श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी की महिमा
श्री श्री षड्- गोस्वामी-अष्टक
कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भोनिधी
धीराधीरजन-प्रियौ प्रियकरौ निर्मत्सरौ पूजितौ
श्रीचैतन्य-कृपाभरौ भुवि भुवो भारावहंतारकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥1॥
नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म संस्थापकौ
लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ
राधाकृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ
वंदे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥2॥
श्रीगौरांग-गुणानुवर्णन-विधौ श्रद्धा- समृद्धयन्वितौ
पापोत्ताप-निकृंतनौ तनुभृतां गोविंद-गानामृतैः
आनंदाम्बुधि-वर्धनैक-निपुणौ कैवल्य निस्तारकौ
वंदे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥3॥
त्यक्त्वा तूर्णमशेष-मंडलपति- श्रेणीं सदा तुच्छवत्
भूत्वा दीन-गणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ
गोपीभाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहुर्
वंदे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥4॥
कूजत्-कोकिल-हंस-सारस-गणाकीर्णे मयूराकुले
नानारत्न-निबद्ध-मूल-विटप-श्रीयुक्त-वृंदावने
राधाकृष्णमहर्निशं प्रभजतौ जीवार्थदौ यौ मुदा
वंदे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥5॥
सांख्यापूर्वक-नामगान-नतिभिः कालावसानीकृतौ
निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यंत-दीनौ च यौ
राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानंदेन सम्मोहितौ
वंदे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥6॥
राधाकुंड-तटे कलिंदी-तनया-तीरे च वंशीवटे
प्रेमोन्माद-वशादशेष-दशया ग्रस्तौ प्रमत्तौ सदा
गायंतौ च कदा हरेर्गुणवरं भावाभिभूतौ मुदा
वंदे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥7॥
हे राधे व्रजदेविके च ललिते हे नंदसूनो कुतः
श्री गोवर्धन-कल्पपादप-तले कालिंदवने कुतः
घोषंताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ
वंदे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ॥8॥
रघुनाथ भट्ट गोस्वामी की महाप्रभु से भेंट:
वृंदावन के षड् गोस्वामी (रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी तथा गोपाल भट्ट गोस्वामी) श्रीमन् महाप्रभु के अतिशय प्रिय भक्त हैं। आज हम श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के बारे में चर्चा करेंगे।
दण्ड - परणाम करि’ भट्ट पड़िला चरणे ।
प्रभु ‘रघुनाथ’ जानि कैला आलिङ्गने ॥
“रघुनाथ भट्ट श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों में दण्ड की तरह गिर पड़े। तब महाप्रभु ने यह भलीभाँति जानते हुए कि वे कौन हैं, उनका आलिंगन किया”। (चैतन्य चरित्रामृत अन्त्य लीला 13.101)
श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी वृंदावन से पैदल चलकर नीलांचल पुरी धाम पहुँचे। उन्होंने श्रीमन् महाप्रभु से भेंट किया और उनके चरणों में गिरकर दडंवत प्रणाम किया। महाप्रभु ने भूमि से उठाकर उनका आलिंगन किया और बोले, "ओह रघुनाथ!"। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी को महाप्रभु के आलिंगन से परमानंद की अनुभूति हुई। श्रीमन् महाप्रभु के स्पर्श मात्र होने से उनकी मार्ग की समस्त क्लान्ति और कष्ट तत्क्षण समाप्त हो गए।
रघुनाथ भट्ट गोस्वामी विचार कर रहे थे, "मैं दीर्घ काल के बाद महाप्रभु से भेंट करने जा रहा हूँ। महाप्रभु मुझे पहचानेंगे भी या नहीं?" लेकिन जब महाप्रभु ने मंद मुस्कान के साथ कहा "ओह रघुनाथ!" और भूमि से उठाकर उनका आलिंगन किया तब आनंदाश्रु पूरित नेत्रों के साथ, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने कहा, "हे परम दयालु प्रभु, मैं आपको अभी तक स्मरण हूँ?" महाप्रभु ने कहा: "रघुनाथ, मैं आपके माता-पिता के स्नेह को जन्मों-जन्मों तक नहीं भूल सकता हूँ। फिर, मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ?" जब महाप्रभु काशी में थे, तो वे रघुनाथ भट्ट गोस्वामी के माता-पिता के घर में प्रसाद ग्रहण करते थे।
तत्पश्चात महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट गोस्वामी का परिचय अन्य वैष्णवों से कराया। सभी वैष्णव उन्हें देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए। रघुनाथ ने अपने माता-पिता की ओर से भी सभी वैष्णवों को दंडवत प्रणाम अर्पित किया। उनकी माता ने अत्यधिक मात्रा में भोजन सामग्री जैसे केक, लड्डू, इत्यादि तैयार किया था और एक विशाल झोले में जिसे ‘झाली’ कहते हैं, महाप्रभु के लिए भेजा था। महाप्रभु इस उपहार से अति प्रसन्न हुए और गोविंद से कहा, "कृपया, ये प्रसाद कमरे में रख दो।"
साध्य-साधन-तत्व
रघुनाथ भट्ट के पिता तपन मिश्र वैदिक शास्त्रों के एक महान विद्वान पंडित थे। वे पूर्वी बंगाल में निवास करते थे। एक दिन वे गंभीरता से साध्य-साधन-तत्व के बारे में चिंतन कर रहे थे। एक रात स्वप्न में, एक देवता ने उनसे कहा, "ओह मिश्र, आप साध्य-साधन-तत्व के बारे इतना में क्यों परेशान हो रहे हैं? आप निमाई पंडित के पास जाइये। वे आपको साध्य-साधन-तत्व को विस्तार से समझाएंगे।"
मनुश्य नहेन तेङ्हो—नर-नारायण।
नर-रूपे लीला ता’र जगत्—कारण॥
"निमाई पंडित साधारण मनुष्य नहीं है। वे नारायण भगवान हैं। इस भौतिक जगत के उद्धार के लिए उन्होंने नर रूप में अवतार लिया है।" (चैतन्य भागवत 1.14.123)
अगले दिन प्रातः अपने स्नानादि नैत्यिक कर्म सम्पन्न करने के पश्चात, वे श्रीमन् महाप्रभु से भेंट करने के लिए गए। उन्होंने देखा कि निमाई बैठे हुए हैं, उनके दिव्य देह से अलौकिक प्रकाश निकल रहा है। उनके नेत्र पुष्पित कमल पंखुड़ियों की तरह शोभायमान हैं। मस्तक पर घुंघराले केश और वक्ष स्थल पर यज्ञोपवीत सुशोभित है। उन्होंने पीत वस्त्र धारण किया हुआ है। तपन मिश्र ने उनके चरण कमलों में दडंवत प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा, "हे परम पुरुष भगवान्, मैं बहुत दीन, नीच, तथा पतित हूँ। कृपया मुझ पर अपनी कृपा वृष्टि करें।" महाप्रभु मुस्कुराए और उन्हें आसन ग्रहण करने के लिए कहा। फिर महाप्रभु ने उनका परिचय पूछा। तब तपन मिश्र ने अपना परिचय दिया और महाप्रभु से साध्य-साधन-तत्व के विषय में जिज्ञासा किया।
महाप्रभु ने कहा: “प्रत्येक युग में जीवों के कल्याण हेतु, परम भगवान इस धरा पर अवतरित होते हैं और वे स्वयंभजन-विधि सिखाते हैं”। सत्य युग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ, द्वापर में देव पूजा या परिचर्या तथा कलियुग में नाम-संकीर्तन ही युग धर्म है।
कलि-युग-धर्म हय नाम-सङ्कीर्तन।
चारि युगे चारि धर्म जीवेर कारण ॥
निमाई पंडित ने कहा “कलि युग में नाम संकीर्तन ही युग धर्म है। अतएव सभी को नाम संकीर्तन करना चाहिए”। (चैतन्य भागवत 1.14.137)
अतएव कलि-युगे नाम-यज्ञ सार।
आर कोन धर्म कैले नाहि हय पार॥
“अतः यदि आप नाम यज्ञ नहीं करते हैं, तो आप साध्य-साधन तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं” । (चैतन्य भागवत 1.14.139)
अतः अन्य समस्त कामनाओं को त्यागकर, सदा जप करें:
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
महाप्रभु ने कहा हरे कृष्ण महा-मंत्र के प्रभाव से, साध्य-साधन-तत्व स्वतः प्रकट होगा। हरिनाम साध्य और साधन दोनों है क्योंकि नाम व नामी अभेद है। इस प्रकार तपन मिश्र का संशय दूर हो गया। उन्होंने पुनः महाप्रभु के चरण कमलों में प्रणाम किया।
तपन मिश्र काशी में महाप्रभु से पुनः मिलते हैं
महाप्रभु उसी समय नवद्वीप गमन की तैयारी कर रहे थे। तपन मिश्र ने भी उनके साथ नवदीप जाने की इच्छा व्यक्त की। परन्तु निमाई पंडित ने कहा, "आप काशी जाइए, कुछ काल पश्चात काशी में ही हमारी पुनः भेंट होगी। उस समय, मैं आपको गुह्य-तत्वों का उपदेश करूँगा। अतः तपन मिश्र अपनी पत्नी के साथ काशी लौट आये और वहीं निवास करने लगे।
कुछ समय पश्चात् गौरहरि ने संन्यास ग्रहण किया। वे वृन्दावन में रहना चाहते थे, परन्तु शची माता के अनुरोध पर, वे नीलांचल धाम में ही रहने लगे। कुछ काल व्यतीत होने के पश्चात्, उन्होंने झारीखण्ड (आजकल झारखण्ड) के जंगलों से होते हुए पैदल से वृंदावन की ओर प्रस्थान किया। वृन्दावन के मार्ग में काशी नगर पड़ता है। वहाँ श्रीमन महाप्रभु ने मणिकर्णिका घाट पर स्नान किया और उच्च स्वर में - हरिबोल! हरिबोल! हरिबोल! उच्चारण करने लगे। तपन मिश्र भी उसी घाट पर स्नान कर रहे थे। जैसे ही उन्होनें 'हरिबोल! हरिबोल!' की ध्वनि सुना, वे आश्चर्यचकित हो गए। काशी मायावादियों का क्षेत्र था। अतः वहाँ 'हरिबोल!' या कृष्ण-संकीर्तन की ध्वनि आश्चर्यमय थी। तपन मिश्र ने देखा कि एक सुन्दर युवा सन्यासी जिसके तेज से सभी दिशाएं दीप्तिमान थी, 'हरिबोल हरिबोल' का उच्चारण कर रहा है। वे विचार करने लगे “क्या ये नवदीप के निमाई पंडित है”? मैंने सुना है कि निमाई ने संन्यास ले लिया है। तब वे जल से बाहर निकले और देखा कि संन्यासी भेष में, वे सचमुच ही निमाई पंडित है। उन्होंने महाप्रभु को तुरंत पहचान लिया। महाप्रभु के चरण कमलों में दंडवत प्रणाम करके वह रोने लगे। श्रीमन् महाप्रभु ने भूमि से उठाकर तुरंत उनका आलिंगन किया।
तपन मिश्र ने महाप्रभु को अपने घर में आमंत्रित किया। महाप्रभु का उनके घर में आगमन के पश्चात तपन मिश्र ने महाप्रभु का चरण प्रक्षालन किया और परिवार सहित चरण धोवन का पान किया। रघुनाथ भट्ट तपन मिश्र के ही पुत्र थे। उस समय वे एक छोटे बालक थे और जब महाप्रभु उनके घर पधारे तो वे श्रीमन महाप्रभु के चरणों के निकट बैठ गए किंतु महाप्रभु ने छोटे रघुनाथ को अपनी गोद में बैठा लिया। तपन मिश्र ने भोजन पकाने की व्यवस्था की और बलभद्र भट्टाचार्य ने महाप्रभु के लिए भोग तैयार किया। महाप्रभु ने स्नान करने के उपरांत प्रसाद ग्रहण किया। तपन मिश्र ने महाप्रभु का उच्छिष्ट ग्रहण किया। प्रसाद के उपरान्त, महाप्रभु विश्राम करने लगे और रघुनाथ भट्ट उनके पाद सम्बाहन करने लगे। काशी में महाप्रभु, चंद्रशेखर आचार्य के घर में रहते थे तथा तपन मिश्र के घर में प्रसाद ग्रहण किया करते थे। इस प्रकार सबको महाप्रभु की कृपा प्राप्त हुई।
काशी का उद्धार
काशी मायावादियों का क्षेत्र है। वे कृष्ण नाम उच्चारण नहीं करते अपितु 'ब्रह्म', 'आत्मा', 'चैतन्य' इत्यादि बोलते हैं। महाप्रभु ने काशी में नाम-संकीर्तन प्रारम्भ किया। महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण चंद्रशेखर ने श्रीमन महाप्रभु से अनुरोध किया, "हे प्रभु, कृपया इस काशी को मायावादियों से उद्धार कीजिए। इनके गुरु प्रकाशानंद सरस्वती कभी भी कृष्ण नाम का उच्चारण नहीं करते। मैंने तीन बार आपका नाम बोला - 'श्री कृष्ण चैतन्य', लेकिन उसने केवल 'चैतन्य' कहा 'कृष्ण' नहीं कहा।"
तब महाप्रभु ने कहा, 'मायावादी कृष्ण-अपराधी हैं।' वे कृष्ण के चरण कमलों में अपराध करते हैं, इसलिए वे कृष्ण नाम का उच्चारण नहीं कर सकते। कृष्ण नाम, कृष्ण विग्रह और स्वयं कृष्ण सभी दिव्य, सच्चिदान्दमय है। तीनों में कोई भेद नहीं है।" फिर अगले दिन, वृंदावन के लिए प्रस्थान करने से पूर्व महाप्रभु ने कहा, "यदि कृष्ण कृपा वृष्टि करते हैं तो समस्त मायावादियों का उद्धार अवश्य होगा।" ऐसा कहकर महाप्रभु चले गए।
वृंदावन में कुछ काल तक रहने के उपरान्त महाप्रभु पुनः काशी लौट आये। एक बार, महाप्रभु और प्रकाशानंद सरस्वती के नेतृत्व में समस्त मायावादियों के मध्य एक सभा हुई। उस सभा में महाप्रभु ने अद्भुत रूप प्रकट किया। सभी ने देखा कि महाप्रभु का दिव्य शरीर अति सुन्दर है। उनके शरीर से अद्भुत तेज प्रकट हो रहा है। महाप्रभु ने अपने आचरण के माध्यम से अति विनम्रता का परिचय दिया। महाप्रभु के गुणों से प्रभावित होकर सभी संन्यासियों ने उनके चरण कमलों की पूजा और उनका गुणगान किया। महाप्रभु ने विशाल हरिनाम-संकीर्तन आयोजित किया। काशी नगर हरिनाम की बाढ़ में डूब गया और मायावाद दर्शन नष्ट हो गया।
पुरी में पुनर्मिलन
महाप्रभु काशी में दस दिन तक रहे। तपन मिश्र, उनके पुत्र रघुनाथ भट्ट, चंद्रशेखर आचार्य और अन्य सभी भक्तों ने श्रीमन् महाप्रभु की बहुत सेवा किया। फिर महाप्रभु भक्तों से विदा लेकर वापस पुरी के लिए प्रस्थान करने लगे। सभी भक्त महाप्रभु से वियोग के विचार से बहुत दुःखी हो गए। रघुनाथ भट्ट क्रन्दन करने लगे और श्रीमन् महाप्रभु के चरण कमलों को पकड़ लिया। श्रीमन् महाप्रभु ने रघुनाथ को सांत्वना दी और कहा "आप अभी अपने वैष्णव माता-पिता की सेवा करें। अंतराल में, आप मुझसे पुरी में मिलेंगे।" तत्पश्चात महाप्रभु ने तपन मिश्र, चंद्रशेखर आचार्य और अन्य भक्तों का आलिंगन किया और अनेक निर्देश भी प्रदान किए ।
रघुनाथ भट्ट ने अल्प काल में ही व्याकरण, अलंकार, साहित्य, शास्त्र इत्यादि में पारंगत हो गए। महाप्रभु के निर्देशानुसार वे अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करते थे। कुछ वर्षों के उपरांत, तपन मिश्र ने उनसे कहा, "पुरी जाइए और गौर सुंदर से भेंट कीजिए।" यह सुनकर रघुनाथ अत्याधिक प्रसन्न हुए। रघुनाथ की माताजी ने अति स्वादिष्ट व्यंजन तैयार किए और एक बड़े झोले में रख दिया। अपने माता-पिता का आशीर्वाद लेकर, रघुनाथ एक सेवक के साथ पुरी के लिए निकल पड़े। सेवक झोला वहन कर रहा था।
रामदास से भेंट
रास्ते में, उनकी भेंट एक राम भक्त से हुई, जिनका नाम रामदास था। वे एक सरकारी प्राध्यापक थे। रामदास ने रघुनाथ भट्ट की चरण रज मस्तक पर धारण किया और सेवक से झोला ले लिया। वे झोले को अपने सिर पर रखकर चलने लगे। रघुनाथ ने कहा, "आप ब्राह्मण हैं, आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?" रामदास ने कहा, "बाबाजी, मैं एक तुच्छ शूद्र हूँ। मैं एक ब्राह्मण की सेवा कर सुकृति अर्जित करना चाहता हूँ।" तब रघुनाथ ने कहा, "पंडितजी, मैं आपसे अनुरोध करता हूँ, कृपया यह थैला मेरे सेवक को ही दे दीजिये। आप स्वयं को कष्ट न दीजिए।" लेकिन रामदास ने इसे अनसुना कर दिया और स्वयं ही थैला ले कर चले। मार्ग में रघुनाथ भट्ट गोस्वामी और रामदास ने अनेक शास्त्रों पर विचार विमर्श किया।
पुरी पहुंचने पर, रघुनाथ भट्ट ने श्रीमन् महाप्रभु के चरण कमलों में प्रणाम किया। महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया। महाप्रभु ने उनके माता-पिता, चंद्रशेखर तथा काशी के अन्य वैष्णवों के विषय में पूछा। रघुनाथ ने सब के बारे में विस्तार से बताया। फिर रघुनाथ ने रामदास की भेंट महाप्रभु से करवाई। रामदास ने भी श्रीमन् महाप्रभु के चरण कमलों में दंडवत प्रणाम किया। महाप्रभु परम भगवान हैं, वे सबके हृदय को जानते हैं। रामदास मुक्ति-कामी था, वह मुक्ति चाहता था। महाप्रभु रामदास के हृदय की बात समझ गए। इसलिए महाप्रभु ने उन्हें पसंद नहीं किया।
रघुनाथ भट्ट पर महाप्रभु की कृपा
महाप्रभु ने रघुनाथ को समुद्र स्नान और भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने के लिए कहा। रघुनाथ भट्ट ने वैसा ही किया और तत्पश्चात महाप्रभु के पास लौट आए। इसी बीच महाप्रभु ने प्रसाद ग्रहण किया और महाप्रभु के सेवक गोविन्द ने महाप्रभु का उच्छिष्ट रघुनाथ को दिया। इस प्रकार महाप्रभु ने रघुनाथ पर विशेष अनुग्रह किया। महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट के रहने और प्रसाद की व्यवस्था किया। बीच-बीच में, रघुनाथ भट्ट स्वयं महाप्रभु के लिए भोग बनाते थे और महाप्रभु को निवेदित करते थे। रघुनाथ भट्ट ने श्रीमन् महाप्रभु को भगवान् जगन्नाथ के समक्ष नृत्य और कीर्तन करते देखा। रघुनाथ के लिए यह दृश्य अतिशय अद्भुत, असाधारण एवं पूर्ण अलौकिक था। इस प्रकार रघुनाथ भट्ट पुरी में महाप्रभु के संग आनंदपूर्वक आठ मास तक रहे।
तब महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट को वापस जाने और माता-पिता की सेवा करने की आज्ञा दी। महाप्रभु से विरह का विचार करके रघुनाथ भट्ट अति व्यथित हो उठे। परन्तु महाप्रभु ने उन्हें उत्तम उपदेश दिया: "विवाह मत करना! अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करना और उनके शरीर छोड़ने के उपरान्त, पुनः पुरी आ जाना। तब आप भगवान जगन्नाथ का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकोगे।" महाप्रभु ने अपने गले की माला उतारकर रघुनाथ भट्ट को पहना दिया और काशी के भक्तों के लिए भगवान् श्री जगन्नाथ जी का प्रसाद भेजा। रघुनाथ भट्ट ने महाप्रभु को दंडवत प्रणाम किया और महाप्रभु ने पुनः उन्हें गले से लगा लिया। तीव्र विरह की वेदना से युक्त होकर रघुनाथ भट्ट ने काशी के लिए प्रस्थान किया। वे अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करने लगे और वैष्णवों के संग में श्रीमद्भागवतम का अध्ययन किया।
वृन्दावन गमन
वृद्ध माता-पिता के तिरोभाव के उपरांत, रघुनाथ भट्ट ने गृहस्थ आश्रम स्वीकार नहीं किया। वे सीधे पुरी धाम, महाप्रभु के पास चले गए। महाप्रभु रघुनाथ को देखकर अतिशय प्रसन्न हुए और उनके माता-पिता की महिमा का गुणगान किया। रघुनाथ भट्ट ने पुनः आठ मास पुरी में व्यतीत किये। एक दिन महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट से कहा, "आप वृंदावन जाइए। व्रज भूमि में अनेक कार्य शेष हैं। मेरी माँ ने मुझे पुरी में रहने का आदेश दिया है इसलिए मैं व्रज नहीं जा सकता हूँ। लेकिन मैं आपके माध्यम से व्रज भूमि की सेवा करूँगा। अतः आप वृन्दावन जाओ।"
रघुनाथ भट्ट महाप्रभु से वियोग सोचकर अतिशय कष्ट का अनुभव किया और व्यथित हो गए थे। रघुनाथ की मनोदशा को समझकर महाप्रभु ने कहा, "दुखी मत हो। आप वहाँ रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी का संग करोगे और भागवतम का अध्ययन करोगे।" रघुनाथ भट्ट ने भक्तों को प्रणाम किया और महाप्रभु के निर्देशानुसार वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। श्रीमन् महाप्रभु ने रघुनाथ भट्ट को भगवान श्रीजगन्नाथ का 14 हाथ लंबी माला और तांबुल महाप्रसाद अर्थात पान प्रदान किया और रघुनाथ भट्ट को गले लगाया। तब रघुनाथ भट्ट झारीखंड के जंगलों से होते हुए उसी मार्ग से वृन्दावन गए जिस मार्ग से महाप्रभु गए थे। मार्ग में वे महाप्रभु के पद चिन्हों तथा महाप्रभु की लीला स्थलियों का दर्शन करते थे। रास्ते में लोगों से वे महाप्रभु की लीलाओं का श्रवण करते थे। इस प्रकार से वे वृन्दावन पहुंचे।
रघुनाथ वृन्दावन में
समस्त गोस्वामी गण विशेष रूप से रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट को देखकर अति प्रसन्न हुए और उनका आलिंगन किया। वे रघुनाथ भट्ट को अपने भ्राता की तरह प्रेम करते थे। रघुनाथ भट्ट अत्यंत विनम्र व शुद्ध वैष्णव थे। सभी उनके व्यवहार से अति प्रसन्न थे। वे रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के संग श्रीमद्भागवतम का अध्ययन करते थे। श्रीमद्भागवतम के अध्ययन से उनको परमानंद की अनुभूति होती थी जैसे - अश्रु बहना, गदगद होना, रोमाँच होना इत्यादि। कभी कभी अश्रुपूरित नेत्रों के कारण वे भागवतम नहीं पढ़ पाते थे। ऐसी उनकी मनोदशा थी। रघुनाथ भट्ट की वाणी कोयल जैसी मीठी तथा मधुर थी। वे बहुत ही मधुर स्वर में श्रीमद्भागवतम का गायन करते थे।
गोविंद देव की सेवा
तदुपरांत रघुनाथ भट्ट, श्रील रूप गोस्वामी के विग्रह श्रीगोविंद देव की सेवा में नियुक्त हो गए। अपने एक धनवान शिष्य की सहायता से उन्होंने गोविंद देव के लिए अत्यंत सुन्दर मंदिर का निर्माण करवाया। श्रीगोविन्द देव के लिए सुन्दर मुकुट, वंशी, कुंडल इत्यादि आभूषण भी बनवाये। जब भी उनको महाप्रभु से विरह का अनुभव होता तो वे महाप्रभु द्वारा प्रदत्त माला को धारण करते। इस प्रकार वे सदा श्रीगोविन्द देव की अर्चना तथा श्रीमद्भागवतम का पाठ करने में व्यस्त रहते थे। वे कभी ग्राम्य-वार्त्ता अथवा राजनीतिक वार्तालाप नहीं करते थे। उनका पूरा समय कृष्ण कथा में ही व्यतीत होता था। श्री गौरगणोद्देश दीपिका में वर्णन है -
रघुनाथाख्यको भट्टः पुरा या रागमञ्जरी।
कृतश्रीराधिकाकुण्डकुटीरवसतेः प्रभोः॥
इसका अर्थ है ब्रज लीला में रघुनाथ भट्ट गोस्वामी राग मञ्जरी हैं
वे इस धराधाम पर 75 वर्ष तक रहे। यह उनकी संक्षिप्त जीवनी है।
श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी प्रभु की जय !!!
वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥
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