दंभ
प्रिय पाठकों,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा से हम निजी शुद्धिकरण व आध्यात्मिक उन्नति हेतु विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। आज हम एक ऐसे विषय पर चर्चा करेंगे जो कि आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर सदैव अवरोध उत्पन्न करता है, और वह विषय है ‘दंभ’ अथवा ‘मिथ्या अभिमान’। यदि हम इसे महत्व नहीं देते अथवा इसे पहचानने में असमर्थ रहते हैं, तो आध्यात्मिक क्षेत्र में हमारी स्थिति अस्थिर रहती है। शास्त्रों के अनुसार, जिस प्रकार कृष्ण और उनके भक्तों के प्रति अटूट विश्वास ही हमारी भक्ति का मूलभूत कारण है, उसी प्रकार 'दंभ' हमारी आध्यात्मिक प्रगति में एक मूलभूत बाधा या रुकावट है। जिस प्रकार अनेक छिद्रों से युक्त घड़े में पानी रखना असंभव है, ठीक उसी प्रकार यदि हमारा हृदय में दंभ का वास होता है तो हमारे सारे प्रयास, सभी प्रकार की सावधानियाँ एवं कुशल उद्यम व्यर्थ चले जाते हैं। आध्यात्मिक पथ पर प्रगति करने के लिए प्रथम तथा सबसे महत्वपूर्ण पहलू यही है कि सभी परिस्थितियों में हम अपना सिर झुकाए रखें। यह हमारी आध्यात्मिक प्रगति और समर्पण के लिए सदैव सहायक व उपयोगी रहेगा। दंभ किस प्रकार हमारे आध्यात्मिक जीवन का सर्वनाश कर देता है और इसके क्या-क्या लक्षण हैं, इस पर हम इस लेख में चर्चा करेंगे।
जो नए भक्त हैं (नवांगतुक), जिनकी लौकिक अथवा कोमल श्रद्धा है, उन्हें श्रीगुरु-पाद-पद्म की शरण लेनी चाहिए। यदि हम निष्कपट भाव से साधु-गुरु की कृपा प्राप्त करने हेतु उत्सुक हैं, तो हम उनके संग से और उनकी कृपा से अटूट श्रद्धा विकसित कर सकते हैं। दृढ़ विश्वास के बिना साधु संग कर पाना संभव नहीं है। यदि हमें साधु-गुरु के व्यक्तित्व एवं उनके शब्दों पर पूर्ण श्रद्धा और आसक्ति नहीं है, तो उनके संग का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। हम अपने आध्यात्मिक जीवन में देख सकते हैं कि कभी-कभी हमारे हृदय में गुरु एवं वैष्णवों की कृपा प्राप्त करने की एवं उनके निर्देशों को पालन करने की प्रबल इच्छा जाग्रत होती है, फिर भी हम यह जानने में असमर्थ रहते हैं कि हमारे हृदय में उस उदात्त इच्छा से भिन्न अभिलाषा, अशुभ वासना क्यों प्रवेश कर जाती है, जिसके फलस्वरुप अन्य कई प्रकार की इच्छाऍं, आलस्य, संदेह, दोष दर्शन, और अंततः ईर्ष्या की भावना हमारे हृदय में प्रवेश कर जाती है।
यह हमारे अंदर के दंभ को दर्शाता है। साथ ही वह ये भी दर्शाता है कि यद्यपि हमारी निश्चित ही भजन करने की कुछ इच्छा होती है और हम उसके लिए थोड़ा प्रयास भी करते हैं, किंतु इसके उपरांत भी हम आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पा रहे हैं। दंभ का लक्षण है कि वह हमें अंधा बना देता है, हमारी विभेदन तथा विवेक शक्ति को अवरुद्ध कर देता है और हमें यह समझने भी नहीं देता कि ‘मैं दाम्भिक हूँ’। जब भी गुरु एवं शास्त्र हमें दंभ त्यागने से संबंधित निर्देश देते हैं तो हम यह मानते हैं कि “यह मेरे लिए नहीं अपितु अन्य भक्तों के लिए है। मैं तो दोषहीन हूँ।” और यदि साधु-गुरु हमें सीधे तौर पर हमारे अभिमान एवं घमंडी स्वभाव के विषय में सावधान करते हैं, तो हम तुरंत क्रोधित हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि “मुझमें घमंड नहीं है, यह लोग अपने घमंडी स्वभाव के कारण मुझे ऐसा बता रहे हैं”। कभी-कभी हमारे मन में विचार आता है, "मैं अपने दोषों एवं दंभ से भलीभाँति परिचित हूँ, और अपने दांभिक स्वभाव के कारण ही दूसरे लोग मुझे मेरे दोष बता रहे हैं। यदि गुरुदेव मुझे मेरे दोषों के विषय में बताते हैं अथवा उन्हें सुधारते हैं, केवल तभी मैं अपना दोष स्वीकार करूँगा।" किंतु जब गुरुदेव हमें हमारे दोषों से अवगत कराते हैं, तो उस स्थिति में हमारे अंदर एक विद्रोही मानसिकता प्रकट हो जाती है और यदि सामान्य जन अथवा अन्य वैष्णव हमारे दोषों के विषय में हमसे कुछ कहते हैं, तो हम ऐसा सोचते हैं कि ये लोग स्वाभाविक रूप से वैष्णव-द्वेषी हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी हम श्री गुरु के द्वारा बोले गए कड़वे सत्य को सुनकर भी क्रोधित हो जाते हैं।
सामान्यतः दंभ को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। दंभ का पहला वर्ग बाहरी अथवा बाह्य होता है, जबकि दूसरा आंतरिक। बाह्य दंभ ऐश्वर्य तथा ज्ञान से उत्पन्न होता है, जिसके जरिए हम सब कुछ नियंत्रित करना चाहते हैं, और हम किसी भी परिस्थिति में गुरु के निर्देशों को एवं दंड को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। बाह्य दंभ प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट दिखाई देता है।
आंतरिक दंभ मिथ्या अभिमान से उपजता है। जब हम आंतरिक दंभ से ग्रस्त हो जाते हैं तो हम यह सोचने लगते हैं कि, "मैं एक वैष्णव हूँ", जिसके परिणाम स्वरूप हम मन, वाणी और शरीर से श्री गुरु के आदेश और दण्ड को स्वीकार करने में असमर्थ हो जाते हैं। यह बाह्य रूप से दिखाई नहीं देता लेकिन हमारे आध्यात्मिक जीवन के लिए अत्यंत घातक होता है। आंतरिक दंभ हमारे मन को सदैव इस भ्रम में रखता है कि मैं गुरुदेव के मनोभाव को एवं अपने दोषों को समझने में सक्षम हूँ। इसलिए ऐसा व्यक्ति कभी भी दूसरों की सलाह एवं विचारों को स्वीकार नहीं करता। "मैं गुरुदेव को अत्यंत प्रिय हूँ और मैं कई वर्षों से उनकी सेवा कर रहा हूँ, अत: मुझे ज्ञात है कि उन्हें क्या पसंद है, मैं उनकी आध्यात्मिक स्थिति से भी परिचित हूँ।" परन्तु यदि हमारे पास गुरु को समझने या पहचानने की शक्ति है तो यह कैसे संभव है कि हम एक शिष्य की स्थिति में हैं? हम केवल नाम के शिष्य हैं, लेकिन हमारी मानसिकता एक गुरु के समान है। उड़ीसा में इसे ‘गुरु-गिरी’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है बाहर से हम गुरु का सम्मान करते हैं ताकि हम दूसरों से स्वयं के लिए सम्मान अर्जित कर सकें। किंतु आंतरिक रुप से हममें ‘गुरु-भाव’ होता है। जैसा कि गुरुदेव कहा करते थे, "शिष्य बनना आंतरिक विषय है और यह कोई निश्चित अवधि या समय के लिए नहीं होता।" किंतु आंतरिक दंभ के कारण हम इस बात को भूल जाते हैं। ये आंतरिक दंभ के लक्षण हैं। आंतरिक दंभ, बाह्य दंभ से अधिक घातक होता है।
गुरुदेव हमें प्रतिदिन २४ घंटे भजन करने का निर्देश देते हैं। किंतु हम एक क्षण के लिए भी वास्तविक भजन नहीं कर पाते। अपने आंतरिक दंभ के कारण हम उनके इस निर्देश को समझ नहीं पाते हैं। वस्तुत: इस बात को समझना ही विनम्रता है। “मैं निपुणता से भजन कर रहा हूँ, और अपनी त्रुटियों को अच्छे से जानता हूँ”, ऐसी मानसिकता दंभ का प्रतीक है। ऐसे घातक दंभ को त्यागने का एकमात्र उपाय है साधु एवं गुरु के प्रति रति उत्पन्न करना। उनके प्रति रति उत्पन्न करना अर्थात् उन्हें अपने सबसे प्रिय शुभचिंतक के रूप में स्वीकार करना। जब हम इस मनोभाव को विकसित कर लेते हैं तब हमारे हृदय में यह लालसा उत्पन्न होती है कि आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति कैसे किया जाए? तभी हमारा मन दूसरों के बजाय स्वयं के दोषों को खोजेगा, जिसके द्वारा हम विनम्र बन सकेंगे। उस स्तर पर हम स्वयं को सुधारने की मनोवृत्ति विकसित कर सकते हैं। इस स्थिति में हम किसी की कड़वी टिप्पणी को भी स्वीकार कर लेते हैं और स्वयं को सुधारना चाहते हैं।
जहाँ दंभ है वहाँ महामाया कार्य करती है, तथा जहाँ कृपा है वहाँ योग-माया कार्य करती है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, "कलियुग में दंभ ही मापदंड है"। यदि सामान्य जन हमारी प्रशंसा करते हैं तो हमारे अंदर यह भाव नहीं आना चाहिए कि "अब मैं महान बन गया हूँ"। अपितु हमें अपनी स्थिति पर विचार करना चाहिए। यदि वास्तव में हम सतर्क हैं और हम पर साधु-गुरु की कृपा है, तब यदि कोई हमारी प्रशंसा अथवा निंदा करता है, तो हमें तुरंत समझ लेंगे कि यह गुरुदेव की व्यवस्था है। बिना विलंब किए हमें इन सभी प्रशंसाओं को उनके चरणकमलों में अर्पित कर देना चाहिए और तत्क्षण हमें अपने दोषों को स्वीकार करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में हमारी भावना यह होनी चाहिए कि, "श्री गुरु-गौरांग की कृपा से ही मुझे अपने दोषों को सुधारने का यह सुअवसर प्राप्त हुआ है।" कभी-कभी हम सोचते हैं कि गुरुदेव हमारी सहायता नहीं कर रहे हैं अथवा निर्देशों तथा दंड के माध्यम से भी अपनी कृपा प्रदर्शित नहीं कर रहे। ठंडे दिमाग एवं विनम्र मनोभाव से हमें सोचना चाहिए कि क्या इसमें हमारा दोष है या गुरुदेव का? यहाँ तक कि हम यह भी सोच लेते हैं, "अपने अभिमानी स्वभाव के कारण वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं।" किंतु हम इस बात को समझने में पूर्ण रूप से अंधे या इस सत्य को मानने में विफल रहते हैं कि दंभ रूपी असुर की उपस्थिति के कारण हमारा हृदय एक बंजर भूमि के समान हो गया है। इस परिस्थिति में कौन हमारी सहायता कर सकता है?
यदि हमारे हृदय में साधु-गुरु से वास्तविक प्रीति व स्नेह नहीं है, तो वे हमारी सहायता कैसे कर सकते हैं? और उनके निर्देश हमारी मदद कैसे करेंगे? "मैं इतना नीच एवं पतित हूँ और इस कारण कोई भी मेरे प्रति कृपालु नहीं है। मेरे अंदर लेशमात्र आध्यात्मिक गुण भी नहीं है और मैं गुरु एवं वैष्णवों की कृपा प्राप्त करने के योग्य भी नहीं हूँ।" जब हमारे मन में इस प्रकार की भावना उत्पन्न होगी, उस परिस्थिति में दंभ के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। जब हम स्वयं को पतित एवं सभी गुणों से रहित देखेंगे, तब हम सेव्य (गुरु-कृष्ण) के प्रति प्रगाढ़ प्रेममयी आसक्ति विकसित कर सकेंगे। यह प्रगाढ़ प्रेमपूर्ण आसक्ति ही गुरु और कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रमुख कारक बनती है।
यदि हम श्री गुरु-गौरांग की लेशमात्र कृपा एवं शक्ति भी प्राप्त कर लें तो हम अपनी आंतरिक मनोदशा का आकलन करके, तदनुसार प्रार्थना कर सकते हैं। श्री गुरु-गौरांग से निरंतर उनकी अहैतुकी कृपा की प्रार्थना करते हुए हम आत्म-शुद्धि की दृष्टि विकसित करते हैं। जब तक हम श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक हमारे लिए अपने हृदय में व्याप्त दोषों को ढूँढ पाना असंभव है। उनकी कृपा से न केवल आंतरिक दृष्टि प्राप्त होती है अपितु आध्यात्मिक जीवन के हर पद पर भक्तों और भगवान के दिव्य गुणों को देखने के लिए आवश्यक शक्ति भी प्राप्त होती है। हम हमेशा अपने भौतिक गुणों को दूसरों से तोलते हैं और खुद को सबसे महान समझते हैं। किंतु जब हम श्री गुरु-गौरांग की कृपा प्राप्त करते हैं तब हम दूसरों के दिव्य गुणों को देख पाते हैं और स्वयं को क्षुद्र एवं विनम्र अनुभव करने में सक्षम होते हैं।
श्रील प्रभुपाद श्रीमद्भागवत (६.१७.१४) के तात्पर्य में उल्लेख करते हैं - "जब तक कोई विनम्र नहीं बनता, तब तक वह भगवान के चरणकमलों के आश्रित होने के योग्य नहीं हो सकता।" इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत (७.९.८) में कहा गया है, "विनीत हुए बिना आध्यात्मिक जीवन में प्रगति पर पाना अत्यंत कठिन है।"
केवल श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा से ही हम अपनी त्रुटियों को देख सकते हैं और विनम्र बन सकते हैं। इसलिए श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने भजन में यही याचना करते हैं, ‘गुरुदेव! कृपाबिन्दु दिया, कर’ एइ दासे, तृणापेक्षा अति हीन’ । यदि हमारे हृदय में रंच मात्र भी दंभ है तो श्री गुरु-गौरांग के प्रति आसक्ति उत्पन्न करना अत्यंत कठिन है। जब हम मिथ्या अभिमान से मुक्त होने में सक्षम हो जाते हैं, तब हमें अंतरंगा शक्ति के साथ-साथ वैष्णवों की कृपा प्राप्त करने का भी सुअवसर प्राप्त होता है। अन्यथा गुरु और वैष्णवों के प्रति हमारा सदा ही प्रतिस्पर्धा का भाव रहेगा। यह हमारे आध्यात्मिक जीवन के लिए अत्यधिक हानिकारक स्थिति है। कभी-कभी शिष्टाचारवश हम बाह्य रूप से अपने दंभ को व्यक्त नहीं कर रहे होते परंतु आंतरिक रुप से हम साधु-गुरु के प्रति इतने ईर्ष्यालु हो चुके होते हैं कि वे हमें किसी भी आध्यात्मिक गुण से युक्त दिखाई नहीं देते। हम कर्मी लोगों में भी कुछ अच्छे गुण देख लेते हैं किंतु ईर्ष्या के कारण हम साधु-गुरु के सद्गुणों को देखने में असमर्थ हो जाते हैं।
इसका उदाहरण हम श्रीमद्भागवत में वर्णित प्रजापति दक्ष के प्रसंग में देख सकते हैं। शिव जी सभी वैष्णवों में श्रेष्ठ हैं, वैष्णवानाम यथा शंभु:। किंतु दक्ष की दृष्टि में वे पतित थे। श्रील प्रभुपाद श्रीमद्भागवत (४.३.२ तात्पर्य) में उल्लेख करते हैं, "जब मनुष्य को अपनी भौतिक संपदा का अभिमान हो जाता है, तो वह कोई भी आपदाजनक कार्य कर सकता है। अतः दक्ष ने झूठी प्रतिष्ठा के बल पर कार्य किया।" यह अभिमान अथवा दंभ ईर्ष्या में परिवर्तित हो जाता है। हम न केवल जनसामान्य के प्रति द्वेषी रहते हैं, बल्कि हम साधु-गुरु के प्रति भी द्वेषी हो जाते हैं। भौतिक संपत्ति के कारण हमारे अंदर दंभ उत्पन्न होता है, और दंभ के कारण ईर्ष्या, और ईर्ष्या हमें सभी अच्छे गुणों से विहीन कर देती है। यह श्रीमद्भागवत (४.३.१७) में कहा गया है, "यद्यपि तप, शिक्षा, धन, सौंदर्य, यौवन एवं कुलीनता यह छह गुण अत्यंत उच्च होते हैं, किंतु जो इन्हें प्राप्त करके मदांध हो जाता है और इस प्रकार वो सद्ज्ञान खो बैठता है, वह महापुरुष की महिमा को स्वीकार नहीं कर पाता।" इसके तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद बताते हैं - "जब अच्छी शिक्षा, अच्छा परिवार, सुंदरता और पर्याप्त धन एक ऐसे व्यक्ति के पास पाए जाते हैं जो कि इन सबकी उपस्थिति से गर्वित हो जाता है, तब ये गुण बुरा परिणाम देते हैं। यद्यपि दक्ष सभी प्रकार के भौतिक संपत्ति से संपन्न था, किंतु उसे अपनी संपत्ति का घमंड था और वह ईर्ष्यालु था। अतः उसके सभी गुण दूषित हो चुके थे। इसीलिए कभी-कभी ऐसी संपत्ति का होना आत्म-चेतना या कृष्ण भावनामृत में प्रगति करने वाले व्यक्ति के लिए बाधक बन जाता है।“
जब दंभ ईर्ष्या में परिवर्तित हो जाए तो यह अत्यंत घातक बन जाता है। श्रील प्रभुपाद अगले तात्पर्य (४.३.१८) में उल्लेखित करते हैं - “बाघ अपने बच्चे पर सदय होते हैं, किंतु कभी-कभी वे उन्हें खा जाते हैं। विद्वेषपूर्ण (कपटी) व्यक्तियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह सदैव अस्थिर रहते हैं।" अस्थिर का अर्थ है कभी बहुत नरम और मीठा होना और कभी अत्यंत कठोर। अस्थिरता के कारण ऐसे व्यक्तियों को पहचानना अत्यंत कठिन हो जाता है। जैसे भारत में वर्षा ऋतु के दौरान कभी-कभी देदीप्यमान सूर्य की तेज किरणें निकलती हैं और अगले ही पल आपको केवल काले बादल दिखाई देंगे और कुछ ही पलों में मेघ-गर्जन व आंधी के साथ तेज़ वर्षा होने लगती है। दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति का हृदय ऐसा ही होता है।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि श्री गुरु एवं गौरांग की शरण लेना, उनकी अहैतुकी कृपा प्राप्त करने की शुरुआत है। हमें श्रीमान् महाप्रभु की शिक्षाओं का अभ्यास एवं अनुसरण करना होगा, तभी हमारे लिए इन दोनों प्रकार के दंभ अथवा मिथ्या अभिमान को छोड़ पाना संभव है।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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