कृपा के बिना संदेह और आलोचना असाध्य रोग हैं
प्रिय पाठकगण,
श्री गुरु एवं श्री गौरांग की महती कृपा से हम अपने शुद्धीकरण हेतु विभिन्न विषयों पर चर्चा कर रहे हैं। इस लेख में हम जानने का प्रयास करेंगे कि साधु-गुरु के प्रति हमारा वास्तविक भाव क्या होना चाहिए।
गुरुदेव के प्रति शंकालु मनोवृत्ति होना तथा उन्हें मर्त्य-जगत का स्वरूप समझना हमारे जीवन की समस्त अशुभता का एकमात्र कारण है। दूसरे शब्दों में, इस कलुषित विचारधारा को अंगीकार कर हम स्वयं ही अपने आध्यात्मिक जीवन में सभी प्रकार की विपत्तियों को आमंत्रित कर लेते हैं। यह संदेहास्पद स्वभाव क्रमशः हमारे भीतर नास्तिक मानसिकता को आमंत्रित करता है जिसके कारण साधु, गुरु तथा वैष्णव सेवा के प्रति हमारा रुझान मंद पड़ जाता है। जो भक्त वैष्णवों का दोष-दर्शन करने में संलिप्त रहते हैं उनका संग करने से शंकालु मानसिकता हमारे भीतर उदित हो जाती है। इस स्थिति में हमारा दासत्व अथवा भृत्यभाव विक्षुब्ध हो जाता है। श्रीचैतन्य चरितामृत [अंत्य लीला १३.१३३] में विवरण है कि किस प्रकार रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, न तो वैष्णव की निन्दा सुनते थे और न ही किसी वैष्णव के दुराचार विषयक कोई बात। वे केवल इतना ही जानते थे कि हर कोई कृष्ण की सेवा में संलग्न है। इसके अतिरिक्त वे और कुछ नहीं समझना चाहते थे। इस श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद उल्लेख करते हैं, “वैष्णव आचार्य का कर्तव्य है कि वह अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को वैष्णव आचार के नियमों का उल्लंघन करने से रोकें। उन्हें चाहिए कि वह सर्वदा उपने अनुयायियों को विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करने का उपदेश दें, जिससे वे पतित होने से बच सकें।”
यदि साधक वैष्णवों की आलोचना करने से विरत रहता है तथा उनके दोषों से संबंधित कोई प्रजल्प नहीं सुनता, तो उसका श्रवण और कीर्तन अवश्य फलीभूत हो जाता है।
ज्ञानियों अथवा तार्किकों का हृदय सदैव भ्रमित रहता है। भक्ति प्रतिपादन की यह अटल एवं उदात्त पद्धति भी उनके लिए सर्वथा दुर्गम रहती है। कभी वे सोचते हैं कि, “साधु, गुरु तथा वैष्णव उपस्थित हैं, वे आंतरिक हैं तथा उनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है।” अगले ही क्षण उन्हें संशय होने लगता है, “क्या वास्तव में साधु, गुरु, वैष्णव उपस्थित हैं, या नहीं?” परिणामस्वरूप, या तो वे सोचते हैं कि जीवन में भौतिक विषयों का भोग करना ही बेहतर है या फिर वे स्वयं को सभी कार्य-कलापों से पृथक करना ही उत्तम समझते हैं।
परन्तु जो वास्तविक साधक हैं, उन्हें विनीत भाव से प्रमाणिक गुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए। यदि साधक निरंतर प्रणिपात, परिप्रश्न तथा सेवा के सिद्धांत का यथावत पालन करता है और साथ ही कृष्ण-भजन में निमग्न रहता है तो उसके हृदय में श्रीगुरु-पादपद्म का उदय होगा। फलतः उस भक्त को अपार उत्साह एवं अध्यात्मिक बल प्राप्त होगा। यही वास्तविक भृत्यभाव है।
१. हमारे संप्रदाय के प्रशिक्षण के अनुसार, हम अपने गुरु एवं आचार्यों को अपने ‘प्रभु’ के रूप में स्वीकार करते हैं क्योंकि वे अहर्निश, २४ घंटे श्रीकृष्ण एवं गौरसुन्दर की सेवा में संलग्न रहते हैं। हमारे जीवन का उद्देश्य है स्वसुख परन्तु गुरु एवं आचार्यों का उद्देश्य है कृष्ण-सुख। वे प्रतिक्षण सोचते हैं कि कृष्ण को कैसे प्रसन्न किया जाए क्योंकि कृष्ण ही उनके जीवन तथा प्राण हैं। यदि हमें उन साधु-गुरु पर तनिक भी संदेह रहता है, जिनके जीवन एवं प्राणवल्लभ एकमात्र श्रीकृष्ण हैं, तो हम कृष्ण को संतुष्ट कैसे कर पाऍंगे? गुरु-पादपद्म के प्रति अल्प मात्र शंका भी हमारे आध्यात्मिक जीवन में भीषण उत्पात मचा देती है।
२. शुद्ध भक्त सदैव श्रीकृष्ण की दिव्य-इन्द्रियों को आनन्द प्रदान करने में संलग्न रहते हैं। यदि कोई जीव भाग्यशाली है तो वह शुद्ध भक्त की इस सर्वोत्कृष्ट सेवा में सहायता कर पाएगा। सच तो यह है कि सतत शुद्ध भक्त की सहायता करने पर ही जीव अन्य अभिलाषाओं के क्रूर हाथों से बच सकता है तथा अपने आध्यात्मिक जीवन में प्रगतिशील हो सकता है।
३. यदि कोई साधु-गुरु के प्रति सशंकित है, तो उसके लिए प्रेममयी सेवा में संलग्न रहना संभव नहीं। साथ ही, ऐसे व्यक्ति में श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की सेवा में संलग्न भक्तों को हतोत्साहित करने की प्रवृत्ति होती है, जिसके कारण वह किसी दूसरे व्यक्ति को भी गुरु-गौरांग की सेवा से नहीं जोड़ पाता। अंततः वह साधु-गुरु के प्रति इर्ष्यालु हो जाता है और युक्तिपूर्वक अन्य व्यक्तियों में भी यह कुभाव अन्तर्निहित करता रहता है।
४. यदि हम ऐसे व्यक्तियों की संगति या उनसे मित्रता करते हैं जो परदोष-दर्शी हैं अथवा साधु-गुरु से इर्ष्या करते हैं, तो हमारी श्रवण और कीर्तन में रुचि घटती चली जाएगी। इस स्थिति में हम सेवा करने की प्रेरणा, सेवा के प्रति उत्साह, श्रद्धा व आत्मीयता तो खोते ही हैं, अंततोगत्वा हम यह भी सोचने लगते हैं कि हरि, गुरु तथा सेवा का कोई अर्थ नहीं, जीवन का वास्तविक लक्ष्य है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष या लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा की प्राप्ति।
५. जिन्हें श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की अहैतुकि कृपा प्राप्त होती है, वे ही यह भेद कर पाते हैं कि किसकी संगति से उनका भजन के प्रति उत्साह तथा सेवा-भाव पुष्ट होगा और किसकी संगति से शिथिल हो जाएगा। अतः श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की कृपा के बिना, हमें ऐसा अवश्य प्रतीत होगा कि हम साधु-संग कर रहे हैं परन्तु जिसका संग हम कर रहे होंगे वह वास्तव में एक श्रद्धाहीन व्यक्ति होगा, जैसे कि एक वैष्णव-दोषदर्शी।
६. यदि हम वास्तव में सरल हैं, तो कृष्ण हमें सद्बुद्धि प्रदान करेंगे जिससे हम जान सकेंगे कि हमें किनका संग करना चाहिए, वैष्णवों की स्थिति क्या है, आपके समक्ष उपस्थित वैष्णव एक कनिष्ठ अधिकारी हैं, मध्यम अधिकारी हैं या उत्तम अधिकारी और उनकी स्थिति के अनुसार हमें उनका सम्मान कैसे करना चाहिए। कृष्ण सबकी स्थिति जानते हैं, अतः उनकी सहायता के बिना शुद्ध वैष्णव को पहचान पाना असम्भव है। यदि हम सरल हैं तो साधु-गुरु के प्रति संदेह, निन्दा, दोष दर्शन तथा इर्ष्या का प्रश्न ही नहीं उठता। गुरुदेव कहा करते थे, “दोष दर्शन तथा निंदा करना बिल्कुल भी भक्ति-वृत्ति नहीं है।”
७. श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपने वैष्णव गीत में उल्लेख करते हैं, “वैष्णवों का चरित्र सर्वदा विमल हैं। उनके निन्दकों से मुझे घृणा है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि वे ऐसे वयक्ति से वार्तालाप ही नहीं करते एवं उसकी उपस्थिति में मौन धारण करते हैं।”
८. यदि कोई श्रवण पद्धति को स्वीकार नहीं करता या दृढ़तापूर्वक आचार्यों के पदचिह्नों का अनुसरण नहीं करता तो उसके हृदय में वैष्णवों को मापने की मानसिकता घर कर जाती है। कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान तथा पुण्य के बल पर वैष्णवों की दिव्य स्थिति नहीं माप सकता। यदि वह ऐसा करता है तो निश्चय ही वह दंभ से ग्रस्त हो जायेगा। ऐसी स्थिति में वह बाह्य रूप से तो भक्तिमय कार्यों में संलग्न रहेगा परन्तु श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग से अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाएगा। परिणामस्वरूप उसे भक्ति एक शुष्क एवं मलिन पद्धति के रूप में अनुभव होगी।
९. यदि किसी व्यक्ति का साधु-गुरु से आंतरिक सम्बन्ध नहीं, तो उसका भजन मात्र एक ढोंग है। उनसे सम्बन्ध न होने के कारण जीव का मोह इस कदर बढ़ जाता है कि उसकी दृष्टि में आचार्य अथवा गुरु-पादपद्म एक साधारण मनुष्य हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, उसके भीतर शुद्ध भक्तों के प्रति इर्ष्या और द्वेष की भावना भी विकसित हो जाती है। ऐसे में, या तो वह भोगियों तथा ब्रह्मवादियों को शुद्ध साधु मानकर उनसे मित्रता कर लेता है, या फिर वह सभी व्यक्तियों को सामान्य स्थिति पर मान बैठता है, अतएव दोनों ही स्थितियों में वह शुद्ध वैष्णवों को आदर एवं प्राथमिकता देना आवश्यक नहीं समझता।
१०. निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि, जब कर्मी, ज्ञानी, योगी एवं तथाकथित महानुभाव हमें तिरस्कृत करेंगे, तभी हमें शुद्ध भक्त की कृपा प्राप्त होगी। यदि हम उन सभी के प्रति तनिक भी आसक्त रहेंगे, तो साधु-गुरु की कृपा हमें प्राप्त नहीं होगी।
यदि हममें भजन करने की शुद्ध वासना है, फिर भले ही हमारे भीतर निजकर्म-दोष के कारण अनेकों दुर्बलताऍं हों, एक आशा अवश्य है कि साधु-गुरु हमें एक दिन आत्मसात करेंगे। किन्तु यदि हमारा स्वभाव कपटी है और हम साधु-गुरु का दोषदर्शन करते हैं तो हमारा कोई सुयोग नहीं, कोई स्थान नहीं, कोई आश्रय नहीं।
दासानुदास
हलधर स्वामी
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