श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद
षड-गोस्वामी गण (रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी और रघुनाथ भट्ट गोस्वामी) महाप्रभु के अतिशय प्रिय भक्त थे। वे सभी विभिन्न प्रान्तों से सर्वप्रथम पुरुषोत्तम-क्षेत्र, जगन्नाथ पुरी आए। तत्पश्चात, श्रीमन महाप्रभु के निर्देश पर वे सब वृंदावन चले गए और अन्तकाल तक वृन्दावन में निवास करने लगे।
वृन्दावन में, उन्होंने मुख्यतः चार कार्य किए। प्रथम, "वैष्णव-ग्रंथ-प्रणयन" अर्थात वैष्णव शास्त्र की रचना। द्वितीय, लुप्त तीर्थों की खोज - "लुप्त-तीर्थ-उद्धार। तृतीय, मंदिर निर्माण, विग्रह स्थापना और विग्रह पूजा - "विग्रह-सेवा-प्रतिष्ठा" और चतुर्थ, वैष्णव व्यवहार - "वैष्णव-सदाचारा-विधान" । सनातन गोस्वामी ने वैष्णव सदाचार की शिक्षा देने हेतु हरि-भक्ति-विलास नामक ग्रन्थ की रचना करी। इसी प्रकार अन्य गोस्वामियों ने भी अनेक शास्त्रों की रचना कर भगवत प्रचार में योगदान दिया। इन्हीं शास्त्रों को प्रमाण मानकर, आजकल हम प्रचार करते हैं। यद्द्यपि गोस्वामी जनों ने भ्रमण करते हुए प्रचार नहीं किया, परन्तु उन्होंने ग्रन्थ रचनाकर प्रचार में सहायता किया है। उन सभी का प्रथम आगमन पुरुषोत्तम-धाम में हुआ और फिर वहाँ से वे सभी वृंदावन गए। यह समझना महत्वपूर्ण है कि ऐसा क्यों हुआ।
व्यास-सूत्र दीप्तिमान सूर्य के सदृश है
कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि आकाश में बादल का एक छोटा अंश दीप्तिमान सूर्य को ढक लेता है और अँधेरा छा जाता है। वैष्णव दर्शन भी सूर्य के समान प्रकाशमान है। जैसा कि महाप्रभु ने कहा है: व्यास - सूत्रेर अर्थ - यैछे सूर्येर किरण। व्यास-सूत्र दीप्तिमान सूर्य के समान है। परन्तु, श्रीमन महाप्रभु और गोस्वामी गणों के तिरोभाव के उपरांत अँधेरा छा गया। गोस्वामी गणों ने केवल वैष्णव साहित्य को लिपिबद्ध किया किंतु उन्होंने उसका प्रचार कभी नहीं किया था। यद्द्यपि यह अन्धकार क्षण भर के लिए था और केवल सूर्य के ढके होने तक ही इसका अस्तित्व था। जैसे ही हवा चलेगी और बादल छट जायेंगे वैसे ही दीप्तिमान सूर्य पुनः उदित होगा। इसी प्रकार वैष्णव समाज में भी श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के समय उज्ज्वल काल आया।
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर गौड़ीय परंपरा में एक महानतम आचार्य हैं। उन्होंने यह अनुमानित किया कि यदि गौड़ीय दर्शन को पाश्चात्य जगत में प्रचारित-प्रसारित नहीं किया गया तो भारतवर्ष के लिए यह एक महान क्षति होगी क्योंकि भारतीय लोग, पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे थे। उन्होंने विचार किया कि वैदिक ग्रंथों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद कर के, पश्चिमी देशों में इनका प्रसार होना चाहिए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अंग्रेजी भाषा में गौड़ीय साहित्य लिखने वाले प्रथम व्यक्ति थे।
पुरुषोत्तम-क्षेत्र
उन्होंने यह भविष्यवाणी किया कि निकट भविष्य में भगवद् शक्ति से संपन्न एक पुत्र जन्म लेगा जो इस मिशन को पूरे संसार में फैलाएगा। उनकी इस भविष्यवाणी का सत्यापन उनके पुत्र श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी के रूप में हुआ, जिनका जन्म जगन्नाथ पुरी में हुआ। उनका जन्म स्थान आज भी पुरी में विद्यमान है। इस प्रकार श्रील व्यासदेव द्वारा पद्म पुराण में की गई भविष्यवाणी - "ह्य उत्कले पुरुषोत्तमे" - सत्य सिद्ध हुई।
पुरुषोत्तम क्षेत्र अति महत्वपूर्ण स्थान है। स्कंद पुराण के उत्कल खंड में पुरुषोत्तम क्षेत्र की अद्भुत महिमा का उल्लेख है। भक्तिविनोद ठाकुर पुरी के मजिस्ट्रेट और जगन्नाथ मंदिर के प्रशासक भी थे। उनके पुत्र, श्रील भक्तिसिद्धांत ठाकुर महाराज, का जन्म भी इस पवित्र पुरुषोत्तम क्षेत्र में हुआ। इस प्रकार उत्कले पुरुषोत्तमे" - सत्य सिद्ध हो रही है। अतः आपको वैदिक भविष्यवाणी की महत्ता को स्वीकार करना चाहिए।
एक महान महा-पुरुष
श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज जन्मजात महापुरुष थे। उनका शुभ आविर्भाव माघ मास की कृष्ण पंचमी तिथि (शुक्रवार 6 फरवरी, 1874 ईस्वी) को अपराह्न 3.30 बजे हुआ था। जन्म के समय उनके शरीर में एक पवित्र जनेऊ सुशोभित था तथा महा-पुरुषों के सभी शुभ लक्षण विद्यमान थे।
महा-पुरुषों के बत्तीस लक्षण
पंञच-दीर्घः पंञच-सूक्ष्मः सप्त-रक्तः षड-उन्नतः।
त्रि-ह्रस्व-प्रथु-गम्भीरो द्वात्रिंशल्लक्षणो महान्॥
"महापुरुष के शरीर में 32 लक्षण होते हैं - उसके शरीर के पाँच अंग बड़े, पाँच सूक्ष्म, सात लाल रंग के, छह उठे हुए, तीन छोटे, तीन चौड़े और तीन गहरे (गंभीर) होते हैं।" (चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 14.15)
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने इन बत्तीस लक्षणों की व्याख्या किया है।
पंच-दीर्घ - महापुरुषों की नासिका, बाहु, कपोल, नेत्र, और जाँघे दीर्घ होती हैं।
पंच-सूक्ष्म - महापुरुषों की त्वचा तथा केश पतले, और तीन अंगुली पर्व (अंगुलिओं के विभाजन) सूक्ष्म होते हैं।
सूक्ष्म दंत - महापुरुषों के दाँत छोटे होते हैं जबकि आसुरिक लोगो के दाँत बड़े होते हैं।
रोम - शरीर के बाल कोमल होते हैं।
सप्त-रक्त - नेत्र, पादतल (तलवा), कर्ता-द्वयं (हथेलियाँ), तालु, अधर-ओष्ठ (होंठ) और नाखून रक्त वर्ण के होते हैं।
षत-उन्नत - वक्ष, स्कंध, नख, नासिका, कटि (कमर) और मुख उन्नत होते हैं।
त्रि-ह्रस्व - ग्रीवा, जानु (अंगुष्ठ), और मेहना (जननांग) छोटा होता है।
तीन विस्तीर्ण - ललाट, वक्ष, और कटि चौड़े होते हैं।
तीन गंभीर - नाभि, स्वर, स्वभाव या व्यवहार गंभीर होते हैं।
जो भी व्यक्ति इन 32 लक्षणों से युक्त होता है, उसे महापुरुष कहा जाता है। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी के शरीर में ये सभी बत्तीस लक्षण उपस्थित थे।
भगवान् जगन्नाथ की माला बिमला प्रसाद पर गिर गई
एक कुशल ज्योतिषी ने जब उनकी कुंडली बनाई, तो वह बेहद आश्चर्यचकित हुआ। उसने कहा, "मैंने अपने जीवन में अनेक लोगों की कुंडलियाँ बनाई हैं लेकिन मैंने ऐसी अद्वितीय कुंडली पहले कभी नहीं देखी। इस शिशु में महापुरुषों के समस्त लक्षण विद्यमान हैं।"
जन्म के छः मास बाद, शिशु का शुद्धिकरण अथवा अन्न-प्राशन संस्कार संपन्न हुआ, जिसमें पहली बार शिशु को अन्न ग्रहण कराया जाता है और उसकी रुचि की परीक्षा भी की जाती है। उस समय उनका नाम बिमला प्रसाद था। अन्न-प्राशन समारोह रथयात्रा के अवसर पर हुआ था। भगवान जगन्नाथ का रथ श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के घर के सामने आकर ठहर गया और तीन दिन तक वहीं रुका रहा। भक्तिविनोद ठाकुर की पत्नी, श्रीमती भगवती-देवी ने, अपने बच्चे बिमला प्रसाद को लेकर रथ के समीप गईं और जैसे ही उन्होंने बच्चे को रथ पर रखा, भगवान् जगन्नाथ की प्रसादी-माला, उनके गले से खिसककर बच्चे के ऊपर गिर गई। यह दूसरा संकेत था कि उन्हें जगन्नाथ की विशेष कृपा प्राप्त हुई है। अतः वे एक महान पुरुष होंगें।
श्रीमद भागवतम की और दौड़े
अन्न-प्राशन समारोह से पहले रुचि परीक्षा के समय, शिशु के समक्ष विभिन्न वस्तुएं रखी गई ताकि वह उनमें से किसी एक का चयन करे। इससे शिशु के स्वभाव का अनुमान लगाया जाता है। वहाँ गहने, धन, चावल, खिलौने इत्यादि अनेक वस्तुएं रखी गईं थीं, परन्तु शिशु बिमला प्रसाद ने केवल श्रीमद् भागवतम को ही चुना। यह एक अन्य संकेत था कि यह महापुरुष भविष्य में श्रीमद भागवतम का प्रचार करेगा। तत्पश्चात भगवान जगन्नाथ के महा-प्रसाद से शिशु का अन्न-प्राशन कराया गया।
शिशु बिमला प्रसाद केवल दस मास तक पुरी में रहे, फिर वे बंगाल के नदिया जिले में स्थित रानाघाट चले गए। रानाघाट, कोलकाता से मायापुर और नवद्वीप के रास्ते में पड़ता हैं।
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर से हरि-नाम दीक्षा
बाल्यकाल से ही बिमला प्रसाद अपनी माता, भगवती देवी से हरि-कथा सुनते थे। सात वर्ष की आयु में, भक्तिविनोद ठाकुर ने उन्हें नृसिंह-मंत्र और हरि-नाम महा-मंत्र प्रदान किया तथा उन्हें विष्णु विग्रह की पूजा करने की भी आज्ञा दी थी। बाद में, गौर किशोर दास बाबाजी महाराज ने उन्हें दीक्षा-मंत्र प्रदान किया। वे एक नित्य-सिद्ध भागवत-पार्षद थे। वे इस भौतिक जगत के व्यक्ति नहीं थे।
बिमला प्रसाद द्वारा ज्ञानार्जन
चैतन्य-चरितामृत और चैतन्य-भागवत में उल्लेख है:
सेइ से विद्यार फल जानिह निश्चय।
‘कृष्ण-पाद-पद्मे यदि चित्त-वित्त रय’॥
"समस्त शिक्षाओं का सर्वोच्च उद्देश्य मन को कृष्ण के चरण कमलों पर स्थिर करना है।" (श्री चैतन्य भगवत आदि खंड 13.178)
महाप्रभु ने यह उपदेश दिग्विजयी-पंडित केशव कश्मीरी को दिया था। वास्तविक विद्या वह है जो व्यक्ति को अपने मन, हृदय, और आत्मा को कृष्ण के चरणों पर केंद्रित करने में सक्षम बनाए। इसके विपरीत, जड़-विद्या या भौतिक शिक्षा व्यक्ति में अहंकार और घमंड को बढ़ावा देती है।
जब महाप्रभु ने रामानंद राय से पूछा, "कौन विद्या विद्या-मध्ये सार?" सभी विद्याओं में कौन सी विद्या सर्वोत्तम है? तब राय रामानंद ने उत्तर दिया, "कृष्ण-भक्ति विना विद्या नाहि आर" (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 8.245)। कृष्ण-भक्ति ही एकमात्र विद्या है। इसलिए इस विद्या को बिमला प्रसाद अर्थात भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज ने अर्जित किया।
उनके शिक्षक उनसे चकित थे
बचपन में, बिमला प्रसाद अत्यंत रुचि और एकाग्रता के साथ भक्तिविनोद ठाकुर से हरि-कथा, भागवत-वाणी सुनते थे। विद्यालय की पढ़ाई में उनका ध्यान सीमित रहता था। शिक्षकों द्वारा पढ़ाए गए विषयों में वह अधिक रुचि नहीं दिखाते थे, फिर भी उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता देखकर शिक्षक आश्चर्यचकित रहते थे। उन्होंने घर पर कभी भी विद्यालय द्वारा निर्धारित नियमित पाठ्यक्रम का अध्ययन नहीं किया। वे सदैव वैष्णव-साहित्य जैसे प्रेम-भक्ति-चंद्रिका, वैष्णव दर्शन और नरोत्तम दास ठाकुर के भजन जैसे ग्रंथों में डूबे रहते थे। वे कभी अपना पाठ तैयार नहीं करते थे, परन्तु उन्हें कक्षा में सभी प्रश्नों के उत्तर सहजता से ज्ञात होते थे। शिक्षक उनकी प्रतिभा से बहुत चकित थे। वे गणित, ज्योतिष और दर्शन जैसे सभी शास्त्रों में बहुत दक्ष थे।
गौरा किशोर दास बाबाजी महाराज से भेंट
सन 1898 ईस्वी की शरद ऋतु में गौद्रुम स्थित श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के स्वानंद-सुखद-कुंज में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती की श्रील गौर किशोर दास बाबाजी महाराज से प्रथम भेंट हुई। वे बाबाजी महाराज के प्रति आकर्षित हुए। भक्तिविनोद ठाकुर ने उन्हें बाबाजी महाराज से कृपा प्राप्त करने और दीक्षा लेने का आदेश दिया। वे बाबाजी महाराज के पास गए और स्वयं को शिष्य के रूप में स्वीकार किए जाने की प्रार्थना की। परन्तु, गौर किशोर दास बाबाजी महाराज एक विविक्तानंदी अर्थात भजनानंदी साधु थे। विविक्तानंदी साधु प्रायः समाज से दूर रहकर एकांत में भजन करते हैं और कोई शिष्य स्वीकार नहीं करते हैं, जबकि गोष्ठी-आनंदी प्रचार हेतु शिष्य स्वीकार करते हैं। इसलिए बाबाजी महाराज ने उन्हें शिष्य बनाने से मना कर दिया और बोले, "नहीं, मैं कोई शिष्य स्वीकार नहीं करूंगा। यहाँ से चले जाओ! बिमला-प्रसाद बड़ लोकेर चेले, तुम एक धनी व्यक्ति के पुत्र हो।"
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती के पिता एक मजिस्ट्रेट और धनी व्यक्ति थे। साधारणतया, धनी व्यक्तियों के पुत्र घमंडी तथा अहंकारी होते हैं। वे विनम्र नहीं होते जबकि विनम्रता एक प्रमुख वैष्णव गुण है - तृणादपि सुनीचेन। बाबाजी महाराज ने कहा, "आप बड़ लोकेर चेले हैं, धनी और बड़े व्यक्ति के पुत्र हैं। यहाँ से चले जाओ! मैं कोई शिष्य स्वीकार नहीं करता हूँ।"
भक्तिसिद्धांत सरस्वती इस घटना से बहुत निराश हो गए और वापस घर लौट आए। अपने पिता भक्तिविनोद ठाकुर से कहा, "बाबाजी महाराज ने मुझे मना कर दिया। उन्होंने मुझे डाँटा और वापस चले जाने को कहा।" यह सुनकर उनके पिता ने भी उन्हें डाँटते हुए कहा, "तुम नादान हो! वापस क्यों आ गए? पुनः वापस जाओ और वहीं पड़े रहो। जब तक बाबाजी महाराज की कृपा न प्राप्त हो, वापस मत लौटना और मुझे अपना मुख मत दिखाना। यदि बाबाजी महाराज की कृपा न मिले तो अपना जीवन समाप्त कर लेना, परन्तु वापस लौट कर मत आना। अब यहाँ से बाहर निकलो!" भक्तिविनोद ठाकुर का भजन है; करुणा ना होइले, कांदिया कांदिया, प्राण ना राखिबो आर, "यदि मुझे आपकी कृपा नहीं मिलेगी, तो मैं रोते-रोते अपने प्राण त्याग दूँगा।"
इस प्रकार भक्तिसिद्धांत सरस्वती जी पुनः बाबाजी महाराज की कुटिया के सामने खुले आसमान के नीचे बैठ गए। वे आँधी, तूफान, वर्षा, हवा और धूप को सहन कर रहे थे। वे निरंतर क्रंदन कर रहे थे और कई पखवाड़े तक वहीं बैठे रहे। वास्तव में, दया प्राप्त करने के लिए आपको ऐसे ही आर्त भाव से रोना पड़ेगा। अन्यथा, आप दया कैसे प्राप्त करेंगे?
जब गौर किशोर दास बाबाजी महाराज ने भक्तिसिद्धांत सरस्वती जी की ऐसी दशा देखी, तो उन्होंने विचार किया, "अब वह विनम्र हो गया है।" इसके बाद उन्होंने अपनी कृपा वृष्टि की। "अब तुम जाकर स्नान करो और मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा।" सन 1900 ईस्वी में माघ मास में उन्होंने सरस्वती ठाकुर को दीक्षा दी, और उनको वार्षभानवी-दयित दास नाम प्रदान किया। वार्षभानवी का अर्थ है श्रीमती राधारानी हैं और दयित का अर्थ है पति।
शुद्ध भक्ति-सिद्धांत की स्थापना
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी आध्यात्मिक शक्ति से संपन्न एक अत्यंत महान शक्तिशाली वैष्णव थे। वे अपने प्रचार द्वारा मायावाद और अन्य अप-सिद्धांतों को पराजित करते हुए शुद्ध भक्ति-सिद्धांत की स्थापना कर रहे थे। इसलिए, सन्यास के उपरांत उनका नाम भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी पड़ा। सन 1918 में, उन्होंने अपने गुरु गौर किशोर दास बाबाजी महाराज की समाधि पर स्वयं से सन्यास ग्रहण किया। उन्होंने स्वयं अपना दंड तैयार किया और सन्यास लिया। वे एक शक्तिशाली वैष्णव थे और ऐसा करने में सक्षम थे किन्तु किसी को भी उनकी नकल नहीं करनी चाहिए।
तिरोभाव
1 जनवरी, सन 1937 को प्रातः 5.30 बजे कोलकाता के बाग-बाजार गौड़ीय मठ में उनका शरीर छूट गया। कृष्ण की अष्ट-कालीय-लीला की प्रातः कालीन लीला के समय, वे नित्य-लीला में प्रवेश कर गए। वे देह त्याग के लिए वृंदावन नहीं गए। वास्तव में, जहाँ साधु उपस्थित होते हैं, वही स्थान वृंदावन है। फिर उनके दिव्य शरीर को महाप्रभु के जन्मस्थान योगपीठ, मायापुर ले जाया गया। उनका समाधि-मंदिर मायापुर में है।
कटु सत्य
तिरोभाव से ठीक पहले, उन्होंने अपने सभी शिष्यों को गूढ़ निर्देश दिए जिन्हें सभी को जानना आवश्यक है। उन्होंने कहा, "अपने जीवनकाल में मैंने अनेक लोगों को उद्वेग दिया है।" महाप्रभु का निर्देश है: प्राणि - मात्रे मनो - वाक्ये उद्वेग ना दिब [चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.120] "किसी भी प्राणी- मनुष्य या पशु - को कष्ट या उद्वेग मत दो। ऐसा कोई भी वाक्य मत बोलो जिससे दूसरों को कष्ट हो मनो-वाक्य।" यह महाप्रभु का सबके लिए निर्देश है। परन्तु, आध्यात्मिक गुरु को अधिकार है, वह आपको उद्वेग दे सकता है।
भक्तिसिद्धान्त सरस्वती महाराज ने कहा, "यह गुरु का कर्तव्य है। मैंने यह उद्वेग हरि-भजन करने के लिए दिया है; निष्कपटे करे हरि-भजन, सरल हृदय से हरि-भजन करो।"। सरलता ही वैष्णवता है। भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज ने स्पष्ट रूप से कहा, "मैं कठोर सत्य, अकैतव सत्य कथा बोलने के लिए बाध्य हूँ, भले ही यह यह अप्रिय लगे। सामान्यतः कहा जाता है- सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्। सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् का अर्थ है सत्य वचन बोलो जो कि प्रिय लगे। अप्रिय सत्य मत बोलो, क्योंकि इससे दुख हो सकता है। परन्तु आध्यात्मिक पथ पर यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि यहाँ कटु सत्य बोलने की आवश्यकता होती है। गुरु अप्रिय सत्य बोलते हैं जो दुखदायी हो सकता है। "
उन्होंने आगे कहा, "मैं कठोर सत्य बोलने के लिए बाध्य हूँ, इसलिए मैं कई लोगों के लिए शत्रु बन गया हूँ।" यद्दपि साधू कभी किसी का शत्रु नहीं होता है-अजात-शत्रु। "फिर मैंने ऐसा क्यों किया? जिससे कि आप सभी अपनी भौतिक इच्छाओं को त्याग सकें, अन्यभिलषिता-शून्यं। कापट्य को भी छोड़ना होगा। आपको विनम्र होकर हरि-भजन करना चाहिए। एक दिन आपको यह समझ में आएगा कि मैंने उन्हें उद्वेग देकर वास्तव में उन पर उपकार किया है।"
मिल-जुल कर एक साथ प्रचार करें
उन्होंने आगे कहा, "आप सभी को एकजुट रहते हुए एक-दूसरे का सहयोग करना चाहिए और पूरी निष्ठा और उत्साह के साथ श्रील रुप-रघुनाथ की वाणी का प्रचार करना चाहिए। यदि हम रूपानुग-धारा में आने वाले महात्माओं के चरण कमलों की धूलि का एक कण भी बन सकें, तो हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा। यही हमारी अभिलाषा है। अतः मैं आप सभी को यह निर्देश देता हूँ: आपस में लड़ो मत, अपितु एक दूसरे का सहयोग करो!"
मेरे गुरु महाराज श्रील प्रभुपाद ने भी यही बात कही है "सहन करो और सहयोग करो"। उन्होंने कहा, "गुरु अर्थात आश्रय-विग्रह गुरु-पाद-पद्म के मार्गदर्शन में परम सत्य, श्री कृष्ण की दिव्य इंद्रियों की प्रसन्नता हेतु, एकजुट रहते हुए सहयोग करें और प्रचार करें।" इस भौतिक संसार में हमारा प्रवास अल्प काल के लिए है क्योंकि यह जगत अशाश्वतं और अनित्यं है। गीता में भी इसे अस्थायी बताया गया है। अनेकों बाधाओं, संकटों, निंदा, गंजना, लांछना के बाद भी हमें हरि-भजन करना चाहिए। कुछ लोग आपकी बुराई करेंगे, परन्तु इन सब बातों को अनसुना करते हुए हरि-भजन करो। भजन-पथ से कभी विमुख मत हो। कभी भी इस बात से निराश या असंतुष्ट मत हो कि आपने प्रचार करने का बहुत प्रयास किया परन्तु लोग नहीं जुड़ रहें हैं। "कभी भी निराश और हतोत्साहित मत हो।" उन्होंने कहा, "तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना बनो, और सदा हरि-भजन करो।"
भक्तिविनोद ठाकुर की इच्छा पूर्ण करना
वे इस जगत में 62 साल और 10 महीने रहे और सन 1937 में उनका गोलोक गमन हुआ। उन्होंने कहा, "यह एक जीर्ण शरीर है, परन्तु मैंने इस शरीर को अपने समस्त पार्षदों (शिष्यों) सहित श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की सेवा में समर्पित कर दिया है। " श्रील रूप गोस्वामी के चरण कमलों में धूल का एक कण बनने के लिए प्रार्थना करो।
श्री चैतन्य मनोभीष्ठं स्थापितं येन भूतले।
स्वयंरूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदांतिकं॥
"वह दिन कब आएगा जब श्रील रूप गोस्वामी मेरे माथे पर अपने चरण कमल रखेंगे?" मैं श्रील रूप गोस्वामी की कृपा प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ। प्रत्येक जीव को ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए, क्योंकि श्रील रूप गोस्वामी के चरण कमलों की धूल ही हमारा सर्वस्व धन है।"
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर से प्रवाहित इस धारा को भक्तिविनोद-धारा या रूपानुग-धारा कहते हैं। इसके प्रवाह को बाधित या रोका नहीं जा सकता है। "मैं आप सभी को निर्देश देता हूँ कि इस महान संदेश के प्रचार हेतु अपने जीवन को अति उत्साह के साथ समर्पित करें और इसे सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करें ताकि भक्तिविनोद ठाकुर की अभिलाषा पूर्ण हो सके - भक्ति-विनोद-मनो-' भीष्टा। आप सब के मध्य अनेक योग्य व्यक्ति हैं और आपको इसे बहुत गंभीरता से लेना चाहिए और पूरी दुनिया में प्रचार करना चाहिए। यही हमारी एकमात्र इच्छा होनी चाहिए।"
आददानस्तृणं दन्तैरिदं याछे पुनः पुनः।
श्रीमद्रूपपदाम्भोजधूलिः स्यां जन्मजन्मनि॥
"अपने दाँतों में तृण दबाकर, मैं बार-बार प्रार्थना करता हूँ कि जन्म-जन्मांतर मैं श्रील रूप गोस्वामी के चरण कमलों में धूल का एक कण बनूँ।" (दान केली चिंतामणि 175, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी)
बार-बार प्रार्थना करो, "मैं जन्म-जन्मांतर श्रील रूप गोस्वामी के चरण कमलों में धूल का कण कैसे बन सकता हूँ। मुझे बस यही बनना है।" यही उनकी इच्छा है।
आपात विचारों से आकर्षित मत हो
यह भौतिक जगत वास्तव में दुःखालयम है। यहाँ पर अनेक कष्ट, बाधाएँ, परेशानियाँ, और असुविधाएँ हैं। इन भौतिक समस्याओं और असुविधाओं का समाधान खोजने की कोशिश में स्वयं को थकाने या उलझाने से कोई लाभ नहीं होगा और न ही इसकी आवश्यकता है। इन सभी असुविधाओं और कष्टों के बाद भी, हमें हरि-भजन करना चाहिए।
इस भौतिक जगत में अनेक आकर्षण और विकर्षण हैं, पर हमें इनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए। हमारा एकमात्र उद्देश्य कृष्ण के चरण कमलों को प्राप्त करना है। जितना अधिक आप कृष्ण के चरण कमलों से विमुख होंगे, उतना ही अधिक आप इस जगत के भ्रामक आकर्षणों और विकर्षणों में उलझते जाएंगे। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती महाराज ने कहा कि यदि आप पूर्ण निष्ठा से कृष्ण के पवित्र नाम का आश्रय लेते हैं, और सदा एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में कृष्ण की प्रेममयी सेवा में संलग्न रहते हैं, तो आप कभी भी भौतिक सुख की ओर आकर्षित नहीं होंगे।
कृष्ण-कथा अत्यंत आश्चर्यजनक और कभी-कभी भ्रामक प्रतीत होती है, पर वास्तव में यह ऐसी नहीं है। दो प्रकार के विचार होते हैं: आपात विचार और तत्त्व विचार। उन्होंने कहा, "बाह्य दृष्टि से यह (कृष्ण कथा) आश्चर्यजनक और भ्रामक लग सकती है, परन्तु वास्तव में यह अमृतमय है।" आप सबको इस अमृत का पान करने का प्रयास करना चाहिए। कभी भी आपात विचार की ओर आकर्षित मत हो।
एकमात्र आवश्यकता
इस भौतिक जगत में लगभग सभी जीव अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अत्यंत कठिन संघर्ष कर रहे हैं, जीवन-संग्राम। परन्तु इस जीवन-संग्राम को समाप्त करना हमारी प्राथमिकता नहीं है। हमारी प्राथमिकता द्वंद्वातीत होना है जिसका अर्थ है इस भौतिक जगत की द्वंद्वता जैसे सुख-दुख, लाभ-हानि से परे जाना, ताकि हम आध्यात्मिक जगत में प्रवेश कर सकें। यही हमारा एकमात्र प्रयोजन है। इस जगत में वास्तव में न तो कोई हमारा सच्चा बन्धु है, और न कोई शत्रु, जैसा की कृष्ण ने कहा है, न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: (भगवद-गीता 9.29)। भगवद् गीता के अनुसार इस जगत की प्रत्येक व्यवस्था अस्थायी है, आद्यन्तवन्त: अर्थात प्रत्येक व्यवस्था का एक निश्चित आदि और अंत है।
हमारे जीवन का एक मात्र लक्ष्य परमार्थ अर्थात प्रेम-भक्ति प्राप्त करना है। इसे प्राप्त करने के लिए पूरी शक्ति समर्पित करनी चाहिए। यही हमारी एकमात्र आवश्यकता है। इसलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि आप सब सहयोग करें और मिलजुल कर रहें। किसी भी प्रकार के असहयोग या विवाद को अवसर न दें और मूल आश्रय-विग्रह, श्रील रूप गोस्वामी के मार्गदर्शन में, आप इस वाणी का प्रचार करें। मेरी इच्छा है कि आप सभी को श्रीकृष्ण, गुरु और गौरांग के चरणों की सेवा का अवसर प्राप्त हो।
उत्साह और साहस के साथ इस संदेश का प्रचार करें
सप्त-जिह्वा श्री-कृष्ण-संकीर्तन यज्ञ प्रति।
जेई परिक्ये बेला अमाने, कोण जगतरे विला तुजु॥
किसी भी परिस्थिति में हमें इस सप्त-जिह्वा श्री-कृष्ण-संकीर्तन के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए। “सप्त-जिह्वा” का अर्थ है श्री-कृष्ण-संकीर्तन यज्ञ की सात ज्वालाएँ। जब हम कृष्ण-संकीर्तन करते हैं, तब सात परिणाम प्राप्त होते हैं, जैसा कि शिक्षाष्टकम के प्रथम श्लोक में वर्णित है:
चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयः-कैरव-चंद्रिका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम्।
आनंदाम्बुधि-वर्धनं प्रति-पदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्म-श्नपनं परं विजयते श्री-कृष्ण-संकीर्तनम्॥
श्रील भक्ति-सिद्धांत सरस्वती महाराज इसे सप्त-जिह्वा श्री-कृष्ण-संकीर्तन कहते हैं। यदि आप सदा इस सप्त-जिह्वा-श्री-कृष्ण-संकीर्तन के प्रति आकर्षित रहते हैं और इसमें निरंतर भाग लेते हैं, तो अंततः आप जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करेंगे। “इसलिए, यह मेरा आपको निर्देश है कि रूपानुग-गणों के मार्गदर्शन में, अत्यधिक उत्साह और साहस के साथ आप इस संदेश का प्रचार करें।”
वैष्णवों की कृपा प्राप्त करें
वैष्णव चरित या शुद्ध भक्त आध्यात्मिक जगत के पार्षद होते हैं, इसलिए उनका आविर्भाव और तिरोभाव भगवान् के प्राकट्य दिवस के समान ही दिव्य होता है। जो भी ऐसे वैष्णवों का गुणगान करता है, उसे उनकी कृपा अनायास ही प्राप्त हो जाती है। अतः हम सभी को वैष्णवों का गुणगान करना चाहिए। वैष्णवेर कृपा, याहे सर्व सिद्धि - वैष्णव की कृपा से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसलिए हम वैष्णवों की महिमा गाते हैं। इस शुभ दिवस पर हम श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज से उनकी कृपा वृष्टि की प्रार्थना करते हैं। हम पूर्णतया अयोग्य और निम्नतर स्तर के तुच्छ प्राणी हैं। यदि वे अपनी अहैतुकी कृपा से हमें अपने चरणों की धूल के कण के रूप में स्वीकार कर लें, तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा, और हम उनके संदेश का सम्पूर्ण जगत में प्रचार कर सकेंगे। आज इस विशेष अवसर पर हम यही प्रार्थना करते हैं।
आम न खाने की प्रतिज्ञा
श्रील भक्ति सिद्धांत महाराज की बाल्यकाल की एक अद्भुत लीला है जिसे मैं साझा करना चाहता हूँ। एक बार उनके पिता श्रील भक्तिविनोद ठाकुर भगवान् को अर्पित करने के लिए कुछ पके आम लाए। परन्तु श्रील भक्तिसिद्धांत महाराज ने भोग लगाने से पहले ही एक आम खा लिया। इस पर उनके पिता बहुत क्रोधित हुए, "तुमने आम क्यों खाया? आमों को पहले भगवान् को अर्पित किया जाना था, तब आप प्रसाद को खा सकते थे।" यह सुनकर, यद्द्यपि वे मात्र सात वर्ष के बालक थे, परन्तु इस घटना को उन्होंने बहुत गंभीरता से लिया और जीवनपर्यन्त आम न खाने का संकल्प लिया और आजीवन इस प्रतिज्ञा का पालन किया। अगर कोई उन्हें आम देता तो वे विनम्रतापूर्वक कहते, "कृपया मुझे क्षमा करें। मैंने भगवान के प्रति अपराध किया है इसलिए मैं आम स्वीकार नहीं कर सकता हूँ।"
आप मेरे गुरु महाराज के शिष्य नहीं बन सकते
मैं अपने गुरु महाराज का एक टेप सुन रहा था जिसमें वे भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज प्रभुपाद के तिरोभाव दिवस पर व्याख्यान दे रहे थे। उस व्याख्यान में उन्होंने दो मुख्य बातें कहीं: पहली यह कि भक्तिसिद्धांत सरस्वती महाराज एक अत्यंत शक्तिशाली वैष्णव थे और दूसरी यह कि वे नियमों का कठोरता से पालन करते थे और अपने शिष्यों पर भी कठोर अनुशासन किया करते थे। उनका शिष्य बनना बहुत कठिन था। "आप मेरे गुरु महाराज के शिष्य नहीं बन सकते" श्रील प्रभुपाद ने कहा और इसलिए उन्होंने आम की कथा सुनाई।
स्वयं के आचरण द्वारा प्रचार और शिक्षण
श्रील प्रभुपाद ने श्री कपूर परिवार से जुड़ी एक शिक्षाप्रद घटना का भी उल्लेख किया। श्री कपूर और उनकी पत्नी श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज के समर्पित शिष्य थे। एक समय, कपूर दंपती भक्तिसिद्धांत सरस्वती महाराज से मिलने आए। उस समय मेरे गुरु महाराज (श्रील प्रभुपाद) भी वहाँ उपस्थित थे। श्रीमती कपूर ने निवेदन किया, "गुरु महाराज, मुझे आपको कुछ बताना है।" भक्तिसिद्धांत सरस्वती महाराज ने कहा, "ठीक है, आप कहिये।" श्रीमती कपूर ने कहा, "नहीं, मैं इसे एकांत में कहना चाहती हूँ।" इस पर भक्तिसिद्धांत सरस्वती महाराज ने दृढ़ता से कहा, "नहीं, ऐसा संभव नहीं है। आपको यहीं पर कहना होगा। मैं आपसे एकान्त में वार्ता नहीं कर सकता हूँ।" इस घटना से वे यह सिखा रहे थे कि किसी को भी, यहाँ तक गुरु को भी, नारी शिष्यों से एकान्त में वार्ता नहीं करनी चाहिए।
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥
“श्रीमद्भागवतम के इस श्लोक में कहा गया है कि आपको अपनी मात्रा (माता), स्वस्रा (बहन), या दुहित्रा (पुत्री) के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि इंद्रियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि एक महान विद्वान या संयमी व्यक्ति को भी विचलित कर सकती हैं”। (श्रीमद्-भागवतम् 9.19.17)
मेरे गुरु महाराज श्रील प्रभुपाद ने यह शिक्षाप्रद कहानी सुनाई। "नहीं, आपको एकान्त वार्ता की अनुमति नहीं है। आपको जो कुछ भी कहना है, सभी के समक्ष कहें।" इस प्रकार वे उपदेश देते थे और स्वयं के आचरण द्वारा सिखाते भी थे। यही वैष्णव सदाचार है। नारी संग गुप्त वार्ता नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे एक वैष्णव सन्यासी का निश्चित रूप से पतन हो जाएगा। अतः सभी को अपने दैनिक व्यवहार में अत्यंत सावधान रहना चाहिए।
आज इस शुभ अवसर पर, मैं श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी महाराज से विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि वे हम पर अपनी कृपा वृष्टि करें ताकि हम उनके चरण कमलों में धूल का एक कण बन सकें और गुरु और गौरांग के संदेश को सम्पूर्ण जगत में प्रचार कर सकें।
भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपादजी महाराज की जय!
सामवेत भक्त वृंद की जय!
भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपादजी महाराज की जय!
अनंत कोटि वैष्णव-वृंद की जय!!
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