श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी
“नीलमणि श्रीकृष्ण के प्राकट्य का गुह्यतम रहस्य”
श्रीमद्भागवतम् के दसवें स्कंध के प्रथम तीन अध्यायों में भगवान श्री कृष्ण के प्राकट्य का वर्णन दिया गया है। प्रातः काल ही हमने अपने परम आराध्य गुरु महाराज श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी महाराज द्वारा किए गए भागवतम के अंग्रेज़ी भाषांतरण से अध्ययन किया था।
हरिवंश पुराण एवं श्रील जीव गोस्वामी द्वारा विरचित गोपाल चंपू में भी श्रीकृष्ण के प्राकट्य का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मैं गोपाल चंपू का उच्चारण एवं व्याख्या दो भाषाओं में करूँगा, पहले उड़िया में और तत्पश्चात अंग्रेजी में। अतः मैं समस्त भक्तों से धैर्य एवं शांति के साथ बैठने तथा ध्यानपूर्वक श्रवण करने का निवेदन करता हूँ क्योंकि भगवान कृष्ण की इस दिव्य ‘लीला कहानी’ का श्रवण करना सर्व मंगलमय है। श्रीमद् भगवतम् (1.2.17) में वर्णित है:
शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवणकीर्तन: ।
हृद्यन्त:स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥
“प्रत्येक हृदय में परमात्मास्वरुप में स्थित तथा सत्यनिष्ठ भक्तों के हितकारी भगवान श्री कृष्ण, उस भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को नष्ट करते हैं जिसने उनकी कथाओं को सुनने में रुचि उत्पन्न कर ली है, क्योंकि यह कथा ठीक से सुनने पर अत्यंत पुण्यप्रद है।”
कृष्ण के अवतरण का कारण
श्रीमद्भागवतम् यह व्याख्या करता है कि भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीला कहानी का श्रवण करना अत्यंत मंगलकारी है। यदि आप पूर्ण श्रद्धा के साथ एवं एकाग्रचित्त होकर उस दिव्य लीला का श्रवण करेंगे, तब आपके हृदय में उपस्थित समस्त भौतिक कल्मष विशुद्ध-भगवत्प्रेम में परिवर्तित हो जाएगा, अन्यथा इस प्रकार के दिव्य शुद्धिकरण का कोई अन्य विकल्प नहीं है। इसी आशय हेतु भगवान श्री कृष्ण इस भौतिक धरातल पर अवतरित होते हैं। यद्यपि आध्यात्मिक जगत में उनका नित्य-धाम है, जो ‘सच्चिदानंदमय’ नाम से विख्यात है, अर्थात् ऐसा धाम जो सनमय – सनातन, चिन्नमय – ज्ञान से परिपूर्ण तथा आनंदमय – दिव्य आनंद का सद्म है। वे अपने उस नित्य-धाम में सर्वदा विद्यमान हैं और अपनी दिव्य लीलाओं में पूर्ण तन्मयता से डूबे रहते हैं। विशेष रुप से वे रासलीला का रसास्वादन करके परम आंनद लेते हैं।
परंतु वे इस भौतिक जगत में क्यों प्रकट होते हैं, जो उनका नित्य-धाम नहीं है? यह जगत तो उस दिव्य सच्चिदानंदमय धाम के सम्यक प्रतिकूल है। यह भौतिक जगत असत्, अचित्त तथा निरानंदमय है अर्थात् यह क्षणिक, अज्ञानता से परिपूर्ण एवं कष्टदायी है। अत: फिर उनके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है? श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण वर्णन करते हैं कि वे समस्त जीवों के एकमात्र शुभचिंतक हैं। अनादि काल से आप कृष्ण से विमुख होकर माया के चंगुल में फँसे हैं, जिस कारणवश आप कृष्ण को भूल गए हैं। परंतु कृष्ण आपको नहीं भूले हैं। वे आपके नित्य-शुभचिंतक हैं और सदैव आपके पीछे भागते हैं। वे आपके हृदय में भी परमात्मा रूप में विद्यमान हैं और कभी आपका परित्याग नहीं करते। वे अपने धाम तथा अपने पार्षदों सहित विभिन्न अवतारों में इस भूतल पर प्रकट होते हैं और अपनी दिव्य लीलाएँ प्रकट करते हैं। उनके यहाँ आने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि उनकी ‘लीला कहानी’ शास्त्रों में अभिलेखित की जाएँ ताकि उनके अतिप्रिय भक्त, साधु-वैष्णव-महाजन इस भौतिक जगत में अवतीर्ण होकर इन लीलाओं का यशोगान एवं प्रचार-प्रसार करें। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का निरंतर श्रवण एवं अध्ययन करना चाहिए तथा उनका मनन एवं चिंतन किया जाना चाहिए जिसके परिणामस्वरूप आप नित्य-आनंद और शांति की अनुभूति कर सकेंगे। फलत: आपका हृदय शुद्ध हो जाएगा और आप अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत हो जाएँगे - कि आप कृष्ण के नित्य दास हैं और कृष्ण आपके शाश्वत स्वामी। अतः कृष्ण यहाँ अपने प्रिय भक्तों के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करने और अपनी लीलाओं का रसास्वादन करने हेतु अवतरित होते हैं। इससे व्यतिरिक्त वे आपको भी इन लीलाओं का आस्वादन करने का सुअवसर प्रदान करते हैं और साथ ही वे यहाँ अपने प्रिय भक्तों तथा साधुओं के संरक्षण के प्रयोजन से भी अवतरित होते हैं।
द्वादशी परमव्रत
तो अब मैं गोपाल चंपू का उच्चारण करूँगा, जो एक सुंदर गीत के रूप में प्रस्तुत है। मैं चाहता हूँ कि आप सब भी मेरे पीछे दोहराएँ। इन दिव्य गीतों का गान करना अति-उत्तम है।
स्निग्ध-कण्ठ मधु-कण्ठ नामे कवि-द्वय ।
नंद-राज दरबारे नीति गीत गाय ॥
एक दिन सभा मध्ये गीत आरंभील ।
नंदराज येन मते तनय पाइल ॥
बहु जग यज्ञ नंद पुत्र लागि’ करे ।
तबु पुत्र नाहि हइल आपनार घरे ॥
सब व्रजवासी आर बंधुजन यत ।
नंदेर संतान लागि’ व्रत कइल कत ॥
तबु यदि यशोदार पुत्र नाहि हइल ।
दु:ख सुखे यशोमती भोजन छाड़िल ॥
अधोमुखे धर तले बोसि’ नंदरानी ।
निरवधि अश्रु फेलि’ कांदै’ आपनि ॥
देखि’ गोप-राज बढ़ दु:ख पाये मने ।
प्रबद्ध करये नंद विविध वचने ॥
विधातार इच्छा जाहा ताहाइ हइबे ।
से पुत्र मागिये आमि यज्ञेन फलिबे ॥
तबे यशोमती बोले “सुनो प्राणेश्वर ।
आमार हृदय कथा कहिब तोमार ॥
सब व्रत जग यज्ञ आमि समर्पिलु ।
द्वादशी परम व्रत नाहि आचारिलु” ॥
ए हेन वचन नंद करिया श्रवण ।
आनंदे उत्फुल्ल होइ’ वहिल वचन ॥
“ओहे प्रिये भालो कथा सुनाइला तुमि ।
सत्य सत्य एइ व्रत नाहि कैलु आमि! ॥
तुमि शुद्ध-मुखी साध्वी कहिले मधुर ।
पूरिबे अवश्य वाँछा दु:ख ह’बे दूर” ॥
तबे निज पुरोहिते डाकिया आनिल ।
द्वादशी व्रतेर विधि बुझिया लइल” ॥
स्निग्ध कण्ठ बोले “भाई, अरे किबा हइल? ।
एइ दरबारे सब कथा खुले र’ल” ॥
गोपाल चंपू में यह वर्णित है कि स्निग्धकंठ और मधुकंठ नामक दो कवि थे जो नित्य रूप से नंद महाराज की सभा में विभिन्न गीतों का गायन किया करते थे। एक दिन उन्होंने नंद महाराज की पुत्र-प्राप्ति के विषय में गीत गाना आरंभ किया। नंद महाराज ने पुत्र प्राप्ति के लिए अनेक यज्ञ किए थे, परंतु फिर भी उनके यहाँ किसी पुत्र का जन्म नहीं हुआ था। व्रजभूमि के निवासी, जो सभी उनके मित्र थे, उन्होंने भी नंद महाराज की पुत्र प्राप्ति की मनोकामना को पूर्ण करने के लिए अनेक तपोव्रत ग्रहण किए और भगवान की विधिवत अर्चना भी की, परंतु फिर भी नंद महाराज पुत्र-विहीन रहे। इस कारण नंद महाराज की अर्धांगिनी, यशोमती अत्यन्त निराश हो गई थीं। उन्होंने भोजन का त्याग कर दिया था और उदासीनतापूर्वक एक स्थान पर बैठी विलाप करती थीं और उनके नेत्रों से अविरल अश्रुओं की वर्षा होती थी।
अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर नंद महाराज अत्यधिक चिंतित होकर यशोदा माता को विभिन्न प्रकार से सांत्वना देने का प्रयास करते थे। वे बोलते, “जो विधाता की इच्छा है, वही होगा।” किंतु उनकी पत्नी यशोदा माता एक बार अकस्मात् बोलीं, “मेरे प्रिय स्वामी! कृपया सुनिए कि मैं अपने हृदय में क्या सोचा रही हूँ। मैंने अनेकों यज्ञ एवं व्रत किए हैं, परंतु मैंने द्वादशी परम व्रत का पालन नहीं किया है।”
यह सुनकर नंद महाराज अत्यंत प्रसन्नचित्त हो गए और कहने लगे, “वाह! कितना सुंदर सुझाव है। हमने यह व्रत नहीं किया है, अतः हमें अवश्य इसका पालन करना चाहिए।"
नंद महाराज ने अपने पुरोहित को बुलाकर उनसे इस व्रत की विधि के विषय में पूछा और पुरोहित ने उन्हें इस द्वादशी व्रत का पालन करने की संपूर्ण विधि व नियमों का विस्तृत विश्लेषण दिया।
नंद महाराज का स्वप्न
तब मधुकंठ ने क्रमागत गायन किया:
नंद-यशोमती व्रत वत्सरे कइल ।
व्रत शेषे एक बड़-सुस्वप्न हइल ॥
स्वयं श्री हरि येने बोले प्रसन्न हइय ।
अचिरे फलिबे आशा सुनो दिया ॥
प्रति कल्पे हइ तोमार संतान ।
ए कल्प से मत हेवा सत्य बोलि’ जानो ॥
तोमादेर गृहे शिशु रूपे करिब विहार ।
नित्य दरशने आशा पूरिबे तोमार ॥
ए हेन मधुर स्वप्न देखे नंद-राय ।
अकस्मात निद्रा भंग बड़ दु:ख पाय ॥
प्रभात हइल देखे डाके पक्षि-गण ।
रानी सह यमुना ते जाइते मनन ॥
यथा विधि स्नान करि’ राणीर सहित ।
दान दिते आरम्भिल आपन हाथे त ॥
पाइया दान आनंदेर सब पूर्ण हइल ।
नंद-यशोदार द्वार पुछ कोरि’ वहिल ॥
नंद महाराज की जय!
यशोमती-देवी की जय!
नंदरानी की जय!
गृहेते आसिया नंद श्री विष्णु पूजिल ।
नित्य कर्म विधि यत सब समापिल ॥
अति शीघ्र दरबारे धुहेय प्रवेशिल।
गुरु-द्विज पूज्य-जने वंदना करिल ॥
आसि बले स्निग्ध कण्ठ “अरे, किबा कइल?” ।
मधु कण्ठ तबे कथा आरम्भ करिल ॥
नंद महाराज और यशोमती रानी ने इस व्रत का एक वर्ष तक निष्ठापूर्वक पालन किया। व्रत के अंत में नंद महाराज ने एक अत्यंत सुंदर स्वप्न देखा। उस स्वप्न में भगवान हरि नंद महाराज की तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न होकर स्वयं उनसे बोले, “आपकी इच्छा अति-शीघ्र पूर्ण होगी। मैं प्रत्येक कल्प में आपके पुत्र के रूप में अवतरित होता हूँ और इस कल्प में भी मैं आपके पुत्र के रूप में अवश्य प्रकट होऊँगा और आपके गृह में अपनी दिव्य बाल लीलाएँ प्रकट करूँगा। मेरी बाल्य-लीला का दर्शन करके आप प्रतिदिन परम आनंदित होंगे।”
इस मधुर स्वप्न को देखने के पश्चात नंद महाराज की निद्रा भंग हुई और वे जग गए। प्रात:काल का समय था और पक्षी चहचहा रहे थे। उन्होंने अपनी पत्नी यशोमती सहित यमुना में स्नान करने का निर्णय किया। स्नान करने के पश्चात नंद महाराज ने दान देने के लिए अपने साथ अतिशय मात्रा में धन भी एकत्र किया था। नंद महाराज से भिक्षा लेने हेतु समस्त देवता, ऋषि और मुनि-गण भिक्षुक का वेश धारण करके उनके प्रत्यक्ष पधारे। नंद महाराज और यशोमती ने अपना स्नान संपन्न करने के पश्चात उपस्थित सभी भिक्षुकों को दान देना आरंभ किया। नंद महाराज से दान प्राप्त करके सभी अत्यंत आनंद एवं संतुष्टि का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने उच्च स्वर में उद्घोष किया, "नंद महाराज की जय! यशोमती रानी की जय!"
तदुपरांत नंद महाराज अपने भवन लौटे और भगवान विष्णु की अर्चना की। इस प्ररकार अपने नित्य कर्म समाप्त करने के पश्चात वे अपनी सभा में आए और उन्होंने समस्त आदरणीय विभूतियों, गुरुजनों तथा ब्राह्मणों को अपना सम्मानजनक प्रणाम अर्पित किया। इसके बाद स्निग्धकंठ ने पूछा, "उसके पश्चात क्या हुआ?" तब मधु-कण्ठ ने पुनः गायन प्रारंभ किया।
ब्रह्मचारिणी तपस्वी की भविष्यवाणी
राज-दरबारे नंद याखन वासिल ।
द्वारी कहे “राजा! द्वारे तपस्वी आइल ॥
संगे ब्रह्मचारी हय सुंदर दर्शन ।
ब्रह्मचारिनी संगे अति मनोरम” ॥
द्वारीर वचने नंद गात्र-उत्तान कइल ।
स्वागत करिय शीघ्र तपस्वी लइल ॥
दीन-जन दिव्यासने विराज हइल ।
पद-धौत-आदि करि’ महापूजा कइल ॥
यशोदा योगिनी-पदे काँदिया पड़िल ।
योगिनी आपन करे यशोदारे मिल ॥
“दु:ख नाहि कोरो रानी दु:ख परिहार ।
भविष्यते हइबे एक संतान सुंदर” ॥
शिरे हाथ दिया करे शुभ आशिर्वाद ।
शुनि’ गोप-गोपी करे ‘जय जय’ नाद ॥
नंदरानी की जय! यशोमती रानी की जय!
तभी एक द्वारपाल आया और नंद महाराज को सूचित करते हुए कहने लगा, “द्वार पर एक ब्रह्मचारी के साथ एक तपस्वी ब्रह्मचारिणी आईं हैं।” यह सुनकर नंद महाराज खड़े हो गए तथा उन्होंने उन ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणी का हृदयपूर्वक स्वागत किया। नंद महाराज ने उन्हें उत्तम आसन प्रदान किए, उनके चरणों का प्रक्षालन किया और उनकी आदर-सहित अर्चना की। इसके उपरांत यशोदा माता उन ब्रह्मचारिणी-तपस्वी के चरणों में गिर कर क्रंदन करने लगी। ब्रह्मचारिणी ने यशोदा माता को अपनी गोद में लिया और अपना हाथ यशोदा के सिर पर रखकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा, “मेरी प्रिय रानी, अतिशीघ्र तुम्हारे यहाँ एक अद्भुत पुत्र जन्म लेगा।” इस भविष्यवाणी को सुनकर समस्त गोप-गोपियों ने उद्घोष किया, "नंदरानी की जय।" उपानंद अत्यधिक हर्षित होकर बोले, “यह गोकुल वन एक महातीर्थ बनेगा।” व्रजभूमि के समस्त निवासी अतिशय प्रसन्न एवं आनंदित हो उठे। उन सभी ने आगे आकर ब्रह्मचारिणी के चरणों में अपने दण्डवत प्रणाम अर्पित किये जिसके पश्चात उन्होंने उन ब्रह्मचारिणी के निवास हेतु एक कुटीर का निर्माण किया।
कृष्ण यशोदा माता के गर्भ में कैसे प्रविष्ट हुए?
उपानंद हासि बले “ए गोकुल वन ।
महातीर्थ रूपे तबे हइबे गणन ॥
नंदेर भविष्यवाणि सुनि’ सर्व जने ।
योगिनीर पाद-पद्म वंदे जने जने ॥
शीघ्र तबे हरिदेल कुटीर निर्माण ।
ताहाते योगिनी देवी कइल अवस्थान ॥
स्निग्ध कण्ठ बले “भाई, आछे किबा हइल ।
यशोदार गर्भे कृष्ण केमते आइल?” ॥
मधुकण्ठ मने मने करिल विचार ।
“सब गोप्य कथा-आदि करिब विस्तार ॥
कबे नंद यशोमती वस्त रेक धरि ।
द्वादशी पालन कइल अति यत्न करि’ ॥
तबे मागि’ कृष्ण प्रति मध्येर रात्रेते ।
एक शुभ स्वप्न नंद देखे [अचंबिते] ॥
नील-वर्ण एक शिशु गगने बेड़ाय ।
स्वर्ण-वर्ण कन्या एक तारे घेरि’ रहे ॥
किछु क्षण परे दोहे नंद हृदि माझे ।
करम सुखेते [पाइते] आनंदे बिराजे ॥
नंद हृदि-रथे पूर्ण यशोदा गर्भ-ते ।
धीर-भावे विराजित देखे गोप-पते ॥
सेइ हइते यशोदार गर्भेर प्रकाश ।
देखि’ गोप-गोपी मने बर्हिल उल्लास ॥
सब गोप-गोपी करे आनंद उत्तरल।
नित्य महा-महोत्सव आनंद मंगल ॥
बहु दान ब्राह्मणेर देह गोप-राज ।
नित्य दरशने आइल त्रिविध समाज ॥
निशि-दिन नंद गृहे केवा आसे जाय ।
ताहार निर्णय केह करिते ना पाय ॥
क्रमे क्रमे बड़ी गर्भ आठ मास हइल ।
एई मासे संतान ह’बे ज्योतिषी कहिल ॥
भद्र कृष्णाष्टमी दिन समागत ह’ल ।
आजि शिशु ह’बे बोलि धात्री सब थिल ॥
भद्र-कृष्णाष्टमी तिथि की जय!
कृष्ण-आविर्भाव तिथि की जय!
तब स्निग्धकंठ ने प्रश्न किया, "मेरे प्रिय भ्राता मधुकंठ, कृपया यह बतलायें कि यशोदा माता के गर्भ में कृष्ण किस प्रकार प्रकट हुए।" तब मधुकंठ ने इस गुह्य तत्त्व एवं सत्य का वर्णन किया।
नंद और उनकी पत्नी यशोमती ने द्वादशी व्रत का विधिवत एक वर्ष तक दृढ़तापूर्वक पालन किया। तत्पश्चात माघ मास में, कृष्ण-प्रतिपदा की प्रथम रात्रि में नंद महाराज को एक अत्यंत सौम्य स्वप्न दिखा। उन्होंने आकाश में एक नीलवर्ण के शिशु को विचरण करते हुए देखा और साथ ही उन्हें स्वर्ण-कांति की एक कन्या का भी दर्शन हुआ। उन दोनों ने नंद महाराज के हृदय में प्रवेश किया और वहाँ आनंदपूर्वक निवास करने लगे। तत्पश्चात वे नंद महाराज के हृदय से बाहर आए और यशोदा माता की गर्भ में प्रविष्ट हुए। नंद महाराज ने यह सब क्रियाएँ एक स्वप्न में देखीं और इस प्रकार यशोदा माता गर्भवती हुईं। गर्भावस्था की सूचना प्राप्त होते ही समस्त गोप-गोपीयाँ अत्यधिक प्रसन्न तथा उत्फुल्लित हो उठे। अत: नंद-गोकुल में प्रत्येक दिन एक महोत्सव का आयोजन होने लगा। नंद महाराज ने वैष्णवों तथा ब्राह्मणों को विशाल मात्रा में दान दिया। प्रतिदिन कोई देवी उनसे भेंट करने आती थीं। इसकी गणना कोई नहीं कर सकता कि दिन के समय तथा रात्रि काल में कितने अतिथियों का आवागमन लगा रहता था।
गर्भावस्था के आठवें माह में एक ज्योतिषी ने कहा, “इस माह में इस बालक का जन्म होगा। यह बालक भाद्र-मास के कृष्ण पक्ष के आठवें दिन जन्म लेगा जो एक अत्यंत शुभ तिथि है।”
भद्र कृष्णाष्टमी तिथि की जय!
जन्माष्टमी तिथि की जय!
जब यह पावन भद्र कृष्णाष्टमी अर्थात् भाद्र मास के कृष्ण पक्ष की आठवीं तिथि आई, तब धात्री ने सूचित करते हुए बोला, “आज शिशु का जन्म होने वाला है।” तदुपरांत प्रसूति गृह की तैयारियाँ आरंभ की गई।
प्रसूति गृह की तैयारी
“शीघ्र सुति’गृह एक निर्माण करिल ।
पुष्प माल्य आदि देइ सजादि रखिल ॥
फूलेर तोरण कइल सब फूल साजे ।
उत्तम उत्तम धात्री ताहाते विराजे ॥
एथा देव-गण सब आनंदे मातिया ।
मृदु-मंद वारि वर्षे हरषित हइया ॥
से दिवस किबा सुख गोकुले हइल ।
सुखे रस-समुद्रे येन सकल डूबिल ॥
किछु निशि सब गोपी जागिया रहिल ।
कृष्णेर माया परे निद्रा गत हइल ॥
येन काले बड़ सुखे यशोदा-सुंदरी ।
पृसबिल पुत्र रत्न केह नाहि एड़ि” ॥
यशोदा-नंदन की जय!
यशोदा-नंदन-कृष्ण की जय!
तुरंत ही प्रसूति गृह तैयार किया गया तथा कक्ष को पुष्प मालाओं से सजाया गया। द्वार भी विभिन्न प्रकार के पुष्पों से सुशोभित किए गए। विशेषज्ञ धात्रियों को माता एवं शिशु की देखभाल करने हेतु बुलाया गया। स्वर्ग लोक में समस्त देवता अत्यधिक हर्षोल्लासित थे। इंद्रदेव वर्षा-बाहार कर रहे थे। उस दिन व्रजवासी, स्वर्ग में समस्त देवता गण और सर्वत्र अन्य सभी जीव दिव्य आनंद की अनुभूति कर रहे थे, मानो सभी अद्भुत एवं दिव्य आनंद के महासागर में गोते लगा रहे थे चूँकि परम भगवान जन्म लेने वाले थे।
यशोदा माता ने कृष्ण को जन्म दिया
किछु निशि सब गोपी जागिया रहिल
कृष्णेर माया परे निद्रगत हइल
अखिल गोपियाँ रात्रि के कुछ काल तक जगी हुई थीं परंतु कृष्ण की योगमाया शक्ति के प्रभाव से वे सभी गहरी निद्रा में सो गईं। जब शिशु ने जन्म लिया, तब सभी सो रहे थे। यहाँ तक कि यशोदा माता भी उस समय गहरी निद्रावस्था में थीं। यशोदा माता ने पीड़ा-रहित अवस्था में परम भगवान श्रीकृष्ण को जन्म दिया, जो पुत्र-रत्न अर्थात् नीलमणि हैं।
यशोदा-नंदन की जय!
मुझे व्रज गोकुल ले जाइए
“सेइ काले मथुराते देवकी गर्भेते ।
देव-रुपे जन्म हो’लि ईश्वर मूर्तिते ॥
सुंदर किरिति सहे शिरेते ताहार ।
चारि-भुजे शंख-चक्र-गदा मनोहर॥
कनक कुण्डल काने करे झलमल।
रूपेर छतइ दिये हइ त उज्ज्वल॥
एइ रूप देखि ए देवकी-सुंदरी ।
पर कोरे जुटि करे भूमि पलेचारि ॥
वसुदेव शीघ्र करे मानसे स्नान कइल ।
मने मने जन्मोत्सवे गवी-दान दिल ॥
करिल स्तवन बहु देव नारायणे ।
तबे नारायणे तारे कहिले साक्षाते ॥
“मोरे लइ’ एबे चलो गोकुल नागरे ।
यशोदार कोले राखो परम आदरे” ॥
शुनिया हरिर वाक्य वसुदेव धीर ।
पुत्र लइ’ शीघ्र करि’ हइल बहिर ॥
जेइ काले कंस-पूरी ह’ते बाहरिल ।
यशोदार कुंड एक कन्या रत्न ह’ल ॥
भर यमुना ए देखि वसुदेव मने ।
केमने यमुना पारे करिब गमने” ॥
जिस घड़ी में यशोदा माता ने शिशु कृष्ण को वृंदावन में जन्म दिया था, परस्पर उसी समय मथुरा में कंस के कारागार में देवकी ने भी एक शिशु को जन्म दिया था। भागवतम के दसवें स्कंध में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है तथा इसका चित्र-वर्णन भी उपलब्ध है। मथुरा में भगवान हरि चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। उनके मस्तक पर एक सुंदर मुकुट था और उन्होंने अपने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण किया हुआ था। ‘कनक कुंडल कर्ण’, उनके दोनों कर्ण स्वर्ण कुंडलों से सुसज्जित थे और उनका शरीर दिव्य प्रकाश से तेजायमान था। यद्यपि वह अत्यंत अंधकारमय एवं घनी रात्रि थी, किंतु फिर भी समस्त वस्तुएँ और सभी दिशाएँ भगवान हरि के दिव्य शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकाशित हो उठी थीं।
ऐसे अद्भुत बालक का दर्शन करके माता देवकी ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा उनसे प्रार्थना की। वसुदेव ने अति-शीघ्र स्नान किया। किंतु उन्होंने कारागार में रहते हुए स्नान कैसे किया? उन्होंने चिंतन-ध्यान द्वारा अपने मन में, मानस-स्नान किया। अपने मन में ही उन्होंने भगवान हरि के जन्मदिवस के लिए एक महान तथा भव्य महोत्सव का आयोजन किया तथा ब्राह्मणों एवं वैष्णवों को असंख्य गौएँ दान में दी और साथ ही उन्होंने वहाँ प्रकट भगवान नारायण से प्रार्थना की। तब श्री-नारायण ने उनसे कहा, “मुझे शीघ्र अति-शीघ्र व्रज-गोकुल ले जाइए तथा मुझे यशोदा माता की गोद में स्थानांतरित कर दीजिए।”
यह सुनते ही वसुदेव अत्यंत प्रसन्न हो गए और तत्क्षणात उस कारावास से बाहर निकलने हेतु उनके लिए सभी प्रबंध स्वत: हो गए। भगवान हरि की दिव्य इच्छा से कारावास के सभी पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए, लोहे के मजबूत द्वार तथा बेड़ियों के बंधन चमत्कारिक रूप से स्वत: ही खुल गए और वसुदेव अब गोकुल के प्रस्थान के लिए बंधन-मुक्त थे।
वसुदेव जब कंस के कारागार से रवाना हो रहे थे, उसी क्षण यशोदा माता ने एक दूसरे शिशु यानि एक बालिका को जन्म दिया। जब वसुदेव यमुना के तट पर आए तब उन्होंने देखा की यमुना अपने पूर्ण ऊफान पर थीं तथा उनमें सैलाब आ गया था। जल का स्तर शीर्षस्थ था और समग्र भूमि यमुना के जल में समाई हुई थी। वसुदेव ने सोचा, “मैं इसे कैसे पार कर सकता हूँ?”
एक अत्यंत गुह्यतम कथ्य
“हेन काले महामाया सृगालीर वेशे
यमुनाह गिया पार कहे तो हरिषे ॥
ता’र पिछे पिछे जाय वसुदेव धीर
हेन रूपे पइलेन नंदेन मंदिर ॥
यशोदार कोले दिल आपना तनय
यशोदा-नंदिनी दिये कले वसु-राय” ॥
स्निग्धकण्ठ बले “भाई, एइ किबा कथा
नंदेर पुत्र कि तबे आछिलो वतसा” ॥
मधुकण्ठ बले “भाइ, कर अवधान
बड़ एइ दुर्गन लीला एइ सब जान ॥
यशोदार कन्या या साक्षात योगमाया
नंद-पुत्र पक्षे तेहो रूपे आछादिया ॥
सब विष्णु-तत्त्वे अंशी नंद-पुत्र हय
वसुदेव अंश वासुदेव नामे करे ॥
नदि-गण येन मते सागरे मिलाय
सेइ मत अंश यत अंशी-ते मिशाय ॥
योगमाया या शब्दे वसु इहा नही जाने
अजंत रहिल तारा ए सब अख्याने ॥
हरि बंधु सेते जा’छे इहार प्रमाण
एक काले दुइ स्थाने जन्मेर आख्यान” ॥
अभी वसुदेव यह विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने महामाया को एक मादा सियार के रूप में यमुना पार करते हुए देखा। वसुदेव भी उनके पीछे-पीछे यमुना पार करते गए, “एक मादा सियार इसे पार कर रही है और मैं चिंतन कर रहा था कि जल का स्तर बहुत अधिक है!” अंततः जब वे नंद महाराज के भवन पहुँचे, तो उन्होंने अपने पुत्र को यशोदा माता की गोद में रखा और यशोदा की पुत्री को अपने साथ ले लिया।
यह सुनकर स्निग्धकंठ ने कहा, "यह क्या हुआ? यशोदा माता ने एक पुत्र तथा एक पुत्री को जन्म दिया और वसुदेव अपने साथ पुत्री को ले गए, तो यशोदा माता का वह पुत्र कहाँ गया?"
मधुकंठ ने उत्तर दिया, "यह एक अत्यंत गुह्यतम कथ्य है। जिस पुत्री को यशोदा माता ने जन्म दिया था, वह साक्षात योगमाया थी। अपनी शक्ति से योगमाया ने नंद-पुत्र को छिपा दिया था और इस कारण वसुदेव उन्हें देख नहीं सके। उन्हें केवल पुत्री ही दिखाई पड़ी।
‘एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ अर्थात् नंद और यशोदा के पुत्र ‘नंदनंदन-यशोदानंदन’ स्वयं भगवान हैं और अन्य समस्त अवतार उनके विस्तार अथवा उनके अंश या कला हैं।
जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य होता है, तब उनके समस्त विस्तार, अंश और कला भी उनके साथ प्रकट होते हैं। वे सब उनके दिव्य शरीर में ही विद्यमान रहते हैं। वासुदेव वसुदेव के पुत्र हैं। ‘चतुर्भुज वासुदेव’ श्रीकृष्ण के अंशावतार हैं। जब वसुदेव ने अपने पुत्र को यशोदा की गोद में रखा तब वासुदेव, श्रीकृष्ण में समाहित हो गए। वासुदेव श्रीकृष्ण के विस्तार हैं। जिस प्रकार समस्त नदियाँ बहते हुए समुद्र में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार भगवान के समस्त अवतार और अंश-कला इत्यादि ‘स्वयं भगवान’ में प्रवेश करते हैं। यह सब योगमाया द्वारा व्यवस्थित होता है और इसीलिए वसुदेव इसे समझ नहीं सके। वे इससे पूर्णतः अनभिज्ञ थे।
कंसे के साथ छल
हरिवंश (2.4.11) में वर्णित है कि किस प्रकार भगवान हरि ने दोनों स्थानों पर एक साथ जन्म लिया:
गर्भ काले त्व असंपूर्णे अष्टमे मासी ते श्रीयुः
देवकी च यशोदा च शुशुब्दते समम् तदा ॥
गर्भावस्था के आठवें मास में (जिसे असंपूर्ण समय कहा जाता है क्योंकि साधारणतः गर्भावस्था दस माह की होती है), असामयिक अवस्था में ही यशोदा तथा देवकी, दोनों ने भगवान श्रीहरि को जन्म दिया।
यह यशोदा की पुत्री के जन्म लेने के पश्चात की बात है, जो योगमाया कहलाती हैं। योगमाया के साथ महामाया का भी जन्म हुआ था। वसुदेव महामाया को अपने साथ ले गए और उन्हें कंस को सौंप दिया जबकि योगमाया व्रजभूमि में ही अवस्थान कर गईं। यह घोषणा हो चुकी थी कि इस आठवें गर्भावधि से पुत्र का नहीं अपितु पुत्री का जन्म हुआ है। अतः इस प्रकार कंस के साथ छल हुआ था।
प्रभाव प्रकाश तथा वैभव विलास
यशोदा माता के पुत्र यशोदानंदन श्रीहरि स्वयं भगवान अर्थात् साक्षात भगवान हैं। देवकी के गर्भ से चतुर्भुज वासुदेव प्रकट हुए जो श्रीकृष्ण के प्रभाव प्रकाश हैं। भगवान श्रीकृष्ण के दो प्रकार के विस्तार-रूप हैं, नामत: प्रभाव प्रकाश और वैभव विलास। प्रभाव प्रकाश के अस्थायी रूप के अंतर्गत मोहिनी, हंस तथा शुक्ल सम्मिलित हैं तथा नित्य-रूप के अंतर्गत धनवंतरी, ऋषभ, व्यास दत्तात्रेय, कपिल इत्यादि आते हैं। वैभव प्रकाश आंशिक रूप से शक्तिशाली हैं। इनके अंतर्गत कूर्म ,मत्स्य, नर-नारायण ऋषि, वराह, हयग्रीव, पृष्णिगर्भ, बलदेव, यज्ञ, विभु, सत्यसेन, हरि, वैकुंठ, अजीत, वामन, सर्वभौम, ऋषभ, विश्वकसेन, धर्मसेतु, सुदामा, योगेश्वर, बृहदभानु इत्यादि आते हैं।
यशोदा आनंदमयी समुद्र में निमग्न हो गईं
“स्निग्ध कण्ठ बोले “भाई, नंदोत्सव कथा ।
उत्तम रूपेते हेथा बोलिबे सर्वथा” ॥
मधु कण्ठ बोले “तबे कर अवधान ।
कृष्ण प्रसंगेर कथा नहिल संधान ॥
सबे निद्रा सारा निशि गोआनिल ।
परवात काल क्रमे आसि’ देखा दिल ॥
तबे लीला करि हरि काँदे उच्च-स्वरे ।
लागे शीघ्र यशोमती मुदित अंतरे” ॥
तत्पश्चात मधुकंठ ने कहा, "जब माता यशोदा ने कृष्ण को जन्म दिया, तब सभी गहरी निद्रा में विश्राम कर रहे थे। सभी लोग पूरी रात विश्राम करते रहे। जब प्रातः काल भगवान हरि ने अपना क्रंदन प्रारंभ किया, "क्वा!क्वा! क्वा!" तब सबकी निद्रा भंग हुई और सब उठ गए। यशोमती भी उठीं और उन्होंने अपने मनोहर पुत्र को देखा।
“देखिया तनय यशोमती मैया सुखेर पतरे वसे ।
कि हरि कि हरि बुझिते ना पारे बड़ सुख मने वसे ॥
नयने तर ज्ञारुचि अघर स्तन ह’ते झरे खीर ।
तव शिशु कोले करि यशोमती बसिचि हैया स्थिर” ॥
अपने अद्भुत और अति सुंदर पुत्र को देखकर माता यशोदा आनंद के महासागर में पूर्णतया डूब गईं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। उनके नेत्रों से आनंद तथा प्रेम के अविरल अश्रु बहने लगे तथा उनके स्तनों से दुग्ध प्रवाहित हो रहा था। नवजात शिशु कृष्ण उनकी गोद में थे और माता यशोदा अत्यंत आनंदपूर्वक उनकी ओर निहार रही थीं।
प्रेम गद-गद माता वचन ना स्फूरे ।
आनंदे दिवस तनु स्नेहे नेत्र धरे ॥
अत दिन अन्य पुत्रे कइल निरीक्षण ।
आजी आपनार शिशु ह’ल दरशन ॥
नेत्र-नीरे स्तन-खीरे वस्त्र बिजि’जय
आनंदे पुत्रेर मुख यशोदा देखाय ॥
एथा धात्री गण आर गोप-नारी गण
से क्रंदने जागिया उठील सर्व-जन ॥
“ए-टी कन्या नाय पुत्र” बोलि’ उत्तरोल
तखने गोकुले वहे आनंद हिल्लोल ॥
यशोदार नव यत शिशु देखिबारे
धैया ऐसे गोपी नंदराज-पुरे ॥
सबइ दुंदुभि बाजे नाचे देव-गण
“हरि हरि हरि” ध्वनि करिल भुवन ॥
माता यशोदा की वाणी प्रेमोन्माद के कारण अवरुद्ध हो गई थी। वे कुछ बोल ही नहीं पा रही थीं और उनके नेत्रों से केवल प्रेमाश्रु का अविच्छिन्न प्रवाह हो रहा था। आज से पहले उन्होंने केवल दूसरे के पुत्रों को ही देखा था किंतु आज वे अपने पुत्र को निहार रही थीं। उनके नेत्रों से अश्रु और स्तनों से दुग्ध निरंतर प्रवाहित हो रहा था जिसके कारण उनकी पूरी साड़ी भीग गई थी। यशोदा माता बारंबार अपने पुत्र के सुंदर, पद्म तथा चंद्र सदृश मुख का दर्शन कर रही थीं। समस्त धात्रियाँ तथा गोप-गोपियाँ नवजात शिशु के रूदन की ध्वनि सुनकर उठ गईं। सब लोग आकर कहने लगे, “ओह यह पुत्री नहीं अपितु पुत्र है! यशोदा ने एक पुत्र को जन्म दिया है!”
सभी लोग आनंदित तथा उल्लसित हो उठे। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे गोकुल-व्रजभूमि आनंद के महासागर में निमग्न हो गई है। समस्त गोप तथा गोपियाँ यशोदा के नवजात शिशु का दर्शन करने हेतु नंद महाराज के भवन की ओर भागते हुए आए। स्वर्ग लोक में देवता-गण विभिन्न वाद्य यंत्र बजाकर नृत्य करते हुए गा रहे थे," हरि! हरि! हरि बोलो! हरि बोलो! हरि बोलो! हरि बोलो!" चौदह भुवन में केवल ‘हरि बोलो’ की ध्वनि गूँज रही थी।
जात कर्म संस्कार
“देव-नारी करे सुखी पुष्प वरिषन ।
महानंदे नाचे आर गोप-नारी गण ॥
एथा सब गोप-गण आनंद सागरे ।
आसि’येन परस्पर आलिंगन करे ॥
शीघ्र नंद स्नान करि’ वेदेर विधाने ।
पुत्रेर दिव्य-गण स्वस्ति-वाक्य बोले ॥
पुरोहित दिव्य-गण स्वस्ति-वाक्य बोले ।
आसिथिल एल वाद्य ताहार’ दले दले ॥
आनंदे सकले करे विविध बाजन ।
त्रिभुवन वाद्य जत बाजिल तखन ॥
महा-महानंदे पूर्ण हइल त्रिभुवन ।
साधु-द्विज-पृथ्विर’ दु:ख हइल विमोचन” ॥
स्वर्ग लोक में देव नारियाँ पुष्प वर्षा कर रही थीं। समस्त गोप एवं गोपियाँ प्रेमोन्माद में नृत्य कर रहे थे। एक दूसरे का परस्पर प्रेमपूर्वक आलिंगन करते हुए वे सभी आनंद के समुद्र में निमज्जित हो रहे थे।
नंद महाराज ने तुरंत ही वैदिक प्रक्रियाओं के अनुसार स्नान किया। तत्पश्चात उन्होंने जात कर्म संस्कार संपादित किया। ब्राह्मणों ने शिशु की मंगल कामना के लिए स्वस्तिवाचन का उच्चारण किया। अनेक संगीतकारों को आमंत्रित किया गया जिन्होंने विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्र बजाए। उन वाद्य यंत्रों की ध्वनि से तीनों लोक गूँज उठे और महा-आनंद से परिपूरित हो गए।
पृथ्वी देवी असुरों तथा राक्षसों के अत्यधिक बोझ से अत्यंत व्यथित थीं। अब असुरों का विनाश होना निकट था तथा पृथ्वी देवी इस बोझ से मुक्त होने वाली थीं। अत: साधु, वैष्णव, द्विज तथा ब्राह्मण सभी अत्यंत प्रसन्न थे।
असंख्य चंद्रमाओं का उदित होना
“कोथा गेला नंद-घोष एर देखा आसि ।
तव गृहे उदय हैयाचे कत शशि ॥
एतेक दिवसे जन्म हइल सकल ।
मनेर आनंदे नंद वदन-कमल ॥
यशोदार पुत्र हइल पड़ि गेला जाड़ा ।
महानंदे धाइया आइल जत गोयाल पाड़ा ॥
नंदेर मंदिरे गोयाल आइल धाइया ।
हाते लाड़ी काँधे भार नाचे थेय थेय ॥
सबे बोले “नंदघोष बड़ भाग्य पूर ।
तव गृहे नाहि आर आनंदेर आर” ॥
नाचय हरिषे नंद पुत्र मुख चाहिया ।
चौदिगे गोयाल नाचे करतालि दिया ॥
स्वर्गे नाचे देव-गण पताले नाचे फनि ।
अंत:पूरे राणी नाचे पाइया नीलमणि ॥
शिव नाचे ब्रह्म नाचे आर नाचे इंद्र ।
गोकुले गोयाल नाचे पाइया गोविंद ॥
दहि हरिद्र आने आर गोरचन ।
दु’बाहु पसारि आसे आइरे अंगन ॥
यदुनाथ दास बोले शुनो नंदरानी ।
कत पुण्य करे’ तुमि पाइला नीलमणि ॥
गोप-गोपिकाएँ नंद महाराज से कहने लगीं, “नंद महाराज आइए और अपने मनोहर पुत्र को देखिए। ‘तव गृहे उदय हयिचे कत शशि’ – ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे आपके भवन में असंख्य चंद्रमा परस्पर एक साथ उदित हो गए हैं। हे नंद महाराज!, ‘एतेका दिवसे जन्म हइला सकल, मनेर आनंदे देखा वदन कमल’ – आपने अपने इस जन्म में एक दीर्घ अवधि के पश्चात पूर्णता प्राप्त कर ली है। आइए और अपने इस पुत्र के सुंदर पद्म सदृश मुखकमल का दर्शन कीजिए।”
यह समाचार समग्र गोकुल, व्रजभूमि में फैल गया। सभी गोप-गोपियाँ नंद महाराज के भवन की ओर भागते हुए आए –‘नंदेर मंदिरे गयाला आईला धाईया, हाते लाडी कांधे भार’ – समस्त गोपों के हाथ में लाठी तथा उनके कंधे पर ‘कंधे भार’ (एक लकड़ी जिसके दोनों छोरों पर कपड़े के थैले होते हैं) था। आते हुए वे सब नृत्य कर रहे थे।‘सबे बोले नंदघोष बड़ा भाग्य पुरा तव गृहे नाही आर आनंदेर आर।’ वे सभी कह रहे थे, "हे नंद! आपका इतना महान सौभाग्य है। आहा! आज आपके घर में दिव्य आनंद का महासागर उमड़ आया है।"
समग्र दिशाओं में सभी नृत्य कर रहे थे
‘नाच्या हर्षे नंद पुत्र मुख छय चौ दिगे गोयाल नाचे करताली दिया’, अपने पुत्र के सुंदर मुखकमल को देखकर नंद महाराज प्रसन्नचित्त होकर नृत्य करने लगे और समस्त दिशाओं में सभी ग्वाले व गोकुल-वासी प्रसन्नतापूर्वक तालियाँ बजाकर नृत्य करने लगे। स्वर्ग लोक में देवता-गण तथा पाताल आदि लोकों में सर्प नृत्य कर रहे थे। नंदभवन के आंतरिक कक्ष में यशोदारानी नृत्य कर रही थीं। शिव, ब्रह्मा एवं इंद्र भी नृत्य कर रहे थे। सभी आनंदित होकर नृत्य कर रहे थे।
आपने नीलमणि प्राप्त किया है
‘दही हरिद्र आने आर गोरोचन दुबाहु पसारी आसे आइरे आंगन’, सभी ग्वाले दही, हल्दी तथा गोरोचन जैसे मंगलमय भेंट सहित नंदभवन पहुँचे। ‘यदुनाथ दास बोले सुनो नंदरानी कता पुण्य कइला तुमि पाइला नीलमणि’, इस कविता के पद्यकार श्रील यदुनाथ दास ने कहा है कि, “हे नंदरानी, हे नंद-पत्नी, आपने पूर्ण सौभाग्य की एवं मंगल की परिकाष्ठा की प्राप्ति की है क्योंकि आज आपने नीलमणि को अर्जित किया है, अर्थात् कृष्ण रूपी नीलमणि को अपने पुत्र के रूप में प्राप्त किया है।”
श्री कृष्ण जन्माष्टमी तिथि महा महोत्सव की जय!
भद्र कृष्णाष्टमी तिथि की जय!
भगवान कृष्ण आविर्भाव तिथि की जय!
बृजेंद्र नंदन कृष्ण आविर्भाव तिथि की जय!
श्री नंद-नंदन यशोदा-नंदन कृष्ण की जय!
धन्यवाद!
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