दूसरों को कष्ट देना वैष्णव धर्म नहीं है। भाग -१
प्रिय पाठकगण,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम पूर्ववर्ती आचार्यों की विभिन्न शिक्षाओं का स्मरण कर रहे हैं। भक्ति-पथ बिल्कुल तलवार की तीक्ष्ण धार के समान है। जो तलवार चलाता है केवल वही जानता है कि तलवार कितनी सावधानीपूर्वक चलानी होती है। अन्यथा वह तलवार चलाने वाले के लिए घातक साबित हो सकती है। इसी तरह हम भी इस भक्ति-पथ पर अपना जीवन, श्रीगुरु, गुरु-परंपरा, आचार्य, भागवत और हरिनाम की सहायता से ही अग्रसरित कर पा रहे हैं। परंतु यदि हम उनका मनोभाव समझने और उनकी सेवा उचित भाव से करने में असमर्थ रहते हैं, तो हमारे भक्ति-जीवन का सर्वनाश हो जाएगा। इसलिए हमें आचार्य के पदचिह्नों पर चलना होगा, उनकी शिक्षाओं को स्पष्ट रूप से समझना होगा और तदनुसार अभ्यास करना होगा। आज हम महाप्रभु द्वारा प्रदत्त एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शिक्षा पर चर्चा करेंगे; अपने व्यवहार अथवा आचरण से दूसरों को कष्ट न पहुँचाएँ और उनके लिए समस्याएँ न उत्पन्न करें। महाप्रभु चैतन्य चरितामृत [मध्य-लीला २२.१२०] में वर्णन करते हैं, “भक्त को चाहिए कि मन या वचन से किसी जीव को न सताये, भले ही वह कितना ही तुच्छ क्यों न हो।”
अन्य जीवात्माओं को शरीर या मन द्वारा उद्वेग प्रदान करना हमारे भक्ति-जीवन में अनेकों बाधाएँ उत्पन्न करता है। वस्तुतः यह सेवापराध, दुःसंग, भगवान तथा उनके भक्तों की निंदा करने के समान ही घातक है। अब हम चर्चा करेंगे कि किस प्रकार हम दूसरों के लिए व्यग्रता उत्पन्न करते हैं।
- जब भी हम संबंध और ज्ञान में स्थित नहीं होते, हम दूसरों को कृष्ण के अंश के रूप में नहीं देख पाते। इस कारण से हम उनके लिए समस्याएँ उत्पन्न करते हैं।
- जब भी हम स्वयं को अन्य व्यक्तियों या जीवों से उन्नत समझने लगते हैं, तब भी हम उनके लिए समस्याएँ उत्पन्न करते हैं।
- जब भी हमारे भीतर कोई प्रबल भोग इच्छा होती है, ईर्ष्या का दुर्भाव होता है, हिंसात्मक व्यवहार होता है या फिर हम अपनी कुछ गुप्त इच्छाओं की पूर्ती करना चाहते हैं, तो हमारा हृदय भक्ति प्रतिकूल भावनाओं से भर जाता है जिसके परिणामस्वरूप दूसरों को कष्ट प्रदान करने की मानसिकता का उदय होता है।
- जब भी हम कर्मियों का संग करते हैं, वैष्णवों की निंदा करते हैं या फिर भौतिक विषयों का श्रवण करते हैं, तो उस वार्ता से हमें एक भौतिक रस का आस्वादन होता है। ठीक इसी प्रकार दूसरों के लिए समस्या खड़ी करने पर भी हमें भौतिक रस का आस्वादन होता है।
हमें यह याद रखना चाहिए कि जब भी हम दूसरों को कष्ट देते हैं या फिर उनके लिए समस्या उत्पन्न करते हैं, तो हम उनका संग कर रहे होते हैं। जब हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पाते, तब हमें क्रोध आता है और क्रोधित होने के कारण हम दूसरों को कष्ट या पीड़ा देने की दुर्भावना विकसित करते हैं। हमने यह प्रायः देखा है कि जब से हम स्वयं की इच्छाओं को पूर्ण करने में असमर्थ रहते हैं, तभी से हम दूसरों के लिए समस्या उत्पन्न करने लगते हैं। दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए, तो सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर समझ आता है कि सामान्य जनता भी उसी दुष्ट व्यक्ति को दंडित करती जिसने उन्हें नुकसान पहुचाया होता है। प्रायः कर्मी समाज में इस प्रकार की परियोजनाओं की विशेष सराहना की जाती है। परंतु वैष्णव समाज के दृष्टिकोण देखने पर लगता है कि हम दूसरों को संतुष्ट करने के लिए अक्सर कुछ अन्यों को कष्ट देते हैं। यह तर्क उस स्थिति के लिए प्रायोगिक है जब लोग गोमाता की हत्या करके उनकी चमड़ी ब्राह्मणों को दान में देते हैं। ऐसे कार्य कर्मी संसार में प्रशंसनीय हैं, परंतु भगवान के भक्त ऐसी मानसिकता की सराहना नहीं करते। भक्तों की अन्य जीवात्माओं के प्रति सहायता भक्ति भावना पर आधारित होती है।
कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि यदि कोई भक्त भक्ति के सिद्धांतों के विरुद्ध कोई कार्य कर रहा हो या भक्त-वेष धारण करके कोई ऐसा कार्य कर रहा हो जो भक्ति-संबंधित नहीं है, उस स्थिति में हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिए? हम उस व्यक्ति का शोधन कैसे कर सकते हैं? क्या कर्मियों की तरह हमें भी उसे दण्डित करना चाहिए? इसके उत्तर के लिए हमें श्रीमद्-भागवतम [११.२६.२६] का अनुगमन करना होगा।
यदि हम इस श्लोक को अत्यंत गंभीरता से समझने का प्रयास करेंगे, तो हम समझ सकेंगे कि अभक्तों को भक्ति के अतिरिक्त किसी भी अन्य तरीके से अनुशासित नहीं किया जा सकता। शुद्ध-भक्त अपने आदेशों द्वारा दूसरों को अनुशासित करते हैं। उनके आदेश अत्यधिक शक्तिशाली होते हैं। वे दूसरों के हृदय को स्पर्श कर, उनपर अपना प्रभाव डालते हैं। ऐसे साधु सभी प्रकार के कपट से मुक्त होते हैं। उनके आदेश इतने शक्ति-संपन्न होते हैं कि वे दूसरों का हृदय परिवर्तित कर देते हैं। यहाँ तक कि, वैज्ञानिक अपने सबसे आधुनिक उपायों द्वारा या सैनिक अपने घातक हथियारों द्वारा भी यह कार्य कभी नहीं कर सकते।
बंदूक या अन्य हथियारों द्वारा हम किसी व्यक्ति का हृदय परिवर्तित नहीं कर सकते और न ही उसके हृदय में श्रद्धा उत्पन्न होने की अपेक्षा कर सकते हैं। परंतु कृष्ण के प्रति विशुद्ध प्रेम इतना प्रभावशाली एवं शक्तिशाली होता है कि वह दूसरों के हृदय को परिवर्तित कर उन्हें कृष्ण के प्रति आकृष्ट करा देता है। हम यह श्रीमन् महाप्रभु के उदाहरण में देख सकते हैं जब उन्होंने बिना किसी हथियार के हुसैन शाह का हृदय परिवर्तित कर दिया था। जब कोई परास्त हो जाता है तो वह अस्त्र या अपने शारीरिक बल द्वारा पुन: विजयी होने का प्रयास करता है। श्रीमन् महाप्रभु ने अपने प्रेम से बाघ तथा हाथियों को जीत लिया, तो मनुष्यों का तो कहना ही क्या। यहाँ तक कि पुण्यात्मक कर्मी समुदाय में भी, वे मधुर व्यवहार से दूसरों का हृदय परिवर्तन कर देते हैं।
इस पर एक अद्भुत प्रसंग विख्यात है जिसमें दर्शाया गया है कि किसी अन्य व्यक्ति का हृदय कैसे जीता जाए। एक गाँव में एक दुष्ट व्यक्ति निवास करता था और उसके दुष्ट स्वभाव के कारण कोई भी ग्रामवासी न तो उसे पसंद करता था और न ही उसके साथ सम्बन्ध रखना चाहता था। एक बार एक संत-स्वभाव के व्यक्ति किसी दूसरे गाँव से आकर उस गाँव में रहने लगे। अपने मित्रवत स्वभाव के कारण वह उस दुष्ट व्यक्ति को भी अपना मित्र बनाना चाहते थे। जब ग्रामवासियों ने यह देखा तो उन्होंने उनसे कहा, “उस व्यक्ति से मित्रता मत करो। वह स्वभाव से अत्यंत दुष्ट है।” किंतु उत्तर में साधु ने कहा, “मैं उसकी हत्या कर दूँगा।” कुछ लोगों ने यह सुना और जाकर उस दुष्ट व्यक्ति को बता दिया। जब उस दुष्ट व्यक्ति ने यह सुना तो वह अत्यंत क्रोधित हो गया और उस साधु के लिए बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न करने लगा। साधु सब कुछ सहते रहे और इसके बावजूद भी वह उस दुष्ट के साथ मित्रता करना चाहते थे और उसकी सहायता करना चाहता थे। उनका उद्देश्य दुष्ट व्यक्ति को की हत्या करना नहीं अपितु उसका स्वभाव परिवर्तित करना था। यदि किसी व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तित हो जाता है, तो इसका अर्थ है कि उसका (पुराने स्वभाव का) मरण हो गया है और मृत होकर वह पुन: जीवित हुआ है। एक दिन फसल काटने के समय गाँव के सभी लोग, अपनी बैलगाड़ियाँ कटी हुई फसलों से भरने में व्यस्त थे। वह दुष्ट व्यक्ति भी अपनी बैलगाड़ी को चावल से भर रहा था, किंतु उसके बैल वृद्ध हो गए थे। उस समय मूसलाधार वर्षा हो रही थी जिसके कारण उसकी बैलगाड़ी कीचड़ में फँस गई। सभी गाँववासी यह दृश्य देख रहे थे परंतु किसी ने भी उसकी सहायता नहीं की। यह देख साधु अपने दोनों युवा बैलों के साथ उस दुष्ट व्यक्ति की सहायता के लिए उसके पास पहुँचे। दुष्ट व्यक्ति ने कहा, “मुझे तुम्हारी सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है।” परंतु वह उत्तर में बोले, “तुम अभी खतरे में हो। मैं जानता हूँ कि तुम मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करते। मुझे यह भी पता है कि भविष्य में तुम मेरे शत्रु बन जाओगे, परंतु यह मेरे लिए इतनी बड़ी समस्या नहीं है। अभी तुम खतरे में हो और मैं तुम्हारी सहायता अवश्य करूँगा।” उन्होंने अपने युवा बैलों की मदद से उस दुष्ट व्यक्ति की बैलगाड़ी को बलपूर्वक कीचड़ के बाहर निकाला। इसके पश्चात वह दुष्ट व्यक्ति उन साधु-स्वभाव के व्यक्ति के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा, “हाँ, वास्तव में आपने मुझे मार दिया है।” इसका अर्थ यह है कि साधु-स्वभाव के व्यक्ति ने उसका हृदय परिवर्तित कर दिया। जब सामान्य लोगों का इतना सुंदर व्यवहार हो सकता है, तो फिर एक भक्त का तो कहना ही क्या? भक्त का हृदय प्रेम से पक्व होता है और प्रेम में इतनी शक्ति होती है कि वह असंभव को भी संभव कर देता है, बिल्कुल उसी प्रकार जैसे कृष्ण असंभव को संभव कर देते हैं।
प्रेम अत्यंत शक्तिशाली होता है। प्रेम के माध्यम से हम किसी का भी हृदय परिवर्तित कर सकते हैं। श्रील रसिकानंद प्रभु ने अनेक गैर हिन्दुओं को भी वैष्णव बना दिया। यह देख एक आसुरिक स्वभाव का गैर हिंदु व्यक्ति, पागल हाथी द्वारा रसिकानंद प्रभु को मरवाना चाहता था। परंतु रसिकानंद प्रभु उस हाथी को दण्डित नहीं करना चाहते थे। इसके विपरीत उन्होंने उस हाथी को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर उसे हरिनाम दीक्षा प्रदान कर दी। उसका दीक्षित नाम श्री गोपाल दास था। यह देखकर वह व्यक्ति भी उनका शिष्य बन गया।
हम ऐसी ही कहानी श्रीरामानुजाचार्य के जीवन चरित में देख सकते हैं। उनके शिष्य कूरेश उनके जीवन की रक्षा करना चाहते थे। कूरेश राजा क्रुमिकांत के पास जा पहुँचे जो भगवान शिव के भक्त थे। क्रूर क्रुमिकांत ने कूरेश की आँखें बाहर निकालने का आदेश दे दिया, जिसके परिणाम स्वरूप मंत्रियों ने कूरेश की दोनों आँखें निकाल ली। किंतु फिर भी कूरेश ने कोई विरोध नहीं किया । इसके विपरीत वे हरिदास ठाकुर की भाँति भगवान से उन सभी को क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे। हरिदास ठाकुर उन व्यक्तियों के लिए प्रार्थना कर रहे थे जो उन्हें मारने का प्रयास कर रहे थे। एक वास्तविक भक्त जानता है कि सहन करना ही वैष्णवता है और दूसरे को कष्ट देना वैष्णवता नहीं है।
भक्ति-संदर्भ के १९०वे श्लोक में श्रील जीव गोस्वामी पाद एक वैष्णव के वास्तविक मनोभाव का वर्णन करते हैं। शोचे ततो विमुख-चेतस [श्रीमद्-भागवतम ७.९.४३]। जब कोई व्यक्ति एक भक्त के प्रति ईर्ष्यालु होता है, तो यह जानते हुए भी वह भक्त उस ईर्ष्यालु व्यक्ति के प्रति तटस्थ और क्षोभरहित रहता है। वह जानता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण ऐसा भाव विकसित कर रहा है, इसलिए वह भक्त उसके प्रति कारुणिक रहता है। यद्यपि भक्त जानता है कि व्यक्ति उससे ईर्ष्या करता है, फिर भी भक्त अपनी उदासीनता के कारण उस व्यक्ति के प्रति कारुणिक रहता है। यह दृष्टांत श्रीप्रह्लाद महाराज के जीवन में देखा जा सकता है। उनके पिता हिरण्यकशिपु उनके प्रति अतीव ईर्ष्यालु थे, किंतु फिर भी वे अपने पिता के प्रति कृपालु थे। यद्यपि लोग भगवान और उनके भक्तों के प्रति ईर्ष्यालु होते हैं, किंतु फिर भी एक भक्त स्वयं को ऐसे निकृष्ट कार्यों में संलग्न नहीं करता।
हम यह गुण एक मध्यम-अधिकारी में देख सकते हैं क्योंकि हम तो अभी तक भक्ति के द्वार में भी प्रवेश नहीं कर पाए हैं और इसलिए हम सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा एवं अनर्थों को बढ़ावा देते हैं। इसी वजह से जब भी हम किसी विपदग्रस्त व्यक्ति को देखते हैं, हमारे पास उसकी दुविधा को समझने की शक्ति नहीं होती। स्वयं की ऐसे व्यक्तियों से तुलना कर तथा स्वयं को भक्त मानकर हम दाम्भिक बन जाते हैं और दूसरों से घृणा करने लगते हैं। परंतु हम यह भूल जाते हैं कि दूसरों से घृणा करने के कारण हम अपने हृदय में भौतिक विष संचित कर रहे हैं, फिर चाहे वह घृणास्पद भाव हमारी अज्ञानता के कारण ही क्यों न हो। जब भी हम किसी कर्मी व्यक्ति के प्रति कटु वाक्यों का प्रयोग करते हैं, तब हम अपने पशुवत स्वभाव द्वारा उस कर्मी व्यक्ति को अपने शरीर, मन और वाणी के माध्यम से उद्वेग प्रदान करने का प्रयास करते हैं। यह कदापि वैष्णवता का लक्षण नहीं है।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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