकि भक्तगण भगवान् कृष्ण को अपने से भी अधिक प्रिय हैं।” (चैतन्य चरितामृत आदि लीला 6.100)

 

आत्मा हैते कृष्ण भक्ते बड़ करि माने।

इहाते बहुत शास्त्र वचन प्रमाणे ॥

"भगवान कृष्ण अपने भक्त को अपने से भी बढकर समझते हैं, इस संबंध में शास्त्रों में प्रचुर प्रमाण प्राप्त होते हैं।" (चैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.१०१)

 

कृष्ण के समान कोई नहीं है, परंतु कृष्ण अपने भक्त को अपने से भी ऊँचा पद दे देते हैं। कृष्ण कहते हैं की उनके भक्त उनको स्वयं से भी अधिक प्रिय हैं, 

 

न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्कर: ।

न च सङ्कर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान् ॥

कृष्ण उद्धव से कहते हैं, "न मुझे मेरा पुत्र ब्रह्मा प्रिय है न ही शंकर, न भाई संकर्षण, न भार्या श्रीमती लक्ष्मी, और न ही मैं स्वयं खुद, जितने प्रिय मुझे तुम हो उद्धव।" प्रेमी भक्त कृष्ण को सबसे अधिक प्रिय होता है और कृष्ण उन्हें अपनी आत्मा से भी अधिक प्रेम करते हैं। (श्रीमद भगवतम ११.१४.१५)

 

नवम स्कंध में कृष्ण कहते हैं –

साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।

मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥

“शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मै शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ। मेरे भक्त मेरे सिवाय और कुछ नहीं जानते और मै उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता।” (श्रीमद भगवतम 9.4.68)

 

केवल भक्त ही कृष्ण-मधुरता का आनंद ले सकते हैं

सभी प्रेमी-भक्त, भक्ति रस का आस्वादन करते हैं, क्योंकि यह रस कृष्ण के सौंदर्य या कृष्ण-माधुर्य से निर्गत है। अतः स्वयं कृष्ण, एक भक्त के भाव को अंगीकार करके, गौरांग के रूप में अवतरित हुए ताकि वे अपने ही सौंदर्य का आस्वादन कर सकें। अतः समस्त अवतारों और बलराम ने भी कृष्ण-माधुर्य का आस्वादन करने के लिए भक्त-भाव को स्वीकार किया है। चैतन्य चरितामृत में वर्णन है:

 

भक्त-भाव अंगीकरि, बलराम, लक्ष्मण।

अद्वैत, नित्यानंद, शेष, सङ्कर्षण ॥

कृष्णेर माधुर्य-रसामृत करे पान।

सेइ सुखे मत्त, किछु नाहि जाने आन ॥

(चैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.१०५-१०६)

श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी कहते है कि बलराम, लक्ष्मण, अद्वैत, नित्यानंद, शेष, संकर्षण, इत्यादि ने कृष्ण- माधुर्य का आनंद लेने के लिए भक्त-भाव को स्वीकार किया है, और वे इतने उन्मत्तहैं कि स्वयं उन्हें यह ज्ञात नहीं।

 

तब कृष्ण ने विचार किया कि "मैं कैसे अपनी मधुरता का आनंद ले सकता हूँ? भक्त-भाव स्वीकार किए बिना यह असंभव है।" इसलिए उन्होंने भक्त-भाव को स्वीकार कर गौरांग महाप्रभु के रूप में आए। चैतन्य चरितामृत में उल्लेख है:

 

भक्त भाव अंगीकरि हैल अवतीर्ण ।

श्रीकृष्ण चैतन्य रूपे सर्व-भावे पूर्ण ॥

“अत: भक्त-भाव स्वीकार कर कृष्ण स्वयं यहाँ पर श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में प्रकट हुए।” (श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.१०९)

 

अवतार-गणेर भक्त भावे अधिकार ।

भक्त भाव हैते अधिक सुख नाहि आर ॥

“सारे अवतारों को भक्तों का भाव पाने का अधिकार है। इससे बढकर कोई अन्य आनंद नहीं है।” (श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.१११)

 

समस्त अवतारों ने भक्त भाव ग्रहण किया है क्योंकि भक्त भगवान से अधिक भक्ति रसास्वादन करता है है-भक्त भाव हैते अधिक सुख नाहि आर। कृष्ण भोक्ता हैं, वे सदा आनंदित और सुखी रहते हैं, लेकिन कृष्ण का सेवक, कृष्ण से भी अधिक सुख प्राप्त करता है। इसलिए कृष्ण के हृदय में तीव्र लालसा उत्पन्न हुई "वह क्या है जो भक्त मुझसे भी अधिक प्राप्त करता है? मैं इसे कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मुझे भूमंडल पर भक्त के रूप में अवतरित होना चाहिए।" इसलिए वे भक्तावतार, गौरांग महाप्रभु के रूप में आए। भक्त का सुख भगवान से अधिक होता है।

 

मूल भक्त अवतार श्रीसंकर्षण।

भक्त-अवतार तँहि अद्वैते गणन ॥

“श्री बलराम जो मूल संकर्षण हैं, मूल भक्त-अवतार हैं और अद्वैत भी भक्त-अवतार हैं।” (श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला ६.११२)

 

भक्त बनें और अधिकाधिक रसास्वादन करें

सभी अवतारों को भक्त रूप में अवतरित होने का अधिकार है क्योंकि भक्त रूप में वे अधिक सुख प्राप्त करते हैं। अतः भगवान बनने का प्रयास मत करो, भक्त बनो। तब आपको अधिक आनंद मिलेगा। ब्रह्मवादी, मायावादी जैसे लोग जो ईश्वर बनने की कामना करते हैं। वे मूर्ख हैं! यदि आप भक्त बनते हैं तो आप अधिक आनंद प्राप्त करेंगे। यही हमारी शिक्षा है।

श्रीबलराम की जय!

बलराम शुभ आविर्भाव तिथि की जय!

समवेत गौर भक्त वृंद की जय!

गौर प्रेमानंदे हरि हरिबोल!

 

प्रश्नोत्तर

बलराम की कृपा के अतिरिक्त कोई आशा नहीं है

भक्त: क्या अर्चाविग्रह क्षीरोदकशायी विष्णु के स्वरूप हैं?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: सचिनंदन तुमि ब्रजेन्द्रनन्दन, आप केवल मूर्ति नहीं, अपितु साक्षात् नन्द नंदन हो। कृष्ण के विग्रह साक्षात् कृष्ण हैं।

भक्त: भक्त भाव विकसित करने के लिए हमें भगवान बलराम से अधिकाधिक प्रार्थना करनी चाहिए।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ, श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करके उनकी कृपा प्राप्त करें। “भगवान् बलराम हम पर अपनी अहैतुकी कृपा प्रदर्शित करें ताकि हमारे हृदय में भक्ति का विकास हो और हम कृष्ण को प्राप्त करें।” अन्यथा, कृष्ण को प्राप्त करने की कोई आशा नहीं है।

भक्त: क्या गुरु बलराम के स्वरूप हैं?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ वे बलराम, नित्यानंद-राम, के स्वरूप हैं।

 

गुरु-कृपा ही हमारी एकमात्र संपत्ति है

भक्त: तो क्या बलभद्र में जो भी शक्ति है, वह हमारे गुरु में भी है?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: हाँ, यह सच है, गुरु-कृपा सर्वाधिक शक्तिशाली है। अन्यथा हम कैसे जीवित हैं? गुरु-कृपा के बिना जीव मृत है। भले ही लौहार की धौंकनी की भाँति साँसे चल रही हों, परन्तु वास्तव में हमारा शरीर शव के सदृश हैं। गुरु-कृपा ही हमारा एकमात्र सम्बल है।

भक्त: तो क्या हम आज गुरु-कृपा के लिए भगवान बलराम से प्रार्थना कर सकते हैं?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: अवश्य, विशेष रूप से आज ही के दिन प्रार्थना करनी चाहिए। उनकी कृपा के लिए विनती करें।

 

गुरु की कृपा दृष्टि

भक्त: यदि मैंने सही समझा है तो दो प्रकार की कृपा होती है: गुरु के उपदेश के माध्यम से कृपा, और प्रत्यक्ष कृपा?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: आप प्रत्यक्ष कृपा कैसे प्राप्त कर सकते हैं?

भक्त: गुरु की कृपा दृष्टि से?

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: किसकी कृपा दृष्टि?

भक्त: गुरु की।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: तो फिर?

भक्त: उपदेश से मुक्त।

श्री श्रीमद् गौर गोविंद स्वामी: लेकिन आप उनकी कृपा दृष्टि प्राप्त किए बिना उनके उपदेश को कैसे समझ सकते हैं? आप उसमें स्वयं के मनोकल्पित-विचार जोड़ेंगे। आप इसे तोड़-मरोड़ देंगे । हम अपनी भौतिक बुद्धि से सोचते हैं "हाँ, गुरुदेव के कहने का अभिप्राय यह था।" हम में से अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं, अतः हम कृपा से वंचित रह जाते हैं। हम अपने ही कार्यों में सर्वाधिक रुचि रखते हैं, "मेरा बहुत महत्वपूर्ण व्यवसाय है, मुझे अपने कार्यालय जाना चाहिए अन्यथा मेरी नौकरी छूट सकती है। गुरुदेव, कृपया मुझे क्षमा करें, मुझे जाने दें। मुझे एक आपातकालीन कॉल आया, मुझे जाना चाहिए।"

"ठीक है, जाओ।"

हम ऐसा ही करते हैं। हम अपनी स्थिति को समझ नहीं पाते; हम बहुत मूर्ख हैं।

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