श्रील भक्तिविनोद ठाकुर महाराज का सन्देश

 

कबे मुइ वैष्णव चिनिब हरि हरि

 (श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कृत कल्याण कल्पतरु से)

 

कबे मुइ वैष्णव चिनिब हरि हरि।

वैष्णव चरण, कल्याणेर खनि,

मातिब हृदय धरि’॥1॥

 

वैष्णव-ठाकुर, अप्राकृत सदा,

निर्दोष आनन्दमय।

कृष्णनामे प्रीति, जड़े उदासिन,

जीवेते दयार्द्र हय॥2॥

 

अभिमान हीन, भजने प्रवीण,

विषयेते अनासक्त।

अन्तर-बाहिरे, निष्कपट सदा,

नित्य-लीला-अनुरक्त॥3॥

 

कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम प्रभेदे,

वैष्णव त्रिविध गणि।

कनिष्ठे आदर, मध्यमे प्रणति,

उत्तमे शुश्रूषा शुनि॥4॥

 

ये जेन वैष्णव, चिनिया लइया,

आदर करिबे यबे।

वैष्णवेर कृपा, याबे सर्व सिद्धि,

अवश्य पाइब तबे॥5॥

 

वैष्णव चरित्र, सर्वदा पवित्र,

येइ निन्दे हिंसा करि।

भकतिविनोद, ना सम्भाषे तारे,

थाके सदा मौन धरि’॥6॥

 

(1) हे हरि! कब मैं वैष्णवों को पहचानूँगा? वैष्णवों के चरणकमल समस्त प्रकार के शुभों के उद्‌गम स्थान हैं। अतएव, उन्हें मैं अपने हृदय में स्थापित कर मदोन्मत हो जाऊँगा।

(2) वैष्णव सदैव महान्‌, दिव्य, निर्दोष, तथा आनन्दमय हैं। वे भौतिक जगत्‌ के प्रति उदासीन रहते हैं परन्तु जीवमात्र पर दयालु होते हैं।

(3) वैष्णव मिथ्या अहंकार से रहित, भक्तिमय सेवा का प्रतिपादन करने में अत्यन्त दक्ष, एवं समस्त प्रकार के भौतिक भोगविलास से अनासक्त रहते हैं। वे आंतरिक तथा बाह्य आदान-प्रदान में सदा निष्कपट तथा सदा भगवान्‌ की नित्य लीलाओं में अनुरक्त रहते हैं।

(4) वैष्णव तीन प्रकार के होते हैं- कनिष्ठ अधिकारी, मध्यम अधिकारी तथा उत्तम अधकारी। मैंने सुना है कि कनिष्ठ अधिकारी वैष्णवों के प्रति आदर-सम्मान, मध्यम अधिकारी वैष्णवों को प्रणाम, तथा उत्तम अधिकारी वैष्णवों की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए।

(5) कब मैं वैष्णवों के स्तर को समझकर उन्हें उचित सम्मान देने में सक्षम हो पाऊँगा? उस समय, निश्चय ही मैं सर्वसिद्धिप्रदायिनी वैष्णव कृपा प्राप्त कर सकूँगा।

(6) वैष्णवों का चरित्र सर्वदा विमल हैं। उनके निन्दकों से मुझे घृणा है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि वे ऐसे व्यक्ति से वार्तालाप ही नहीं करते एवं उसकी उपस्थिति में मौन धारण करते हैं।

 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

 

नमो भक्तिविनोदय सच्चिदानन्दनामिने।
गौरशक्ति स्वरूपाय रूपानुगवरायते॥

 

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।

पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥

 

नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते।

कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नाम्ने गोर-त्विशे नमः॥

 

पञ्चतत्त्वात्मकं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम्।

भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम्॥

 

जय श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥

 

आज एक महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज का आविर्भाव दिवस है। उन्हें गौड़ीय वैष्णव परंपरा में सप्तम गोस्वामी कहा जाता है। हमें श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी की महिमा का गुणगान करना चाहिए। मेरा अनुरोध है कि आप सभी भक्त गण धैर्य एवं ध्यानपूर्वक श्रवण कीजिए। अन्यथा आप भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज के चरण कमलों में अपराध करेंगे। ध्यानपूर्वक श्रवण करने के प्रयास मात्र से आपको भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज की कृपा प्राप्त होगी। यह मेरा विश्वास है।

 

सर्वोत्तम परोपकार क्या है?

भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज अपनी पुस्तक सज्जन-तोषणी में तीन प्रकार के परोपकारों का वर्णन करते हैं। स्व-कर्म या पुण्य-कर्म अर्थात इस स्थूल शरीर के प्रति दया जैसे क्षुधार्त व्यक्ति को भोजन खिलाना, रोगियों का उपचार करना, पिपासु व्यक्ति को जल प्रदान करना, कुँआ खुदवाना, शीत से पीड़ित व्यक्ति को गर्म वस्त्र प्रदान करना इत्यादि सभी मानवीय कार्य हैं। कुछ लोग मन के प्रति दया प्रदर्शित करते हैं। जैसे निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना, विद्यालय और महाविद्यालय खोलना इत्यादि। परन्तु यह दोनों प्रकार के परोपकार, केवल इस स्थूल या सूक्ष्म भौतिक शरीर के प्रति है।

किन्तु वास्तविक परोपकार आत्मा के प्रति दया प्रदर्शित करना हैं। जो लोग कृष्ण भावनामृत के प्रचार में, अन्य मनुष्यों में कृष्ण चेतना अंतर्निर्विष्ट करने में और भक्ति के प्रचार-प्रसार में रत हैं, वास्तव में वे ही सर्वोत्तम मानवीय कार्य कर रहे हैं। यह सर्वोच्च परोपकार है, क्योंकि इससे जीव समस्त भौतिक क्लेशों से मुक्त हो जाता है। शुद्ध भक्ति द्वारा जीव के भौतिक बंधन नष्ट हो जाते हैं और अंत में वह भगवद धाम लौट जाता है जहाँ से कभी भी इस भौतिक जगत में आकर पुनः कष्टों को सहन नहीं करना पड़ेगा। वैदिक कर्मकांडी भी वास्तविक परोपकार नहीं करते हैं। वे केवल स्थूल शरीर या मन के लिए ही उपकार करते हैं। अतः केवल वैष्णव जन ही सर्वोच्च परोपकार के कार्य कर रहे हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज का यही मत है।

 

वैष्णवों की महिमागान

परन्तु, इस तथ्य को कितने लोग समझते हैं? वैष्णवेर क्रिया मुद्रा विज्ञे न बुझाए - अति विद्वान व्यक्ति भी वैष्णवों के क्रियाकलापों को यथारूप नहीं समझ सकते। वर्तमान समय में जो मनुष्य शरीर या मन को तुष्ट करने में लगे हुए हैं, उन्हें इस भौतिक जगत में महिमामंडित किया जाता है। किंतु जो जीव आत्मा की प्रसन्नता के लिए प्रयासरत हैं, उनकी प्रशंसा भला कौन करता है? साधु महाजन, जिन्होंने अतीत में अपना जीवन आत्म कल्याण के लिए पूर्ण रूप से समर्पित किया है, ऐसे साधु महाजनों की कृपा से ही हम आत्मा और परमात्मा तत्त्व को समझ सकते हैं। परंतु ऐसे वैष्णव अति दुर्लभ हैं और भौतिक जगत में आम मनुष्य उन्हें नहीं पहचान पाते, इसलिए संसारी जन साधुओं, वैष्णवों की महिमागान करने में सक्षम नहीं हैं।

 

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी का जीवन चरित्र

भक्तिविनोद ठाकुर जी के बचपन का नाम केदारनाथ दत्त था। उनका जन्म 2 सितंबर 1838 ई में उनके ननिहाल नदिया जिले में उला नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का घर उस समय कटक, उड़ीसा में था। वर्तमान समय में यह गाँव छोटी मंगलपुर नाम से प्रसिद्ध हैं और केंद्रपाड़ा जिले में स्थित है। उनके पिता का नाम आनंद चंद्र दत्त, दादा का नाम राजा वल्लभ दत्त, माता का नाम जगत् मोहिनी, तथा नाना का नाम ईश्वर चंद्र मुस्तौफी था।

कुछ वर्ष पूर्व, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज का विग्रह दीनबंधु साहू लॉ कॉलेज, केंद्रपाड़ा में स्थापित किया गया है। क्योंकि वे उड़ीसा राज्य के प्रथम कानून विषय में स्नातक थे और उन्होंने मजिस्ट्रेट का पद प्राप्त था। वैष्णव कृपा पाया सर्व सिद्धि - वैष्णव की कृपा से समस्त सिद्धियाँ स्वत: ही प्राप्त हो जाती हैं। अतः जो भी श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी के महिमामंडन के लिए प्रयासरत हैं, उन्हें भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज की कृपा अवश्य प्राप्त होगी और वे सब सिद्धियों को प्राप्त करेंगे।

भक्तिविनोद ठाकुर दो वर्ष की आयु से ही काव्यमय भाषा बोलते थे। छह वर्ष की आयु में उन्होंने रामायण और महाभारत का अध्ययन कर लिया था। नौ वर्ष की आयु में ज्योतिष शास्त्र पढ़ लिया था। दस वर्ष की आयु में उन्होंने ब्रह्म-जिज्ञासा, परम सत्य के बारे में प्रश्न किया था। ग्यारहवें वर्ष में उनके पिता का निधन हो गया। बारहवें वर्ष में उनका विवाह हो गया था उनकी पत्नी उस समय पांच वर्ष थी। 

वे ईश्वर चंद्र विद्यासागर के प्रिय छात्र थे। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने बौद्धदया नामक अपनी पुस्तक में भगवान को निराकार बताया हैं। जब भक्तिविनोद ठाकुर जी ने वह पुस्तक पढ़ी तो उन्होंने अपने शिक्षक से पूछा कि क्या आप भगवान को नहीं देखते? भगवान का स्वरूप क्या है? सर्वप्रथम आपको भगवान का स्वरूप समझना चाहिए तत्पश्चात लिखना चाहिए। आप ऐसा क्यों लिख रहे हैं कि भगवान निराकार हैं, भगवान का कोई रूप नहीं है?" ईश्वर चंद्र विद्यासागर सरल व्यक्ति थे और उन्होंने परमेश्वर के बारे में अपनी अज्ञानता स्वीकार की।

भक्तिविनोद ठाकुर जी के दादा राजा वल्लभ दत्त ज्योतिषी थे। एक दिन उन्होंने भक्तिविनोद ठाकुर जी से कहा, "सत्ताईस वर्ष की आयु में आपको प्रतिष्ठित सरकारी नौकरी मिलेगी और मेरा यह आशीर्वाद है कि आप एक महान वैष्णव बनेंगे।" यद्यपि भक्तिविनोद ठाकुर भगवान् के नित्य-सिद्ध पार्षद हैं, फिर भी लोक-शिक्षा के लिए उन्होंने विपिन बिहारी गोस्वामी को अपना गुरु स्वीकार किया। विपिन बिहारी गोस्वामी जह्नावा माता अर्थात जह्नावा-शाखा की शृंखला में आते हैं।

ठाकुर महाशय की पहली पत्नी जगत् मोहिनी का निधन मिदनापुर में हो गया था। उनकी दूसरी पत्नी का नाम भगवती देवी था। आनंद प्रसाद पहली पत्नी के पुत्र थे और अन्य सभी भगवती देवी के पुत्र हैं। भक्तिविनोद ठाकुर के आठ पुत्र और पांच पुत्रियाँ थी। आठ पुत्र – आनंद प्रसाद, राधिका प्रसाद, कमला प्रसाद, बिमला प्रसाद (भक्तिसिद्धांत सरस्वती), बरदा प्रसाद, विरजा प्रसाद, ललिता प्रसाद, और सरजा प्रसाद। पांच पुत्रियाँ – सौदामिनी, कादम्बिनी, कृष्णा विनोदिनी, श्यामा सरोजिनी, और हरि प्रमोदिनी। सन 1862 में रचित चैतन्य गीता नामक एक पुस्तक में उन्होंने अपना नाम सच्चिदानंद प्रेमालंकार बताया है।

 

लेखनी तलवार से अधिक तेज होती है

भक्तिविनोद ठाकुर जी ने लेखनी को अपना अस्त्र बनाया क्योंकि लेखनी तलवार से भी अधिक तेज होती है। धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत - जब-जब धर्म की हानि होती है, उस समय भगवान श्री कृष्ण स्वयं अपने पार्षदों के साथ धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतरित होते हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज भी ऐसे ही एक पार्षद हैं। जब वैष्णव और सनातन धर्म का ह्रास हो रहा था, उस समय भक्तिविनोद ठाकुर प्रकट हुए। उन्होनें गौड़ीय-वैष्णव-सिद्धांत पर अति तीक्ष्ण शब्दों में अंग्रेजी, बंगाली, संस्कृत इत्यादि विभिन्न भाषाओं में अनेक पुस्तकें लिखीं। उन्होंने भौतिकवाद और नास्तिकता पर आधारित समस्त मिथ्या दर्शन को पराजित किया और कृष्ण चेतना को पुनः स्थापित किया।

 

सप्तम गोस्वामी

जब तक कोई प्रामाणिक साधु महाजन से हरि कथा श्रवण नहीं करता, तब तक वह कृष्ण चेतना को विकसित नहीं कर सकता है। श्रीमद्-भागवतम वैदिक वृक्ष का मधुर, अमृतमय परिपक्व फल है-निगम-कल्पतरोर् गलितं फलं । श्रील भक्तिविनोद ठाकुर नें बहुत ही सुंदर कविताओं के रूप में भागवतम के समस्त सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है। भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज को 'सप्तम गोस्वामी' कहा जाता हैं क्योंकि उन्होनें समस्त गोस्वामियों के सिद्धांतो को अत्यंत सरल भाषा में प्रस्तुत किया है।

 

विश्व वैष्णव सभा

जीव गोस्वामी के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने सन 1884 में ‘विश्व वैष्णव सभा' की स्थापना किया। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने वैदिक धर्म, उपनिषद, वेदान्त, श्रीमद्-भागवतम, श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं का प्रचार आरंभ किया। उनके महान वैष्णव पुत्र श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर गोस्वामी महाराज जी ने पूरे भारतवर्ष में वैष्णव दर्शन का प्रचार–प्रसार किया। उन्होंने अपने शिष्यों को भी प्रशिक्षित किया और पश्चिमी देशों में प्रचार करने के लिए भेजा। उस समय मानव समाज अज्ञान के घोर अंधकार में डूबा हुआ था। अनेक नास्तिक जन श्री-मूर्ति सेवा के विरोधी थे। अनेक लोग युक्त-वैराग्य त्याग कर फलगु-वैराग्य अपना रहे थे जिसके कारण अनेक असत-सम्प्रदाय फल-फूल रहे थे। भक्तिविनोद ठाकुर जी ने इन दर्शनों का अति तीक्ष्ण शब्दों में विरोध किया और शुद्ध भक्ति के सिद्धांतो को स्थापित किया।

 

उनकी कृतियाँ

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज ने चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएँ, श्री चैतन्य-शिक्षामृत, जैव धर्म, दत्त-कौस्तुभ, श्रीमद् आम्नाय-सूत्र, तत्व-विवेक, गौरांगा-लीला-स्मरण-मंगल-स्तोत्रम, स्व-नियम-द्वादशकम, हरिनाम-चिंतामणि, भागवतार्क-मरीचि-माला, शरणागति; गीतावली, कल्याण कल्पतरु, भजन-रहस्य, गीता रसिक-रंजन टीका, चैतन्य-चरितामृत, अमृत-प्रवाहा-भाष्‍य, शिक्षाष्टक-भाष्य, चैतन्य उपनिषद-भाष्य, उपदेशामृता-भाष्य, 'श्री चैतन्य का जीवन और उपदेश' इत्यादि। श्री कृष्ण-संहिता संस्कृत भाषा में हैं। इन सभी पुस्तकों के माध्यम से, अत्यंत तीक्ष्ण शब्दों द्वारा उन्होनें शुद्ध भक्ति के सिद्धांतों की स्थापना किया और मिथ्या सिद्धांतों का खंडन किया।

उन्होंने आत्म तत्त्व के विषय में भी प्रचुर सामग्री लिपिबद्ध किया है। उनकी पुस्तकें विद्वानों, साधकों, और बद्ध आत्माओं सभी के द्वारा प्रशंसित होती हैं। यह श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज की असीम कृपा है। यह भौतिक जगत परीक्षाओं का मंच है। प्रत्येक पद पर भगवान माया द्वारा आपकी परीक्षा ले रहे हैं। जो भी इस परीक्षा में सफल होना चाहता है, उसे महाजनों की वाणी सुनना चाहिए। भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज एक महाजन हैं, उनकी दृष्टि आध्यात्मिक थी, मानव जाति के लिए उन्होंने बहुत उत्कृष्ट संदेश दिया है, जिसके माध्यम से आपके समस्त भ्रम पूर्णतः नष्ट हो जाएंगे।

 

शिक्षा वृत्ति 

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने शिक्षा को अपना पेशा बनाया क्योंकि उस समय शिक्षा के क्षेत्र में भ्रष्टाचार नहीं था। यद्द्यपि अब शिक्षा क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार हो रहा है। अपने पैतृक निवास छोटी-ग्राम में रहते हुए उन्होंने देखा कि जमींदार लोग निर्दोष और अनपढ़ ग्रामीणों का उत्पीड़न करते हैं। उस समय उड़ीसा में शिक्षा का ज्यादा प्रसार नहीं था। इसलिए उन्होंने केंद्रपाड़ा में हाई स्कूल की स्थापना की और स्वयं शिक्षण भी किया।

सन 1859 में वे केंद्रपाड़ा से पुरुषोत्तम क्षेत्र आ गए। उन्होंने ‘शिक्षक प्रशिक्षण परीक्षा’ उत्तीर्ण किया और तत्पश्चात वे प्रशिक्षित शिक्षक बन गए और कोलेजिएट स्कूल, कटक में शिक्षक हो गए। वे अन्य स्कूलों में भी शिक्षक रहे जैसे भद्रक हाई स्कूल, मिदनापुर हाई स्कूल इत्यादि। भद्रक में उनके बड़े पुत्र आनंद प्रसाद, जिनका आध्यात्मिक नाम अच्युतानंद था, का जन्म हुआ। उसी समय उन्होंने अंग्रेजी में "द मठस ऑफ उड़ीसा (उड़ीसा के मठ)" नामक पुस्तक लिखी जिसमें उड़ीसा के अनेक मठों की जानकारी संकलित है।

 

प्रशासनिक सेवा

सन 1866 में, उन्होनें उप मजिस्ट्रेट, उप कलेक्टर और उप रजिस्ट्रार ऑफ एक्स-ऑफिसियो का पद साफरा जिले में संभाला। उसी समय साफरा में एक वृक्ष पर ब्रह्म-राक्षस रहता था। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने उस वृक्ष के नीचे श्रीमद्‌भागवतम का पाठ किया, फलतः वह वृक्ष उखड़ गया और ब्रह्म-राक्षस मुक्त हो गया। यह श्रीमद्‌भागवतम की महिमा है। इस घटना से लोगों का श्रीमद्‌भागवतम पर विश्वास और भी दृढ़ हो गया। दिनाजपुर में उन्हें चैतन्य-चरितामृत और श्रीमद्‌भागवतम की प्रति प्राप्त हुई। बार-बार उन्होंने इन पुस्तकों का अध्ययन किया और वैष्णव दर्शन के बारे में समझा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि, "इस समय से, मेरा श्री चैतन्य महाप्रभु और वैष्णव-धर्म में विश्वास विकसित हुआ। यद्यपि वह बीज मेरे हृदय में सुषुप्त रूप में था। परन्तु, जब मुझे ये पुस्तकें प्राप्त हुई, तब उस बीज के अंकुरण के लिए अनुकूल वातावरण उत्पन्न हो गया। तत्पश्चात, मैं दिन-रात कृष्ण-तत्व पर पुस्तकें पढ़ना शुरू कर दिया। यह मेरी आदत बन गयी।"

सन 1868 में, उनका स्थानांतरण पुरी में हो गया। ग्रैंड रोड में स्थित माधव महाराज द्वारा निर्मित चैतन्य मठ में भक्तिविनोद ठाकुर रहते थे। मठ का अग्र भाग वर्तमान समय में भी यथारुप ही है परन्तु मठ के पिछले भाग को तोड़कर मंदिर बना दिया गया है। उस समय इसका नाम मंडला बाड़ी था और भक्तिविनोद ठाकुर ने इसे किराए पर लिया था। उस समय भारत में अंग्रेजी शासन था। उड़ीसा के कमिश्नर रेवेनशॉ को भक्तिविनोद ठाकुर अति प्रिय थे।

 

पाखण्डी विष्वक्सेन

400 चैतन्यब्द में, गौड़ीय गोस्वामी संघ ने उन्हें 'भक्तिविनोद' की उपाधि प्रदान की। उस दिन से उन्हें श्री सच्चिदानंद भक्तिविनोद ठाकुर के नाम से जाना जाने लगा। उड़ीसा में अतिबाड़ी नामक अपसंप्रदाय अत्यंत प्रचलित है। सन 1871 में अतिबाड़ी संप्रदाय में विष्वक्सेन नाम का एक योगी था। वह स्वयं को महा-विष्णु कहता था। उसे अनेक योग-सिद्धियां प्राप्त थी। चैत्र पूर्णिमा पर उसने घोषणा किया "आज मैं रास-लीला करूँगा" और सभी युवतियों को आमंत्रित किया, "आओ, रास-लीला में भाग लो"। अनेक युवतियां रास-लीला के लिए आयीं। परन्तु अनेक लोगों ने सरकार से शिकायत किया। पुरी के कमिश्नर रेवेनशॉ साहिब ने भक्तिविनोद ठाकुर से इस समस्या को हल करने के लिए कहा। भक्तिविनोद ठाकुर वैष्णव दर्शन के ज्ञाता थे, उन्होंने तुरंत भांप लिया कि 'यह एक पाखण्डी है जिसने स्वयं को भगवान घोषित किया है'। वह श्री-विग्रह अर्चना का विरोधी है'। भक्तिविनोद ठाकुर ने आदेश दिया, "उसे आजीवन कारावास में बन्द करो”। परन्तु वह योग-सिद्धियाँ जनता था। जैसे ही पुलिसकर्मी उसे पकड़ने के लिये गए, उनके सिर चकराने लगे और वे सभी धरती पर गिर पड़े। वे भक्तिविनोद ठाकुर के पास वापस आए और कहा, "हम उसे गिरफ्तार नहीं कर सके। वह भगवान हैं।"

भक्तिविनोद ठाकुर जी ने कहा "क्या? आप उसे भगवान् कहते हैं! वह एक महान पाखण्डी है!" तत्पश्चात भक्तिविनोद ठाकुर जी ने कहा, "मेरे साथ आओ!" भक्तिविनोद ठाकुर स्वयं महामंत्र का उच्चारण करते हुए वहाँ गए - हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण महामंत्र के समक्ष योगियों के चमत्कार प्रभावी नहीं रहते हैं। अतः उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।

परन्तु, जेल में उस योगी ने अपना योग-सिद्धि चमत्कार दिखाना प्रारम्भ कर किया। भक्तिविनोद ठाकुर के छोटे-छोटे बच्चे पुरी में रहते थे। और यह पाखण्डी योगी खंडगिरी में रहता था। रात में, भक्तिविनोद ठाकुर के सभी बच्चे दस्त रोग से ग्रस्त हो गए और वे बार-बार मल त्याग रहे थे। उनकी पत्नी भगवती देवी ने कहा, "मेरे सभी बच्चे मर जाएंगे। वह योगी भगवान हैं, उसे जेल से मुक्त कर दो! आपने उसे कारागृह में क्यों डाला? उसे छोड़ दो”!

परन्तु, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा “वह एक महान पाखण्डी है! आप तनिक भी चिंतित और भयभीत न हों। हरे कृष्ण महामंत्र का जप करो” । पूरी रात्रि उन्होंने महामंत्र का निष्ठा पूर्वक जप किया और प्रातः सभी बच्चे स्वस्थ हो गए।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

 

निमाई जन्म स्थान अन्वेषण

चैतन्य महाप्रभु का जन्मस्थान मायापुर में गंगा तट पर हैं। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी स्वानंद सुखद कुंज में गंगा के दूसरे तट पर रहते थे। उस समय वे मजिस्ट्रेट के पद पर थे। अतः दिन में वे सरकारी कार्य करते और सांयकाल 5 बजे अपने निवास स्थान पर लौट आते थे। भोजन के उपरान्त वे जल्दी ही सो जाते और प्रातः दो बजे उठकर पुस्तकें लिखा करते थे। यह उनकी दैनिक दिनचर्या थी।

वे महाप्रभु के जन्मस्थान का निर्धारण करने के लिए अति उत्सुक थे। उस समय तक चैतन्य महाप्रभु का जन्म स्थान पूर्ण रूप से विलुप्त हो गया था। रात में उन्हें अपने घर की छत से गंगा के दूसरी ओर प्रतिदिन एक नियत स्थान पर एक प्रकाश पुंज दिखाई पड़ता था। वे सदैव विचार किया करते थे। वह कैसा प्रकाश है?' श्रील जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज की कृपा से उन्हें यह ज्ञात हुआ कि वह स्थान वास्तव में चैतन्य महाप्रभु का जन्मस्थान है। परन्तु वह स्थान उस समय मुस्लिम वर्ग के लोगों के अधीन था। उन्होंने मुस्लिम वर्ग के लोगों से पूछा, "आप इस भूमि पर क्या करते हैं?" उन्होंने कहा, "हम इस भूमि खंड पर खेती करना चाहते हैं। हम यहाँ बीज बोते हैं, सिचाई करते हैं, परन्तु, यहाँ केवल और केवल तुलसी ही उगती है। तुलसी के अतिरिक्त अन्य कोई भी पौधा यहाँ उगता ही नहीं है। अतः हमारे लिए यह भूमि बंजर है।” श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा "ठीक है, मुझे यह बंजर भूमि दे दो।" इस प्रकार उन्होंने उस जमीन का अधिग्रहण किया और वहाँ गौरांग महाप्रभु का मंदिर निर्माण प्रारम्भ किया।

 

मंदिर निर्माण

उन्होनें स्वयं द्वार-द्वार जाकर मन्दिर निर्माण के लिए धन एकत्रित किया। उस समय, रुपया बहुत मूल्यवान था। लोग एक पैसा, दो पैसा, पांच पैसा, दस पैसा, पच्चीस पैसा दिया करते थे। इस तरह, उन्होंने धन एकत्रित कर मंदिर निर्माण के दिव्य कार्य को प्रारम्भ किया। 21 मार्च 1894 को फाल्गुन पूर्णिमा और महाप्रभु के अवतरण दिवस पर, उन्होंने उस मंदिर में गौरांग महाप्रभु और विष्णु-प्रिया जी के श्री विग्रह स्थापित किये। उस दिन भी चंद्र ग्रहण था तथा समस्त शुभ योग उपस्थित थे।

 

बाबाजी भेष

वे पूरा जीवन गृहस्थ आश्रम के अनुयायी थे परन्तु अंत में उन्होंने परमहंस बाबाजी वेशभूषा धारण किया। उन्होंने त्रिदंड संन्यास लिया। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने त्रिदंड संन्यास प्रारम्भ किया। उनसे पूर्व कोई त्रिदंड संन्यासी नहीं था। गोस्वामी इत्यादि सब बाबाजी वेशभूषा में रहा करते थे। 23 जून 1914 को भक्ति विनोद ठाकुर जी शरीर छोड़कर नित्य-लीला में प्रवेश कर गए। भक्तिविनोद ठाकुर भगवान श्रीकृष्ण के नित्य-सिद्ध पार्षद हैं। वे आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न थे इसलिए अपनी वाणी और लेखनी के माध्यम से उन्होंने भ्रमित जीवों के भ्रम को विदूरित किया। भक्तिविनोद ठाकुर जी ने लिखा है-"जिन्होंने इस भौतिक जगत और इंद्रिय भोग की वस्तुओं के प्रति आसक्ति को विकसित कर लिया है, उनकी अभिलाषाएं असीमित हैं। उनकी कामना इंद्र, ब्रह्मा, या शिव बनने की है। परन्तु भौतिक कामनाओं का अर्थ है केवल दुख। सुख रंचमात्र भी नहीं है। बद्ध जीव सोचता है, "यदि मैं गगनचुंबी महल, सुंदर पत्नी, भौतिक वैभव, राज-पद, विशाल राज्य, नई तकनीक या नई वस्तु इत्यादि प्राप्त कर लूँगा तो मैं सुखी हो जाऊँगा। यही मेरे जीवन का उद्देश्य है।" परन्तु भक्तिविनोद ठाकुर जी कहते हैं कि यह एक महान भ्रम है।

 

दुःखालय कभी भी सुखालय नहीं बन सकता है

भगवद्-गीता में स्पष्ट उल्लेख है कि यह भौतिक जगत दुःखालय है। यहाँ केवल दुख और कष्ट हैं, यहाँ कोई सुखी नहीं है। परन्तु, नास्तिक, वैज्ञानिक, अभक्त, तार्किक इत्यादि इस दुःखालय को सुखालय बनाने के प्रयास में निरंतर लगे रहते हैं। वे कहते हैं, " हम शोध द्वारा ऐसी औषधि की खोज कर लेंगे, जिसके सेवन से मनुष्य की मृत्यु नहीं होगी, आप अमर हो जाएंगे!" परन्तु ये सब केवल कोरी कल्पना मात्र हैं। भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं, "यह उनका भ्रम है!" जो श्रीकृष्ण चेतना से रहित हैं, वे ही इस क्षणिक भौतिक जगत में आसक्त हैं और जिन्होंने अपने स्वरूप को पहचान लिया है और कृष्ण चेतना से युक्त हैं, वे जानते हैं कि यह संसार क्षणिक और दुःखालय है।

 

भौतिक जगत क्षणिक विश्रामालय है

यह जगत विश्रामालय सदृश है जहाँ पथिक एक या दो रात ठहरते हैं। किंतु हमारा परम लक्ष्य पुरुषोत्तम क्षेत्र भगवत धाम को प्राप्त करना है। हम श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र के पथिक हैं। जिस प्रकार तीर्थ यात्री रात्रि में विश्रामालय में समय बिताते हैं और सूर्योदय की प्रतीक्षा करते हैं। ठीक उसी प्रकार हम इस जगत रूपी विश्रामालय में हैं। जब सूर्योदय होगा और अंधकार छटेगा तो हम पुनः श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र की ओर अग्रसर होंगे। विद्वान् पथिक विश्रामालय से कोई आसक्ति विकसित नहीं करते। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज कहते हैं, क्षणिक विश्रामालय से आसक्ति रखने वाला व्यक्ति महा मूर्ख है!

विश्रामालय का लाभ और हानि उस विश्रामालय के स्वामी का विषय है। आप क्यूँ चिंतित हो रहे हैं? आप स्वामी नहीं हैं। इस भौतिक जगत के स्वामी परमेश्वर कृष्ण हैं। यदि उनकी इच्छा इस जगत को सुखी बनाने की होती, तो उन्होंने इसे सुखद ही बनाया होता। किंतु उन्होंने इस जगत को दुःखालय ही बनाया है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने लिखा है, कि इस भौतिक जगत में आप जो भी भौतिक विकास कर रहे हैं, आपको इससे शुद्ध सुख कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। यह सिद्धांत है।

 

भौतिक जगत अपूर्ण है

यह जगत पंच-भूतमय है अर्थात पांच स्थूल भौतिक तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश-से निर्मित है। अतः इसका स्वरूप जड़मय है। अपूर्णता इसका स्वाभाविक लक्षण है। भौतिक जगत सदा अपूर्ण ही रहेगा। अपूर्ण वस्तु कभी सुखमय नहो हो सकती है। अतः यहाँ कदापि सुख प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ सुख के लिए प्रयास करना व्यर्थ है। नास्तिक लोग इस जगत को सुखद बनाने का प्रयास कर रहे हैं। परन्तु यह मूर्खता है। इस भौतिक मंच को जितना अधिक सुखद बनाने का प्रयास करेंगे, उतना अधिक हमारा भौतिक बंधन बढ़ेगा। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं- “हमें इस भौतिक जगत में किसी सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। यह दुःखालय है, और दुःखालय ही रहेगा। जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास - जीव कृष्ण का शाश्वत दास है। अतः कृष्ण की अधीनता स्वीकार न करके जो स्वतंत्र रहना चाहते हैं, स्वयं भगवान बनना चाहते हैं, ऐसी निकृष्ठ मानसिकता वाले भक्ति विहीन जीव अपने जीवन में शुभता की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? यदि आप कृष्ण-दासत्व को त्यागते हैं, तब निश्चित रूप से आप माया के सेवक बनेंगे और परिणाम स्वरूप आप इस जगत में दुःखी ही रहेंगे। परन्तु आप अपनी मूर्खता को नहीं समझ सकते” । ये श्रील भक्तिविनोद ठाकुर महाशय के शब्द हैं।

 

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी की वाणी का प्रचार करना चाहिए

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज ने मानव समाज के कल्याण हेतु शुद्ध भक्ति के सिद्धांत पर आधारित अनेक संदेश प्रदान किए हैं। साधुओं का हृदय बद्ध-जीवों की दशा (दुखपूर्ण स्थिति) देखकर रोता है। वास्तविक सुख क्या है, केवल साधु-महाजन जानते हैं। अतः अब समय आ गया है कि श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी के इन संदेशों को पूरे जगत में प्रचारित-प्रसारित किया जाए। समाज के अग्रणी नेताओं को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यदि वे समाज का वास्तविक सुख चाहते हैं, तो उन्हें श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी महाराज के संदेशों का स्वयं पालन करना चाहिए और जनता के मध्य प्रचार करना चाहिए। केवल इसी प्रकार मानव समाज सुखी हो सकेगा।

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी की महिमा का वर्णन करने की क्षमता मेरे पास नहीं है। अतः मैं केवल श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी के इस पवित्र अवतरण दिवस पर उनके चरणों कमलों में प्रार्थना कर रहा हूँ।

 

आददानस्तृणं दन्तैरिदं याछे पुनः पुनः।

भक्तिविनोद पादाब्जेरेणुं स्यात जन्मजन्मनि॥

"[मेरी प्रार्थना है कि] श्रील भक्तिविनोद ठाकुर महाजन आचार्य, प्रत्येक जीवन में अपने चरण कमलों की रज मुझे प्रदान करें।"

सच्चिदानंद भक्तिविनोद ठाकुर जी की जय!

सच्चिदानंद भक्तिविनोद ठाकुर शुभ आविर्भाव तिथि महामहोत्सव की जय!

सामवेद भक्त वृंद की जय!

गौरा प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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