आपदाएं चक्षु दान देती हैं
प्रिय पाठकगण,
श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की महती कृपा से हम पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रदत्त बृहद रसात्मक व तत्वपरायण शिक्षाओं का स्मरण कर रहे हैं। यद्यपि आध्यात्मिक विषयों पर व्याख्या करने के लिए मैं योग्य नहीं हूँ, फिर भी अपने एकमात्र सम्बल श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की अद्भुत अहैतुकी कृपा से मैं प्रयास करूँगा।
भगवद्सेवा में संलग्न होने का फल है पुनः सेवा के प्रति विशुद्ध उत्साहपूर्ण भावना का विकसित होना और साथ ही सेवा प्रतिपादित करने से साधक शाश्वत तथा पारलौकिक आनंद के अगाध सागर में डूबने लगता है। इसके विपरीत, सेवा न करने अथवा सेवा अपराध में प्रवृत्त होने का कटु परिणाम है निरंतर क्षणिक सुख एवं क्लेश का अनुभव करना। शरणागत भक्त श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग से अहैतुकी कृपा प्राप्त करने के लिए सतत उनकी सेवा में नियुक्त रहते हैं, प्रत्युत विभ्रांत बद्ध जीवात्माएँ अपने पूर्व सञ्चित पुण्य-पाप कर्मों के अनुसार भौतिक सुख-दुःख के विषाक्त चक्र में फँसी रहती हैं। अपरा मायाशक्ति के पद पर स्थित जीव भौतिक भोग-विलासों में संलिप्त होकर अपने अनंत क्लेशों से पूर्णतया विस्मृत हो जाते हैं और इन क्षणभंगुर सुखों को अधिक से अधिक प्राप्त करने की नित्य लालसा बनाए रखते हैं। दूसरी ओर, जब उनका जीवन विपत्तियों अथवा विपरीत परिस्थितियों से घिर जाता है, तो वे निराश हो जाते हैं क्योंकि उनका जीवन पूर्ण रूप से अस्त-व्यस्त हो जाता है। परिणामस्वरूप वे तथाकथित आनंद की प्राप्ति के लिए तरसने लगते हैं। इस प्रकार अल्पज्ञानी व्यक्ति आपत्तियों के साथ समझौता करने की योजना बनाते हैं, परंतु वे यह नहीं जानते की सेवा के बिना शाश्वत सुख की प्राप्ति असम्भव हैं।
परंतु, भक्त अपने जीवन में भौतिक सुख-दुःख की किञ्चित् भी परवाह नहीं करते। इसके विपरीत वे प्रतिक्षण श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की सेवा में रत रहते हैं। भौतिक जगत के तथाकथित क्लेशों से वे अणुमात्र भी प्रभावित नहीं होते, क्योंकि वे जानते हैं कि सुख एवं दुःख, दोनों पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की कृपा ही हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे एक स्नेहपूर्ण पिता का अपने पुत्र के प्रति प्रेम और ताड़न एक समान होता है। श्रीकृष्ण की कृपा से भक्तगण इस गुह्य तथ्य को भली-भाँति समझ पाते हैं। यद्यपि इस तत्त्व से सभी भक्त परिचित हैं, परंतु वस्तुतः संकट के समय भक्तगण न तो विपरीत परिस्थितियों को श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपाशीलता मानते हैं, और न ही उत्साहपूर्वक भजन करने का मनोबल व स्पृहा बनाए रखते हैं। एक भक्त के आध्यात्मिक जीवन में यह स्थिति क्यों उत्पन्न होती है? चूँकि हमारी शरणागति के अनुसार ही श्रीकृष्ण हमारे साथ मन, बुद्धि, तथा आत्मा के माध्यम से परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। अतएव जब कोई भक्त भौतिक अभिलाषाओं को त्यागकर पूर्णतया शरणागत हो जाता है तब श्रीकृष्ण उसे आत्मसात कर लेते हैं। किंतु ऐसे विशुद्ध निष्ठावान भक्त और उनके उन्नत मनोभाव की पहचान किस प्रकार की जा सकती है?
ऐसे भक्त श्रीकृष्ण को अपना एकमात्र शुभचिंतक, रक्षक एवं पालक के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी अविचल श्रद्धा होती है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण सर्व मंगलकारी हैं, अतएव उनके माध्यम से आने वाली प्रत्येक व्यवस्था भी मंगलमय ही है। श्रीकृष्ण भगवद्गीता में स्पष्ट करते हैं, “मैं परम अनुमन्ता हूँ” अर्थात् प्रत्येक जीवात्मा के अंतःहृदय में विद्यमान परमात्मा अथवा भगवान श्रीकृष्ण समस्त जीवात्माओं को अधिकार प्रदान करते हैं और वे ही साक्षी तथा अनुमतिप्रदाता के रूप में कार्य करते हैं। अतः भक्त हृदय से स्वीकार कर लेता है, “मैं श्रीकृष्ण का नित्य सेवक हूँ और वे मेरे शाश्वत स्वामी। वे परम भोक्ता हैं और मैं भोग्यवस्तु। वे सर्व मंगलकारी हैं, इसलिए मैं उनकी शुभ इच्छा के अनुसार कार्य कर रहा हूँ।”
शुद्ध कृष्णचेतना में स्थित ऐसे प्रबुद्ध भक्त शरीरिक विपदाओं से सदैव अविचलित रहते हैं। महारानी कुंती के अनुकरणीय उदाहरण में हम देख सकते हैं कि वे असंख्य विपत्तिजनक समस्याओं से कभी व्याकुल नहीं हुईं। इसके बजाय उन्होंने अत्यंत पवित्रता के साथ अपने पुत्रों की प्रत्यक्ष उपस्थिति में श्रीकृष्ण के समक्ष अपने विशुद्ध मनोभाव को व्यक्त किया है, “हे कृष्ण! मैं चाहती हूँ कि यह समस्त विपत्तियाँ बारम्बार आएँ।” उनकी प्रार्थनाएँ सत-संप्रदाय से संबंधित विशुद्ध भक्तों की वास्तविक मनोवृत्ति अनावृत करती हैं, जो मात्र अविरत रूप से भजन में स्थिर रहने की ही वांछा रखते हैं।
आपदाओं एवं अवरोधों से गुजरने पर ही हम अनुमान लगा सकते हैं कि हम गुरु एवं कृष्ण पर कितने आश्रित हैं। इन विपरीत परिस्थितियों में ही श्रीकृष्ण मापदण्ड पर उनके प्रति हमारी निर्भरता का आकलन करते हैं। वे हमारी परीक्षा लेते हैं कि क्या हम उनके प्रति समर्पित हैं, अपने परिवार के प्रति समर्पित हैं, या केवल अपने प्रति समर्पित हैं। यथार्थतः विघ्न हमें अधिक गम्भीरता से प्रार्थना करने तथा बिना किसी निजी कामना के शरणागत होने में सहायक होते हैं। इस संदर्भ में एक नैतिक प्रशिक्षक कहते हैं, “कठिन समय अथवा प्रतिकूल परिस्थितियों में ही आप आकलन कर सकते हैं कि आपकी भार्या कितनी सहयोगी हैं, आपका सेवक कितना एकनिष्ठ हैं, अपने बंधुओं को समझ सकते हैं और अपनी दृढ़ता का अवलोकन भी सहजता से कर सकते हैं।” दूसरे शब्दों में, समस्याएँ हम सभी के लिए एक मापदण्ड हैं।
हमारे आध्यात्मिक जीवन में प्रकट होने वाली विपत्तियाँ अथवा समस्याएँ अग्नि परीक्षा के सदृश हैं जो अदृश्य रूप से हमारी भोग प्रवृत्ति तथा अनर्थों को विध्वंस कर देती हैं। दूसरे शब्दों में, हमारी आध्यात्मिक सफलता एवं वास्तविक विजय वस्तुतः समस्याओं व आपदाओं के भीतर छिपी हुई हैं।
संकट के समय, यदि श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की सेवा के प्रति हमारी आसक्ति प्रवर्धित होती है, परम सत्य के प्रति हमारी आत्म-अनुभूतियाँ बढ़ती हैं, इसका अर्थ है कि समस्याएँ अथवा विपत्तियाँ हमारे आध्यात्मिक जीवन में और अधिक दृढ़ होने का मार्ग प्रशस्त कर रहीं हैं। अतः यह परिस्थितियाँ कृष्ण-विरह की सर्वोत्कृष्ट भावना का अधिकाधिक आस्वादन करने में उपकृत सहायता प्रदान करती हैं। संकट तथा आपदाओं के मध्य भगवत् विरह की भावना हमारे सेवानंद को परिपक्व करती है और हमें भक्ति मार्ग पर अधिक स्थिर तथा दृढ़ बनाती है। अतः, यदि प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमारे आध्यत्मिक पथ पर अपना प्रादुर्भाव सुनिश्चहित नहीं करेंगी, तो हम सेवानंद के विविध रसों से सदैव अनभिज्ञ रहेंगे।
विपत्तिकाल में, शुद्ध भक्तों के हृदय में श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग की सेवा के प्रति निर्भरता एवं उत्साहपूर्ण भावना की अनवरत वृद्धि होती है। साथ ही, उनका विनम्र भाव भी अधिकाधिक परिपक्व होता जाता है। संकट के समय, ऐसे भक्तों का हरि, गुरु एवं वैष्णवों के प्रति वास्तविक शरणागति का भाव तीव्र हो जाता है, और उनकी महती कृपा से उन्हें अपार आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है जो अन्य साधनाओं के माध्यम से अप्राप्य रहती है।
सभी प्रकार की अपरिहार्य विपत्तियों का सामना करते हुए मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार में प्रगति करते रहना चाहिए। भक्तों को चाहिए कि वे प्रतिकूल परिस्थितियों को धैर्य, दृढ़ता एवं वैष्णव शिष्टाचार के अनुसरण में संवृद्धि का एक सुअवसर मानें, कि इससे उन्हें भक्ति विकसित करने में सहायता प्राप्त होगी। अन्यथा, हमारा मन तथाकथित भौतिक सुखों से मुग्ध होकर डगमगाता रहेगा और हमारी चेतना में प्रच्छन्न उद्देश्य प्रबल हो जाएँगे।
हम सदैव दुसंग का त्याग करने के लिए संघर्ष करते हैं, परंतु यह परीक्षण और संकट के समय ही सम्भव हो पाता है। दूसरे शब्दों में, प्रतिकूलताएँ हमें दुसंग को त्यागने की शक्ति, और वैष्णव शिष्टाचार एवं वास्तविक विनम्रता रूपी कलियों को खिलने के लिए पोषण प्रदान करती हैं। इसके विपरीत, यदि हमारी दुर्बलता, आलस्य, अशिष्टता, अन्य अभिलाषा तथा श्रीगुरु के प्रति अश्रद्धा बलवंत और हमारी शरणागति क्षीण हो जाती है, तो इसका अर्थ है कि हमारा श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग को प्रसन्न करने की अपेक्षा एक पृथक मनोभाव है। संकट के समय यदि हमारे प्रच्छन्न उद्देश्य रहते हैं, तो हमारे भीतर विद्यमान छः शत्रु प्रबल हो जाते हैं तथा अंतःहृदय में नृत्य करने लगते हैं और फलतः हम उनके भृत्य बन जाते हैं। आपदाओं के समय हम विश्लेषण कर सकते हैं कि हम वास्तविक भक्ति कर रहे हैं, या केवल बाह्य रूप से दिखावा। दूसरे शब्दों में कहें तो विपत्ति ही हमारी वास्तविक सुहृद है। शुद्ध भक्त विपत्तियों का किंचित्मात्र भी भय नहीं करते क्योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के चरणार्विंद में सम्पूर्णतया शरणागत हैं। चाहे वे महल में निवास करे या वृक्षों के नीचे, वे सर्वदा परमेश्वर की प्रेमपूर्ण सेवा की आकांक्षा रखते हैं। शुद्ध भक्तों की स्थिति में, वास्तविक आपदा तो उन व्यक्तियों के साहचर्य में रहना है जो श्रीकृष्ण भावनामृत विहीन हैं।
जिस भक्त में श्रीगुरु और श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठता और निर्भरता का अभाव है, वास्तव में वही संकटग्रस्त है। जो यथार्थ भाव से शरणागत हैं, उनके लिए वास्तव में कोई विपत्ति या संकट नहीं है, भले ही प्रत्यक्ष रूप से उनकी परिस्थिति संकटग्रस्त ही क्यों न प्रतीत होती हो। जो भक्त साधु-सङ्ग से आसक्त हैं और दुसंग त्यागने का दृढ़ निश्चय कर चुके हैं, वे भी संकट अथवा आपदाओं से अगम्य रहते हैं। जब हम अपने सुख-दुःख का दायित्व लेने लगते हैं तो यह स्वयं एक आपदा बन जाती है। जो भक्त अपने सुख-दुःख को त्याग कर अहर्निश श्रीकृष्ण और उनके भक्तों की सेवा में व्यस्त रहते हैं, उनके लिए जीवन पारलौकिक आनंद के अगाध सागर में डूबने के समान हो जाता है। यदि हम श्रीकृष्ण का स्मरण नहीं करते, तो यह महत्तम संकट है, वहीं यदि हम प्रतिक्षण उनका स्मरण करते हैं, तो यह हमारी वास्तविक सम्पदा है।
कोई प्रश्न कर सकता है, “भौतिक संसार में शुद्ध भक्तों को कष्ट क्यों प्राप्त होता है?” इसका उत्तर यह है कि उनके लिए कोई भी परिस्थिति कष्टजनक नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण सदा उनके हृदय में विराजमान रहते हैं। तथाकथित सुख-दुःख उनके पूर्वकर्मफल नहीं, अपितु कृष्ण की अद्भुत व्यवस्था द्वारा प्राप्त होते हैं। प्रत्यक्ष रूप से देखा जाए तो पाण्डवों का जीवन विपत्तिपूर्ण था, किंतु यह वास्तविक तथ्य नहीं है क्योंकि श्रीकृष्ण सदैव उनके समक्ष उपस्थित थे। तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि वे विपत्ति में थे?
शुद्ध भक्तों के पूर्वकर्मफल नहीं होते, फिर भी हम उन्हें विविध आपत्तियों का सामना करते हुए देखते हैं। वस्तुतः यह परिस्थितियाँ भक्तों का शुद्ध भक्ति के प्रति उत्साह व आनंद बढ़ाने के लिए श्रीकृष्ण की उत्तम व्यवस्था से आती हैं। तो हम यह कैसे जान सकते हैं कि वह उनके पूवकर्मफल हैं अथवा श्रीकृष्ण की व्यवस्था? विपत्तियों का सामना करते समय, यदि शुद्ध भक्त का विरहपूर्ण भजन और प्रार्थना तीव्र-अतितीव्र हो जाती है और साथ ही उन्हें सदैव आशापूर्ण अनुभव होता है, तो इसका अर्थ है कि वह विपत्तियाँ श्रीकृष्ण की व्यवस्था है। वैकल्पिक रूप से, यदि उनका भजन व प्रार्थना बाधित होती है, श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग के प्रति श्रद्धा क्षीण हो जाती है और अंतःहृदय में निराशा बढ़ती जाती है तो इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि वह विपरीत परिस्थितियाँ पूर्वकर्मफल के अधीन हैं।
इसी कारणवश, शुद्ध भक्त सुख-दुःख के प्रति अपने विचारों और योजनाओं को त्याग देते हैं और श्रीकृष्ण की इच्छा पर निर्भर रहते हैं। वह इस श्लोक में वर्णित सिद्धांत से सदैव संतुष्ट रहते हैं: यद्भाव्यम् तद्भवतु भगवन् पूर्वकर्मानुरूपम् [श्रीचैतन्य चरितामृत, आदि लीला ४.३३], “श्रीगुरु एवं श्रीगौरांग ही मेरे रक्षक हैं।” यदि हम इस बिंदु को भूल जाते हैं और स्वयं अपना रक्षक बनना चाहते हैं तो यह हमारे जीवन को नीतिशास्त्री विचारों की ओर निर्देशित करता है। जब श्रीकृष्ण अपने भक्तों की सर्वदा रक्षा करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं, तो फिर हम अपनी सुरक्षा के विषय में क्यों सोचेंगे? सामान्यतया, सुख के समय हम उल्लासपूर्वक भगवान का महिमागान करते हैं किंतु ज्योंहि प्रतिकूलताएँ आती हैं हम श्रीकृष्ण पर दोषारोपण करने लगते हैं, कि वे हमारी सहायता नहीं कर रहे हैं, जबकि हम कभी भी अपने कर्मों के लिए स्वयं को दोषी नहीं ठहराते। ऐसी मानसिकता ‘नीतिशास्त्री मानसिकता’ कहलाती है।
एक शुद्ध भक्त इस तथ्य से भलीभाँति परिचित होता है कि श्रीकृष्ण की सेवा में नियुक्त न होना और सदा सांसारिक सुख तथा क्लेश के विचारों में मग्न रहना ही दुःख का एकमात्र कारण है। यदि हम श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में पूर्णतया शरणागत हो जाते हैं और उन्हें अपने एकमात्र रक्षक के रूप में स्वीकार करते हैं तो यह हमारे लिए सर्वाधिक सुरक्षित स्थिति है, परंतु यदि हम स्वयं को सुरक्षा प्रदान करने की चेष्ठा करते हैं, तो यही वास्तविक आपदा और हमारे दुख का परम कारण बन जाता है।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि, श्रीकृष्ण सर्वथा समस्त संकटों एवं विपत्तियों से हमारी रक्षा करेंगे और उनका चक्र हमें अवश्य ही त्रिताप से सुरक्षा प्रदान करेगा। अतः हमारा एकमात्र कर्तव्य स्वयं को उनकी प्रेमपूर्ण सेवा में संलग्न करना है।
दासानुदास,
हलधर स्वामी
Add New Comment