शरणागति

प्रिय पाठकगण,

श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा से आज हम ‘शरणागति’ और ‘शरणागत जीवात्माओं के लक्षणों’ पर चर्चा करेंगे।

शरणागति भक्ति का प्रारंभिक लक्षण तथा मूल सिद्धान्त है। जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर कार्यहीन रहता है, उसी प्रकार शरणागति के बिना तथाकथित भक्ति भी प्रभावहीन रहती है। श्रवण, कीर्तन, स्मरण इत्यादि भक्ति-विधि के सभी अंग पूर्णतया शरणागति पर निर्भर करते हैं। इसका अर्थ यह है कि समर्पित भाव से श्रवण करने को ही 'वास्तविक श्रवण' कहा जाता है। हमें कीर्तन भी समर्पित भाव से ही करना चाहिए। दूसरे शब्दों में भक्त का जीवन तथा भक्ति-जीवन, दोनों का मुख्य स्रोत शरणागति ही है। स्वयं श्रीमान् महाप्रभु ने अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा हमें शरणागति के अर्थ से अवगत कराया है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने भी इसकी व्याख्या की है – शिखाय शरणागति भकतेर प्राण

हमारे सभी कार्यकलाप शरणागति पर आधारित होने चाहिए। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को अपने रक्षक तथा पालक के रूप में वरण करना शरणागति का महत्वपूर्ण लक्षण है। इस तथ्य को एक सरल उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है – यदि एक विवाहित नारी अपने पति पर आश्वस्त न होने के कारण उस पर आश्रित नहीं होती, तो यह दर्शाता है कि उसने अपने पति को अपने जीवन और प्राण के रूप में स्वीकार नहीं किया है। अतएव यद्यपि वह बाह्यत: सुरक्षित दिखाई पड़ती है, किंतु वास्तव में उसकी स्थिति एक विधवा स्त्री के समान है। इसी प्रकार जब तक हम श्री श्री गुरु एवं गौरांग को अपने रक्षक तथा पालक के रूप में स्वीकार नहीं करते, तब तक भक्ति-क्षेत्र में हमारी स्थिति असुरक्षित है, तो फिर शुद्ध-भक्ति प्राप्त करने का तो कहना ही क्या।

एक भक्त सोच सकता है, “क्या मैं शरणागति के पथ पर हूँ या नहीं?” इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यदि वह श्री श्री गुरु एवं गौरांग को अपने संरक्षक व पालक के रूप में वरण कर लेता है, तो उसके भौतिक तथा आध्यात्मिक जीवन के लिए अविलंब ही सभी प्रकार की उचित व्यवस्था स्वत: हो जाएँगी। निष्कर्ष यह है कि शरणागति ही भक्ति का जीवन है और श्री श्री गुरु एवं गौरांग के चरणकमलों में अटूट श्रद्धा शरणागति का प्राण है।

बद्ध-अवस्था में शरणगति कठिन एवं कृत्रिम होती है। परंतु मुक्त-अवस्था में वह स्वाभाविक और सहज बन जाती है क्योंकि यह जीव की वास्तविक स्थिति है। एक बद्ध-जीव सोचता है कि उसके पास श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वंदन इत्यादि भक्ति के सभी अंगों को पूर्ण रूप से समझने की क्षमता है। वह सोचता है कि वह भक्ति-जीवन के विषय में सब कुछ जानता है और सब कुछ करने में समर्थ है। उसे केवल एक ही विषय समझने में कठिनाई होती है और वह है शरणागति। अत: एक बद्ध-जीव के लिए शरणागति के वास्तविक अर्थ को जान पाना अत्यंत कठिन कार्य है, या प्रायः असंभव भी।

हम घंटों तक श्रवण करते हैं, अनेक रागों एवं धुनों में कई घंटों तक कीर्तन भी करते हैं, इसके अतिरिक्त हम विभिन्न दृष्टिकोण से भक्ति-संबंधित ज्ञान को समझने का प्रयास भी करते हैं, परंतु अंत में हमारा हृदय एक बंजर भूमि के समान ही रह जाता है, अर्थात् हम सार तत्व को प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि हमारे हृदय में श्री गुरु एवं गौरांग के प्रति अटूट श्रद्धा विकसित ही नहीं हुई है। कभी हम आलस्य अनुभव करते हैं तो कभी उत्साही। परंतु शरणागति ऐसी अवस्था के परे है। शरणागत अवस्था में हमारा हृदय अटूट श्रद्धा से परिपक्व हो जाता है और हमारा प्रेममयी सेवा प्रतिपादित करने का उत्साह भी अविच्छिन्न रूप से बना रहता है, जो किसी भी प्रकार की भौतिक इच्छा से विदूषित नहीं होता।

तदुपरांत कोई ऐसा पूछ सकता है, “समर्पित आत्मा को कैसे पहचाने?” इस प्रश्न का उत्तर है कि एक समर्पित आत्मा की श्री श्री गुरु एवं गौरांग के प्रति अतुलनीय व अविचल श्रद्धा होती है, जिसे पहचान पाना अत्यंत कठिन कार्य है। जिस प्रकार एक विशाल वृक्ष की जड़ें बहुत गहरी और मज़बूत होती हैं किंतु हमारी दृष्टि से अदृश्य रहती हैं, उसी प्रकार एक समर्पित आत्मा का आंतरिक भाव एक महासागर के समान होता है, अर्थात् उसकी श्रद्धा को माप पाना एक असंभव कार्य को करने जैसा है। [चैतन्य-भागवत आदि-लीला १७.१५२]

एक समर्पित व्यक्ति सदैव यह सोचता है कि वह अकिंचन है। उसका यही विचार रहता है, “मैं आश्रय-विहीन हूँ, मेरी कोई योग्यता नहीं है और न ही मेरी कोई संपत्ति है।” यदि कोई यह सोचता है कि वह योग्य व्यक्ति है, तो वह शरणागति के स्तर पर कभी नहीं पहुँच पाएगा। कोई भी व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता या योग्यता के बल पर श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा प्राप्त नहीं कर सकता। यदि वह सोचता है कि वह योग्य है और साथ ही वह समर्पित होने की भी इच्छा रखता है, तो इन विपरीत विचारों से उसका भक्तिमय-जीवन उथल-पुथल हो जाएगा।

शरणागति का महत्त्व यह है कि जो लोग दांभिक तथा स्वतंत्र स्वभाव के हैं, उनके लिए यह न केवल एक कठिन कार्य है, अपितु वे इस उदात्त विज्ञान से सर्वदा अपरिचित रहेंगे।

  1. यदि हम देहात्मबुद्धि के प्रति अत्यधिक अनुरक्ति रखते हैं, तो श्री श्री गुरु एवं गौरांग के चरणकमलों में समर्पित हो पाना कदापि संभव नहीं है।
  2. जब हम श्री श्री गुरु एवं गौरांग के प्रति रुचि विकसित कर लेते हैं, केवल तभी हमारे लिए समर्पित हो पाना संभव होता है।
  3. यदि हम श्री श्री गुरु एवं गौरांग की सेवा के प्रति रुचि विकसित नहीं करते, तो यह दर्शाता है कि हमारी धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से अतिशय आसक्ति है। इस कारण से समर्पित हो पाना असंभव है।
  4. यदि हम सेवाओं को भक्ति-भावना से नहीं, अपितु केवल दिखाने के लिए करते हैं, तब भी हमारे लिए समर्पित हो पाना संभव नहीं है।
  5. रुचि स्तर प्राप्त करने के उपरांत शरणागति भक्त का एक स्वाभाविक लक्षण तथा उसका जीवन बन जाती है।
  6. यदि हमारी श्री श्री गुरु एवं गौरांग की सेवा में रुचि उत्पन्न हो जाती है, तो हम कदापि स्वतंत्र नहीं रह पाऍंगे क्योंकि रुचि और स्वतंत्रा एक साथ नहीं रह सकते।
  7. एक समर्पित व्यक्ति कभी अपने स्वतंत्र अस्तित्व के विषय में या श्री श्री गुरु एवं गौरंग के चरणकमलों के अतिरिक्त किसी भी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं करता। उसके जीवन के सुख, दुख और सभी कार्यकलाप पूरी तरह से श्री गुरु और कृष्ण की इच्छानुसार होते हैं।
  8. एक समर्पित आत्मा का श्रीगुरु और कृष्ण के साथ संबंध नियमों पर या मानसिक स्तर पर नहीं अपितु प्रगाढ़ प्रेम पर आधारित होता है।
  9. यदि किसी के हृदय में श्री श्री गुरु एवं गौरांग के प्रति थोड़ा भी स्नेह उत्पन्न हो जाता है, तो वह स्वत: शरणागति के पथ पर आ जाएगा।
  10. एक समर्पित आत्मा को सदैव अनुभूति होती है कि श्री श्री गुरु एवं गौरांग सर्वदा उपस्थित हैं और वे उसके जीवन के रक्षक व पालक हैं। उसे यह दृढ़ विश्वास होता है कि वे ही उसके जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं।
  11. किसी भी कार्य में संलग्न होने से पूर्व एक समर्पित व्यक्ति श्री श्री गुरु एवं गौरांग की अनुमति की प्रतीक्षा करता है और उसके लिए वह निरन्तर प्रार्थना करता रहता है। अनुमति प्राप्त किए बिना वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता।
  12. श्री श्री गुरु एवं गौरांग के चरणकमलों में समर्पित हुए बिना हमारा श्रवण, कीर्तन तथा सभी आध्यात्मिक कार्य कपट के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
  13. जब कोई जीव शरणागत होना चाहता है तो उसके जीवन में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होनी प्रारंभ हो जाती हैं। किंतु समर्पित होने से उन सभी समस्याओं का स्वतः समाधान हो जाता है। ऐसा नहीं है कि समस्याओं का समाधान होने के उपरांत ही हम समर्पित हो पाएँगे। वास्तव में, आध्यात्मिक जीवन में समर्पित हुए बिना हमारी किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता।
  14. जब कोई जीव शरणागत होना चाहता है तो उसे लज्जा, अहंकार, भय, समाज तथा संबंधियों का विरोध, भविष्य की चिंता, भौतिक कर्तव्यों इत्यादि जैसे अनेक अवरोधों का सामना करना पड़ता है। शुक्राचार्य जैसे हज़ारों लोग उसका विरोध करेंगे, परंतु उसे बलि महाराज के पदचिह्नों का अनुगमन करना होगा।

अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि श्री श्री गुरु एवं गौरांग के चरणकमलों में समर्पित हुए बिना हम आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश भी नहीं कर सकते।

दासानुदास,

हलधर स्वामी

 

 

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