श्रीराम नवमी
दशावतार स्त्रोत्र
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम्
विहितवहित्र चरित्रमखेदम् ।
केशव! धृत-मीनशरीर! जय जगदीश हरे ॥१॥
“हे जगदीश्वर! हे केशव! प्रलय के प्रचण्ड समुद्र में डूब रहे वेदों का उद्धार करने हेतु आप भीमकाय मीन का रूप धारण करके दिव्य नौका की भूमिका निभाते हैं। हे मत्स्यावतारधारी श्रीहरि! आपकी जय हो।”
क्षितिरिह विपुलतरे तिष्ठति तव पृष्ठे
धरणीधरणकिण-चक्रगरिष्ठे ।
केशव! धृत-कूर्मशरीर! जय जगदीश हरे ॥२॥
“हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! आप कूर्मरूप अंगीकार कर क्षीरसमुद्र के मंथन हेतु मंदराचल को अपने विशाल पृष्ठभाग पर धारण करते हैं, जिसके कारण आपका पृष्ठभाग व्रण से गौरवान्वित हो गया है। आपकी जय हो।”
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना।
केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे!॥3॥
“हे जगदीश! हे केशव! हे वराह का रूप धारण करने वाले श्रीहरि! आपकी जय हो। जो पृथ्वी ब्रह्माण्ड के तल पर गर्भोदक सागर में डूब गई थी, वह चंद्रमा पर धब्बे के समान आपके दांत के अग्रभाग में स्थित रहती हैं।”
तव करकमलवरे नखमद्भुत-श्रृङ्गं
दलितहिरण्यकशिपुतनु-भृङ्गम्।
केशव! धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे!॥४॥
“हे जगदीश्वर! हे केशव! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। जैसे कोई अपने नखों के बीच भ्रमर को सरलतापूर्वक पकड़ लेता है उसी प्रकार आपने अपने श्रेष्ठ व सुंदर करकमल के अद्भुत नुकीले नखों द्वारा भ्रमररूप हिरण्यकशिपु के शरीर को विदीर्ण कर दिया। आपकी जय हो!”
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन
पदनखनीरजनितजनपावन।
केशव! धृत-वामनरूप! जय जगदीश हरे!॥५॥
“हे सम्पूर्ण जगत के स्वामी! हे केशव! आपने वामन रूप में तीन पग धरती की याचना कर महाराज बलि को छला, तथा अपने चरणकमल के नख से उत्पन्न गंगाजल से इन समस्त बद्धात्माओं को पावन किया। हे अद्भुत वामन देव! आपकी जय हो।”
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं
स्नपयसि पयसि शमितभवतापम्।
केशव! धृत-भृगुपतिरूप! जय जगदीश हरे!॥६॥
“हे जगदीश! हे केशिनिसूदन! हे भृगुपति का (परशुराम) रूप धारण करने वाले श्रीहरि! आपकी जय हो। कुरूक्षेत्र में आप अपने द्वारा हताहत किए गए आसुरी क्षत्रियों के शरीरों से उत्पन्न रक्त की नदियों से धरती को स्नान कराते हैं। आप समग्र जगत के पापों का नाश करते हैं, और आपकी असीम कृपा से प्रत्येक जीव भौतिक अस्तित्व रूपी दावाग्नि के संताप से मुक्त हो जाता है।”
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं
दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्।
केशव! धृत-रामशरीर जय जगदीश हरे!॥७॥
“हे जगदीश! हे केशव! हे रामचंद्र का रूप धारण करने वाले श्री हरि! आपकी जय हो! लंका के युद्ध में आप दशानन राक्षस का वध करके उसके दस सिरों को दसों दिशाओं के दिग्पालों को रमणीय व वांछनीय उपहार स्वरूप वितरण करते हैं!”
वहसि वपुषी विशदे वसनं जलदाभं
हलहतिभितिमिलित यमुनाभम्।
केशव! हलधररूप! जय जगदीश हरे!॥८॥
“हे जगत् के स्वामी! हे केशिनिसूदन! अपने उज्जवल गौरवर्ण देह पर आप सजल-जलद के समान नीलाम्बर धारण करते हैं। वह नीलाम्बर आपके हल के प्रहार से भयभीत हुई यमुना नदी के सुँदर गहरे रंग जैसा प्रतीत होता है। हे हलधरस्वरूप! आपकी जय हो।”
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं
सदयहृदय! दर्शित-पशुघातम्।
केशव! धृत-बुद्धशरीर! जय जगदीश हरे!॥९॥
“हे जगदीश्वर! हे केशव! आपका हृदय दया से परिपूर्ण है, आप वैदिक यज्ञ-विधि की आड़ में सम्पन्न पशुओं की हिंसा की निंदा करते हैं। हे बुद्ध का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! आपकी जय हो।”
म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालं
धूमकेतुमिव किमपि करालम्।
केशव! धृतकल्किशरीर! जय जगदीश हरे!॥१०॥
“हे जगदीश्वर श्रीहरि! हे केशिनिसूदन! कलियुग के अंत में म्लेच्छों के विनाश हेतु आप जब भयंकर कृपाण धारण करते हैं, तब आप धूमकेतु के समान प्रतीत होते हैं। हे कल्कि रूप धारण करने वाले श्री हरि! आपकी जय हो।”
मंगलाचरण
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले ।
स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।
मैं घोर अज्ञान के अन्धकार में उत्पन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से मेरी आखें खोल दीं। मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ।
श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद कब मुझे अपने चरणकमलों में शरण प्रदान करेंगे जिन्होने इस जगत् में भगवान् चैतन्य की पूर्ति के लिये प्रचार योजना (मिशन) की स्थापना की है?
वन्देऽहं श्रीगुरो: श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरुन् वैष्णवांच्श्र ।
श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथान्वितं तं सजीवम् ।।
साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवं ।
श्रीराधाकृष्णपादान् सहगणललिताश्रीविशाखानन्वितांश्र्च ।।
“मैं अपने गुरु के चरणकमलों तथा समस्त वैष्णवों के चरणों को नमस्कार करता हूँ। मैं श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके अग्रज सनातन गोस्वामी एवं साथ ही रघुनाथदास, रघुनाथभट्ट, गोपालभट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ। मैं भगवान् कृष्णचैतन्य तथा भगवान् नित्यानन्द के साथ-साथ अद्वैत आचार्य, गदाधर, श्रीवास तथा अन्य पार्षदों को सादर प्रणाम करता हूँ। मैं श्रीमती राधारानी तथा श्रीकृष्ण को श्रीललिता तथा श्रीविशाखा सखियों सहित सादर नमस्कार करता हूँ।”
हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते ।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते।।
“हे कृष्ण ! आप दुखियों के सखा तथा सृष्टि के उद्गम हैं। आप गोपियों के स्वामी तथा राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।”
तप्तकाञ्चनगौरांगि राधे वृन्दावनेश्र्वरी।
वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये ।।
“मैं उन राधारानी को प्रणाम करता हूँ जिनकी शारीरिक कान्ति पिघले सोने के सदृश है, जो वृन्दावन की महारानी हैं। आप राजा वृषभानु की पुत्री हैं ओर भगवान् कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं।”
नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते ।
कृष्णाय कृष्णचैतन्यनाम्ने गौरत्विषे नमः ।।
हे परम करुणामय अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौरवर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। मैं आपको सादर नमन करता हूँ|
वाञ्छाकल्पतरुभ्यश्र्च कृपासिन्धुभय एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नाम: ।।
“मैं भगवान् के समस्त वैष्णव भक्तों कोसादर नमस्कार करता हूँ। वे कल्पवृक्ष के समान सबों की इच्छाएँ पूर्ण करने मे समर्थ हैं, तथा पतित जीवात्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु हैं।”
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभुनित्यानंद ।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादिगौरभक्तवृंद ।।
“मैं श्रीकृष्णचैतन्य, नित्यानंद प्रभु, श्रीअद्वैत, गदाधर, श्रीवास एवं महाप्रभु की परंपरा के अन्य सभी भक्तों को अपना सादर प्रणाम अर्पित करता हूँ।”
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
राम! राघव! राम! राघव! राम! राघव! पाहि माम ।
कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! रक्षा माम ।।
[श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 9.13]
“हे रघुवंशी रामचंद्र, कृपया आप मेरी रक्षा करें! हे केशी असुर का वध करने वाले, कृपया आप मेरी रक्षा करें!”
यस्यैवपादाम्बुजभक्तिलाभ्य: प्रेमाभिधान: परम: पुमर्थ: ।
तस्मै जगन-मंगल-मंगलाय चैतन्यचंद्राय नमो नमस्ते ।।
[श्रील प्रभोधानंद सरस्वती कृत, श्री चैतन्य चंद्रामृत श्लोक 9]
“हे श्रीचैतन्य चंद्र! आपके चरणकमलों की भक्तिमय सेवा करने से जीव परम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति विशुद्ध प्रेम विकसित कर सकता है, जोकि सभी प्रयासों का अंतिम फल है। हे श्रीचैतन्य चंद्र, आप इस जगत के मंगलस्वरूप हैं, अत: मैं आपके चरणकमलों में बारंबार अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ।”
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय मेधषे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतयै पतये नम: ।।
[श्री सीता-राम प्रणाम मंत्र]
“मैं उन भगवान रामचंद्र को अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ, जो सर्वमंगलमय हैं, और रघुकुल के नाथ एवं सीतादेवी के स्वामी हैं।”
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का प्रकटोत्सव
कृष्ण कथा मधुरामृत से परिपूर्ण है, किन्तु केवल शुद्ध भक्त ही इसका रसास्वादन कर सकते हैं। जो केवल एक बार भी इसका सुस्वाद चख लेता है, वह इससे किसी भी परिस्थिति में विरत नहीं हो पाता। उसकी लालसा तीव्रता से बढ़ती जाती है - "मैं किस प्रकार इस अमृतमय कथा का अधिकाधिक श्रवण करके आनंदविभोर हो सकता हूँ?" अतः यदि आपको भाषा समझने में कठिनाई हो तो मेरा अनुरोध है कि कृपया निराश न हों। अन्यथा यह अपराध होगा। कृष्ण कथा, भगवान कृष्ण से अभिन्न है। जहाँ कहीं भी श्रीमद् भागवतम पर कथा होती है, अथवा जब भी भगवान के प्रिय भक्त ऐसे पारलौकिक विषयों पर चर्चा करते हैं, तो वहाँ भगवान स्वयं व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हो जाते हैं। इसलिए यदि भाषा से अपरिचय होने के कारण आप हताश होकर चले जाते हैं, तो यह भगवान के प्रति अपराध होगा। अत: कृपया धैर्य रखें और अपराधी न बनें।
कृष्ण ही समस्त अवतारों के मूल स्रोत हैं
आज का दिन अति शुभ है। आज मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का प्रकटोत्सव है। भगवान श्रीराम, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के असंख्य अवतारों में से एक हैं।
अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरे: सत्त्वनिधेर्द्विजा: ।
यथाविदासिन: कुल्या: सरस: स्यु: सहस्रश: ।।
[श्रीमद्-भागवतम 1.3.26]
“हे ब्राह्मणों, भगवान के अवतार उसी तरह असंख्य हैं, जिस प्रकार अक्षय जल के स्रोत से निकलने वाले (असंख्य) झरने।”
श्रीमदभागवतम के प्रथम स्कंध में श्रील शुकदेव गोस्वामी वर्णन करते हैं, "जिस प्रकार एक विशाल झील से अनगिनत धाराओं का उद्गम होता है, उसी प्रकार भगवान हरि के असंख्य अवतार हैं। परन्तु, भगवान हरि या श्रीकृष्ण ही समस्त अवतारों के अक्षय स्रोत हैं।
समस्त अवतारों के स्रोत श्रीकृष्ण हैं
रामादि-मूर्तिषु कला-नियमेन तिष्ठन
नानावतारम अकरोद भुवनेषु किंतु
कृष्ण: स्वयं समभवत परम: पूमान यो
गोविंदम आदि-पुरुषं तम अहम् भजामी:
[ब्रह्म-संहिता 5.39]
“मैं आदि भगवान गोविंद की अराधना करता हूँ, जो स्वयं कृष्ण के रूप में प्रकट हुए और इस संसार में नरसिंह, राम, वामन आदि जैसे अपने अंशकला के रूप में विभिन्न अवतारों के रूप में प्रकट हुए”
ब्रह्म-संहिता के अनुसार राम, नृसिंह और वामन भगवान श्रीकृष्ण के अवतार हैं। भगवान के यह सभी अवतार उनके अंश, पूर्णांश अथवा अंशांश हैं। परमेश्वर के पूर्ण अंश के अंश को 'कला-नियमेन' भी कहते हैं। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है, 'एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयं' (श्रीमद्भागवतम १.३.२८), सभी अवतार 'कला' अर्थात् पूर्ण अंश के अंश होते हैं और श्रीकृष्ण स्वयं भगवान, अर्थात् अवतारी हैं। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी श्रीकृष्ण के असंख्य अवतारों में से एक हैं, वे कला अर्थात् पूर्ण अंश के अंश हैं।
भक्त की इच्छा के अनुसार भगवान रूप धारण करते हैं
ब्रह्म-संहिता अवतार और अवतारी में कोई भेद न होने की व्याख्या करती है। एक मूल मोमबत्ती से ही कई अन्य मोमबत्तियाँ प्रज्ज्वलित की जा सकती हैं और प्रत्येक मोमबत्ती का एक ही धर्म होता है, सर्वतः प्रकाशित करना। इस संदर्भ में, अवतार और अवतारी में कोई अंतर नहीं है। यही तत्व है। यदि इसे तत्व रूप से समझ लिया जाए तो कोई भ्रम नहीं होगा।
अनादिं अच्युतम् अनंत-रूपम् - भगवान के अनंत रूप हैं। किंतु प्रत्येक भक्त भगवान के एक विशिष्ट रूप के प्रति सर्वाधिक आकृष्ट होते हैं। उदाहरणतः भगवान राम के भक्त परमेश्वर को श्रीरामचंद्र के रूप में दर्शन करना चाहते हैं और भगवान श्रीकृष्ण के भक्त, लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के रूप में भगवान के दर्शन व सेवा करने के इच्छुक होते हैं। भक्ते च उत्पथ रूपाय भगवान भक्त-वत्सल, भगवान् अपने भक्तों के प्रति अत्यंत दयालु हैं। अतः वे उसके समक्ष उसी रूप में प्रकट होते हैं, जिस स्वरूप में भक्त उनके दर्शन करना चाहता है। अतएव भगवान सर्वदा भक्त की इच्छा के अनुसार ही अवतरित होते हैं।
हनुमान अभी भी इस भौतिक जगत में हैं
राम-भक्त भगवान को श्रीराम के रूप में देखना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, हनुमानजी एक महान सुप्रसिद्ध राम-भक्त हैं और दास्य-रस के आचार्य हैं, 'दास्ये कपे पति'। हनुमानजी किंपुरुष वर्ष में अभी भी इस भौतिक जगत में निवास कर रहे हैं। वे निरंतर राम-नाम का जप करने में निमग्न रहते हैं। जब भगवान राम त्रेता-युग में अपनी भौम्य लीला का समापन करके आध्यात्मिक जगत में अपने नित्य धाम की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तो वे समस्त अयोध्या-वासियों को अपने साथ ले गए, किंतु हनुमानजी को नहीं। उन्होंने कहा, "तुम यहीं रहो और भक्तों को दास्य-भक्ति प्रशिक्षण प्रदान करो।" इस प्रकार हनुमानजी अभी भी इस धरातल पर उपस्थित हैं।
हनुमान की विशुद्ध एकांतिक भक्ति
श्रील सनातन गोस्वामी ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना श्रीबृहत्-भागवतामृत में एक अद्भुत प्रसंग का चित्रण किया है। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़ से कहा, "तुम हनुमान के पास जाओ और कहो कि मैं उनसे मिलना चाहता हूँ। वे शीघ्र-अतिशीघ्र यहाँ आएँ।"
जब गरुड़ वहाँ गये, तो उन्होंने देखा कि हनुमान जी राम-नाम के जप में पूर्णतया तल्लीन हैं। गरुड़ उनके पास गए और कहा, "मैं द्वारका से आया हूँ। भगवान कृष्ण ने मुझे भेजा है। वे चाहते हैं कि आप आकर उनसे मिलें।"
हनुमान जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। गरुड़ ने पुनः कहा, परन्तु, हनुमान जी ने पुनः कोई उत्तर नहीं दिया। जब गरुड़ जी ने बारंबार आग्रह किया, तब हनुमान जी क्रोधित हो गए। उन्होंने गरुड़ पर अपनी पूंछ से ऐसा प्रहार किया कि वे सीधे द्वारका में कृष्ण के सामने जा गिरे। कृष्ण समझ गए कि क्या हुआ है।
तब कृष्ण ने पूछा, "तुमने हनुमान जी से क्या कहा?" गरुड़ ने उत्तर दिया, "मैंने कहा कि कृष्ण आपसे द्वारका में मिलना चाहते हैं।"
"तुमने कृष्ण क्यों कहा? वापस जाओ और उनसे कहो कि भगवान राम आपसे मिलना चाहते हैं। जब तक तुम राम-नाम का उच्चारण नहीं करोगे, तब तक वे कभी नहीं सुनेंगे, क्योंकि उनमें भगवान राम के प्रति एकांतिक भक्ति है।"
हनुमानजी एक महान साधु हैं, वे तत्व को जानते हैं। उन्होंने कहा-
श्रीनाथे जानकीनाथे चभेदे परमात्मनि ।
तथापि मम सर्वस्वो राम: कमललोचन: ।।
[श्री प्रेम भक्ति-चंद्रिका श्लोक 17]
“मैं भलीभाँति जानता हूँ कि श्रीनाथ, अर्थात् लक्ष्मी जी के पति और जानकीनाथ, सीता-देवी के पति में कोई भेद नहीं है और दोनों ही परमात्मा एवं परंब्रह्म हैं। परंतु मेरी आत्मा एवं प्राण श्रीनाथ कृष्ण नहीं, अपितु कमलनयन श्रीराम हैं।” वे जानते हैं कि श्रीकृष्ण एवं श्रीराम, दोनों अभिन्न हैं, किंतु फिर भी श्रीराम उनके हृदय के प्राणेश्वर हैं।
तब गरुड़ जी फिर गये और कहा, "भगवान राम आप से भेंट करना चाहते हैं।"
हनुमानजी बोले, "आपने पहले ही क्यों नहीं कहा कि भगवान राम मुझे बुला रहे हैं? मेरे स्वामी ने बुलाया है, तो मुझे जाना ही चाहिए।"
गरुड़ ने कहा, "आइए, मेरे कंधे पर बैठ जाइए, मैं आपको वहाँ आकाशमार्ग से ले चलूँगा।"
"नहीं, मुझे आपकी जरूरत नहीं है। आप जाइए, मैं स्वयं चला जाऊँगा।"
जब गरुड़ जी द्वारका पहुँचे, तो हनुमानजी पहले से ही वहाँ उपस्थित थे। गरुड़ ने देखा कि कृष्ण ने राम का, बलराम ने लक्ष्मण का और रुक्मिणी ने सीता का रूप धारण कर लिया और हनुमानजी हाथ जोड़कर उनके चरणों में आसीन थे। अत: भगवान उसी रूप में प्रकट होते हैं, जिस रूप में भक्त उनके दर्शन करना चाहता है।
षड्भुज रूप
श्री चैतन्य महाप्रभु ने सर्वभौम भट्टाचार्य को षड्भुज रूप के दर्शन दिए थे। उन्होंने भगवान राम के स्वरूप में, अपने दो हाथों में धनुष और बाण धारण किया हुआ था, लीला पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के रूप में वे दो हाथों से वेणुवादन कर रहे थे, और अन्य दो हाथों में उन्होंने कमंडलु एवं संन्यास दंड धारण किया था, जोकि भक्तावतार श्रीचैतन्य महाप्रभु का रूप है। अतः भगवान का षड्भुज स्वरूप राम, कृष्ण और महाप्रभु का संयुक्त रूप है।
गौर लीला में मुरारी गुप्त हनुमान जी के अवतार हैं
गौरांग महाप्रभु की लीलाओं में भगवान राम के भक्त भी उपस्थित हैं। गौरांग महाप्रभु कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं, और जब तक कोई गौर की शरण ग्रहण नहीं करता, उसे भगवत्प्रेम प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए, गौर-लीला में भगवान राम के कई भक्त प्रकट हुए, और उनमें सबसे प्रमुख तथा प्रिय सेवक हनुमान जी, मुरारी गुप्त के रूप में प्रकट हुए।
महाप्रभु ने अनेक राम भक्तों को परिवर्तित किया
संन्यास ग्रहण करने के उपरांत, श्रीचैतन्य महाप्रभु ने प्रचार के उद्देश्य से छः वर्षों तक दक्षिण और उत्तर भारत की यात्रा की। श्रीचैतन्य चरितामृत के अनुसार, दक्षिण भारत की यात्रा के समय महाप्रभु अनेक राम-भक्तों से मिले और उन्हें कृष्ण-भक्त में परिवर्तित कर दिया। फलत: वे सभी कृष्ण-नाम का जप करने लगे।
सेइ सब वैष्णव महाप्रभु दर्शने ।
कृष्ण-उपासक हइल, लय कृष्णनामे ।।
(चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला ९.१२)
सभी वैष्णव महाप्रभु का दर्शन एवं उनकी कृपा प्राप्त करने के उपरांत कृष्ण के उपासक बन गए और कृष्ण नाम का कीर्तन करने लगे।
पथ पर चलते समय, महाप्रभु इस मंत्र का उच्चारण कर रहे थे -
राम! राघव! राम! राघव! राम! राघव! पाहि माम ।
कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! रक्षा माम ।।
[श्री चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 9.13]
“हे रघुवंशी रामचंद्र, कृपया आप मेरी रक्षा करें! हे केशी असुर का वध करने वाले, कृपया आप मेरी रक्षा करें!”
महाप्रभु ने सर्वप्रथम अहोवल-नृसिंह मंदिर में नृसिंह भगवान का दर्शन किया। इसके पश्चात सिद्धावट में महाप्रभु ने सीता-राम के विग्रहों का दर्शन किया। वहाँ उनकी भेंट एक राम-भक्त से हुई, जिसने उन्हें अपने घर पर प्रसाद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया। महाप्रभु ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया और ब्राह्मण के घर निवास करने लगे। वह विप्र सदा राम-नाम का जप करता रहता था, "राम, राम, राम, राम"। महाप्रभु ने ब्राह्मण से भिक्षा स्वीकार कर उस पर कृपा वृष्टि की। फिर महाप्रभु अपनी यात्रा पर आगे बढ़े।
राम नाम और कृष्ण नाम, दोनों ही परम ब्रह्म के सूचक हैं
तदोपरांत, महाप्रभु स्कंद-क्षेत्र पहुँचे जहाँ उन्होंने कार्तिकेय के दर्शन किए। तत्पश्चात, महाप्रभु त्रिमठ गए, जहाँ उन्होंने वामन भगवन के दर्शन किए। फिर वे पुनः सिद्धावट लौट आए। जब वे उस ब्राह्मण के घर पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि वह विप्र राम-नाम के बजाय कृष्ण-नाम का जप कर रहा है। महाप्रभु ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-
पूर्वे तुमि निरंतर लइते रामनाम ।
एबे केने निरंतर लओ कृष्णनाम ।।
(चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला ९.२४)
“पहले तो तुम भगवान राम के पवित्र नाम का निरंतर जप करते थे। अब तुम कृष्ण-नाम का निरंतर जप क्यों करते हो?”
विप्र बले – एइ तोमार दर्शन-प्रभावे ।
तोमा देखि’ गेल मोर आजन्म स्वभावे ।।
बाल्यावधि राम-नाम ग्रहण आमार ।
तोमा देखि’ कृष्ण-नाम आइल एक-बार ।।
सेइ हैते कृष्ण-नाम जिह्वाते वसिला ।
कृष्ण-नाम स्फुरे, राम-नाम दूरे गेला ।।
[चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 9.25-27]
विप्र ने उत्तर दिया, "हे महाशय, यह आपके प्रभाव से है। आपका दिव्य दर्शन प्राप्त करके मेरे भीतर यह परिवर्तन आया है, मेरी जिह्वा उसी दिन से प्रतिक्षण कृष्ण-नाम का जप रही है। बाल्यकाल से मेरा स्वभाव राम-नाम जपने का था, परंतु अब मैंने अपने जीवन-भर का अभ्यास छोड़ दिया है।"
विप्र ने राम एवं कृष्ण शब्दों के वाच्यमूल अथवा धातु-शब्द का व्याख्यान विविध शास्त्रों से विस्तारपूर्वक विश्लेषित किया। उन्होंने पद्म पुराण से भी उद्धरण प्रस्तुत किया, जहाँ श्रीराम के शत नामों का वर्णन प्राप्त होता है, जिसे राम-शतनाम-स्तोत्र भी कहते हैं।
रमंते योगिनो ‘नंते सत्यानंदे चिदात्मनि ।
इति राम-पदेनासौ परं ब्रह्माचिधीयते ।।
[शत-नाम-स्तोत्र 8]
“परम सत्य राम कहलाता है, क्योंकि अध्यात्मवादी आध्यात्मिक अस्तित्व के असीम यथार्थ सुख में आनंद लेते हैं।”
भगवान श्रीराम का एक नाम, "सत्यानंद" भी है अर्थात् जिनका स्वरूप सच्चिदानंदमय है। वास्तविक योगी परम सच्चिदानंद विग्रह श्रीराम के अनंत अमृतमय नामों का ध्यान कर आनंदविभोर हो उठते हैं। "इति राम-पदेनासौ परं ब्रह्माचिधीयते" – राम परब्रह्म के द्योतक हैं और श्रीराम का एक दूसरा अर्थ "रमण" भी होता है। रमण अर्थात "जो अनवरत रूप से आनंद अनुभव करते हों। भगवन्नाम स्वयं भगवान से अभिन्न है, अतएव राम-नाम भी परब्रह्म को ही इंगित करता है।
इसके पश्चात उस ब्राह्मण ने महाभारत (उद्योग-पर्व 71.4) से भी शास्त्र-प्रमाण का उद्धरण दिया,
कृषिर्भू-वाचक: शब्दो णच्श्र निर्वृति-वाचक: ।
तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।।
इस प्रकार, उन्होंने कृष्ण-नाम के अर्थ की अद्भुत व्याख्या की। "कृष" धातु और "ण" प्रत्यय से मिलकर "कृष्ण" बनता है। "कृष" का अर्थ है "आकर्षण" और "ण" अर्थात् "परमानंद"। इस प्रकार, "कृष्ण" का अर्थ है समस्त आकर्षण और परमानंद का संयुक्त रूप, और “परब्रह्म” भी केवल सर्वाकर्षक पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को व उनके सच्चिदानंद स्वरूपों को ही सम्बोधित करता है।
इस प्रकार, राम-नाम और कृष्ण-नाम, दोनों ही परब्रह्म के द्योतक हैं। अतः राम-नाम और कृष्ण-नाम में कोई भेद नहीं है।
कृष्ण नाम की महिमा
परं ब्रह्म दुइ-नाम समान हइल ।
पुन: आर शास्त्रे किछु विशेष पाइल ।।
[चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 9.31]
“जहाँ तक राम तथा कृष्ण के पवित्र नामों का सम्बंध है, वे एक समान हैं। किंतु अधिक उन्नति के लिए हमें प्रमाणिक शास्त्रों से कुछ विशेष जानकारी प्राप्त होती है।”
इसके उपरांत उस ब्राह्मण ने बृहद्विष्णु-सहस्त्रनाम स्तोत्र के उत्तर खण्ड (72.335) से श्लोक उद्धरित किया:
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्र-नामभिस तुल्यं राम-नाम वरानने ।।
“शिवजी ने पार्वतीजी से कहा, ‘हे वरानने, हे पार्वतीजी। मैं भगवान श्रीराम के पवित्र नाम का निरंतर कीर्तन करता हूँ, और इस दिव्य अद्वितीय ध्वनि से आनन्दविभोर हो उठता हूँ। रामचंद्र का यह पवित्र नाम भगवान विष्णु के एक सहस्त्र नामों के बराबर है।’’
फिर उसने श्रील रूप गोस्वामी कृत लघु-भागवतामृत [1.5.354] से एक श्लोक उद्धरित किया जो ब्रह्माण्ड पुराण में भी प्राप्त होता है:
सहस्त्र-नाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्त्या तु यत फलम ।
एकावृत्त्या तु कृष्णस्य नामैकं तत प्रयच्छति ।।
“विष्णु-सहस्त्र-नाम का तीन बार उच्चारण करने से जो प्रतिफल प्राप्त होता है, वह कृष्ण-नाम के मात्र एक बार उच्चारण करने से ही प्राप्त हो जाता है।”
दूसरे शब्दों में, राम-नाम का तीन बार जप करने से जो प्रतिफल प्राप्त होगा, वह कृष्ण-नाम का एक बार जप करने से प्राप्त हो जाता है।
एइ वाक्ये कृष्ण-नामेर महिमा अपार ।
तथापि लइते नारि, शुन हेतु तार ।।
[चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 9.34]
“शास्त्रों के कथनानुसार कृष्ण के पवित्र नाम की महिमा अपार है। फिर भी मैं उनका नाम नहीं ले पाया। कृपया आप इसका कारण सुनें।”
फिर विप्र ने कृष्ण-नाम जप करने का वास्तविक कारण बतलाया-
इष्ट-देव राम, ताँर नामे सुख पाइ ।
सुख पाया राम-नाम रात्रि-दिन गाइ ।।
तोमार दर्शने यबे कृष्ण-नाम आइल ।
ताहार महिमा तबे हृदये लागिल ।।
सेइ कृष्ण तुमि साक्षात-इहा निर्धारिल ।
एत कहि’ विप्र प्रभुर चरणे पड़िल ।।
[चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 9.35-37]
“बाल्यावस्था से ही मेरे आराध्यदेव श्रीरामचंद्र रहे हैं, और मैं आनंदपूर्वक उनके पवित्र नाम का कीर्तन करता रहा हूँ। परन्तु, हे महाशय! जबसे आपके दिव्य दर्शन प्राप्त हुए हैं, मेरे मुख से कृष्ण-नाम-जप ध्वनि अविचलतया स्फुरित होने लगी है। और मेरे हृदय में कृष्ण-नाम की अपार महिमा का उदय हुआ। हे महाप्रभु, आप वही कृष्ण हैं! यह मेरा दृढ़ मत है” यह कहते हुए वह ब्राह्मण श्रीगौरांग महाप्रभु के चरणकमलों में गिर पड़ा। महाप्रभु ने पुनः विप्र पर अपनी कृपा वर्षित की।
भावुक विप्र
सिद्धावट से श्रीचैतन्य महाप्रभु ने दक्षिण मदुरा (मदुरई) की ओर प्रस्थान किया। वहाँ उनकी भेंट एक अन्य राम-भक्त से हुई। उसने भी महाप्रभु को भिक्षा (प्रसाद) ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया। महाप्रभु ने मध्याह्न स्नान किया और उस विप्र के घर भोजन करने गए। किन्तु, उन्होंने देखा कि भोजन तैयार नहीं था। अतः महाप्रभु ने पूछा, "हे मान्यवर, कृपया मुझे बताएँ कि आपने भोजन क्यों नहीं पकाया है, अब तो अपराह्न का समय भी हो गया है?" विप्र ने उत्तर दिया,
प्रभु, मोर अरण्ये वसति ।
पाकेर सामग्रि वने ना मिले सम्प्रति ।।
वन्य शाक-फल-मूल आनिबे लक्ष्मण ।
तबे सीता करीबेन पाक-प्रयोजन ।।
[चैतन्य चरितामृत मध्य-लीला 9.182-183]
"मेरे राम वन में रहते हैं। इस समय हमें भोजन की सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती; न चावल, न दाल, न सब्जी, कुछ नहीं। जब लक्ष्मण वन से शाक-सब्ज़ी, कंदमूल, पुष्प तथा पत्तियाँ लाएँगे, तब सीता देवी भोजन का प्रबंध करेंगी। परन्तु, अभी तक लक्ष्मण वापस नहीं आए हैं"।
विप्र अत्यंत भावुक था। उनकी उपासना पद्धति सुनकर महाप्रभु अतिशय प्रसन्न हुए। विप्र ने त्वरित भोजन बनाने की व्यवस्था की। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने सहर्ष प्रसाद ग्रहण किया, परंतु दुखी होने के कारण विप्र उपवास कर रहे थे। यह देख श्रीचैतन्य महाप्रभु ने उनसे पूछा, "महाशय, आप उपवास क्यों कर रहे हैं? आप प्रसाद ग्रहण क्यों ग्रहण नहीं कर रहे? आपकी चिंता व विलाप का क्या कारण है? विप्र ने उत्तर दिया, "हे प्रभु, सीता ठाकुरानी जगज्जननि और महालक्ष्मी हैं। एक राक्षस ने उनका स्पर्श किया है, मैं यह समाचार सुनकर अत्यंत क्षुब्ध हूँ। इसलिए मैं जीवित नहीं रहना चाहता। यद्यपि मेरा पूरा शरीर जल रहा है, किंतु प्राण नहीं निकल रहे हैं।" विप्र की बात सुनकर श्रीचैतन्य महाप्रभु ने उन्हें सांत्वना दी, फिर उनके समक्ष तत्व-सिद्धांत प्रकट किया।
आध्यात्मिक स्वरुप भौतिक नेत्रों से नहीं देखा जा सकता है
ईश्वर-प्रेयसी सीता-चिदानंदमूर्ती ।
प्राकृत-इंद्रियेर ताँरे देखिते नाहि शक्ति ।।
स्पर्शिबार कार्य आछुक, ना पाय दर्शन ।
सीतार आकृति-माया हरिला रावण ।।
रावण आसितेइ सीता अंतर्धान कइल ।
रावणेर आगे माया-सीता पाठाइल ।।
अप्राकृत वस्तु नहे प्राकृत गोचर ।
वेद-पुराणेते एइ कहे निरंतर ।।
[चैतन्य चरितामृत 9.191-194]
श्रीचैतन्य महाप्रभु ने स्पष्ट किया, “भगवान रामचंद्र की प्रियतमा सीता देवी का स्वरूप निश्चित ही आध्यात्मिक है, वे कोई साधारण स्त्री नहीं हैं। वे परमेश्वर की अंतरंगा शक्ति हैं। व्यक्ति अपने भौतिक नेत्रों से उनके दर्शन नहीं कर सकता। फिर यह कैसे संभव है कि राक्षस रावण उन्हें देख सके? माता सीता को स्पर्श करने की तो बात ही दूर रही। वास्तव में, वह राक्षस उन्हें देख तक नहीं सका क्योंकि भौतिक इंद्रिय वाला व्यक्ति चिदानंदमूर्ति माता सीता को अपने भौतिक नेत्रों से नहीं देख सकता।
तो फिर रावण ने किसका हरण किया था? रावण ने माता सीता का नहीं, बल्कि उनके भौतिक मायारूप का हरण किया था। क्योंकि सीता-देवी साक्षात् सच्चिदानंद-मूर्ति हैं, अतएव ज्योंही रावण उनके सम्मुख आया, वे अप्रकट हो गयीं। इस प्रकार माया देवी ने रावण के पास माता सीता का मायारूप भेजा था।
सभी वेद और पुराण का मत है कि, अप्राकृत वस्तु कभी भी भौतिक अनुभूति के सीमा-क्षेत्र में नहीं रहती क्योंकि आध्यात्मिक वस्तुऐं भौतिक जगत में प्रकाशित नहीं होती हैं।
महाप्रभु ने आश्वासन दिया, "मेरे वचनों में श्रद्धा रखें, और अपने मन को आत्महत्या की निम्नतम कुभावना से बोझिल न करें।" तत्पश्चात विप्र आश्वस्त हो गए, उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया, और आत्महत्या करने की इच्छा को त्याग दिया।
सीता देवी अग्नि में प्रविष्ट हो गई
तत्पश्चात्, महाप्रभु महेन्द्र-शैल नामक पर्वत गए और उन्होंने भृगु राम विग्रह के दर्शन किए। फिर उन्होंने धनुस्तीर्थ नामक स्थान पर स्नान किया। वहाँ से वे रामेश्वर मंदिर के दर्शन करने गए। सयोंगवश रामेश्वर में, ब्राह्मणों की एक सभा थी, जहाँ कूर्म पुराण का पाठ किया जा रहा था। महाप्रभु ने ब्राह्मणों के संग में वह श्रवण किया। उसी समय रावण द्वारा माया सीता के हरण का प्रसंग आया।
पतिव्रता-शिरोमणि जनक-नंदिनी ।
जगतेर माता सीता – रामेर गृहिणी ।।
रावण देखिया सीता लैल अग्निर शरण ।
रावण हैते अग्नि कैले सीताके आवरण ।।
‘माया-सीता’ रावण निल, शुनिला आख्याने ।
शुनि’ महाप्रभु हैल आनंदित मने ।।
सीता लय राखिलेन पर्वतीर स्थाने ।
‘माया-सीता’ दिया अग्नि वंचिला रावणे ।।
रघुनाथ आसि’ यबे रावणे मारिल ।
अग्नि परिक्षा दिते यबे सीतारे आनिल ।।
[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 9.201-205]
जनक नंदिनी सीता देवी, पतिव्रता शिरोमणि, और पति परायण हैं। वह जगत की माता तथा भगवान राम की पत्नी हैं।
जब रावण माता सीता का हरण करने आया, तो सीता-देवी ने तत्क्षण ही अग्निदेव की शरण ग्रहण कर ली। अग्निदेव ने सीता-देवी के आध्यात्मिक देह को अग्नि से ढक लिया और पार्वती देवी के संसर्ग में रख दिया। फलस्वरूप रावण के समक्ष देवी सीता का मायारूप ही उपस्थित था, अतः रावण ने छाया सीता का हरण किया।
जब श्रीरामचंद्र लंका गए, रावण का वध किया और सीता देवी को अशोक वाटिका से उद्धार किया, तब उन्होंने देवी सीता को अग्निपरीक्षा देने के लिए कहा। तदोपरांत, जब श्रीरामचंद्र द्वारा अग्नि के समक्ष माया सीता लायी गयीं तो अग्नि ने इस माया रूप को अप्रकट कर दिया और भगवान रामचंद्र को वास्तविक सीता सौंप दीं। यह गुह्य रहस्य है।
यह सुनकर महाप्रभु अत्यंत प्रसन्न हुए। उस समय उन्हें रामदास विप्र की याद आई, जिन्होंने सीता अपहरण का प्रसंग सुनकर आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया था। महाप्रभु ने कूर्म पुराण से कुछ श्लोक लिख लिए और जब वे वापस रामदास विप्र से मिलने गए, तो उन्होंने ये श्लोक रामदास विप्र को दिखाए।
सीतयाराधितो वह्निश्छाया-सीतामजीजनत ।
तां जहार दश-ग्रीव: सीता वह्नि-पुरं गता ।।
परीक्षा-समये वह्निं छाया-सीता विवेश सा ।
वह्नि: सीतां समानीय ततपुरस्तादनीनयत ।।
[चतैन्य चरितामृत, मध्य-लीला 9.211-212]
रावण के आगमन पर सीता जी ने अग्निदेव की शरण ली। तब अग्निदेव ने माया सीता, जो वास्तविक सीता की प्रतिबिम्ब थी, को ले आए। अग्निदेव ने वास्तविक सीता को अपने पास छिपाकर, दशानन को माया सीता सौंप दीं। अतः रावण ने वास्तव में माया सीता का अपहरण किया। फिर जब भगवान् रामचंद्र ने रावण का वध करके माता सीता जी को रावण के उद्यान से मुक्त किया, तो उन्होंने उस माया सीता को अग्नि में प्रवेश करने को कहा। माया सीता अग्नि में प्रवेश कर गई और अग्निदेव ने वास्तविक सीता रामचंद्र जी को सौंप दिया। इस प्रकार महाप्रभु ने ब्राह्मण को समझाया, "यही शास्त्र सिद्धांत है।"
विप्र कहे, - तुमि साक्षात श्रीरघुनंदन ।
सन्न्यासीर वेषे मोरे दिला दरशन ।।
[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 9.214]
कूर्म पुराण का यह प्रसंग सुन विप्र अत्यंत प्रसन्नचित्त हुए। वह महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर क्रंदन करने लगे, "आप साक्षात रघुनाथ, रामचंद्र हैं, जो मुझे संन्यासी वेश में दर्शन देने आए हैं।" महाप्रभु की अपार विनम्रता से मुग्ध होकर विप्र ने उन्हें पुनः अपने घर आमंत्रित किया, परंतु इस बार उन्होंने श्रीचैतन्य महाप्रभु के लिए उत्तम कोटि के व्यंजन तैयार किये। महाप्रभु अति प्रसन्न हुए, उन्होंने ब्राह्मण पर अपनी कृपा वृष्टि की और तत्पश्चात् ताम्रपर्णी नदी की ओर यात्रा प्रारम्भ की।
भगवान् की लीलाओं को सिद्धांत में समझें
श्रीचैतन्य चरितामृत में विस्तारपूर्वक वर्णित है कि महाप्रभु अनेक राम-भक्तों से मिले, और उनमें से कुछ कृष्ण-भक्त बन गए। वे राम-नाम का जप किया करते थे, परंतु श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रभाव से, वे कृष्ण-नाम जपने लगे। महाप्रभु ने उनके सिद्धांत भ्रम को दूर किया। यही महाप्रभु की कृपा है। सिद्धांत संबंधी उनके समस्त भ्रम दूर हुए और उन्होंने वास्तविक सिद्धांत को आत्मसात किया।
जब तक आपके भ्रम दूर नहीं होते, आप वास्तविक सिद्धांत को नहीं समझ पाएँगे, और इसलिए तब तक आप भगवद्धाम पुनर्गमन भी नहीं कर पाएँगे। श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं,
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
[भगवद्-गीता 4.9]
"मेरा जन्म, कर्म भौतिक नहीं हैं अपितु दिव्य, एवं पारलौकिक है। जो इसे तत्व से जानता है, इस शरीर को छोड़ने के बाद, वह निश्चित रूप से मेरे पास आएगा; उसे पुनः इस भौतिक संसार में जन्म नहीं लेना पड़ेगा।" इसका अर्थ है कि उसका दूसरा जन्म नहीं होगा। वह अपने सनातन घर, भगवान के धाम में चला जायेगा।
भगवान की लीलाओं को तत्त्व से समझना ही मानव जीवन का लक्ष्य है। साधक के हृदय में सिद्धांत को लेकर कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए। चार प्रकार के अनर्थों में एक अनर्थ है तत्व-भ्रम अर्थात तत्व को विपरीत अर्थ से समझना। तत्त्व भ्रम की उपस्थिति में आप अनर्थों से मुक्त नहीं हो पाएँगे। महाप्रभु, सद्गुरु और कृष्ण की कृपा से ही अनर्थ विदूरित होते हैं। महाप्रभु ने अनेक जीवात्माओं पर कृपा वृष्टि की और उनके मानसिक भ्रमों को दूर किया। इसलिए जो व्यक्ति तत्व-सिद्धांत को समझते हैं, उन्हें भली-भाँति ज्ञात है कि राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं है।
गौरांग की शरण में आइए
अद्वैतम अच्युतम अनादिम अनंत-रूपम ।
आद्यम पुराणपुरुषं नव यौवनं च ।।
[ब्रह्म-संहिता 5.33]
ब्रह्म-संहिता में वर्णन है कि भगवान गोविंद अच्युत हैं; वे अपने पद से कभी च्युत नहीं होते। वे आदि हैं; श्रीगोविंद सर्वाधिक पुराणपुरुष हैं अर्थात् वे अनंत काल से अपने परिपूर्णतम स्वरूप में उपस्थित हैं और अनंत काल तक रहेंगे। वे अनंत रूप वाले हैं; उनके असंख्य रूप हैं और वे नित्य नव यौवन से युक्त रहते हैं। यही परमेश्वर का स्वरूप है। यदि कोई भक्त भगवान के किसी विशिष्ट रूप के दर्शन की इच्छा रखता है, तो भगवान उसके समक्ष उसी रूप में प्रकट होते हैं।
गौर-लीला में भी कई राम-भक्त हैं। भगवान राम के परम प्रिय भक्त हनुमान जी मुरारी गुप्त के रूप में प्रकट हुए। अतः राम-भक्तों को गौरांग की शरण में आने में कोई समस्या नहीं है। गौरांग महाप्रभु कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं। उनसे पूर्व भगवत्प्रेम अन्य किसी अवतार द्वारा प्रदान नहीं किया गया था। अतः जब तक कोई गौरांग की शरण में नहीं आता, तब तक वह जीवन की परम सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। अतः प्रत्येक जीव को श्रीगौरांग महाप्रभु की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
नित्य रूप से तत्व-आचार्यों का संग करें
अचैतन्यम-इदं विश्वं यदि चैतन्यम-ईश्वरम ।
न विदु: सर्व-शास्त्रज्ञ ह्यँ-अपि भ्राम्यंति ते जना: ।।
[चैतन्य चंद्रामृत श्लोक 37]
जब तक कोई यह नहीं समझता कि चैतन्य महाप्रभु ही परम भगवान हैं, भले ही वह प्रकाण्ड विद्वान या पंडित क्यों न हो, फिर भी वह जन्म-मृत्यु के विषाक्त चक्र से मुक्त नहीं हो पाएगा।
चैतन्येर भक्त-गणेर नित्य कर ‘संग’ ।
तबेत जानिबा सिद्धांत-समुद्र-तरंग ।।
[चैतन्य चरितामृत, अंत्य-लीला 5.132]
इसलिए 'नित्य' शब्द का प्रयोग किया गया है। तत्व-दर्शी आचार्यों का नियमित रूप से संग करना चाहिए, तभी आपकी तत्व भ्रांतियाँ दूर होंगी और आप भक्ति के समुद्र की तरंगों को समझ सकेंगे। अन्यथा तत्त्व सिद्धांत समझना संभव नहीं है।
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र की जय!
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र आविर्भाव तिथि की जय!
समेवत भक्त वृंद की जय!
गौर प्रेमानंदी! हरीबोल!
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