वैष्णव शिष्टाचार भाग 2
प्रिय पाठकगण,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से हम वैष्णव आचरण पर, अपने पिछले लेख से आगे चर्चा करेंगे:
७) भगवान का भक्त सभी जीवों का सम्मान करता है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, जो सप्तम गोस्वामी भी कहलाते हैं, अपने भजन में वर्णन करते हैं, “मुझे सभी ब्राह्मण एवं वैष्णव की कृपा की आवश्यकता है। अत: मैं सभी जीवों को अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ फिर चाहे वे जीव उच्च योनि में हों या निम्न योनि में। ”
श्रीमद्-भागवतम से हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि अम्बरीष महाराज और उद्धव जैसे शुद्ध-भक्त किस प्रकार ब्राह्मणों का सम्मान किया करते थे। श्रील जीव गोस्वामी प्रभु अपने भक्ति-संदर्भ [श्लोक २४६] में वर्णन करते हैं कि यद्यपि दुर्वासा मुनि ने अम्बरीष महाराज के चरणों को पकड़ लिया था, किंतु इससे अम्बरीष महाराज तनिक भी प्रसन्न नहीं हुए। कृष्ण ने अपने पुत्रों को भी यही निर्देश दिया था – “मेरे प्रिय अनुयायियों, कभी भी किसी विद्वान ब्राह्मण के साथ कठोर व्यवहार मत करना, फिर चाहे वह पापी ही क्यों न हों, चाहे वह तुम्हारे शरीर पर प्रहार करें या बारम्बार तुम्हें शापित करें, सभी परिस्थितियों में उन्हें प्रणाम करना ही तुम्हारा परम कर्तव्य है। जिस प्रकार मैं अत्यंत सावधानीपूर्वक ब्राह्मण के समक्ष अपना प्रणाम अर्पित कर रहा था, आप सभी को उसी प्रकार उन्हें अपना प्रणाम अर्पित करना है। जो ऐसा नहीं करेगा, मैं स्वयं उसे दण्डित करूँगा ”। [श्रीमद्-भागवतम १०.६४.४१]
श्रीचैतन्य चरितामृत [आदि लीला १६. ३०१] और श्रीवराह पुराण जैसे कई अन्य शास्त्रों में उल्लेख प्राप्त होता है कि, कलियुग में राक्षस ब्राह्मणों के परिवार में जन्म लेकर उन दुर्लभ आत्माओं को प्रताड़ित करेंगे, जो वैदिक जीवन का अनुगमन कर रहे होंगे। शास्त्र ऐसे तथाकथित ब्राह्मणों का स्पर्श करने से, उनसे वार्तालाप करने से, यहाँ तक कि उन्हें प्रणाम करने के लिए भी मना करते हैं।
यदि हम इस बिंदु पर ध्यानपूर्वक चिंतन करें, तो हमें यह विरोधात्मक प्रतीत हो सकता है। कई आचार्यों ने स्मार्त-ब्राह्मणों पर कई मत प्रस्तुत किए हैं। वहीं दूसरी ओर शास्त्र और कुछ आचार्य हमें यह निर्देश भी देते हैं कि हमें ब्राह्मणों का सम्मान करते हुए उन्हें अपना प्रणाम अर्पित करना चाहिए। अतएव हमें तत्त्व ज्ञात होना चाहिए। श्रीचैतन्य महाप्रभु सभी जीवों का सम्मान करने के लिए इसलिए कहते हैं क्योंकि सभी जीव के हृदय में श्रीकृष्ण परमात्मा रूप में विद्यमान हैं। अतएव ऐसा करने से हम उस जीव के शरीर को नहीं, अपितु उसके हृदय में स्थित परमात्मा को अपना सम्मान व प्रणाम अर्पित करते हैं। किंतु कनिष्ठ भक्त के लिए यह कर पाना संभव नहीं है। एक कनिष्ठ भक्त केवल उसी व्यक्ति को सम्मान देता है जो उसका सम्मान करता है। किंतु एक मध्यम अधिकारी भक्त सदैव शास्त्र-निर्देशों का यथारूप पालन करता है। उसे यह परख होती है कि किन वैष्णवों का संग करना उसके लिए कल्याणप्रद रहेगा और किनका नहीं, अतएव वह उन उपयुक्त व्यक्तियों का अन्यों से भेद करने में सर्वथा समर्थ रहता है। इस भेदभाव में सामान्य जनता और कनिष्ठ भक्त भी सम्मिलित हैं। मध्यम अधिकारी भगवान के भक्तों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति का संग नहीं करता। कनिष्ठ भक्त एवं सामान्य जनता अधिकतर समय मायावादियों, स्मार्त-ब्राह्मणों और लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा प्राप्त करने की लालसा से कुछ भावुक व्यक्तियों (या सहजिया) का संग करती है। अपनी भक्ति की रक्षा करने हेतु शास्त्र हमें ऐसे व्यक्तियों का संग करने से वर्जित करते हैं। एक उत्तम अधिकारी सर्वत्र श्रीकृष्ण का दर्शन करते हैं और इसी कारण वे स्वाभाविक रूप से ही सभी का सम्मान करते हैं। प्रचार करने के उद्देश्य से उत्तम-अधिकारी भक्त, मध्यम-अधिकारी के स्तर पर उतरकर, समाज की स्थिति के अनुसार प्रचार करते हैं। वे हमारी रक्षा करने हेतु बाह्य रूप से तो मायावादियों, स्मार्त-ब्राह्मणों और सहजिया व्यक्तियों की समालोचना करते हैं, परंतु उनके हृदय में उनमें से किसी के भी प्रति ईर्ष्या या दोष की भावना नहीं होती। वे प्रेम स्तर पर स्थित महानुभाव हैं, अत: वे केवल सिद्धांत स्थापित करने के लिए, परंपरा के विशुद्ध प्रवाह को बनाए रखने के लिए और सामान्य जनता को असत् संग से रक्षा प्रदान करने के लिए ही उन भगवद्भक्ति के विरोधियों की आलोचना करते हैं। मगर ऐसा करते समय भी वे आंतरिक रूप से अपनी स्वाभाविक स्थिति पर अविचल भाव से स्थिर रहते हैं। परंतु जब हम किसी की समालोचना करते हैं, तब हमारे हृदय में तत्क्षणात उस व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या और दोष-बुद्धि प्रकट हो जाती है। यह हमारे आध्यात्मिक जीवन के लिए एक अत्यंत भयावह स्थिति है। इसी कारण हमें अपने व्यवहार को लेकर अत्यंत सतर्क रहना चाहिए। स्थान, काल और परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न निर्देश दिए गए हैं, किंतु हमें अपने मन में सभी जीवों का सम्मान करना है और उन्हें अपना प्रणाम अर्पित करना है।
८) श्रील जीव गोस्वामी प्रभु एक अति रुचिकर प्रसंग का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि गंगा एवं अन्य पवित्र तीर्थों में स्नान करने से पूर्व हमें पुण्यार्जन की मानसिकता से मुक्त होना होगा। वे भक्ति-संदर्भ [श्लोक १७३] में वर्णन करते हैं कि यद्यपि एक भक्त को पूर्ण विश्वास होता है कि श्रीकृष्ण के स्मरण मात्र से अथवा उनके पवित्र नाम के जप से वह सभी प्रकार के फल प्राप्त कर लेता है और आंतरिक एवं बाह्य, दोनों रूपों से शुद्ध हो जाता है, फिर भी वह व्यासदेव और नारद जैसे महान ऋषी और मुनियों द्वारा प्रदत्त निर्देशों का सम्मान करने के लिए तीर्थ में स्नान करता है। श्रीमद्-भागवतम [३.३३.७] में माता देवहूति कहती हैं – “ओह! वे कितने धन्य हैं जिनकी जिह्वाएँ आपके पवित्र नाम का जप करती हैं! कुत्ता खाने वाले (चण्डाल) वंशों में उत्पन्न होते हुए भी ऐसे व्यक्ति पूज्यनीय हैं। जो व्यक्ति आपके पवित्र नाम का जप करते हैं उन्होंने सभी प्रकार की तपस्याएँ तथा यज्ञ (हवन) किये होंगे और आर्यों के सदाचार प्राप्त किये होंगे। आपके पवित्र नाम का जप करते रहने के लिए उन्होंने तीर्थस्थानों में स्नान किया होगा, वेदों का अध्ययन किया होगा और ऐसा वरदान प्राप्त करने हेतु अपेक्षित हर वस्तु की पूर्ति की होगी। ”
अत: निष्कर्ष यही है कि हमें सदैव आचार्यों द्वारा प्रदत्त सिद्धांतों का यथारूप पालन करना चाहिए। हमें अपनी दुर्बलताओं के कारण अपने आध्यात्मिक जीवन में कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिस कारण से हम अनेकानेक परिस्थितियों में आचार्यों के सिद्धांतों की प्रशंसा नहीं कर पाते। कभी-कभी हम उन सिद्धान्तों का पालन तो करते हैं, किंतु उनमें हमारी श्रद्धा नहीं होती। हमारे आध्यात्मिक जीवन की सभी समस्याओं का यही मुख्य कारण है। हम कितने भी योग्य क्यों न हों, किंतु हमें स्वयं को बारंबार स्मरण कराना चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन में सफलता प्राप्त करने का हमारा प्रयास आचार्य की कृपा के बिना केवल एक स्वप्न मात्र है।
९) यदि भगवान के शुद्ध-भक्त आपको वाक्य से पीड़ा दें, या फिर आपको दण्डित करें, तब भी आपका परम कर्तव्य है कि आप उनको पूर्ण रूप से सम्मान दें। कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि “मेरा तो कोई दोष नहीं है, तब भी गुरुदेव मुझे दण्डित क्यों कर रहे हैं?” इसका उत्तर है: वर्तमान स्थिति में हो सकता है कि हमारा कोई दोष न हो, परंतु भविष्य में हम अवश्य दोषी बनेंगे और फिर पूर्व काल में संभवतः हमारे अनेक दोष रहे थे जिनसे हम अज्ञात हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम दोषों की खान हैं। यदि हम शुद्ध होते, तो फिर हमारा जन्म इस भौतिक संसार में क्यों होता? भगवान के शुद्ध-भक्त किसी के भी प्रति ईर्ष्यालु नहीं होते। उनके माध्यम से श्रीकृष्ण हमारे दोषों का शोधन करना चाहते हैं। हमारे गुरुदेव [श्रील गौर गोविन्द स्वामी महाराज] प्राय: कहा करते थे कि अपने दोषों को स्वीकार करो, तभी तुम्हारी भक्ति-जीवन में जीवित रहने की आशा है। अपने दोषों को स्वीकार करना अत्यंत कठिन कार्य है। कभी-कभी हमारे भविष्य को उज्जवल बनाने हेतु भी हमें दण्ड दिया जाता है।
एक व्यक्ति ने कहा है – अपने दोषों के लिए हम एक वकील की भाँति और दूसरों के दोषों के लिए एक न्यायाधीश की भाँति कार्य करते हैं। कोई प्रश्न कर सकता है कि यदि गुरु किसी ऐसे शिष्य का त्याग कर दें जिसकी कोई भूल न हो, उस स्थिति में शिष्य का क्या कर्तव्य होना चाहिए? श्रीगुरु के चरणों का आश्रय प्राप्त करने हेतु उसे पुन:, बारंबार क्रंदन एवं प्रार्थना करनी चाहिए। यदि तब भी गुरु उसे आश्रय प्रदान करने से मना कर देते हैं और उसके दोषों की कोई व्याख्या नहीं करते, तो उसे उन वैष्णवों से प्रार्थना करनी चाहिए जो गुरुदेव को अत्यंत प्रिय हैं, ताकि वे वैष्णव उसके लिए गुरुदेव से प्रार्थना कर सकें। यदि फिर भी गुरुदेव उसे स्वीकार नहीं करते, तब उसे क्या करना चाहिए? ऐसी स्थिति में भी उसके पास एक शुद्ध-भक्त का त्याग करने का अधिकार नहीं है। उसे एकांत स्थान पर निवास करते हुए हरिनाम का जप करना चाहिए और विलाप करते हुए नाम प्रभु, श्रीचैतन्य महाप्रभु और वैष्णवों से प्रार्थना करनी चाहिए ताकि गुरुदेव उससे पुन: प्रसन्न होकर उसे स्वीकार कर लें। ऐसा श्रील जीव गोस्वामी प्रभु के साथ हुआ था। एक बार श्रील रूप गोस्वामी, प्रभु श्रील जीव गोस्वामी प्रभु से अप्रसन्न हो गए थे क्योंकि उन्होंने श्रील वल्लभाचार्य प्रभु से तर्क-वितर्क कर उन्हें परास्त कर दिया था। श्रील वल्लभाचार्य प्रभु, श्रील रूप गोस्वामी प्रभु द्वारा विरचित श्लोक का संशोधन करना चाहते जबकि वह पूर्णतया त्रुटि-रहित था। एक वास्तविक शिष्य होने के नाते, श्रील जीव गोस्वामी प्रभु अपने गुरुदेव का सम्मान रखना चाहते थे। अतः उनका श्रील वल्लभाचार्य प्रभु को परास्त करना बिल्कुल सही था। किंतु यह श्रील रूप गोस्वामी प्रभु का मनोभाव नहीं था। यद्यपि श्रील जीव गोस्वामी प्रभु अपने गुरु की सेवा करके उन्हें प्रसन्न करना चाहते थे, परंतु सेवा करने से पूर्व उनके लिए अपने गुरु की मनोवृत्ति को समझना अत्यधिक अनिवार्य था। क्योंकि श्रील वल्लभाचार्य प्रभु एक वरिष्ठ वैष्णव थे, इसलिए श्रील रूप गोस्वामी प्रभु उनका आदर करना चाहते थे। परन्तु श्रील जीव गोस्वामी प्रभु अपने गुरु की परिशुद्ध रचना में दोष बताए जाने पर श्रील वल्लभाचार्य प्रभु से तर्क कर बैठे जिसके चलते श्रील रूप गोस्वामी प्रभु ने उनका परित्याग कर दिया। यद्यपि श्रील जीव गोस्वामी प्रभु की श्लोक का अर्थ समझने व समझाने में कोई भूल नहीं थी, किंतु उनका दोष यह था कि वे अपने गुरु के मनोभाव को सही ढंग से नहीं समझ पाए। यद्यपि श्रील रूप गोस्वामी प्रभु, श्रील जीव गोस्वामी प्रभु की और अधिक सेवा ग्रहण नहीं करना चाहते थे, किंतु तब भी श्रील जीव गोस्वामी प्रभु ने उनके आश्रय का त्याग नहीं किया। वे वृंदावन में, एक निर्जन स्थान पर निवास करके श्रील रूप गोस्वामी प्रभु को प्रसन्न करने हेतु भजन करने लगे। कुछ समय के पश्चात सनातन गोस्वामी को इस वृतांत की सूचना प्राप्त हुई और वे इस समस्या का समाधान करने गए। अत: निष्कर्ष यह है कि किसी भी परिस्थिति में हमारे पास एक शुद्ध-भक्त के आश्रय का त्याग करने का अधिकार नहीं है। ऐसी कुत्सित मानसिकता तभी हमारे हृदय में प्रविष्ट होती है जब कृष्ण हमको पहले से ही त्याग चुके हों।
शिवजी और ब्रह्माजी तक भगवान की सेवा करने के लिए सदैव आतुर रहते हैं, किंतु हम अपने दांभिक स्वभाव के कारण कभी-कभी अपनी सेवा को छोड़ देते हैं। उस समय हमारी कोई भी सेवा करने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ है कि भगवान अब हमसे और अधिक सेवा नहीं लेना चाहते; इसी कारण हमारे भीतर ऐसी मानसिकता का विकास होता है। हमारे पास एक शुद्ध-भक्त को, उनके निर्णय को, उनके आदेश अथवा उनकी योजनाओं को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि एक शुद्ध-भक्त भगवान के ही भाँति स्वतंत्र होते हैं। [श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य-लीला १०.१३७] में श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्रील सार्वभौम भट्टाचार्य को यही बतलाया है। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा: “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान तथा मेरे गुरु श्रील ईश्वर पुरी, दोनों पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं। इसलिए न ही भगवान की और न ही श्रील ईश्वर पुरी की कृपा किसी वैदिक नियम के अधीन है।”
[श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य-लीला १०.१३६] में श्रील प्रभुपाद अपने तात्पर्य में वर्णन करते हैं कि श्रील ईश्वर पुरी इतने शक्ति-संपन्न थे कि वे भगवान के समान थे। इसलिए श्रील ईश्वर पुरी संपूर्ण विश्व के गुरु, जगद्-गुरु थे। वे किसी सांसारिक नियम के अधीन नहीं थे।
निष्कर्ष यही है कि हमें सभी परिस्थितियों में एक शुद्ध-भक्त का पूर्ण सम्मान करना चाहिए।
आपका सेवक और शुभचिंतक,
हलधर स्वामी
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