वैष्णव शिष्टाचार भाग 3
हरे कृष्ण प्रिय पाठकों,
श्री श्री गुरु एवं गौरांग की महती कृपा से इस लेख में हम कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण वैष्णव सिद्धांतों तथा वैष्णव सदाचार पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे, जिनकी सहायता से हम अपने आध्यात्मिक कर्तव्यों का यथावत पालन कर सकते हैं।
१०) जब भी गुरुदेव हमें कोई सेवा करने का आदेश देते हैं और हम उस सेवा को करने में आलस करते हैं या फिर उस सेवा को प्रेम अथवा स्नेह से नहीं अपितु भार समझकर करते हैं, तो यह गुरुचरण में अपराध है। यदि हम स्वयं उस सेवा का प्रतिपादन न करके किसी अन्य भक्त को उस सेवा में नियुक्त कर देते हैं, तो वह भी एक अपराध है। हम किसी भी परिस्थिति में गुरुदेव के आदेश का उल्लंघन नहीं कर सकते। हमारा एकमात्र कर्तव्य है गुरु-आदेश का यथारूप पालन करना। हम उनके आदेश में न तो अपने मतानुसार कुछ परिवर्तन कर सकते हैं और न ही उसे अपनी इच्छानुसार नकार सकते हैं।
श्रील प्रभुपाद श्रीमद्-भागवतम [४.८.७१] के अपने तात्पर्य में इस बात की पुष्टि करते हैं: “यदि हम भगवान के धाम को वापस जाने के प्रयास में सफल होना चाहते हैं, तो हमें गुरु के आदेशों के अनुसार गंभीरतापूर्वक कार्य करना चाहिए। सिद्धि का यही मार्ग है। हमें सिद्धि-प्राप्ति के विषय में तनिक भी चिंता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जो गुरु के आदेशों का पालन करता है, वह अवश्य ही सिद्धि प्राप्त करता है। हमारी एकमात्र चिंता यह होनी चाहिए कि गुरु के आदेश को कैसे पूरा किया जाए।”
हमारी बद्ध-अवस्था के कारण गुरु के आदेशों का पालन करना अत्यंत कठिन हो जाता है। कई परिस्थितियों में हमें गुरु के आदेश और वैदिक नियमों में विरोधाभास दिखाई पड़ता है। उस स्थिति में हमें किसी उन्नत अधिकारी वैष्णव से परामर्श लेना चाहिए जो हमारा उचित मार्गदर्शन कर सकें। इसका उदाहरण हमें स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभु के जीवन से प्राप्त होता है, जब उन्होंने श्रील सार्वभौम भट्टाचार्य से परामर्श लिया था [श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य-लीला १०.१४३]: “अतएव यह उचित नहीं होगा कि गुरु का सेवक मेरी निजी सेवा करे। फिर भी मेरे गुरु ने यह आदेश दिया है। तो मैं क्या करूँ?” उत्तर में सार्वभौम भट्टाचार्य ने कहा, “गुरु का आदेश अत्यंत बलवान होता है और उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। यही प्रमाणिक शास्त्रों का आदेश है।”
हम सभी कार्यकलाप प्रकृति के तीन गुणों के अधीन होकर करते हैं। सभी विचार एवं योजनाएँ, हमारे कलुषित भौतिक मन द्वारा प्रकट होती हैं, दूसरी ओर एक शुद्ध-भक्त के सभी विचार एवं योजनाएँ स्वयं श्रीकृष्ण द्वारा प्रेरित होती हैं अर्थात् श्रीकृष्ण अपने प्रेमी भक्तों के अन्तःकरण से उन्हें उपदेश प्रदान करते हैं। हमारा मन एवं बुद्धि, दोनों श्रीकृष्ण की इच्छा से पृथक हैं, इसलिए हम बद्ध-अवस्था में हैं। परंतु श्रीकृष्ण शुद्ध-भक्त के मन को अधिकृत कर लेते हैं। फलत: उनका मन कृष्ण की इच्छानुसार कार्य करता है। उनके मन की सभी इच्छाएँ, भावनाएँ एवं अन्य क्रियाएँ कृष्ण की इच्छा से ही प्रकट होती हैं। इसलिए हमें गुरु के आदेश का यथारूप पालन करना चाहिए।
श्रील प्रभुपाद श्रीमद्-भागवतम [७.४.३७] के तात्पर्य में वर्णन करते हैं, “कभी-कभी यह कहा जाता है कि यदि व्यक्ति पर शनि, राहु अथवा केतु जैसे बुरे ग्रहों का प्रभाव होता है, तो वह किसी भावी कार्य में उन्नति नहीं कर पाता। इसके ठीक विपरीत, प्रह्लाद महाराज कृष्ण रूपी परम ग्रह द्वारा प्रभावित थे। अतएव वे भौतिक जगत के विषय में न तो सोच सकते थे, न कृष्णभावनामृत के बिना जीवित रह सकते थे। यह महाभागवत का लक्षण है।”
इस तात्पर्य में यह इंगित किया गया है कि एक शुद्ध-भक्त का मन, इंद्रियाँ और बुद्धि, सभी कुछ कृष्ण की इच्छा के अंतर्गत कार्य करते हैं। इसलिए हमें अपने शरीर, मन एवं वाणी द्वारा गुरु की सेवा करनी चाहिए और उनके आदेशों को परम सत्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
११) हम केवल बाह्य प्रदर्शन के लिए या फिर शिष्टाचारवश होकर एक शुद्ध-भक्त का गुणगान या उनकी आराधना करते हैं, किंतु वास्तव में हम उनकी उन्नत स्थिति को हृदय से नहीं समझ पाते। क्योंकि हमारा एक शुद्ध-भक्त के प्रति स्वाभाविक स्नेह एवं सम्मान नहीं है, इसलिए क्रमश: हमारी उनके प्रति ईर्ष्यालु मानसिकता विकसित हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप हमारी भक्ति-वृत्ति अंतत: नष्ट हो जाती है। जब हमें समाज में एक शुद्ध-भक्त का महिमागान करने का अवसर प्राप्त नहीं होता, तब हमें अपने हृदय में उनके दिव्य एवं महान गुणों का चिंतन और उनका गुणगान करना चाहिए। इस विधि का पालन करने से हम ईर्ष्यालु मानसिकता से बच सकते हैं। एक शुद्ध-भक्त के प्रति ईर्ष्यालु भावना आध्यात्मिक जीवन में आत्म-हत्या करने के बराबर है। अतएव हमें अपनी प्रतिष्ठा की परवाह किए बिना, निष्कपट भाव से एक शुद्ध-भक्त के समक्ष उनके दिव्य गुणों का महिमाकीर्तन अथवा स्मरण करना चाहिए। यह हमारी भक्ति या आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल है। कोई भी व्यक्ति भक्तों का गुणगान किए बिना कृष्ण का गुणगान नहीं कर सकता। क्या द्रौपदी, सुदामा, अर्जुन और गोपियों के बिना कृष्ण का गुणगान कर पाना संभव है? भगवान के सभी गुण उनकी अंतरंग भक्तों के साथ उनकी पारस्परिक प्रेमपूर्ण लीलाओं के माध्यम से ही प्रकट होती हैं। ऐसी स्थिति में शुद्ध-भक्त का अनादर करके कृष्ण को प्रसन्न कर पाना कैसे संभव है?
१२) यदि कोई हरिनाम-संकीर्तन या भागवत कथा द्वारा अर्जित लक्ष्मी (धन) का उपयोग अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए करता है, तो यह भी एक अपराध है। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज ने ऐसे तथाकथित वैष्णवों के मुख से कृष्ण-कथा या कृष्ण-कीर्तन श्रवण करने से सख्त मना किया है। वे कीर्तन-व्यवसायी और कथा-व्यवसायी हैं। यदि कोई ऐसे व्यक्तियों से कथा या कीर्तन का श्रवण करने की इच्छा रखता है, तो यह केवल इंद्रिय तृप्ति है। यह कर्ण-लाम्पट्य कहलाता है। गुरुदेव (श्रील गौर गोविन्द स्वामी महाराज) कहा करते थे कि ऐसे व्यक्तियों के मुख से कीर्तन अथवा हरि-कथा का प्रवचन गोली बिना बंदूक को चलाने के समान निरर्थक है, अन्य शब्दों में वह एक ब्लैंक-फायर है, जिसका अर्थ यह है कि उन कीर्तन व्यवसायी या कथा व्यवसायी का श्रवण करके हम अपने अनर्थों से कदापि मुक्त नहीं हो सकते, अपितु इसके विपरीत हम और अधिक सूक्ष्म अनर्थों से ग्रस्त हो जाएँगे। यद्यपि हम श्रवण और कीर्तन कर रहे होंगे, फिर भी हमारे भीतर सूक्ष्म अनर्थ दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँगे। केवल शब्द-ब्रह्म द्वारा ही हमारे अनर्थों का नाश सम्भव है, जो एक शुद्ध-भक्त के माध्यम से अवतरित होते हैं।
१३) श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा से, हमारे भरण-पोषण हेतु हमें जो कुछ भी प्राप्त होता है, हमें उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शिष्टाचार है। कृष्ण-भजन के लिए किसी व्यक्ति को अधिक से अधिक भौतिक संपत्ति अर्जित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह कभी भी शुद्ध-भक्ति का स्तर प्राप्त नहीं कर सकता। श्रील प्रभुपाद सदैव ‘सरल जीवन, उच्च विचार’ पर बल दिया करते थे। जब हमारा व्यक्तिगत जीवन सरल होगा, तब हम भक्ति अच्छे से कर सकेंगे, क्योंकि तब हम अन्य कार्यों से समय बचाकर भक्तिमय कार्यों में उपयोग कर सकेंगे। कृष्ण वृंदावन को इतना पसंद क्यों करते हैं? क्योंकि व्रजवासियों का जीवन अत्यंत सरल है। वे गाय चराते हैं, गोबर के उपलो पर भोजन तैयार करते हैं और यमुना नदी के जल का उपयोग करते हैं। उनका हृदय सदैव कृष्ण में तल्लीन रहता है। एक भक्त का जीवन सरल होना चाहिए। उसे साधारण रहन-सहन, शुद्ध मन तथा शुद्ध विचार पर ध्यान देना चाहिए। एक सरल भक्त का श्री श्री गुरु एवं गौरांग पर अटूट विश्वास होता है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे: “एक छोटे बालक की भाँति सरल बनो”। सरलता के बिना भक्ति-जीवन में प्रवेश करना कभी संभव नहीं है। भौतिक जीवन का अर्थ है जटिलता और आध्यात्मिक जीवन का अर्थ है सरलता।
१४) हमें प्रत्येक परिस्थिति में भक्ति करने के लिए अपने उत्साह को जीवित रखना चाहिए। अनेक बाधाएँ अथवा अवरोधक हमारे समक्ष आयेंगे, किंतु फिर भी हमें आशावादी बने रहना है। उदाहरणत:, कर्मी व्यक्ति अनेक बाधाओं का सामना करता है, किंतु फिर भी उसका भोगने का उत्साह घटता नहीं है।
१५) हमारी भक्ति-पथ पर अविचल श्रद्धा होनी चाहिए; साथ ही हमें अपनी सहन-शक्ति बढ़ानी चाहिए। गुरुदेव कहते थे: “यदि आपकी भगवान का एक वास्तविक (शुद्ध) भक्त बनने की इच्छा है, तो आपको एक पत्थर की भाँति सहन करना होगा।” इसलिए हमें किसी भी अवस्था में निराश नहीं होना चाहिए, हमें सदैव यह आशा रखनी चाहिए कि श्री श्री गुरु एवं गौरांग हमारी सेवा स्वीकार करके हम पर अपनी कृपा प्रदर्शित करेंगे, जिससे हमारा जीवन सफल हो जाएगा।
१६) हमें अपने सुख की इच्छा का परित्याग करके श्री श्री गुरु एवं गौरांग की प्रसन्नता के लिए निरंतर श्रवण और कीर्तन में संलग्न रहना चाहिए।
१७) हमें अभक्तों का संग नहीं करना चाहिए।
१८) हमें महाजनों द्वारा प्रदर्शित पथ और शिष्टाचार का दृढ़तापूर्वक अनुसरण करना चाहिए और सदैव श्री श्री गुरु एवं गौरांग की कृपा प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा विकसित करनी चाहिए।
१९) हमें ऐसे व्यक्ति का संग नहीं करना चाहिए जिसकी गुरु और कृष्ण को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कामनाएँ हैं। हमें एकांत स्थान पर नहीं, अपितु सदैव शुद्ध-भक्तों के संग में रहने की कामना करनी चाहिए क्योंकि हमारा भौतिक मन कभी अकेला नहीं रहता, वह सदैव हज़ारों भौतिक स्वप्नों (इच्छाओं) को पूरा करने की योजना बनाता रहता है।
२०) हमें किसी भी आचार्य का अनुकरण (नकल) नहीं करना चाहिए; अपितु हमें उनकी अहैतुकी कृपा की याचना करनी चाहिए, ताकि हम अपने भक्ति-जीवन का निर्वाह कर सके। अनुकरण करने का अर्थ है कि हमारा अपनी स्वाभाविक स्थिति से पतन हो गया है।
सारांश यह है कि यदि हम निरंतर किसी शुद्ध-भक्त का संग करते हैं, तो उनका संग करने से, उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करने से और उनसे श्रद्धापूर्वक श्रवण करके हम में सभी प्रकार के सद्-गुण विकसित हो जाएँगे, जो हमारे भक्ति-जीवन की वास्तविक तथा एकमात्र संपत्ति है।
इनके अतिरिक्त अन्य कई वैष्णव सदाचार हैं, जिनका पालन करके हम आध्यात्मिक क्रियाकलापों का संपादन उत्तम रूप से कर सकते हैं, परंतु यह वैष्णव सदाचार पर अंतिम लेख है। अगले लेख से हम किसी अन्य विषय पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे।
आपका सेवक एवं शुभचिंतक,
हलधर स्वामी
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