विशुद्ध स्वर्ण – गुरु तत्त्व

 

श्रीकृष्ण अपने दिव्य नाम के कीर्तन द्वारा श्री-गौंराग महाप्रभु के रूप में उस भगवद्-प्रेम का वितरण करते हैं, जो स्वयं उनके दिव्य-नाम में अवतीर्ण है। यह  प्रेम  कर्म-निष्ठा, तपस्या, ध्यान-योग, अष्टांग-योग, वैराग्य और कर्म-त्याग द्वारा भी अप्राप्य है। अपितु यह एक अत्यंत गुह्य-तत्त्व है जो श्रीमान्-चैतन्य-गौरचन्द्र के अवतरण से पूर्व प्रकाशित नहीं हुआ था। अत: मैं श्री शचिनंदन गौरांग महाप्रभु को अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ जिन्होंने भगवन्नाम के कीर्तन द्वारा समस्त जीवों को कृष्ण-प्रेम में उन्मत्त कर दिया।

 

चैतन्य चंद्राय नमो नमस्ते।

चैतन्य चंद्राय नमो नमस्ते।।

 

चैतन्यचरित्र एइ – ‘अमृतेर सिंधु’।

जगतानंदे भासाय जार एकबिंदु।।

[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 18.228]

 

यह चैतन्य-चरित्र (महाप्रभु की दिव्य लीलाएँ) अमृत सदृश हैं। इस अमृत-सिंधु की केवल एक बूँद संपूर्ण जगत को दिव्य-प्रेम में अप्लावित कर सकती है। श्री-चैतन्य-चरितामृत को संकलित करने से पूर्व श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी सर्वप्रथम इस श्लोक की रचना करते हैं:

 

वंदे गुरूनीश – भक्तानीशमीशावतारकान् ।

तत्प्रकाशांश्च तच्छक्ति: कृष्ण-चैतन्य-संज्ञकम् ॥

[चैतन्य चरितामृत, आदि-लीला 1.1]

 

“मैं समस्त गुरुओं, भगवद्भक्तों, भगवान के अवतारों, उनके पूर्ण अंशों, उनकी शक्तियों तथा स्वयं आदि भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य को सादर नमस्कार करता हूँ।”

तत्पश्चात वे मंगलाचरण में कुल चौदह श्लोकों की रचना करते हैं जिसके उपरांत उन्होंने एक-एक करके उन सभी श्लोकों की विस्तृत व्याख्या की। उन श्लोकों का सर्वप्रथम विषय है गुरु-तत्त्व, वंदे-गुरु।

 

आध्यात्मिक गुरु कृष्ण से अभिन्न हैं

 

सावरणे प्रभुरे करिया नमस्कार ।

एइ छय तेंहो यैछे – करिये विचार ॥

[चैतन्य चरितामृत, आदि लीला 1.43]

 

“भगवान (चैतन्य महाप्रभु) तथा उनके समस्त पार्षदों को नमस्कार करने के बाद अब मैं उन छह विविधताओं की एकता की व्याख्या करने का प्रयत्न करूँगा।”

 

यद्यपि आमार गुरु – चैतन्येर दास ।

तथापि जानिये आमि ताँहार प्रकाश ॥

[चैतन्य चरितामृत, आदि लीला 1.44]

“यद्यपि मुझे ज्ञात है कि मेरे गुरु श्री-चैतन्य-महाप्रभु के नित्य-दास हैं, तथापि मैं उन्हें भगवान के स्वयं प्रकाश के रूप में जानता हूँ।”

 

गुरु कृष्ण-रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे ।

गुरु-रूपे कृष्ण कृपा करेन भक्त-गणे ॥

[चैतन्य चरितामृत, आदि लीला 1.45]

“समस्त प्रामाणिक शास्त्रों के सुविचारित मत के अनुसार श्री-गुरु श्री-कृष्ण से अभिन्न हैं और गुरु रूप में ही भगवान कृष्ण अपने भक्तों का उद्धार करते हैं।”

इस श्लोक के तात्पर्य में श्रील प्रभुपाद वर्णन करते हैं – “एक शिष्य का अपने गुरु से ठीक वैसा ही सम्बंध होता है, जैसाकि उसका भगवान के साथ सम्बंध होता है। एक गुरु स्वयं को सदैव भगवान के सबसे विनीत दास कहकर प्रस्तुत करते हैं, किंतु शिष्य को चाहिए कि वह उन्हें श्री-भगवान के व्यक्त-प्रतिनिधि के रूप में देखे।”

 

आचार्य स्वयं मेरा ही स्वरूप है

श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी श्रीमद्-भागवतम के ग्यारहवें स्कंध से शास्त्र-प्रमाण उद्धृत करते हैं कि:

 

आचार्यं मां विजानीयान्नवमन्येत कर्हिचित् ।

न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमया गुरु: ॥

[श्रीमद्-भागवतम 11.17.27]

“मनुष्य को चाहिए कि वह आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उनका अनादर नहीं करे। उन्हें सामान्य पुरुष समझते हुए उनसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखे क्योंकि वे समस्त देवताओं के प्रतिनिधि हैं।”

यह दस शास्त्र- प्रमाणों में से एक है। मेरे परम आराध्यतम गुरुदेव, श्रील प्रभुपाद इस श्लोक के तात्पर्य में कहते हैं कि: “यह श्लोक श्रीमद्भागवत से (11.17.27) लिया गया है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से सामाजिक तथा आध्यात्मिक वर्णाश्रम प्रणाली के विषय में प्रश्न करते हैं। वे यह विशेष शिक्षा प्रदान कर रहे थे कि एक ब्रह्मचारी को गुरु के संरक्षण में किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए। गुरु अपने शिष्यों द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के भोक्ता नहीं हैं। वे माता-पिता के समान होते हैं। जिस प्रकार एक बालक अपने माता-पिता की विनीत सहायता के बिना मनुष्य नहीं बन सकता, उसी प्रकार श्री-गुरु के अभिरक्षण से रहित कोई भी शिष्य सेवा-पद को प्राप्त नहीं कर सकता।

“आध्यात्मिक-गुरु को आचार्य भी कहा जाता है। मनुसंहिता (2.140) में आचार्य के कर्तव्यों का वर्णन है  जिसमें उल्लेख किया गया है कि गुरु अपने शिष्यों का दायित्व स्वयं स्वीकार करते हैं तथा उन्हें वैदिक ज्ञान की गूढ़ शिक्षा प्रदान करते हैं और उन्हें द्विज बनाते हैं। आध्यात्मिक विज्ञान के अध्ययन हेतु एक शिष्य को दीक्षित करने की प्रक्रिया उपनीति कहलाती है अर्थात् वह समारोह जो शिष्य को गुरु के समीप लाता है। ऐसा व्यक्ति जिसे गुरु के आश्रित में नहीं लाया जा सकता, तो वह जनेऊ ग्रहण नहीं कर सकता है तथा वह शूद्र कहलाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य द्वारा धारण किया जाने वाला जनेऊ गुरु-दीक्षा का प्रतीक है। यदि इससे कुलीनता की शेखी बघारना हो तो इसे धारण करना व्यर्थ है। एक गुरु का यह कर्तव्य है कि वे अपने शिष्य का जनेऊ-संस्कार करते हैं और इस संस्कार के पश्चात गुरु अपने शिष्य को वेदों के ज्ञान से अवगत कराते हैं। यद्यपि एक व्यक्ति जन्म से शूद्र है, किंतु उसे  (आध्यात्मिक)-दीक्षा से रोका नहीं जा सकता, बशर्ते कि उसे गुरु की अनुमति प्राप्त हुई हो, क्योंकि एक आध्यात्मिक गुरु ही अपने शिष्य को ब्राह्मण बनाने का उचित अधिकार रखते हैं, यदि वे उसे पूर्णतया योग्य समझते हैं। वायु पुराण आचार्य की परिभाषा का यह व्याख्यान देता है कि, आचार्य वे हैं जो सम्पूर्ण वैदिक साहित्य के सार से अवगत होते हुए उनके नियमों का दृढ़ता सहित आभरण करते हैं तथा अपने शिष्यों को भी सदृश मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं।

परम पुरुषोत्तम भगवान केवल अपनी असीम कृपा द्वारा ही स्वयं श्री-गुरु के रूप में प्रकट होते हैं ।”

 

नायमात्मा प्रवचनेनलभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।

यम एवैष वृणुतेतेन लभ्यस तस्यैषात्मा विवृणुते तनुंस्वाम् ॥

[कठ उपनिषद 1.2.23]

 

यह एक अन्य शास्त्र प्रमाण है। उपनिषद वेदों का सर्वोत्तम भाग हैं। यह प्रसंग कठ उपनिषद में प्राप्त होता है : नायमात्मा प्रवचनेनलभ्यो;  अनेकानेक पण्डितों, विद्वानों, ज्ञानियों तथा योगियों के प्रवचन का श्रवण करने के पश्चात भी आप परमात्मा-तत्त्व नहीं समझ सकते हैं। न मेधया, न ही आप इस तत्त्व को अपने भौतिक ज्ञान या विद्वत्ता के बल पर समझ सकते हैं। यम अवैष वृणुते तेन लभ्यस तस्यैषात्मा विवृणुते तनुंस्वाम,  परंतु जब श्री-भगवान, जो स्वयं आपके हृदय में परमात्मा रूप में स्थित हैं अर्थात चैत्य-गुरु, जब आपके समक्ष शरीर धारण करके प्रकट होते हैं और आपको स्वयं इस विषय का बोध कराते हैं, केवल तभी आप उनकी कृपा से परमात्मा-तत्त्व से अवगत हो सकते हैं।

 

वे किसके समक्ष प्रकट होते हैं?

एक अन्य प्रश्न  उठता है कि वे किसके समक्ष अवतरित होते हैं? वे उस जीव के समक्ष प्रकट होते हैं जो इस परमात्मा-तत्त्व को समझने के लिए अत्यधिक व्याकुल होता है। भगवद्-गीता में कृष्ण कहते हैं:

 

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोSर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

[भगवद्-गीता 7.16]

 

“हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।”

जो जीव परमात्मा-तत्त्व जानने के लिए अत्यंत आतुर है, वह जिज्ञासु कहलाता है। जब आप अपने हृदय में ऐसा लोभ एवं आतुरता विकसित करेंगे, तब कृष्ण, जो आपके हृदय में परमात्मा अर्थात चैत्य-गुरु के रूप में स्थित हैं, वे समझ जाएँगे कि, “यह जीव मुझे जानने के लिए अब अत्यधिक आतुर हो गया है, किंतु मेरी सहायता के बिना यह मुझे समझ नहीं सकता।” वास्तव में कृष्ण की सहायता के बिना आप उन्हें कदापि नहीं समझ सकते। उदाहरणत: सूर्य की किरणों के बिना आप सूर्य को नहीं देख सकते। जब रात्रि में सूर्य-अस्त हो जाता है, तब क्या कोई आपको सूर्य दिखा सकता है? हम समस्त वैज्ञानिकों को यह चुनौती देते हैं कि वे आयें और अपने सर्वाधिक आधुनिक यंत्र द्वारा रात्रि में सूर्य का दर्शन करवाएँ। क्या उनके लिए ऐसा करना संभव है? नहीं, क्योंकि सूर्य-किरणों की सहायता के बिना आप सूर्य को नहीं देख सकते। उसी प्रकार कृष्ण की सहायता के बिना आप न ही उन्हें समझ सकते हैं और न ही उनका दर्शन कर सकते हैं।

जिज्ञासु व्यक्ति सदैव जिज्ञासा करता है कि: गौरांग महाप्रभु कौन हैं? परम भगवान कौन हैं? मैं उन्हें कैसे समझ सकता हूँ? मैं उनके निकट कैसे जा सकता हूँ और उन्हें कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? वे परमात्मा जो उसके हृदय में स्थित हैं और उसके हृदय की लालसा से परिचित हैं कि: “ओह! अब यह जीव मुझे जानने के लिए अत्यधिक उत्कण्ठित हो चुका है।” तब वे उसके समक्ष गुरु-रूप में प्रकट होते हैं, जैसा कि कठ उपनिषद में उल्लेख किया गया है। क्योंकि वह जीव कृष्ण को समझने के लिए योग्य बन  चुका है, इसलिए कृष्ण ही उसके समक्ष गुरु-रूप में प्रकट होते हैं।

जैसा कि इस अध्याय के आरंभ में बताया गया था कि: गुरु कृष्ण-रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे – अर्थात “समस्त प्रामाणिक शास्त्रों के सुविचारित मत के अनुसार गुरु कृष्ण से अभिन्न हैं।” यह शास्त्र-प्रमाण है।

 

बद्ध जीव कृष्ण से विस्मृत हो गया है

श्रीमद् भगवद्-गीता में कृष्ण कहते हैं, सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति, “सभी जीवों का मैं एकमात्र शुभचिंतक हूँ।” कृष्ण के अतिरिक्त हमारा और कोई अन्य बंधु नहीं है। बद्ध-जीव अनंत काल से कृष्ण को भूल चुका है और इसका आदि निश्चित करना असंभव है।

 

कृष्ण भुलि’ सेइ जीव अनादि-बहिर्मुख

अतएव माया तारे देय संसार-दु:ख

[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 20.117]

 

“जीव अनंत काल से कृष्ण को भूलकर बाह्य रूप द्वारा आकृष्ट होता रहा है, अत: माया उसे इस भौतिक संसार में सभी प्रकार के दु:ख देती रहती है।”

अनादि अर्थात् अनंत काल पूर्व, जिसका आदि निश्चित करना संभव नहीं है। एक बद्ध-जीव पूर्ण रूप से कृष्ण को भूल गया है और माया के जाल में कैद होने के कारण इस संसार में अनेक दु:ख भोग रहा है। तो वह किस प्रकार से कृष्ण को समझ सकता है? उसे क्षणभर भी कृष्ण का स्मरण नहीं  है। परंतु कृष्ण कहते हैं सुहृदं सर्वभूतानां , “सभी जीवों का मैं एकमात्र शुभचिंतक मित्र हूँ” अर्थात् वे आपको भूले नहीं हैं। वे सदैव आपका स्मरण व आपके विषय में चिंतन करते हैं। वे अत्यंत दयालु हैं; अर्थात सुहृद । अत: आपकी स्मृति को पुनःप्रचलित करने हेतु वे क्या करते हैं?

 

एक बद्ध-जीव अपनी स्मृति पुन: कैसे प्राप्त कर सकता है?

चैतन्य चरितामृत में आपको यह श्लोक प्राप्त होगा:

 

‘शास्त्र-गुरु-आत्मा’- रूपे आपनारे जानान

‘कृष्ण मोरे प्रभु, त्राता’– जीवेर हय ज्ञान

[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 20.123]

 

“कृष्ण आत्मविस्मृत बद्धजीव को वैदिक ग्रंथों, स्वरूपसिद्ध गुरु तथा परमात्मा के माध्यम से शिक्षा देते हैं। जीव इनके द्वारा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को उनके यथार्थ रूप में समझ सकता है और यह समझ सकता है कि भगवान कृष्ण उसके सनातन स्वामी तथा माया के पाश से उद्धार करने वाले हैं। इस तरह वह अपने बद्ध जीवन का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति प्राप्त करने का उपाय जान सकता है।”

एक बद्धजीव इस ज्ञान से पुन: अवगत कैसे हो सकता है? सर्वप्रथम वह इसे शास्त्रों के माध्यम से प्राप्त करता है। भगवद्-गीता (16.24) में वर्णित है:

 

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।

ज्ञात्वा शास्त्र्विधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसु ॥

 

“अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है। उसे ऐसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमश: ऊपर उठ सके।”

बद्धजीव को शास्त्र-प्रमाण स्वीकार करने चाहिए। प्रमाणेर मध्ये श्रुति प्रमाण – प्रधान , अर्थात् यद्यपि अन्य प्रमाण उपस्थित हैं, किंतु शास्त्रों में प्रदत्त श्रुति प्रमाण सर्वश्रेष्ठ है।

 

माया मुग्ध जीवेर नाहि स्वत: कृष्णज्ञान ।

जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥

[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 20.122]

 

“बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किंतु भगवान कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सृजन किया।”

माया द्वारा मुग्ध जीव पूर्णतया कृष्ण से विस्मृत हो चुका है, नाहि स्वत: कृष्णज्ञान । अत: सर्वप्रथम वह शास्त्रों द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। जीवेर कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण, भगवान श्री-कृष्ण ने अपनी अहैतुकी कृपावश इन वेद-पुराणों का सृजन किया है और इनके माध्यम से वे हमें उपदेश प्रदान करते हैं। इसलिए कहा गया है कि: “शास्त्र-गुरु-आत्मा-रूपे आपनारे जानान ‘कृष्ण मोर प्रभु, त्राता’ – जीवेर हय ज्ञान ”।

 

कृष्ण को तत्त्व से समझना चाहिए

शास्त्रों में वर्णित किया गया है कि कृष्ण को तत्त्व से समझना चाहिए, जिसका उल्लेख कृष्ण ने गीता में भी किया है:

 

जन्म कर्म च मे दिव्यम एवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुन ।।

 

कृष्ण कहते हैं: “मेरा जन्म तथा कर्म, दोनों दिव्य हैं। जो इसे तत्त्व के आधार पर समझ लेता है, इस शरीर का त्याग करने के पश्चात वह मुझे प्राप्त करता है और पुन: इस जगत में कभी जन्म नहीं लेता।” अतः कृष्ण को तत्त्व द्वारा समझना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। भगवान श्री-कृष्ण ने वेद-पुराणों के माध्यम से जो भी उपदेश दिए हैं, उन्हें तत्त्व द्वारा समझना चाहिए, किंतु एक बद्धजीव ऐसा करने में असमर्थ है। इसलिए गुरु की (परम) आवश्यकता है।

 

एक प्रामाणिक गुरु का आश्रय ग्रहण करें

 

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानंज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ।।

[भगवद्-गीता 4.34]

 

“गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। विनीत होकर उनसे जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने परम सत्य का दर्शन किया है।”

जिन्होंने परम सत्य का दर्शन किया है उन तत्त्व-दर्शी गुरु की शरण ग्रहण कीजिए। परम तत्त्व, परम सत्य, अद्वय तत्त्व कौन हैं? व्रजे व्रजेंद्रनंदन, नंद महाराज के पुत्र, नंदनंदन कृष्ण ही अद्वय-ज्ञान-तत्त्व हैं। जिसने उनका दर्शन किया है – तत्त्व-दृष्टा और जो इस अद्वय तत्त्व से पूर्णत: परिचित है – तत्त्व-ज्ञाता, वही गुरु हैं।

 

विधि क्या है?

 

तद्विज्ञानार्थं स गुरुम एवाभिगच्छेत ।

समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम ॥

[मुण्डक उपनिषद 1.2.12]

 

“इस दिव्य विज्ञान को समझने के लिए व्यक्ति को हाथ में लकड़ी लेकर विनम्रतापूर्वक एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु का आश्रय स्वीकार करना चाहिए जो वेदों में पारंगत हैं और परम सत्य के प्रति पूर्णतया समर्पित हैं।”

इसके लिए अनेक शास्त्र-प्रमाण (उपलब्ध) हैं। मुण्डक उपनिषद में वर्णन है कि परमात्मा तत्त्व को समझने के लिए व्यक्ति को एक प्रामाणिक गुरु का आश्रय लेना चाहिए। प्रामाणिक गुरु कौन हैं? –एक प्रमाणिक गुरु श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं  होते हैं

यहाँ एक अन्य विषय का भी वर्णन किया गया है: तद्विज्ञानार्थं स गुरुम एवाभिगच्छेत समित्पाणि:, अर्थात् एक शिष्य को गुरु के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए, उसके पास गुरु को भेंट करने हेतु कोई वस्तु (समित्) होनी चाहिए। उसके गुरु श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं  हैं, अर्थात् जिन्होंने अपने गुरु से इस तत्त्व का श्रवण किया है। अपने गुरु के चरणकमलों की सेवा करके तथा उनसे श्रद्धापूर्वक श्रवण करके उन्होंने यह तत्त्व-ज्ञान प्राप्त किया है। यह श्रोत-परम्परा है जिसमें ज्ञान श्रवण-विधि द्वारा प्रदान किया जाता है। एक प्रामाणिक गुरु वह हैं जो ब्रह्मनिष्ठ हैं, अर्थात् परमब्रह्म के प्रति निष्ठावान हैं। व्यक्ति को ऐसे ही गुरु का आश्रय स्वीकार करना चाहिए।

 

भक्ति के लिए कौन योग्य है?

श्रद्धावान-जन, जिस व्यक्ति की साधु-गुरु-शास्त्र एवं कृष्ण के वाक्यों में अटूट श्रद्धा जाग्रत हो गई है, वह इस भक्ति-पथ का अनुगमन करने के लिए योग्य है। शुश्रूषो: श्रद्धाधानस्य – जो इस तत्त्व को समझने के लिए अत्यंत आतुर है, वासुदेवकथारुचि:, जिस व्यक्ति की वासुदेव कथा में रुचि और साधु-गुरु-शास्त्र एवं कृष्ण के वाक्यों में अटूट विश्वास है, वह भक्ति करने के लिए योग्य है। यह एक अन्य योग्यता (कहलाई जाती) है, इसलिए कहा जाता है: श्रद्धावान जन हय भक्ति-अधिकारी । यह सभी शास्त्र-प्रमाण हैं।

 

शरणागत होना जीव का वास्तविक धर्म है

 

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानंज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन: ॥

[भगवद्-गीता 4.34]

 

“गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। विनीत होकर उनसे जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने परम सत्य का दर्शन किया है।”

अत: हमें तीन विधियों का पालन करना चाहिए: प्रणिपातेन – एक तत्त्वदर्शी गुरु की शरण में जाइए, परिप्रश्नेन – विनम्रतापूर्वक उनके जिज्ञासा कीजिए तथा सेवया – उनको सेवा अर्पित कीजिए। कृष्ण ने भगवद्-गीता में अर्जुन के माध्यम से मानवता के लिए अपना सबसे गुह्यतम उपदेश प्रदान किया है: सर्वधर्मान् परित्यज्य माम एकं शरणं व्रज – समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण ग्रहण करो। यही शरणागति है। जीव का मूल-भूत धर्म कृष्ण के चरणकमलों में समर्पित होना है। इसके लिए आपको सर्वप्रथम एक तत्त्वदर्शी गुरु के पास जाकर उनके चरणकमलों का आश्रय स्वीकार करना चाहिए और तदुपरांत उनके चरणकमलों में स्वयं को पूर्णतया समर्पित करना चाहिए। यह प्रणिपात (अर्थात शरणागति) कहलाता है।

 

‘कृष्ण’ - जिन्हें आप देख ही नहीं सकते, उन्हें आप शरणागत कैसे होंगे?

आपको कृष्ण के प्रति आत्मसमर्पण करना होगा, किंतु आप उनका दर्शन करने में असमर्थ हैं। एक बद्धजीव का कृष्ण को जानने और उनसे आदान-प्रदान करने का कोई अधिकार नहीं है। आप उन्हें पूर्ण रूप से भूल गए हैं और आपके मन में उनकी तनिक भी स्मृति नहीं है, तो फिर आप उन्हें शरणागत कैसे हो सकते हैं? आप उनका दर्शन किस प्रकार कर सकते हैं? इसलिए शास्त्रों के मतानुसार आपकी सहायता करने के लिए स्वयं कृष्ण यहाँ प्रकट होते हैं:

 

गुरु कृष्णरूप हन शास्त्रेर प्रमाणे । 

गुरुरूपे कृष्ण कृपा करेन भक्तगणे ॥

[चैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 1.45]

 

“समस्त प्रामाणिक शास्त्रों के सुविचारित मत के अनुसार गुरु कृष्ण से अभिन्न हैं और गुरु रूप में ही भगवान कृष्ण भक्तों का उद्धार करते हैं।”

आप गुरु के दर्शन कर सकते हैं। अतएव जाइए और उनके चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करके पूर्ण एवं अटूट श्रद्धा सहित स्वयं का आत्मसमर्पण करें। यही प्रणिपात कहलाता है। आपके मन में गुरु संबंधी रंचमात्र संदेह भी शेष नहीं रहना चाहिए। कृष्ण, जो सर्वश्रेष्ठ प्राधिकारी हैं, यह कथन देते हैं कि:

 

आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत  कर्हिचित ।

न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरु ॥

[श्रीमद्-भागवतम 11.17.27]

 

“मनुष्य को चाहिए कि आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उनका अनादर नहीं करे। उन्हें सामान्य पुरुष समझते हुए उनसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखे क्योंकि वे समस्त देवताओं के प्रतिनिधि हैं।”

आचार्य मेरा ही स्वरूप है, आचार्यं मां विजानीयान् । अत: जिस प्रकार एक व्यक्ति को कृष्ण के प्रति आत्मसमर्पण करना चाहिए, उसी प्रकार एक बद्धजीव, जो न ही कृष्ण का दर्शन कर सकता है और न ही उन्हें समझ सकता है, उसे तत्त्वदर्शी गुरु, जो स्वंय कृष्ण से अभिन्न हैं, उनका आश्रय ग्रहण करके उनके चरणों में समर्पित होना चाहिए। तत्पश्चात परिप्रश्न तथा सेवा की विधि का अनुसरण कीजिए। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवयागुरु पादाश्रय: - अर्थात गुरु का आश्रय ग्रहण करें; सर्वप्रथम प्रणिपातेन, तत्पश्चात परिप्रश्न और अंतत: प्रेमपूर्वक सेवा अर्पित करें। हमें गुरु को सेवा अर्पित करके उन्हें प्रसन्न करना चाहिए और तत्पश्चात उनसे विनम्रतापूर्वक तत्त्व-संबंधी जिज्ञासा करनी चाहिए। यह परिप्रश्न कहलाता है। केवल एक समर्पित शिष्य को ही परिप्रश्न करने का अधिकार है। जो जीव समर्पित नहीं हैं, उनकी जिज्ञासा को परिप्रश्न नहीं कहा जा सकता। यदि उन्हें साधु-शास्त्र-गुरु के वाक्यों में कोई श्रद्धा ही नहीं है, तो वे किस प्रकार गुरु से आध्यात्मिक विषय की जिज्ञासा कर सकते हैं। इसलिए परिप्रश्नेन सेवया । यही प्रामाणिक विधि है। तदुपरांत गुरु अपने शिष्य की सेवा से प्रसन्न होकर, अपनी कृपा द्वारा उसे तत्त्व-ज्ञान प्रदान करते हैं। केवल उनकी कृपा से ही आप उस तत्त्व-ज्ञान को समझ सकते हैं। इसलिए शास्त्रों के मत के अनुसार गुरु का होना अनिवार्य है।

 (आध्यात्मिक) ज्ञान मुख्य-रूप से शास्त्र द्वारा ही अवतरित होता है। तत्पश्चात उस ज्ञान को तत्त्व के आधार पर समझा जाना चाहिए। इसलिए जीव को तत्त्वदर्शी गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए तथा उनको सेवा अर्पित करके, उन्हें प्रसन्न करना चाहिए और तत्पश्चात उनसे (आध्यात्मिक विषय की) जिज्ञासा करनी चाहिए। तदुपरांत वे गुरु, जो स्वयं परमात्मा के विस्तार हैं, उस जीव को तत्त्व-ज्ञान प्रदान करेंगे। केवल तभी वह जीव यह समझ सकता है कि , ‘कृष्ण मोर प्रभु, त्राता’ – कृष्ण (ही) मेरे नित्य स्वामी एवं उद्धारकर्ता हैं। अन्यथा एक बद्धजीव के लिए इस तथ्य को समझना असंभव है।

 

गुरु को समर्पित हुए बिना आप कृष्ण दास नहीं बन सकते

 यदि कोई अपने गुरु का दास नहीं है, जो साक्षात कृष्ण अथवा परमात्मा के विस्तार हैं एवं भगवान के प्रमाणिक प्रतिनिधि हैं, क्या वह जीव कृष्ण-दास बन सकता है? सभी आचार्यों का इस विषय पर एक ही मत है: गुरु को समर्पित हुए बिना आप कृष्णदास नहीं बन सकते। जिस व्यक्ति ने गुरु के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण नहीं किया है, वह गुरु-दास, या दूसरे शब्दों में वैष्णव नहीं कहलाया जा सकता है। वैष्णव अर्थात् कृष्ण का दास।यदि कोई व्यक्ति गुरु द्वारा अनुशासित न हुआ हो, तो उसे एक शिष्य से संबोधित नहीं किया जा सकता है । यदि वह अहंकार-विमूढ़ात्मा  है, अर्थात जो अपने मिथ्या अहंकार द्वारा विमोहित है, तो वह शिष्य कैसे कहला सकता है? अपने अहंकार के कारण वह कभी समर्पित नहीं हो पाता, अहंकार-विमूढ़ात्मा कर्ताहम इति मन्यते  [भगवद्-गीता 3.27]। वह कृष्ण को संतुष्ट करने के अतिरिक्त स्वयं भोक्ता बनना चाहता है और स्वतः ही सभी वस्तुओं का भोक्ता व स्वामी मानता है। अत: शरणागत हुए बिना वह एक वैष्णव, सेवक या शिष्य कैसे बन सकता है? आपको इसका स्मरण रखना होगा कि जीव कभी भी भोक्ता नहीं बन सकता क्योंकि उसकी वास्तविक स्थिति परम भगवान एवं एकमात्र भोक्ता, श्रीकृष्ण को आनंद प्रदान करना है।

 

आचार्य की परिभाषा

मेरे गुरु महाराज वायु पुराण से आचार्य की परिभाषा का उल्लेखन करते हैं:

 

अचिनोति य: शास्त्रार्थम आचारे स्थापयत्य अपि ।

स्वयम आचरते यस्मादाचार्यस तेन कीर्तत: ॥

 

“आचार्य वे हैं जो सम्पूर्ण वैदिक साहित्य के सार से अवगत होते हुए उनके नियमों का दृढ़ता सहित आभरण करते हैं तथा अपने शिष्यों को भी सदृश मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं।”

यह एक शास्त्र-प्रमाण है। आचार्य वे हैं जो समस्त वैदिक साहित्यों के निष्कर्ष में पारंगत हैं। वे शास्त्र-तत्त्व में निपुण हैं, इसलिए वे तत्त्वदर्शी एवं तत्त्वज्ञाता हैं। वे वेदों के सार को सिखाने के साथ-साथ अपने निजी जीवन में सभी विधि-विधानों का दृढ़तापूर्वक पालन भी करते हैं। वे केवल सैद्धांतिक शिक्षा प्रदान नहीं करते, अपितु व्यक्तिगत रूप से उस शिक्षा का अपने जीवन में आभरण भी करते हैं क्योंकि जब तक वे स्वयं उन सिद्धांतों का पालन नहीं करेंगे तब तक उनके द्वारा प्रदत्त सैद्धांतिक शिक्षा प्रभावशाली नहीं होगी। इसलिए उपरोक्त वर्णित श्लोक में कहा गया है स्वयम आचारे स्थापतत्य : स्वयम – वे स्वयं उन सिद्धांतों का नियमित रूप से पालन करते हैं तथा आचारे स्थापयत्य – साथ ही वे अपने शिष्यों को भी उन सिद्धांतों के आधार पर जीवन-यापन करने की शिक्षा प्रदान करते हैं। हम गुर्वाष्टकम् में भी गान करते हैं कि, युक्तस्य भक्तांश च नियुंजतोSपि वंदे गुरो: श्रीचरणार्विंदम । जब एक शिष्य गुरु के चरणों का आश्रय स्वीकार करता है, तो गुरु क्या करते हैं? वे स्वयं कृष्ण की सेवा में नियुक्त हैं और शिष्य को भी कृष्ण की सेवा में संलग्न करते हैं। वे स्वयं शरणागत आत्मा हैं और अपने व्यक्तिगत उदाहरण एवं आचरण द्वारा शिष्य को भी समर्पित होने की शिक्षा प्रदान करते हैं। अतएव जो ऐसा करते हैं, वही आचार्य है।

 

तथाकथित गुरु समाज में उपद्रव फैलाते हैं

वैदिक-शास्त्र एक अन्य उद्धरण करते हैं; आचार्यं भक्तिशंसनात – जो व्यक्ति स्वयं अपने जीवन में भक्ति का आचरण करते हुए दूसरों को सदृश शिक्षा प्रदान करता है, वही आचार्य है। अगर कोई तथाकथित, अप्रामाणिक गुरु, भक्ति एवं शरणागति की विधि केवल सैद्धांतिक रूप से सिखाता है और अपने जीवन में उन सिद्धांतों का पालन नहीं करता है, तो इसका क्या परिणाम होगा? ब्रह्मवैवर्त पुराण कहता है: अपरीक्ष्योपदिष्टं यत्लोकनाशय तद्भवेत, अर्थात इससे भक्त-समाज अव्यवस्थित हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति सभी जीवों के नाश का कारण होगा। इसके अनेक शास्त्र प्रमाण हैं।

 

श्रुतिस्मृतिपुराणादि पँचरात्रविधिं विना ।

ऐकांतिकी हरेर भक्तिर उत्पातायैव कल्पते ॥ 

[भक्ति-रसामृत सिंधु 1.2.101]

 

“ऐसी भक्तिमय सेवा जो उपनिषद, पुराण तथा नारद पंचरात्र जैसे प्रामाणिक वैदिक शास्त्रों की उपेक्षा करती है, समाज में केवल अनावश्यक अशांति का कारण होती है।”

यह एक अन्य शास्त्र प्रमाण है। अगर कोई व्यक्ति केवल सैद्धांतिक रूप से शिक्षा प्रदान करता है किंतु स्वयं के जीवन में उन सिद्धांतों का पालन नहीं करता है, तो वह ढोंगी है।

 

साक्षात हरि- गुरु श्री-हरि के समान हैं

जैसा कि पूर्व-निर्देशित किया गया था, कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान केवल अपनी अतिशय करुणा के कारण ही स्वयं को गुरु रूप में प्रकट करते हैं। किंतु वे इस रूप में किसके समक्ष प्रकट होते हैं? –जो अत्यधिक आतुर है और अपने हृदय में निरंतर क्रंदन करता है। यही एकमात्र योग्यता है। अतएव भगवान के प्रति प्रेममयी सेवा से अतिरिक्त, एक आचार्य के आचरण में अन्य कोई कार्यकलाप नहीं होते हैं। वे भगवान के सेवक हैं और उनकी प्रेममयी सेवा में सदैव सलंग्न रहते हैं। इसलिए वे सेवक-भगवान कहलाते हैं।

 

साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रैर उक्तस तथा भाव्यत एव सद्भि: ।

किंतो प्रभोर य: प्रिय एव तस्य वन्दे गुरो: श्रीचरणारविंद ॥

[गुरुवाष्टक 7]

 

हम प्रतिदिन गुरुवाष्टकम् में क्या गान करते हैं? साक्षाद-हरि! गुरु हरि के समान हैं! श्रील कविराज गोस्वामी ने भी यही पुष्टि करते हैं: गुरु कृष्णरूप हन शास्त्रेर प्रमाणे – वे यह तथ्य देते हैं कि गुरु कृष्ण के समान हैं। यह कोई मनगढ़ंत अवधारणा नहीं है अपितु एक शास्त्र-प्रमाण है। सभी शास्त्रों का यही सुविचारित मत है कि गुरु साक्षात हरि हैं। किंतो प्रभोर य: प्रिय एव तस्य – वे परम भगवान को अत्यंत प्रिय हैं। वंदे गुरो: श्रीचरणारविंदम – मैं उन गुरुपादपद्म को अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ जो भगवान को अतिप्रिय हैं, अर्थात मुकुंद-प्रेष्ठ हैं।

 

गुरु नित्यानंद-राम के प्रकाश-विग्रह हैं

ऐसे सुस्थिर भक्त की शरण ग्रहण करना श्रेयस्कर है, जो आचार्य या आश्रय-विग्रह, अर्थात शरण लेने योग्य ईश्वर का प्राकट्य कहलाते हैं। “यदि कोई स्वयं को आचार्य के रूप में प्रस्तुत करता है, किन्तु उसमें भगवान् के प्रति सेवा का भाव नहीं है, तो उसे अपराधी समझना चाहिए। उसकी ऐसी अपराध की प्रवृत्ति उसे आचार्य बनने के लिए अयोग्य बनाती है।” वह आचार्य कैसे हो सकता है? “प्रमाणिक गुरु सदैव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अनन्य भक्ति में निमग्न रहते हैं। यही कसौटी है। इसी निरीक्षण द्वारा वे भगवान् के प्रत्यक्ष प्राकट्य तथा श्री नित्यानन्द प्रभु के प्रामाणिक प्रतिनिधि के रूप में जाने जाते हैं।” एक आचार्य नित्यानंद-राम या बलराम के प्रतिनिधि होते हैं।

श्रील वृंदावन दास ठाकुर ने चैतन्य-मंगल की रचना की जो स्वयं चैतन्य लीला में व्यास के अवतार हैं। उसके कुछ समय पश्चात श्रील लोचन दास ठाकुर ने एक ग्रंथ की रचना की और उसे भी इसी नाम से विख्यात किया, तदुपरांत श्रील वृंदावन दास ठाकुर ने अपने ग्रंथ का नाम बदलकर चैतन्य-भागवत रख दिया। उसी ग्रंथ में वे उल्लेख करते हैं:

 

संसारेर पार हइSभक्तिर सागरे ।

ये डुबिबे, से भजुक निताइचाँदेरे ॥

 

“जो व्यक्ति इस भौतिक अस्तित्व के भव-सागर को पार करने हेतु तथा स्वयं को भक्ति-सागर में गोते लगाने के लिए अत्यधिक आतुर है, उसे निश्चित ही श्री-नित्यानंद-राम का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।”

“गुरु श्री-नित्यानंद-राम के प्रतिनिधि हैं। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि वे गुरु-पादपद्म हैं। अतः व्यक्ति को ऐसे ही गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए जो श्री-नित्यानंद-राम के प्रतिनिधि हैं। ऐसे गुरु आचार्यदेव कहलाते हैं। भौतिकवादी लोग ईर्ष्यालु स्वभाव होने तथा इन्द्रियतृप्ति की प्रवृत्ति से असन्तुष्ट रहने के कारण ऐसे प्रामाणिक आचार्य की आलोचना करते हैं। किन्तु प्रामाणिक आचार्य वास्तव में भगवान् से अभिन्न होते है; अतएव ऐसे आचार्य से ईर्ष्या करने का अर्थ -, स्वयं भगवान् से ईर्ष्या करना है।”

 

आध्यात्मिक गुरु को भगवान की दिव्य लीलाओं का अनुकरण नहीं करना चाहिए

 

आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित ।

न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरु ॥

[श्रीमद्-भागवतम 11.17.27]

 

“मनुष्य को चाहिए कि आचार्य को मेरा ही स्वरूप जाने और किसी भी प्रकार से उनका अनादर नहीं करे। उन्हें सामान्य पुरुष समझते हुए उनसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखे क्योंकि वे समस्त देवताओं के प्रतिनिधि हैं।”

 कृष्ण स्वयं इस श्लोक का कथन करते हैं तथा कविराज गोस्वामी यह व्याख्या करते हैं कि: “अतएव एक प्रामाणिक आचार्य से ईर्ष्या करने का अर्थ स्वयं परम भगवान से ईर्ष्या करना है। इससे दिव्य साक्षात्कार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।” ऐसा अपराध करने के परिणामस्वरूप आप इन दिव्य एवं आध्यात्मिक तत्त्वों को कदापि नहीं समझ सकते हैं।

जैसा कि पूर्व कथित किया गया था कि एक शिष्य को सर्वदा अपने गुरु को भगवान श्रीकृष्ण का स्वरुप जानकर उनका आदर करना चाहिए, परंतु  यह भी स्मरण रहना चाहिए कि गुरु कभी भी भगवान की दिव्य लीलाओं का अनुकरण करने के लिए अधिकृत नहीं है। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है कि गुरु को कभी भी भगवान की दिव्य लीलाओं का अनुकरण नहीं करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति जो भगवान से एकाकार होना चाहते हैं, जैसे तथाकथित मायावादी तथा ब्रह्मवादी महान अपराधी हैं क्योंकि वे भगवान का अनुकरण करते हैं। वे भगवान की दिव्य लीलाओं की नक़ल करते हैं। ऐसे व्यक्ति आपको वैष्णव परंपरा में भी मिलेंगे। यह अत्यंत घातक स्थिति है। श्रीमान् महाप्रभु के अप्रकट होने के उपरांत कुल तेरह अप-संप्रदाय प्रकट हुए जो ऐसे कार्यों में लिप्त हैं। यह कलि का ही क्रिया-कलाप है।

 

कलि महाप्रभु के आंदोलन में प्रवेश कर गया है

 

कलिकुक्कुरकदन जदि चाओ

कलियुगपावन, कलिभयनाशन 

श्रीशचिनंदनगाओ

 

“यदि आप कलि रूपी कुक्कुर (कुत्ते) पर विजय प्राप्त करना चाहते हो तो एकमात्र शचिदेवी के पुत्र, जो कलियुग की पतितात्माओं के उद्धारक तथा कलियुग की भयावह परिस्थितियों के नाशक हैं, उनके दिव्य गुणों का कीर्तन करो।”

श्री-गौरहरि माता शचि के पुत्र हैं। आप सभी उनकी शरण में जाएँ क्योंकि उन्होंने कलि को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है।

महाप्रभु ने यह चार नियम  बताएँ  हैं  – मांस भक्षण न करना, जुआ न खेलना, नशा न करना तथा अवैध यौन में संलग्न न होना – क्योंकि ये पापमय कार्यों के चार स्तम्भ हैं। कलियुग अर्थात् अपकर्म का युग। फलस्वरूप महाप्रभु ने प्रवेशमार्ग में संगठित रूप से पेंच लगा दिए ताकि कलि के आगमन का कोई प्रश्न ही शेष न रहे। इस प्रकार महाप्रभु ने कलि को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया, किंतु तब कलि ने विचार किया: “ओह, महाप्रभु ने तो मेरा वध कर दिया है। अब मैं क्या करूँगां? मैं किस प्रकार जीवित रह सकता हूँ? मुझे अवश्य ही एक वैष्णव बनना होगा। मुझे उनके आंदोलन में प्रवेश करना ही चाहिए।” इसलिए कलि महाप्रभु के आंदोलन में प्रवेश कर गया है। किंतु उसके प्रवेश करने का क्या कारण है? वह बहुत धूर्त है, किंतु बुद्धिमान नहीं। ‘धूर्त’ तथा ‘बुद्धिमान’, इन दोनों शब्दों में अंतर है। कलि अत्यंत कपटता से परिपूरित एवं दुष्ट क्रियाओं के कारणवश इस प्रकार सोच-विचार कर रहा था। तदुपरांत उसने क्या किया?

 

एओ तो एक कलिर चेला

माथा नेड़ा कप्नि परा, तिलक नाके, गलाय माला

 

उसने अपना मुण्डन करवा कर एक शिखा धारण की है। साथ ही उसने कण्ठी, कौपिन और तिलक भी धारण किया है। वह माला पर जाप भी करता है, “हरे ब्लर, ब्लर, ब्लर, ब्लर।” वह वास्तव में कलि चेला है। देखते वैष्णवेर मत, आसलो शाक्त काजेर बेला, बाह्य रूप से वह वैष्णव प्रतीत होता है किंतु ऐसा व्यक्ति कभी भी चार नियमों का पालन नहीं करता है। यह भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा रचित एक अत्यंत सुंदर वैष्णव गीत है। सहजभजन कोर्छेन मामु, संगो लोये परेर बाला,  वह सहज है और दूसरे की पत्नी के साथ रहता है। सखीभावे भज्छेन तारे, निजे हये नंदलाल, आप्ना केमने नंदलाल। यह गीत कपटता पर आधारित है, जो वैष्णव सम्प्रदाय में भी चल रही है। ऐसा व्यक्ति नंदलाल-कृष्ण का अनुकरण करता है, “मैं नंदलाल, नंद महाराज का पुत्र हूँ।” जब वह एक सुंदर स्त्री को देखता है, तो वह सोचता है, “अगर मैं प्रचार करके इस सुंदर स्त्री को वैष्णवी बना दूँगा, तो कितना अच्छा होगा।” तब वह प्रचार करके उसे वैष्णवी बना देता है। तत्पश्चात, “मैं वैष्णव हूँ और तुम भी अब वैष्णवी बन गई हो, तो हम साथ रहकर भजन करते हैं। मैं नंदलाल हूँ और तुम राधा-सखी।” इस तरह अवैध-यौन किया जा रहा है और यह सरासर कृष्ण का अनुकरण है। इसलिए मेरे परम आराध्यतम गुरुदेव ने इस विषय में कहा है , “किंतु साथ ही व्यक्ति को सदा यह स्मरण रखना होगा कि गुरु को भगवान की दिव्य लीलाओं की नकल करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। छद्म गुरु स्वयं को पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के समकक्ष दिखाकर अपने शिष्यों की भावनाओं का दुरुपयोग करते हैं। किंतु ऐसे निर्विशेषवादी अपने शिष्यों को केवल पथभ्रष्ट ही कर सकते हैं, क्योंकि उनका चरम उद्देश्य तो भगवान में लीन होना है। यह भक्ति सम्प्रदाय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।” कोई भी  व्यक्ति भगवान नहीं बन सकता क्योंकि भगवान अद्वय-तत्त्व हैं, उनके समान अन्य कोई दूसरा नहीं है।

 

गुरु मुकुंद-प्रेष्ठ हैं

इसीलिए गुरु-तत्त्व का वर्णन किया गया है:

 

साक्षाद्‌-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः

उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः।

किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

 

गुरु भगवान हरि के समान हैं – वे साक्षात हरि हैं और श्रील कविराज गोस्वामी भी यह उल्लेख करते हैं कि सभी प्रामाणिक शास्त्रों के सुविचारित मत के अनुसार गुरु कृष्ण से अभिन्न हैं। अतएव प्रभुपादजी महाराज इस तत्त्व का विवरण करते हैं कि: “वास्तविक वैदिक दर्शन अचिंत्य-भेदाभेद-तत्त्व (कहलाता) है, जो यह स्थापित करता है कि प्रत्येक वस्तु भगवान से एक होकर भी भिन्न है। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी पुष्टि करते हैं कि प्रामाणिक गुरु का वास्तविक पद यह है कि, गुरु को सदैव मुकुंद (श्रीकृष्ण) के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के संदर्भ में ही देखना चाहिए।” प्रामाणिक गुरु मुकुंद-प्रेष्ठ हैं।

श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी ने सुप्रसिद्ध मन: शिक्षा की रचना की है, जो स्वयं मुकुंद-प्रेष्ठ हैं। मैं उसका वर्णन करूँगा तथा आप सब श्रील रघुनाथ की व्याख्या को समझें।  श्रील प्रभुपाद  इसकी [चैतन्य चरितामृत आदि-लीला 1.46 तात्पर्य] (में) पुष्टि करते हैं।

 

गुरौ गोष्ठे गोष्ठालयिषु सुजने भूसुरगणे

स्वमन्त्रे श्रीनाम्नि व्रजनवयुवद्वन्द्वस्मरणे ।

सदा दम्भं हित्वा कुरु रतिमपूर्वामतितरा-

मये स्वान्तर्भ्रातश्चटुभिरभियाचे धृतपदः ॥

 

“ हे मेरे प्रिय भाई, मेरे दुष्ट मन, तुम्हारे चरणों में गिरकर मैं तुमसे अत्यंत मधुर शब्दों में विनम्रतापूर्वक निवेदन करता हूँ। कृपया इस दंभ का परित्याग कर दो और शीघ्र-अतिशीघ्र अपने आध्यात्मिक गुरु, श्रीव्रज-धाम, व्रजवासियों, वैष्णव एवं ब्राह्मणों, अपने दीक्षा-मंत्र, भगवन्नाम तथा व्रज के नित्य दिव्य युगल रूप श्री श्री राधा-कृष्ण की शरण से प्रगाढ़ प्रेममयी आसक्ति विकसित करो।”

 

न धर्मं नाधर्मं श्रुतिगणनिरुक्तं किल कुरु

व्रजे राधाकृष्णप्रचुरपरिचर्यामिह तनु ।

शचिसूनुं ननीश्वरपतिसुतत्वे गुरुवरं

मुकुंदप्रेष्ठत्वे स्मर परमजस्रं ननु मह: ॥

 

“हे मेरे प्रिय मन, कृपया इन श्रुति में वर्णित दैनिक धार्मिक कार्यकलापों तथा ऐसे अधार्मिक कार्यों में स्वयं को संलग्न ना करो, जो पाप को जन्म देते हैं। इसकी अपेक्षा तुम व्रज में श्री राधा-कृष्ण युगल स्वरूप की प्रचुर भाव से प्रेममयी सेवा में निमग्न हो जाओ क्योंकि श्रुतियों के मतानुसार यह प्रेममयी सेवा परम सत्य की सर्वोत्तम अराधना का सर्वोपरी सिद्धांत है। शचिनंदन श्रीचैतन्य महाप्रभु का सर्वदा चिंतन करो, जो श्रीमति राधारानी के वर्ण एवं भाव से परिपूर्ण हैं, जो स्वयं श्री-नंद-नंदन से अभिन्न हैं एवं अपने आध्यात्मिक गुरु का सदैव श्रीमुकुंद के सर्वाधिक प्रिय सेवक के रूप में स्मरण करो।”

प्रभुपादजी महाराज ने यहाँ (अपने तात्पर्य में) इस शिक्षा का केवल एक संकेत दिया है। उन्होंने इन श्लोकों को (विस्तारपूर्वक) वर्णित नहीं किया है। उन्होंने कहा, “श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी पुष्टि करते हैं कि प्रामाणिक गुरु का वास्तविक पद यह है कि  गुरु को मुकुंद (श्रीकृष्ण) के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के संदर्भ में देखना चाहिए”। श्रील जीव गोस्वामी ने अपने भक्ति-संदर्भ (213) में स्पष्ट बतलाया है कि एक शुद्ध भक्त का अपने गुरु तथा भगवान शिव के प्रति दृष्टिकोण श्री-भगवान के समान ही होता है चुंकि वे भगवान को अत्यंत प्रिय हैं। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वे संपूर्ण दृष्टि से भगवान के तुल्य हैं। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी एवं श्रील जीव गोस्वामी के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जैसे आगामी आचार्यों ने इसी सत्य की पुष्टि की है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर गुरु-अष्टकम् में याचना करते हुए यह प्रमाणित करते हैं कि समस्त शास्त्र गुरु को भगवान से अभिन्न रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि वे भगवान के अत्यंत प्रिय एवं विश्वासपात्र गोपनीय दास हैं। इसीलिए गौड़ीय वैष्णव श्रील गुरुदेव की अर्चना भगवान के (नित्य)दास के रूप में करते हैं। भक्ति सम्बंधी संपूर्ण प्राचीन साहित्यों में तथा श्रील नरोत्तम दास ठाकुर, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एवं अन्य अनन्य वैष्णवों के भजन में श्री-गुरु को श्रीमती राधारानी के विश्वासपात्र की गोपनीय संगियों में से या श्रील नित्यानंद प्रभु के प्रतिनिधि के रूप में माना गया है।” यह गौड़ीय तत्त्व हैं। अतएव श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी के शब्द मन के लिए शिक्षा, अर्थात - मनः शिक्षा हैं क्योंकि यह मन अत्यंत दुष्ट है। मन तुमि बड़ दुष्ट, मन अत्यंत दुष्ट, मूर्ख, हठी, बलवान तथा उद्दंड है। चुंकि यह अवज्ञाकारी भी है, अतः यह अभाज्ञवान् है।

 

मन को प्रशिक्षित करना योग कहलाता है

भगवद्-गीता में वर्णन है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मन नियंत्रित करने का उपदेश दिया था, किंतु उत्तर में अर्जुन ने कहा कि यह अत्यंत कठिन; लगभग असंभव है।

चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म ।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम ॥ 

[भगवद्-गीता 6.34]

 

महान योद्धा-अर्जुन कहते हैं कि, “हे कृष्ण! मन को नियंत्रित करना उसी प्रकार असंभव है जिस प्रकार हवा के प्रवाह को अपने मुष्टिक प्रहार से रोकना।” मन अत्यधिक हठी, चंचल, धूर्त, मूर्ख तथा उद्दंड है।

भक्तिविनोद ठाकुर अपने गीत में कहते हैं, मन जे पागल मोर ना माने शाशन । वे यह प्रार्थना करते हैं कि, “हे गोपीनाथ! मेरा मन पागल है। इस दुष्ट मन को नियंत्रित करने के भरसक प्रयासों के बाद भी यह मेरा शासन स्वीकार नहीं करता है। हार जे मेनेछि आमि – अतएव मैं इस मन को नियंत्रित करने में अपनी विफलता को स्वीकार करता हूँ।”

योग क्या है? मन के प्रशिक्षण को ही योग कहते हैं। इसलिए भगवद्-गीता में जब कृष्ण अपना सर्वाधिक गुह्यतम उपदेश देते हैं – मन्मना भव, वे उसे मन से ही आरंभ करते हैं: “मेरा चिंतन करो, मुझे अपने मन में उपधारण करो।”

जब कृष्ण महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए, तब उन्होंने पुन: वही उपदेश दिया: अहर-निशम बोलो कृष्ण-चिंता, दिन-रात केवल कृष्ण-नाम का कीर्तन करो तथा कृष्ण का चिंतन करो। कृष्ण के अतिरिक्त किसी अन्य विषय का चिंतन नकरें। अत: योग का अर्थ मन को इन उपदेशों के अनुकूल प्रशिक्षित करना है।

इसी कारणवश आचार्यों ने मन के लिए अनेक उपदेश दिए हैं। भक्तिविनोद ठाकुर एवं रघुनाथ दास गोस्वामी मन:-शिक्षा  की रचना करते हैं। भक्तिविनोद ठाकुर ने उसे काव्य रूप में प्रस्तुत किया है:

 

‘धर्म’ बोलि वेदे जारे, एतेक प्रशंसा करे,

‘अधर्म’ बोलिया निंदे जारे

ताहा किच्छु नाहि करो, धर्माधर्म परिहर,

हओ रत निगूढ़ व्यापारे

(याच्छि मन’ धरि तव पाय),

सेइ सकल परिहरि, ब्रजभूमे वास करि,

रत हओ युगल सेवाय

श्रीशचिनंदन धने, श्रीनंदनंदन सने

एक करि करोह भजन,

श्रीमुकुंद प्रिय जन, गुरुदेव जान मन,

तोमा लागि पतितपावन,

जगते प्रकट भाइ, ताहा विना गति नाइ,

यदि चाओ आपन कुशल,

ताहार चरण धरि, तदादेश सदा स्मरि,

ए भक्तिविनोद देहो बोल

[भजन-दर्पण-भाष्य]

 

यह भक्तिविनोद आचार्य द्वारा मन:-शिक्षा के द्वितीय श्लोक पर टीका है: ‘अधर्म’ बोलिया निंदे जारे, ताहा किच्छु नाहि करो, धर्माधर्म परिहर, हओ रत निगूढ‌ व्यापारे

सर्वधर्मान परित्यज्य, सभी प्रकार के धर्मों का परित्याग कर दीजिए। वेदों द्वारा निर्णीत धर्म एवं अधर्म का त्याग कर दीजिए।धर्माधर्म परिहर, हओ रत निगूढ‌ व्यापारे, स्वयं को श्रीराधा-कृष्ण की प्रेममयी सेवा में नियुक्त कीजिए, जो अत्यंत गुह्यतम, अर्थात निगूढ़ सेवा है। याच्छि मन, धरि तव पाय  – तात्पर्य: जो दुष्ट मन है तथा शासन स्वीकार नहीं करता है। अत: श्रील प्रभुपाद महाराज भी यह उल्लेख करते हैं कि, “हे मन, मैं तुम्हारे चरण में तुमसे यह निवेदन करता हूँ।” अन्यथा यह दुष्ट मन कभी भी शासन स्वीकार नहीं करेगा।

 

सेइ सकल परिहरि, व्रजभूमे वास करि,

रत हओ युगल सेवाय

 

वेदों में वर्णित सभी प्रकार के धर्म तथा अधर्म का पूर्ण रूप से परित्याग करके व्रजभूमि में निवास करो और स्वयं को श्री श्री राधा-कृष्ण की प्रेममयी सेवा में नियुक्त करो।

 

श्रीशचिनंदन धने, श्रीनंदनंदन सने

एक करि करोह भजन

 

शचिनंदन और नंदनंदन अभिन्न हैं। इनमें कोई अंतर नहीं है। इसी विचार के साथ भजन करो।

 

श्रीमुकुंद प्रिय जन, गुरुदेव जान मन,

तोमा लागि पतितपावन

 

गुरुदेव मुकुंद-प्रेष्ठ हैं। श्रील प्रभुपादजी महाराज ने भी यहाँ पर यह उल्लेख किया है, “श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी पुष्टि करते हैं कि प्रामाणिक गुरु का वास्तविक पद यही है। उनके अनुसार गुरु को मुकुंद (श्रीकृष्ण) के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के संदर्भ में देखना चाहिए।” श्रीमुकुंद प्रिय जन, गुरुदेव जान मन, “हे मन, तुम यह जान लो कि गुरु भगवान मुकुंद, कृष्ण के अतिप्रिय तथा निजी परिकर हैं। तोमा लागि पतितपावन – वह इस भौतिक धरातल पर केवल तुम जैसे पतित जीव का उद्धार करने के लिए अवतरित हुए हैं।”

 

जगते प्रकट भाइ ताहा विना गति नाइ,

यदि चाओ आपन कुशल

 

“हे मेरे मन, हे मेरे भाई, यदि तुम अपनी कुशलता चाहते हो, तो तुम्हारे चरण पकड़ कर मैं तुमसे यह निवेदन करता हूँ, कि कृपया गुरु की शरण लो, जो भगवान मुकुंद को अतिप्रिय हैं। तुम्हारे लिए ही वे इस जगत में प्रकट हुए हैं। गुरु-पाद-पद्म की शरण लिए बिना तुम्हारा उद्धार असंभव है और तुम गतिहीन हो।” यस्य प्रसादाद्भगवत्प्रसादो यस्यप्रसादान्न गति: कुतोऽपि, केवल गुरु को प्रसन्न करके एवं उनसे कृपा प्राप्त करने के पश्चात ही आप कृष्ण-कृपा प्राप्त कर सकते हैं। यदि गुरु अप्रसन्न हो जाते हैं, तो कृष्ण भी आपका उद्धार नहीं कर सकते। हरौ रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन, यदि भगवान हरि आपसे रुष्ट हो जाते हैं, तब भी गुरु आपका उद्धार कर सकते हैं, किंतु यदि गुरु रुष्ट हो जाते हैं, तो कोई भी नहीं, यहाँ तक कि कृष्ण भी आपका उद्धार नहीं कर सकते हैं। इसकी पुष्टि भक्तिविनोद ठाकुर ने इस गीत में की है, यदि चाओ आपन कुशल – यदि तुम वास्तव में अपना भला चाहते हो, तो हे मन! कृपया उन गुरु-पाद-पद्म की शरण ग्रहण करो जो मुकुंद-प्रेष्ठ हैं।

 

ताहार चरण धरि, तदादेश सदा स्मरि,

ए भक्तिविनोद देहो बोल

 

भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं, “जाओ और भगवान मुकुंद के अतिप्रिय परिकर, गुरु के चरणों का आश्रय स्वीकार करो तथा उनके चरणकमलों में पूर्ण रूप से समर्पित होकर उनके आदेश का यथारूप पालन करो। तब हे मन! वे मुझे आध्यात्मिक बल प्रदान करेंगे।”

रघुनाथ दास गोस्वामी और भक्तिविनोद ठाकुर, दोनों ही अपने ग्रंथों में इसकी पुष्टि करते हैं।

 

गुरु हरि के समान हैं, किंतु हरि नहीं हैं

श्रील प्रभुपाद जी यहाँ एक अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु का उल्लेख करते हैं “श्रील जीव गोस्वामी ने अपने भक्ति-संदर्भ (213) में स्पष्ट बतलाया है कि एक शुद्ध भक्त का गुरु तथा शिवजी को भगवान सदृश मानना यह सूचित करता है कि वे भगवान को अत्यंत प्रिय हैं। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वे सभी दृष्टि से भगवान के तुल्य हैं।” यह अत्यंत गुह्य तत्त्व है। भागवत के चतुर्थ स्कंध में कथित है:

 

वयं तु साक्षाद्भगवन् भवस्य

प्रियस्य सख्यु: क्षणसङ्गमेन ।

सुदुश्चिकित्स्यस्य भवस्य मृत्यो-

र्भिषक्तमं त्वाद्य गतिं गता: स्म॥

[श्रीमद्-भागवतम 4.30.38]

 

“हे भगवन्, हम भाग्यशाली हैं कि आपके अत्यंत प्रिय तथा अभिन्न मित्र शिवजी की क्षणमात्र संगति से हम आपको प्राप्त कर सके हैं। आप इस संसार के असाध्य रोग का उपचार करने में समर्थ सर्वश्रेष्ठ वैद्य हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमें आपके चरणकमलों का आश्रय प्राप्त हो सका।”

यह भगवान हरि को प्रचेताओं द्वारा अर्पित प्रार्थनाएँ हैं। यहाँ ‘प्रियस्य सख्यु:’ शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। श्रील जीव गोस्वामी ने भक्ति-संदर्भ में इन शब्दों के प्रयोग पर टीका लिखी है। प्रचेतागण भगवान हरि से निवेदन कर रहे हैं कि "आपके प्रिय भक्त भगवान शिव का एक क्षण -क्षणसङ्गमेन- संग करने के फलस्वरूप, हमें आपके दर्शन प्राप्त हुए। यह आपके प्रिय भक्त भगवान शिव के संग का परिणाम है क्योंकि वे प्रियस्य सख्यु: अर्थात आपके अत्यंत प्रिय मित्र हैं।"

भक्ति-संदर्भ में, श्रील जीव गोस्वामी लिखते हैं:

 

शुद्धभक्तश त्व एके श्रीगुरो:

श्रीशिवस्य च भागवत

सहाभेददृष्टिं तत्प्रिय

तमत्वेनैव मन्यंते

[भक्ति-संदर्भ 213]

 

“एक शुद्ध भक्त के गुरु तथा शिवजी की भगवान से अभिन्न होने की दृष्टि उनके भगवान को अतिप्रिय होने पर आधारित है, न कि उनके भगवान के तुल्य होने पर।”  प्रियस्य सख्यु: तथा किंतु प्रभोर य: प्रिय एव तस्य, दोनों एक ही तत्त्व हैं। भागवत तथा श्रील जीव गोस्वामी, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एवं श्रील नरोत्तम दास ठाकुर का यही मत है। श्रील प्रभुपाद ने इन सभी आचार्यों के नाम अपने तात्पर्य में वर्णित किए हैं। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है: एक किंतु एक समान नहीं। यही गुरु-तत्त्व (कहलाता) है और आपको इसे समझना चाहिए। आपको इन सभी उद्धृण ज्का बोध होना चाहिए क्योंकि ये सभी आचार्यों द्वारा प्रदत्त शास्त्र-प्रमाण हैं।

जैसा कि कठ उपनिषद में पूर्वःकथित किया गया है कि किस प्रकार गुर परमात्मा या चैत्य-गुरु के विस्तार हैं, जो एक अत्यधिक जिज्ञासु भाग्यवान जीव के समक्ष प्रकट होते हैं। साथ ही चैतन्य चरितामृत के श्लोक में वर्णन आता है कि – ‘शास्त्र-गुरु-आत्मा’ रूपे अपनारे जानान ‘कृष्ण मोर प्रभु, त्राता’ – जीवेर हय ज्ञान  - अर्थात :  एक विस्मृत  बद्धजीव को पुन: ज्ञात कराने हेतु कृष्ण शास्त्र और तत्पश्चात गुरु रूप में उसे तत्त्व-ज्ञान प्रदान करते हैं। अतएव, इस संदर्भ में गुरु कृष्ण से अभिन्न हैं। इसलिए आचार्यों ने यह मत दिया है और चैतन्य चरितामृत भी इसका उल्लेख करती है,

 

यद्यपि आमार गुरु – चैतन्येर दास।

तथापि जानिये आमि ताँहार प्रकाश ॥

[चैतन्य चरितामृत, आदि लीला, 1.44]

 

“यद्यपि मैं जानता हूँ कि मेरे गुरु श्री चैतन्य के दास हैं, तथापि मैं उन्हें भगवान के स्वयं प्रकाश के रूप में जानता हूँ।”

इसका अर्थ है, ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रह: अनादिरादिर्गोविंद: सर्वकार्णकारणम । भगवान सत्-चित्-आनंद हैं, अर्थात वे सच्चिदानंद, दिव्य एवं आध्यात्मिक हैं। उनका दिव्य-शरीर है और उनके अंग अत्यधिक सुंदर हैं। जीव गोस्वामी कहते हैं, “जैसे कि भगवान स्वयं ही अपने हाथों से अपने पाँव  का मर्दन कर रहे हैं।” क्या आप इसका अर्थ जानते हैं? यह अत्यंत गुह्य है। प्रियस्य सख्यु: - एक प्रेमी केवल अपने अतिप्रिय को ही प्रेमपूर्वक सेवा अर्पित करता है। जैसा कि हमें ज्ञात है कि रघुनाथ दास गोस्वामी एवं श्रील भकक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि गुरु मुकुंद-प्रेष्ठ हैं, अर्थात भगवान कृष्ण को अत्यधिक प्रिय हैं। श्री-भगवान के गोपनीय एवं अतिप्रिय सेवक, श्री-गुरु, उनके चरणकमलों की प्रेममयी सेवा में सदैव अनुरत रहते हैं। इसका अर्थ है कि वे कृष्ण के चरण-कमलों का अंग-मर्दन करते हैं। अतएव तत्त्व-दृष्टि से गुरु का अर्थ है कि गुरु ‘प्रियस्य सख्यु:’ हैं, (मानो) कृष्ण स्वयं ही अपने हाथों से अपने पाँव का मर्दन कर रहे हैं। श्रील जीव गोस्वामीपाद का यही मत है। ‘प्रियस्य सख्यु:’ का अर्थ है भगवान के समान, किंतु वे स्वयं भगवान नहीं है। गुरु सेवक-भगवान हैं और भगवान सेव्य-भगवान कहलाते हैं। गुरु साक्षाद-हरि हैं, किंतु वह सेवक-भगवान हैं, अर्थात् वे जो मुकुंद के चरण-कमलों का मर्दन करते हैं, अर्थात वे उन्हें अत्यंत प्रिय हैं। इसका अर्थ है कि गुरु रूप में हमें कृष्ण उनकी दिव्य-सेवा करने की शिक्षा प्रदान करते हैं। यह अत्यधिक गुह्यतम तत्त्व है।

जब तक स्वयं कृष्ण किसी जीव को परमार्थ-तत्त्व का ज्ञान विकसित नहीं करेंगें, तब तक इसे कोई भी नहीं समझ सकता। जिस प्रकार सूर्य-किरणों की सहायता के बिना कोई भी सूर्य को नहीं देख सकता, उसी प्रकार कृष्ण की सहायता के बिना कोई भी उन्हें नहीं समझ सकता। अत: यह एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है कि (एक बद्ध-जीव को) स्वयं के तत्व से परिचित कराने हेतु कृष्ण स्वतः गुरुदेव के रूप में प्रकट होते हैं। मुकुंद सेव्य-भगवान हैं और उनके प्रेष्ठ, श्री-गुरु, सेवक-भगवान हैं। कृष्ण विषय-विग्रह-भगवान हैं और गुरु आश्रय-विग्रह-भगवान हैं। वे दोनों एक ही स्तर पर हैं। यही हमारा तत्त्व है। कृष्ण को मेरे गुरु-पादपद्म से अधिक प्रिय अन्य कोई नहीं है क्योंकि मेरे गुरु मुकुंद-प्रेष्ठ हैं। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी भी यही मत प्रदान करते हैं। आपको समझना चाहिए कि वास्तव में गुरु की स्थिति  मुकुंद-प्रेष्ठ है, और इस प्रकार गुरु के माध्यम से आपको भगवान मुकुंद की प्रेममयी सेवा में निष्ठापूर्वक नियुक्त होना चाहिए।

 

इन आठ तत्त्वों से बलिष्ठ आसक्ति विकसित कर लीजिए

निम्नलिखित श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी द्वारा रचित मन:-शिक्षा के प्रथम श्लोक पर टीका है।

 

गुरुदेव व्रज वने, व्रजभूमि वासि जने

शुद्ध-भक्ते आर विप्रगणे

इष्टमंत्रे हरिनामे युगल भजन कामे,

करो रति अपूर्व जतने

(धोरि मन चरण तोमार)

जानियाच्छि एवे सार, कृष्ण भक्ति विना आर,

नाहि घुचे जीवेर संसार

कर्म ज्ञान तपोयोग, सकलि त’ कर्मभोग,

कर्म छड़ाइते केह नारे

सकल! छाड़िया भाइ, श्रद्धा देवीर गुण गाइ,

या’ र कृपा भक्ति दिते पारे

छाड़ि दम्भ अनुक्षण, स्मर अष्ट-तत्त्व मन,

करो ताहे निष्कपटे रति

सेइ रति प्रार्थनाय, श्री दास गोस्वामी पाय,

ए भक्तिविनोद करो नति

[श्री मन:-शिक्षा, भजन 1]

 

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर उल्लेख करते हैं कि: सर्वप्रथम गुरुदेव, तत्पश्चात व्रजभूमि, व्रजवासी, भगवान के शुद्ध-भक्त, विप्र-ब्राह्मण एवं गुरु द्वारा प्रदत्त इष्ट-मंत्र, तदुपरांत हरिनाम और अंतत: युगल-भजन। यह कुल आठ तत्त्व हैं। अपूर्व जतने रति, इन आठ तत्त्वों से यत्नपूर्वक रति विकसित कीजिए। श्रील प्रभुपाद ने रति का अनुवाद अत्यंत प्रगाढ़ आसक्ति के रूप में किया है। धरि मन चरण तोमार, “हे मेरे दुष्ट मन, मैं तुम्हारे चरण धरकर निवेदन करता हूँ, ‘कृपया ऐसा करो”।

 

जानियाच्छि एवे सार, कृष्ण भक्ति विना आर,

नाहि घुचे जीवेर संसार

 

मैंने साधु-शास्त्र-गुरु से सुना है कि कृष्ण-भक्ति विकसित किए बिना किसी भी जीव का इस भौतिक संसार से उद्धार हो पाना असंभव है।

 

कर्म ज्ञान तपोयोग, सकलि त’ कर्मभोग,

कर्म छड़ाइते केह नारे

 

यदि आप कर्म, ज्ञान या तपस्या का पथ स्वीकार करते हैं, तब भी आपका उद्धार संभव नहीं है और आप अपने कर्मफल से मुक्त नहीं हो सकते। यह एकमात्र भक्ति द्वारा ही संभव है।

 

सकल! छाड़िया भाइ, श्रद्धा देवीर गुण गाइ,

या’ र कृपा भक्ति दिते पारे

 

इसलिए, “हे मेरे भाई, मेरे दुष्ट मन, मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि इन सभी का परित्याग करके साधु-शास्त्र-गुरु के शब्दों पर अटूट श्रद्धा विकसित करो। तब तुम्हें निश्चित ही प्रेम-भक्ति प्राप्त होगी।”

 

छाड़ि दम्भ अनुक्षण, स्मर अष्ट-तत्त्व मन,

करो ताहे निष्कपटे रति

 

 दम्भ का त्याग करके सरल एवं निष्कपट बनो। कापट्य को छोड़कर तृणादपि सुनिचेन भाव विकसित करो। यही महाप्रभु की शिक्षा है।

 

सेइ रति प्रार्थनाय, श्री दास गोस्वामी पाय,

ए भक्तिविनोद करे नति

 

भक्तिविनोद ठाकुर ने मन के लिए यह प्रार्थना लिखी है। अतएव सभी को गुरु-तत्त्व समझना चाहिए।

 

गुरु मूर्तीमंत-कृष्ण-प्रसाद हैं

 

ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव ।

गुरु-कृष्ण-प्रसादे पाय भक्तिलता बीज ॥

[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 19.151]

 

“सारे जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं। इनमें से कुछ उच्च ग्रह-मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह-मण्डलों को। ऐसे करोड़ों भटक रहे जीवों में से कोई एक अत्यंत भाग्यशाली होता है, जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है। कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसे व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है।”

रूप-शिक्षा में महाप्रभु समझाते हैं कि गुरु और कृष्ण, दोनों की कृपा से भक्तिलता के बीज की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त श्रील कविराज गोस्वामी चैतन्य-चरितामृत में वर्णन करते हैं:

 

कृष्ण यदि कृपा करे कोन भाग्यवाने।

गुरु-अंतर्यामि-रूपे शिखाय आपने ॥

[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 22.47]

 

“कृष्ण प्रत्येक जीव के हृदय में चैत्य गुरु अर्थात् अंत: करण में स्थित गुरु के रूप में स्थित हैं। जब वे किसी भाग्यशाली बद्धजीव पर कृपा करते हैं तो वे उसे भीतर से परमात्मा के रूप में और बाहर से गुरु के रूप में भक्ति में प्रगति करने का उपदेश देते हैं।”

यदि कृष्ण किसी भाग्यवान जीव पर अपनी कृपा करते हैं, तो वे उसके समक्ष गुरु रूप में प्रकट होकर उसे भक्ति-शिक्षा प्रदान करते हैं। ऐसा जीव ही वास्तव में भाग्यवान है। इसलिए गुरु कृष्ण-कृपा-मूर्ती कहलाते हैं, अर्थात् जब कृष्ण की कृपा एक मूर्ती का (स्व)रूप धारण करती है, तो वे गुरु हैं। गुरु मूर्तीमंत-कृष्ण-प्रसाद हैं। यदि कोई जीव ऐसे गुरु का आश्रय प्राप्त करता है, तो वह नि:संदेह सर्वाधिक भाग्यवान है।

 

भक्तिलता-बीज प्राप्त करना वास्तविक सौभाग्य है

‘ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान जीव’  में ‘भाग्यवान’ शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। केवल वही जीव भाग्यवान है जिसे भक्तिलता का बीज प्राप्त होता है। इस भौतिक जगत में भुक्ति, मुक्ति, कनक, कामिनी अथवा प्रतिष्ठा प्राप्त करना सौभाग्य माना जाता है। परंतु यह सौभाग्य नहीं कहलाता है। वास्तविक सौभाग्य भक्तिलता के बीज को प्राप्त करना है, जो केवल एक प्रमाणिक गुरु की कृपा से ही प्राप्त होता है। यही सर्वश्रेष्ठ सौभाग्य है। ऐसे गुरु का आश्रय प्राप्त करने से उत्कृष्ट कोई सौभाग्य नहीं है।

इस बीज का दूसरा नाम श्रद्धा है। श्रद्धा अर्थात् साधु-शास्त्र-गुरु के शब्दों में दृढ़ विश्वास होना। प्रश्न यह है कि श्रद्धा का बीज क्या है? वह बीज साधु-कृपा या गुरु-कृपा है। नित्य-सिद्धस्य भावस्य प्राकट्यं हृदि साध्यता – उनकी कृपा प्राप्त करने के उपरांत ही भक्तिलता का बीज हमारे हृदय में बोया जाता है। इसका अर्थ है कि ऐसे गुरु की कृपा से एक जीव प्रेम-भक्ति विकसित कर सकता है। गुरु-कृपा के बिना भक्ति प्राप्त करना असंभव है। यह क्रमिक उन्नति श्रद्धा से प्रारंभ होती है, तदुपरांत रुचि और अंतत: प्रीति तक जाती है।

 

श्रीगुरु आवृत चेतना को अनावृत करते हैं

यह श्लोक श्रीमद्-भागवतम के तृतीय स्कंध से है, जिसमें भगवान कपिलदेव माता देवहूति से कहते हैं:

 

सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो

भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा: ।

तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि

श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥

[श्रीमद्-भागवतम 3.25.25]

 

“शुद्ध भक्तों की संगति में श्रीभगवान की लीलाओं तथा उनके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा हृदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाले होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन में मनुष्य धीरे-धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थित हो जाता है। तब असली समर्पण तथा भक्तियोग का शुभारंभ होता है।”

शास्त्रों में यह वर्णन किया गया है तथा भगवान कपिलदेव भी इस क्रम का उल्लेख करते हैं कि: श्रद्धा, रति और अंतत: प्रीति। यहाँ प्रीति का अर्थ प्रेम-भक्ति है। यह नित्य-सिद्ध-भाव है और आप इसे गुरु की कृपा से प्राप्त करते हैं। गुरु-कृपा के अतिरिक्त किसी भी अन्य साधन द्वारा इस भाव को प्राप्त करना असंभव है। जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास ; यह एक जीव की वास्तविक स्थिति है, अर्थात आप कृष्ण के नित्य दास हैं। इसका अर्थ है कि कृष्ण के सेवक होने की भावना आपके भीतर सर्वपूर्व काल से विद्यमान है, किंतु यह माया द्वारा आवृत कर दी गई है।

 

कृष्ण भुलि’ सेइ जीव अनादि-बहिर्मुख ।

अतएव माया तारे देय संसार-दु:ख ॥

[चैतन्य चरितामृत, मध्य-लीला 20.117]

 

“जीव अनंत काल से कृष्ण को भूलकर बाह्य रूप द्वारा आकृष्ट होता रहा है, अत: माया उसे इसे भौतिक संसार में सभी प्रकार के दु:ख देती रहती है।”

जीव का मूल स्वरूप कृष्ण-भक्त है, अर्थात् वह कृष्ण का दास है, किंतु उसकी यह स्थिति माया द्वारा आवृत कर दी गई है। गुरु कृपावश इस आवरण को अनावृत करते हैं। यही गुरु का कार्य है और जीव की ऐसे गुरु में अविचल श्रद्धा होनी चाहिए। वास्तव में शिष्य के हृदय में गुरु के प्रति श्रद्धा भी गुरु ही प्रदान करते हैं: “यह मेरे गुरु हैं, महाभागवत हैं, मुकुंद-प्रेष्ठ हैं। अभी तक मैं दुखी था किंतु अब मैंने भक्ति-लता-बीज प्राप्त कर लिया है, इसलिए अब मैं प्रसन्न हूँ। अतः यह मेरा परम सौभाग्य है। अब मेरी भेंट एक महात्मा, गुरु-पादपद्म से हुई है जिन्होंने मेरे हृदय में भक्तिलता बीज बोया है और उन्होंने मुझे सुखी बनाया है। वास्तव में वे मेरा उद्धार करने के लिए ही प्रकट हुए हैं।” एक शिष्य की गुरु के प्रति ऐसी दृढ़-श्रद्धा होनी चाहिए।

 

कृष्ण से तोमार, कृष्ण दिते पार

तोमार शकति आछे

आमि त’ कंगाल, ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बलि’

धाइ तव पाछे पाछे

[श्रील भक्तिविनोद ठाकुर विरचित शरणागति – भजन लालसा, गीत 7]

 

“कृष्ण आपके हृदय की संपत्ति हैं, अत: आप मुझे कृष्ण प्रदान करने में समर्थ हैं। मैं तो कंगाल पतितात्मा हूँ और ‘कृष्ण-कृष्ण’ कह कर क्रंदन करते हुए आपके पीछे-पीछे दौड़ रहा हूँ।”

 

गुरु सर्वप्रथम श्रद्धा अंतर्निर्विष्ट करते हैं

अत: गुरु का सर्वप्रथम कार्य क्या है? जो जीव उनकी शरण लेता है, वे सर्वप्रथम उसके हृदय में श्रद्धा विकसित करते हैं। इसलिए श्रील रूप गोस्वामी उल्लेख करते हैं,

 

आदौ श्रद्धा तत: साधुसंगोSथ भजनक्रिया।

ततोSनर्थनिवृत्ति: स्यात्ततो निष्ठा रूचिसतत: ॥

 

अथासक्ति ततो भावस तत: प्रेमाभ्युदंचति।

साधकानाम अयं प्रेम्ण: प्रादुर्भावे भवेत क्रम:॥

[भक्तिरसामृत-सिंधु 1.4.15-16]

 

“प्रारंभिक अवस्था में व्यक्ति की आत्म-साक्षात्कार हेतु इच्छा अंकुरित होनी चाहिए। यह इच्छा उसे आध्यात्मिक दृष्टिकोण से उन्नत साधुओं का संग करने के स्तर पर ले जाती है। इसके पश्चात अगले स्तर पर वह कनिष्ठ भक्त एक उत्कृष्ट आध्यात्मिक गुरु से दीक्षा प्राप्त करके उनके निर्देशानुसार भक्तिमय सेवा की प्रक्रिया आरंभ करता है। गुरु के मार्गदर्शन में भक्तिमय सेवा करने के प्रभाव से वह सभी प्रकार की भौतिक आसक्तियों से मुक्त हो जाता है, आत्म-साक्षात्कार में निष्ठ एवं स्थिर हो जाता है तथा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के विषय में श्रवण करने की रुचि विकसित करता है। यह रुचि उसे वृद्धि करके कृष्ण भावनामृत के प्रति आसक्त बना देती है और यह आसक्ति भाव स्थिति में सुदृढ़ हो जाती है, जोकि भगवद्-प्रेम की आरंभिक अवस्था है। भगवान के प्रति वास्तविक प्रीति प्रेम कहलाता है, जोकि जीवन की सर्वोत्तम परिपूर्ण अवस्था है।”

यह क्रम कहलाता है: मुकुंद-प्रेष्ठ जनों के संग से, जो भगवान मुकुंद की प्रेममयी सेवा में निम्गन हैं, तथा पूर्ण विश्वास के साथ उनकी कथा श्रवण करने से जीव उनकी कृपा प्राप्त करेगा जिसके पश्चात उसके हृदय में श्रद्धा विकसित होगी। तब वह समझ सकेगा कि परमात्मा कौन हैं, कृष्ण कौन हैं और किस प्रकार वह उन्हें प्राप्त कर सकता है, अन्यथा इस तत्त्व को समझना असंभव है। यह गुरु-तत्त्व है। इसकी व्याख्या एक असीमित महासागर के समान है। श्रील कविराज गोस्वामी ने विस्तारपूर्वक गुरु-तत्त्व की व्याख्या देकर इस विषय से परिचित किया है।

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