व्यास-पूजा का वास्तविक अर्थ
“…..श्री गौर हरि और श्री नित्यानंद प्रभु "हरे कृष्ण" महामंत्र प्रदाता, अखिल ब्रह्मांड के आध्यात्मिक गुरु और शुद्ध नाम जप के जनक हैं। वे दोनों ही ब्रह्मांड के परम उपकारक हैं, क्योंकि वे जीव दया जैसे सिद्धांतों का प्रचार करते हैं...”
"...श्री गौरांग और श्री नित्यानंद प्रभु ने जगद्गुरु एवं आचार्य की भूमिका निभाई और इस संसार के लोगों को भगवान की भक्तिमय सेवा (शुद्ध भक्ति) सिखाई, अतः वे समस्त ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इस अवतार में उन्होंने स्वयं को ग्वाल बाल नहीं समझा और न ही गौड़-देश या उड़ीसा में किसी गोपी के संग रास-लीला किया..."
— श्रील वृंदावन दास ठाकुर द्वारा विरचित श्री चैतन्य-भागवत, आदि-खंड १.१ पर श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद की टिप्पणी
तबे नित्यानन्द - गोसाञिर व्यास - पूजन।
नित्यानन्दावेशे कैल मुषल धारण॥
"तब नित्यानंद प्रभु ने भगवान् श्री गौरसुंदर की व्यास-पूजा अर्थात गुरु-पूजा करने का प्रबंध किया। किंतु श्री चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु के भाव में आकर मूषल धारण कर लिया।"
तात्पर्य: महाप्रभु के आदेश से नित्यानंद प्रभु ने पूर्णिमा की रात में व्यास पूजा की तैयारी की। उन्होंने व्यास-पूजा अर्थात गुरु-पूजा की तैयारी व्यासदेव के माध्यम से की। चूँकि व्यासदेव वैदिक धर्मावलंबियों के मूल गुरु है, इसलिए गुरु की पूजा व्यास-पूजा कहलाती है। नित्यानंद प्रभु ने व्यास-पूजा की तैयारी की थी और संकीर्तन चल रहा था, किंतु जब उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के गले में माला पहनानी चाही, तो उन्होंने चैतन्य महाप्रभु में अपने आप को देखा। चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानंद प्रभु की आध्यात्मिक स्थिति में, अर्थात कृष्ण और बलराम में कोई अंतर नहीं है। वे सभी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के ही विभिन्न प्राकट्य हैं। इस विशिष्ट समारोह में श्री चैतन्य महाप्रभु के सारे भक्त यह समझ गए की चैतन्य महाप्रभु तथा नित्यानंद प्रभु में कोई अंतर नहीं है। (चैतन्य चरितामृत आदि लीला १७. १६)
चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान् हैं-
व्रजेन्द्र-नन्दन येई, सचि-सुत हइला सेई,
बलराम हाईल निताई
(प्रार्थना, इष्ट-देवे विज्ञाप्ति)
नंद-नंदन श्रीकृष्ण ही चैतन्य महाप्रभु हैं और बलराम निताई हैं। कृष्ण समस्त अवतारों के स्रोत अर्थात अवतारी हैं, जबकि बलराम उनके अवतार हैं। ब्रह्म-संहिता में अत्यंत सुन्दर उदाहरण दिया गया है। मूल दीपक से अनेक दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं, और सभी दीपों में समान प्रकाश देने की क्षमता होती है। सदृश, महाप्रभु ने बताया कि अवतार और अवतारी अभिन्न है। नित्यानन्दावेशे कैल मुषल धारण, नित्यानंद प्रभु के आवेश में, चैतन्य महाप्रभु ने मूसल धारण किये हुए श्री नित्यानंद का स्वरूप प्रदर्शित किया। "जब उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के गले में माला पहनानी चाही, तो उन्होंने चैतन्य महाप्रभु में अपने आप को देखा।" अतः चैतन्य महाप्रभु एवं श्री नित्यानंद प्रभु में कोई अंतर नहीं है, इसी प्रकार कृष्ण और बलराम में भी कोई भेद नहीं है। यही सिद्धांत है। गौर-अवतार एक अंशावतार नहीं, अपितु पूर्ण-अवतार हैं। प्रबोधानंद सरस्वतीपाद चैतन्य-चंद्रामृत में कहते हैं:
यदि निगदित मीनाद्यंशवदगौरचन्द्रो
न तदपि स हि कश्चिच्छक्तिलीलाविकाशः
अतुलसकलशक्त्याश्चर्यलीलाप्रकाशैः-
रनधिगतमहत्त्वं पूर्ण एवावतर्णः
यदि कोई व्यक्ति कहता है कि चैतन्य महाप्रभु भी मत्स्य इत्यादि अवतारों के समान अंशावतार, लीला-अवतार या शक्त्यावेश-अवतार हैं, तो वह भगवान चैतन्य की वास्तविक महिमा को नहीं समझता है। चैतन्य महाप्रभु समस्त अचिन्त्य शक्तियों और अद्भुत लीलाओं से युक्त परम भगवान् हैं। (श्री चैतन्य-चन्द्रामृत १४१)
श्री गौरांग महाप्रभु को समझना सरल नहीं है। वे अतुलनीय शक्तियों से युक्त पूर्ण-अवतार हैं। अपनी असीम शक्तियों द्वारा उन्होंने अनेक अद्भुत लीलाएं प्रकट की हैं। इस लीला-तत्त्व का बोध भौतिक ज्ञान या विद्वत्ता के माध्यम से नहीं हो सकता।
महाप्रभु असीम करुणा के सागर हैं:
न योगो न ध्यानं नच जपतपस्त्यागनियमा
न वेदा नाचारः क्व नु वत निषिध्दाद्यु परतिः
अकस्माच्चैतन्येऽवतरित दयासारहृदये
पुमर्थानां मौलिं परमिह मुदा लुण्ठति जनः
"अब जब चैतन्य महाप्रभु, जिनका हृदय करुणा का असीम सागर है, इस संसार में अवतरित हुए हैं, तो जो जीव पहले कभी योगाभ्यास, ध्यान, मंत्र जप, तपस्या, वैदिक नियमों का पालन, वेदाध्ययन, कोई भी आध्यात्मिक कार्य, या पापों से परहेज इत्यादि नहीं करते थे, वे सब भी जीवन का परम लक्ष्य प्रेम-धन को सरलता से प्राप्त करने में सक्षम हो गए हैं।" (श्री चैतन्य-चन्द्रामृत १११)
महाप्रभु अद्भुत रूप से औदार्य एवं असीम करुणा के सागर हैं। वे जीवों की योग्यता पर विचार न करते हुए प्रत्येक को बिना भेदभाव से कृष्ण प्रेम प्रदान करते हैं। जब महाप्रभु प्रकट हुए, तो सभी जीव प्रेम के सागर में डूब गए।
पात्रापात्रविचारणां न कुरुते नस्व॑ परं वीक्ष्यते
देयादेयविमर्शको नहि नवा कालप्रतीक्ष: प्रभु:।
सद्यो यः श्रवेणेक्षण प्रणमन ध्यानाविना दुर्लभं
दत्ते भक्तिरसं स एव भगवान् गोरः परं मे गतिः॥
"वे जीव की पात्रता, अपात्रता, अपना अथवा पराया का विचार नहीं करते हैं। वे काल की समता या विषमता पर भी विचार नहीं करते हैं। भगवान गौर-हरि तत्क्षण शुद्ध भक्तियुक्त अमृतमयी सेवा प्रदान करते हैं। यह सेवा भगवान के संदेशों को सुनने, विग्रह के दर्शन, प्रणाम अर्पित करने, ध्यान करने या आध्यात्मिक नियमों का पालन करने से भी प्राप्त करना असंभव है। वे परम भगवान गौर-हरि ही मेरी एकमात्र शरण हैं।" (श्री चैतन्य-चन्द्रामृत ७७)
गौर-हरि रास लीला के रहस्य को उजागर करते हैं
श्री गौरांग महाप्रभु ही मेरे एकमात्र आश्रयदाता हैं। श्री गौरांग महाप्रभु की कृपा के बिना कोई भी भागवत-तत्त्व को नहीं समझ सकता है।
श्रीमद्भागवतस्य यत्र परमं तात्पर्य्यमुट्टङ्कितं
श्रीवैयासकिना दुरन्वयतया रसप्रसङ्गेऽपि यत्।
यद्राधारतिकेलि नागररसास्वादैक सद्भाजनं
तद्वस्तु प्रथनाय गौरवपुषा लोकेऽवतीर्णो हरिः॥
"श्री श्री राधा-कृष्ण की मधुर लीलाएँ अत्यंत गुह्य विषय है और समझने में कठिन हैं, इसलिए शुकदेव गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत में राधा और कृष्ण की मधुर प्रेममयी लीलाओं का केवल संक्षिप्त वर्णन किया है; अब स्वयं भगवान इन लीलाओं के रहस्योद्घाटन के लिए गौर-हरि के रूप में इस धरा पर अवतरित हुए हैं।" (श्री चैतन्य-चन्द्रामृत १२२)
श्रीगौर हरि, भगवान श्रीकृष्ण के रास-लीला-प्रसंग के रहस्य को उजागर करने हेतु अवतरित हुए। श्रीमदभागवत वैदिक तरु का मधुरतम, परिपक्व एवं अमृतमय रसवान फल है-निगमकल्पतरोर्गलितं फलं (श्रीमद्भागवतम् १.१.३)। भागवत का सार तत्त्व रास-लीला है। यद्यपि, भागवत के वक्ता श्रीलशुकदेव गोस्वामी ने उद्देश्यपूर्वक ही रास-लीला का अप्रत्यक्ष रूप से वर्णन किया, क्योंकि रास लीला की माधुर्यता का आस्वादन करने वाले भक्त अति दुर्लभ हैं। अतएव, श्री श्री राधा-कृष्ण के अति-गोपनीय गूढ़-रास व प्रेमलीला को विस्तारपूर्वक प्रकाशित एवं पूरे विश्व में प्रचारित करने हेतु श्रीमान् महाप्रभु प्रकट हुए। वास्तव में, महाप्रभु की कृपा के बिना, कोई भी श्रीमद्भागवत या भागवत-तत्त्व को नहीं समझ सकता है।
प्रेम भंडार के संरक्षक और द्वारपाल
याह, भागवत पड़ वैष्णवेर स्थाने ।
एकान्त आश्रय कर चैतन्य - चरणे ॥
“यदि तुम श्रीमद्भागवत् समझना चाहते हो, तो तुम्हें किसी स्वरूपसिद्ध वैष्णव के पास जाकर उनसे सुनना चाहिए। तुम ऐसा तब कर सकते हो, जब तुम श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में पूरी तरह से शरण ग्रहण करते हो।” (चैतन्य-चरितामृत, अंत्य-लीला ५.१३१)
महाप्रभु प्रेम-पुरुषोत्तम हैं, वे कृष्ण-प्रेम प्रदान करते हैं, जो अनंत सागर के समान है।उनके पास प्रेम का भंडार है। उस प्रेम भंडार के संरक्षक एवं द्वारपाल कौन हैं? यह जानना आवश्यक है क्योंकि संरक्षक की कृपा के बिना, आप प्रेम प्राप्ति नहीं कर सकते हैं।
श्री नित्यानंद प्रभु इस प्रेम भंडार के संरक्षक और श्रील सनातन गोस्वामी इसके द्वारपाल हैं। इसलिए, श्रीमान् महाप्रभु स्वयं नित्यानंद प्रभु के रूप में प्रकट हुए। नित्यानंद प्रभु, चैतन्य महाप्रभु की तुलना में अधिक कृपालु, औदार्य एवं वदान्य हैं, वे अपने दोनों हस्तकमलों से इस प्रेम का वितरण करते हैं। नित्यानंद प्रभु सदा प्रेम-मदिरा में प्रमत्त रहते हैं। वे अवधूत-धारण हैं अर्थात प्रेम में पागल हैं। वे गौरसुंदर से भी अधिक अभेदी हैं। पूर्ववत इस प्रेम भंडार में मजबूत पट और ताले लगे हुए थे, किंतु जब महाप्रभु प्रकट हुए और उन्होंने नित्यानंद प्रभु को संरक्षक और श्रील सनातन गोस्वामी को इसके संरक्षक और द्वारपाल के रूप में नियुक्त किया, तो उन दोनों महाशय ने पट खोल दिया। श्रील सनातन गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध पर बृहद्-वैष्णव-तोषणी नामक एक टीका लिखी। इस टीका के माध्यम से, उन्होंने प्रेम भंडार के द्वार खोल दिए और सभी से कहा, "हे मेरे भाइओं, कृपया आओ! प्रेम भंडार के द्वार खुल चुके हैं। इसकी मधुरता का आस्वादन करो। इस प्रेम सिंधु में निमग्न हो जाओ। यदि आप इस प्रेम को प्राप्त कर लेंगे तो आप ब्रह्मा जी के पद को भी अति निकृष्ट समझेंगे।" चुंकि चैतन्य महाप्रभु, श्री नित्यानंदा प्रभु एवं श्रील सनातन गोस्वामी के स्वभाव को जानते हैं, इसलिए महाप्रभु ने उन्हें इस पदवी हेतु नियुक्त किया। ऐसे वैष्णवों की कृपा के बिना, कोई भी भागवत-धर्म-तत्त्व को नहीं समझ सकता है। निर्मत्सराणां सतां वेद्यं [श्रीमद्भागवतम् १.१.२], जो निर्मत्सर, ईर्ष्या एवं कापट्य से रहित हैं, केवल वही वैष्णव भागवत-धर्म-तत्त्व को समझ सकते हैं। अन्यों के लिए यह संभव नहीं हैं। भागवतम् कभी भी स्वयं को ईर्ष्यालु व्यक्तियों के समक्ष प्रकट नहीं करती हैं।
तीन प्रकार के कपटी व्यक्ति
इस संसार में तीन प्रकार के कपटी व्यक्ति हैं- धन-कपटी, बल-कपटी और प्रेम-कपटी। धन-कपटी व्यक्ति के पास अत्यधिक धन होता हैं, किंतु वे भागवत-धर्म के प्रचार एवं श्री गुरु, कृष्ण या वैष्णवों की सेवा हेतु कुछ व्यय नहीं करते। वे कभी भी भागवत-धर्म के प्रचार में रत वैष्णवों (भक्त-भागवत) को दान अर्पित नहीं करते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रथम श्रेणी के कपटी हैं जो भौतिक मद या सुख-सुविधा में अथाह पैसा खर्च करते हैं, परन्तु भक्त-भागवत या ग्रन्थ-भागवत की प्रसन्नता के लिएइस धन-राशि का कभी उपयोग नहीं करते हैं। ऐसे धन-कपटी व्यक्ति लोभी होते हैं और भागवत-धर्म तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं। वे महाप्रभु की कृपा प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यद्यपि महाप्रभु अत्यंत औदार्य भाव से भगवत प्रेम वितरित कर रहे हैं, परन्तु धन-कपटी यह प्रेम प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
दूसरी श्रेणी में बल-कपटी व्यक्ति हैं, जो शारीरिक रूप से बलवान व हृष्ट पुष्ट होते हुए भी महाप्रभु के कीर्तन में नृत्य नहीं करते हैं। वह मेरी तरह (परम पूज्य गौर गोविन्द स्वामी महाराज) अपंग नहीं है। मैं अंतर्मन में नृत्य करता हूँ, किंतु वह गौर-कीर्तन में तांडव-नृत्य नहीं करते हैं।
तृतीय श्रेणी प्रेम-कपटी व्यक्ति की होती है। यद्यपि उन्होंने प्रेम प्राप्त नहीं किया है, लेकिन वे दम्भपूर्वक उद्घोषित करते है, "ओह, मैं एक वैष्णव हूँ। मैं एक महान भक्त हूँ"।
यह तीन प्रकार के कपटी महाप्रभु की कृपा प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वे भागवत-धर्म-तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं। जब तक वे कापट्य और ईर्ष्या-द्वेष त्यागकर साधु, गुरु और वैष्णव की सेवा में संलग्न नहीं होते, उन्हें प्रेम प्राप्ति नहीं हो सकती है। उन्हें द्वैत भाव से रहित होकर निष्कपट-सेवा द्वारा साधु, गुरु की कृपा प्राप्त करनी चाहिए। अन्यथा, उन्हें महाप्रभु की कृपा प्राप्त नहीं हो सकती है। यद्यपि महाप्रभु बिना किसी भेदभाव से मुक्तहस्त कृष्ण-प्रेम प्रदान कर रहे हैं, परंतु ऐसे कपटी यह प्रेम प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसलिए महाप्रभु ने इस प्रेम भंडार के संरक्षक के रूप में श्रीनित्यानंद प्रभु को नियुक्त किया। अतः चैतन्य चरितामृत में व्यास-पूजा महोत्सव पर वर्णन है “ नित्यानंद प्रभु ने व्यास-पूजा की तैयारी की थी और संकीर्तन चल रहा था, किंतु जब उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के गले में माला पहनानी चाही, तो उन्होंने चैतन्य महाप्रभु में अपने आप को देखा”।
समस्त गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की पूजा
यहाँ पर उल्लेख है कि व्यास-पूजा का अर्थ है व्यासदेव के माध्यम से 'गुरु-पूजा'। “चूँकि व्यासदेव वैदिक धर्म का अनुसरण करने वालों के मूल गुरु है, इसलिए गुरु की पूजा व्यास-पूजा कहलाती है”।
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपादजी महाराज ने अपने ५०वें आविर्भाव दिवस पर व्यास-पूजा महोत्सव प्रारम्भ किया। अब यह उत्सव प्रति वर्ष मनाया जाता है। अपने ५२वें आविर्भाव दिवस पर, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपादजी महाराज ने श्रीमद्भागवत पर प्रवचन के समय व्यास-पूजा का वास्तविक अर्थ समझाया। उन्होंने कहा, "व्यास-पूजा का अर्थ है समस्त गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की पूजा।" इस कथन से हम व्यास-पूजा का तात्पर्य समझ सकते हैं। यह केवल श्रील व्यासदेव, श्रीकृष्ण, श्री गौर सुंदर, अथवा श्री गुरु की पूजा नहीं है। वास्तविक व्यास-पूजा का अर्थ है समस्त शुद्ध गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की पूजा। इस भक्तिविनोद-धारा में हमें व्यास-पूजा के लिए एक मंत्र मिलता है:
श्री दामोदर स्वरूप, श्री रूप, श्री सनातन, श्री रघुनाथ, श्री जीव, भट्ट युग, श्री कृष्णदास कविराज आदि, श्रीमद् भक्तिविनोद, श्रीमद् गौरकिशोर दास, श्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती, श्रीमद् भक्तिवेदांत स्वामी पादंक सर्वेभ्यो गुरवे नमः
"मैं सभी गुरुओं के चरणों में प्रणाम करता हूँ - श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी, श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी, श्रील जीव गोस्वामी, श्रील गोपाल भट्ट गोस्वामी, श्रील रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, और श्रील कृष्णदास कविराज से उत्तरवर्ती भक्तों, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर, श्रील गौर किशोर दास बाबाजी, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती प्रभुपाद, और श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद।"
अतः व्यास पूजा का अर्थ उपरोक्त वर्णित समस्त गौड़िय वैष्णव आचार्यों की पूजा है।
गौड़ीय वैष्णव आचार्यों का कृपामय उपहार
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा है, "गौड़ीय-वैष्णव-सिद्धान्त सभी गौड़ीय वैष्णव आचार्य महाजनों का मत है। जो कुछ भी गौड़ीय वैष्णव सिद्धान्त हमें प्राप्त है, वह गुरु-वर्ग-धन है, सभी गौड़ीय वैष्णव आचार्यों का अनुपम कृपामय उपहार। यह गुरु-वैष्णव-आचार्यों का लीला-वैशिष्ट्य है, अर्थात यह उनकी लीला की अद्भुत विशेषता है तथा गौड़ीय वैष्णव सिद्धान्त उनकी कृपामय लीला का महत्वपूर्ण विशेषज्ञ, अर्थात कृपा-वैशिष्ट्य है। यदि हम इस महोत्सव का पालन नहीं करते हैं तथा गौड़ीय वैष्णव आचार्यों का महिमागान एवं उन्हें स्मरण नहीं करते हैं, तो यह उनके प्रति महानतम सेवा अपराध होगा। यदि हम ऐसे महाजनों एवं आचार्यों के वैशिष्ट्य - अद्भुत गुणों की परिचर्चा नहीं करते हैं अथवा उनके आविर्भाव व तिरोभाव दिवस का पालन ना करते हुए निष्क्रिय रहते हैं, तो यह सबसे बड़ा अन्याय व अधर्म है। उनकी कृपा के बिना हम इस गौड़ीय वैष्णव सिद्धान्त को रंच मात्र भी नहीं समझ सकते हैं। यद्यपि श्रीमान् महाप्रभु अद्भुत रूप से दयालु हैं व बिना किसी भेदभाव से कृष्ण-प्रेम प्रदान कर रहे हैं, फिर भी, हम वैष्णव-आचार्यों की कृपा के बिना इसे प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
कोई समझौता नहीं
गौड़ीय परंपरा के महान आचार्य, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि यदि आप शुद्ध भक्ति विकसित करना चाहते हैं तो आपको तनिक भी अभक्ति से समझौता नहीं करना चाहिए। मेरे आदरणीय गुरु श्रील प्रभुपाद भी यह अभिप्राय प्रकट करते हैं कि भक्ति के विषय में किसी भी प्रकार का समझौता नहीं होना चाहिए। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर दृढ़ता से कहते हैं,"दुष्ट-गोरु, एक उत्पाती गाय रखने की अपेक्षा रिक्त गोशाला अच्छा है।" अर्थात भक्तिविनोद-धारा में अपवित्रता का कोई स्थान नहीं है। यह धारा स्वयं ठाकुर भक्तिविनोद से चली आ रही है, अतः इसकी पुष्टि करने का प्रश्न ही नहीं है। यहाँ कापट्य और ईर्ष्या कदापि स्वीकार्य नहीं हैं।
सर्वोत्तम पूजा
श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंध में, भगवान श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं:
मद्भक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मति:
"मेरे प्रिय भक्त को अर्पित की गई पूजा, मुझे प्रत्यक्षतः अर्पित पूजा से श्रेष्ठ है।" (श्रीमद्भागवतम् ११.१९.२१)
चैतन्य-भागवत में भी, महाप्रभु ने कहा है-
आमार भक्तेर पूजा — आमा हइते बड़
सेई प्रभु वेद-भागवते कैला दढ़
"वेदों और पुराणों में भगवान ने दृढ़ता से घोषणा की है, "मेरे भक्तों की पूजा मेरी पूजा से श्रेष्ठ है।" (चैतन्य-भागवत आदि-खंड १.८)
इसलिए, व्यास-पूज महोत्सव में श्रीनित्यानंद प्रभु पूजा अर्पित कर रहे थे और श्रीमान् महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु के आवेश में प्रकट हुए, क्योंकि नित्यानंद प्रभु उनके भक्त हैं। वे स्वंय बलराम हैं।
आनेर कि कथा, बलदेव महाशय।
याँर भाव - शुद्ध - सख्य - वात्सल्यादि - मय॥
तेंहो आपनाके करेन दास - भावना।
कृष्ण - दास - भाव विनु आछे कोन जना॥
(चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला ६.७६-७७)
चूँकि बलराम, श्रीकृष्ण के अग्रज हैं, अतः उनका भाव शुद्ध-सख्य-वात्सल्य अर्थात शुद्ध सख्य और वात्सल्य का मिश्रण है। स्वयं श्री बलराम यह कहते हैं कि, "मैं कृष्ण-दास हूँ।", तो किसी अन्य का क्या स्तर हो सकता है? कृष्ण-दास-भाव बिनु आछे कोन जन, क्या ऐसा कोई है जो कृष्ण-दास नहीं है?
श्रीगुरु नित्यानंद के ही स्वरूप हैं
गौर लीला में, वही बलराम निताई के रूप में प्रकट हुए हैं। गुरु कृष्ण-रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे - शास्त्र प्रमाण है कि कृष्ण श्रीगुरु के रूप में प्रकट होते हैं (चैतन्य-चरितामृत, आदि-लीला १.४५)। नित्यानंद प्रभु ने श्रीगौर को व्यास-पूजा अर्पण की, क्योंकि श्रीगौर स्वयं-भगवान हैं। यद्दपि जब निताई, गौरांग महाप्रभु को माला अर्पित कर रहे थे, तो उन्होंने स्वयं को वहाँ देखा। वैष्णवों की चरण-रज, चरणामृत और अधरामृत (वैष्णवों का उच्छिष्ट) अत्यंत बलशाली हैं। इन तीनों वस्तुओं की क्षमता का मूल्यांकन कोई भी नहीं कर सकता है, वे अमूल्य हैं। इसलिए नरोत्तम दास ठाकुर गायन करते हैं:
वैष्णवेर पद-धूलि ताहे मोर स्नान-केलि
तर्पण मोर वैष्णवेर नाम
वैष्णवेर उच्छिष्ट ताहे मोर मनो-निष्ठा
वैष्णवेर नामेते उल्लास
"वैष्णवों के चरण कमलों की धूल ही मेरा स्नान जल है। वैष्णवों का नामोच्चारण ही मेरा तर्पण मंत्र है। मेरा मन वैष्णवों के उच्छिष्ट ग्रहण से प्राप्त होने वाले परम आध्यात्मिक लाभ के बारे में दृढ़ता से आश्वस्त है। वैष्णवों के नाम ही मेरी प्रसन्नता हैं।" (प्रार्थना ३५)
वैष्णव के - वैष्णव कौन है?
वैष्णव कौन है? यह समझना आवश्यक है, अन्यथा आप भ्रमित हो जाएंगे।
‘कनक-कामिनी,’ ‘प्रतिष्ठा-बाघिनी,’
छाड़िया़छे जारे, सेइ तो वैष्णव
सेइ ‘अनासक्त,’ सेइ ‘शुद्ध-भक्त,’
संसार तथा पाय पराभव
यथा-योग्य भोग, नाहि तथा रोग,
‘अनासक्त’ सेइ, कि आर कहबो
‘आसक्ति-रहित,’ ‘सम्बन्ध-सहित,’
विषय-समूह सकलि ‘माधव’
से ‘युक्त-वैराग्य,’ ताह तो सौभाग्य,
ताहाइ जड़ेते हरिर वैभव
कीर्तनें जाहार, ‘प्रतिष्ठा-संभार,’
ताहार सम्पत्ति केवल ‘कैतव’
"धन, स्त्री और प्रसिद्धि बाघिनी के समान घातक हैं। अतः एक वैष्णव इन्हें दूर से ही त्याग देता है। भौतिक आसक्तियों से रहित भक्त ही शुद्ध वैष्णव होता है। ऐसे भक्त भौतिक संसार और भोगों पर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं। वे केवल भगवान की सेवा के लिए ही आवश्यक वस्तुओं को स्वीकार करते हैं। वे भौतिक भोग की रुग्ण मानसिकता से मुक्त रहते है और शत प्रतिशत स्वयं को भगवान की सेवा में समर्पित रखते हैं। समस्त मिथ्या आसक्तियों से मुक्त रहते हुए, वे प्रत्येक वस्तु को कृष्ण से सम्बंधित देखते हैं अर्थात प्रत्येक वस्तु श्री कृष्ण के सुख के लिए है। प्रत्येक वस्तु का कृष्ण की सेवा में उपयोग करना ही वास्तविक त्याग है। इसलिए वे सर्वाधिक भाग्यशाली हैं। यद्द्यपि वे भौतिक संसार में रहतें है, परन्तु वे निरंतर कृष्ण की लीलाओं में निमग्न रहते हैं और इस प्रकार वे भौतिक संसार में ही आध्यात्मिक जगत का अनुभव करते हैं।
इसके विपरीत, जो केवल नाम और प्रतिष्ठा के लिए भगवान के पवित्र नाम का जप करता है वह केवल एक पाखंडी और धोखेबाज है।" (श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती, वैष्णव-के ११-१३, महाजन-रचित गीता से)
शुद्ध वैष्णव के लक्षण
एक वास्तविक शुद्ध वैष्णव कनक(स्वर्ण), कामिनी(स्त्री), और प्रतिष्ठा-बाघिनी (सांसारिक प्रतिष्ठा रूपी बाघिनी) को प्राप्त करने की लालसा त्याग चुका है। उसकी एकमात्र आसक्ति कृष्ण के चरण कमलों में होती है। एक वैष्णव ने माया के वैभव को पूर्णरूप से पराजित कर दिया है। वह युक्त-वैरागी है; उसके पास समस्त भौतिक सुख है, परन्तु वह उनमें आसक्त नहीं है। वह सब कुछ कृष्ण, गुरु और गौरांग की प्रसन्नता व सेवा के लिए उपयोग करता है।
'आसक्ति-रहित,' 'सम्बन्ध-सहित,'
विषय-समूह सकलि 'माधव'
वह कृष्ण के साथ अपने शुद्ध, शाश्वत, प्रेममय संबंध में दृढ़तापूर्वक स्थित है। वह जानता है कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु कृष्ण के सुखपभोग के लिए है और जीव के भोग के लिए कुछ भी नहीं है। कृष्ण ही एकमात्र विषयी हैं अर्थात भौतिक समृद्धि, भूमि, संपत्ति और धन इत्यादि सब कृष्ण का है। जो इस तथ्य को जनता है, वह युक्त-वैरागी है। वह मिथ्या त्यागी या फल्गु-वैरागी नहीं है। एक फल्गु-वैराग का वर्णन इस प्रकार है:
कीर्तने जाहार, 'प्रतिष्ठा-सम्भार,'
ताहार सम्पत्ति केवला 'कैतव'
उसका कीर्तन, नृत्य, जप, मृदंग वादन इत्यादि केवल नाम, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा अर्जन के लिए है। इसका प्रतिफल व संपत्ति केवल कैतव (छल) है। उसका भजन कपटता व ईर्ष्या भाव से युक्त है। वह निश्चित रूप से वैष्णव नहीं है। अतः हमें यह बोध होना चाहिए कि वैष्णव कौन हैं?
जीव गोस्वामी प्रभु अपने भक्ति-संदर्भ में पद्म पुराण से उद्धरण देते हैं:
तेषां पूजदिकं गन्ध-
धूपद्यैः क्रियते नरैः
तेन प्रीतिं परं यामि
न तथा मम पूजनात्
(पद्म-पुराण, कार्तिक-माहात्म्य, भक्ति-संदर्भ में उद्धृत)
परम भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, "कोई भी गंध, पुष्प, धूप और दीप इत्यादि से मेरी अर्चना कर सकता है, लेकिन यदि वह मेरे प्रिय भक्तों की पूजा नही करता है, तो मैं प्रसन्न नहीं होता हूँ।"
कृष्ण उद्धवसे कहते हैं-
आदर: परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम्।
मद्भक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मति:॥
मदर्थेष्वङ्गचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम्।
मय्यर्पणं च मनस: सर्वकामविवर्जनम्॥
“मेरे प्रिय भक्त अत्यंत तन्मयता और आदर के साथ मेरी सेवा करते हैं। वे मुझे साष्टांग प्रणाम करते हैं। वे मेरे भक्तों की पूजा मेरी पूजा से भी बढ़कर करते हैं। वे समस्त प्राणियों में मेरी ही चेतना का समावेश देखते हैं। वे अपनी संपूर्ण ऊर्जा मेरी सेवा में लगाते हैं। वे वाणी से मेरे गुण और रूप की महिमा का गायन करते हैं। वे अपने मन को मुझमें समर्पित करते हैं और सभी भौतिक इच्छाओं का बहिष्कार करते हैं। ये सब मेरे प्रिय भक्तों की विशेषताएँ हैं।" (श्रीमद्भागवतम्, ११.१९.२१-२२)
यह वैष्णव कहलाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, "मद्भक्तपूजाभ्यधिका, वैष्णवों की पूजा मेरी (भगवान्) पूजा से श्रेष्ठतर है।" इसी पूजा को व्यास-पूजा कहा जाता है, अर्थात समस्त शुद्ध गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की पूजा। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने इस तत्त्व को अपनी व्यास-पूजा में व्यक्त किया। अतः ऐसे गौड़ीय वैष्णव आचार्य व गुरु-वर्ग की पूजा किए बिना एवं उनकी कृपा से विहीन, कोई भी गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत को नहीं समझ सकता है।
आचार्यावतार कीर्तन की परम आवश्यकता
कृष्ण विषय-विग्रह, प्रेम के विषय हैं और गुरु आश्रय-विग्रह, प्रेम के आश्रय हैं। गुरु-वैष्णवों का एकमात्र कार्य हरि-कीर्तन है। जब तक आश्रय-विग्रह-अवतार आचार्य श्री-गुरुदेव कीर्तन नहीं करते हैं, तब तक आप विषय-विग्रह के नाम, रूप, गुण, परिकर और लीला तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं। श्रीमद्भागवतम भगवान कृष्ण का वाणी अवतार है। परन्तु, जब तक आश्रय-विग्रह आचार्य-गुरुदेव इसका कीर्तन नहीं करते हैं, तब तक कोई भी भागवत-तत्त्व, ग्रंथ-अवतार, शास्त्र-अवतार - श्रीमद्भागवतम का तात्पर्य नहीं समझ सकता है।
श्रीनाम और श्रीमंत्र इस भौतिक संसार में शब्द-अवतार के रूप में अवतरित हुए हैं, परन्तु जब तक आचार्य-अवतार शिष्य को स्वयं इस कीर्तन का श्रवण नहीं कराते हैं, तब तक श्रीनाम और श्रीमंत्र कभी भी प्रभावशाली नहीं होंगें। यद्दपि मंत्र और पवित्र नाम ग्रंथों में लिखित हैं, अतः कोई यह कह सकता है, "मंत्र यहाँ लिखा है, इसलिए मैं इसका जप कर लूँगा।" लेकिन महंत-गुरु, आश्रय-विग्रह-आचार्य के बिना यह प्रभावहीन होगा। श्री-नाम, श्री-मंत्र और ग्रंथ-भागवत सभी विषय-विग्रह हैं, लेकिन आश्रय-विग्रह के कीर्तन के बिना वे कभी भी प्रकट नहीं होते हैं। आप इस तथ्य को समझने का प्रयास करें। श्रीमान् महाप्रभु और श्री नित्यानंद प्रभु आपका उपकार करेंगें।
कोई ऐसा सोच सकता है कि, "यदि मैं मंदिर में विग्रह-सेवा करूँगा, तो आध्यत्मिक ज्ञान स्वतः विदित हो जायेगा।" परन्तु, यह कदापि सम्भव नहीं है। आप इन्द्रियों से परे- अधोक्षज को स्वप्रयास मात्र से नहीं समझ सकते हैं। आश्रय-विग्रह - गुरु-वैष्णव के कीर्तन के बिना विषय-विग्रह कभी प्रकट नहीं होंगें। इसलिए वैष्णवों को अर्पित पूजा श्रेष्ठतर है - मद्भक्तपूजाभ्यधिका।
इसलिए जब नित्यानंद प्रभु ने व्यास-पूजा अर्पित की, तो महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु का रूप धारण किया, "मैं ही नित्यानंद हूँ।" यही गुरु-पूजा व व्यास-पूजा कहलाती है। उपरोक्त श्लोक का यही तात्पर्य है।
श्रीमान् महाप्रभु कहा है, कीर्तनीयः सदा हरिः - सबको निरंतर हरि नाम का कीर्तन करना चाहिए। हमारे तत्त्व-आचार्य श्रील जीव गोस्वामी ने अपने संदर्भ में वर्णित किया है:
अतएव यद्यप्यन्या भक्तिः कलौ कर्त्तव्या
तदा कीर्त्तनाख्या भक्तिसंयोगेनैव
"यद्यपि कलियुग में व्यक्ति भक्ति की उपरोक्त आठ विधिओं (श्रवणं, स्मरणं, पादसेवनम्, अर्चनं, वन्दनं, दास्यं, सख्यम्, आत्मनिवेदनम्) का अनुपालन कर सकता है, फिर भी, साधन-भक्ति में उन्नति हेतु मुख्य रूप से नाम कीर्तन अवश्य करना चाहिए।" (श्रीमद्भागवतम्, ७.५.२३-२४ पर क्रम-संदर्भ टिप्पणी)
कलियुग में, यद्यपि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की भक्ति विधी, यथा - स्मरणम्, अर्चनम्, वन्दनम्, दास्यम् और सख्यम् इत्यादि का अभ्यास कर सकता है, परन्तु, इन विधियों का कीर्तन के साथ ही अभ्यास करना चाहिए। इसे कीर्तनाख्या भक्ति कहा जाता है।
अतः निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति को एक साधु-गुरु-आचार्य-वैष्णव का आश्रय ग्रहण करके विनम्रतापूर्वक उनसे कीर्तन सुनना चाहिए। आश्रय-विग्रह-आचार्य या वैष्णव-गुरु के कीर्तन के बिना आप भक्ति-तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं। इसलिए जीव गोस्वामी ने लिखा है - कीर्त्तनाख्या भक्तिसंयोगेनैव। यही हमारा सिद्धांत है।
सर्वोत्कृष्ट पूजा
आश्रय-विग्रह-आचार्य व गुरु-वैष्णव की पूजा सर्वोच्च पूजा है। इसलिए व्यास-पूजा समस्त शुद्ध गौड़ीय वैष्णवों की पूजा है। अपने ५२वें आविर्भाव दिवस पर व्यास-पूजा उत्सव के समापन में, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद महाराज ने कहा, "वास्तविक व्यास-पूजा समस्त शुद्ध गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की पूजा है। यह केवल श्रील व्यासदेव, श्रीकृष्ण या श्रीगौरसुंदर की पूजा नहीं है। यह मात्र गुरु-पूजा भी नहीं है। अपितु यह सभी शुद्ध गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की पूजा है। इसलिए भक्तिविनोद-धारा की व्यास-पूजा-पद्धति में हमें यह मंत्र प्राप्त है:
श्री दामोदर स्वरूप, श्री रूप, श्री सनातन, श्री रघुनाथ, श्री जीव, भट्ट युग, श्री कृष्णदास-कविराज आदि, श्रीमद् भक्तिविनोद, श्रीमद् गौरकिशोर दास, श्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती, श्रीमद् भक्तिवेदांत स्वामी पादंक सर्वेभ्यो गुरवे नमः।
प्रश्नोत्तर
भक्त: यद्द्यपि हम महान आचार्यों के प्राकट्य दिवस का पालन करते हैं, लेकिन हमें उनकी पुस्तकें पढ़ने की अनुमति क्यों नहीं है?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: ऐसा नहीं है, आप उनकी पुस्तकें पढ़ सकते हैं, परन्तु उनकी कृपा के बिना, क्या आप उनका अभिलेखन समझ सकते हैं? एक बार यही प्रश्न श्रील प्रभुपाद से पूछा गया। "प्रभुपाद, आपकी पुस्तक पढ़कर, क्या हम आपके तात्पर्य को समझ सकते हैं...?" प्रभुपाद ने उत्तर में कहा "नहीं, नहीं, नहीं!" उन्होंने दो-तीन बार "नहीं, नहीं, नहीं!” दोहराया। आपको एक तत्त्ववेत्ता वैष्णव से समझना होगा जो तत्त्व को भलीभाँति जानता हो।"
भक्त: कुछ लोग कहते हैं कि हमें महान आचार्यों के प्राकट्य दिवस तो मनाना चाहिए, लेकिन हमें उनकी पुस्तकें नहीं पढ़नी चाहिए। उनकी पुस्तकें प्रतिबंधित हैं।
श्रील गौर गोविंद स्वामी: तब वे ऐसे वैष्णवों के कमल चरणों में महान अपराध करते हैं।
भक्त: जो कहते हैं कि भक्तिविनोद ठाकुर की पूजा तो कीजिए, लेकिन उनके ग्रन्थ मत पढ़ो, तो क्या भक्तिविनोद ठाकुर उनकी पूजा स्वीकार करेंगे?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: यह सब मूर्खता है।
भक्त: शुद्ध भक्त की कीर्तन शक्ति क्यों आवश्यक है? शब्द-ब्रह्म को... हम कैसे समझ सकते हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: शब्द-ब्रह्म केवल शुद्ध वैष्णवों के श्रीमुख से स्फुरित कीर्तन के माध्यम से अवतरित होता है।
भक्त: क्या शब्द-ब्रह्म कृष्ण है?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ। परन्तु, हमें प्रत्यक्ष सुनना होगा। टेप रिकॉर्ड सुनने से शब्द-ब्रह्म कभी अवतरित नहीं होगा।
भक्त: क्या शब्द-ब्रह्म टेप ध्वनि के माध्यम से अवतरित नहीं होता है?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: नहीं, कदापि नहीं।
भक्त: केवल तभी जब आप व्यक्तिगत रूप से एक शुद्ध वैष्णव से श्रवण कर रहें हों?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ। वर्तमान वैज्ञानिक युग में अनेक तकनीकें अविष्कृत हैं। लोग कहते हैं, "अब शिक्षकों की आवश्यकता नहीं है। हम टेलीविजन के माध्यम से पढ़ लेंगे।" परन्तु, यह सब व्यर्थ की बाते हैं। तकनीक के माध्यम से शब्द-ब्रह्म कभी अवतरित नहीं होगा।
भक्त: यदि किसी भक्त ने एक प्रामाणिक गुरु से दीक्षा ग्रहण की है, परन्तु गुरु अपनी भौम लीला समाप्त कर चुकें हैं, तो उस शिष्य को क्या करना चाहिए?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: लीला सदैव वर्तमान है: "अद्यापिहा सेई लीला करे गौर-राय, कोन कोन भाग्यवान देखिबार पाय।" गौरांग लीला आज भी प्रतिपादित हो रही हैं। लोग कहते हैं "गौरांग महाप्रभु अंतर्धान हो चुके हैं"। परन्तु, यह सत्य नहीं हैं जो अत्यंत भाग्यवान हैं और जिन्होंने विशुद्ध दिव्य दृष्टि प्राप्त की है, वे स्पष्ट देख सकते है कि किस प्रकार गौर-लीला अभी भी विद्यमान है।
भक्त: इसका अर्थ है कि गुरु सदा विद्यमान हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ। गुरु सदैव उपस्थित हैं। उनकी लीला नित्य है।
भक्त: यदि मैं यह विचार करता हूँ कि, “मैंने पूर्व में ही अपने गुरु की चरण रज प्राप्त की है, किंतु वर्तमान में गुरु इस जगत में नहीं हैं। तो अब मुझे इस रज की कोई आवश्यकता नहीं है।”
श्रील गौर गोविंद स्वामी: गुरु सदा वर्तमान हैं, उनका दर्शन नित्य है। यदि आपके पास उचित दृष्टि है, यदि आप एक सत्-शिष्य हैं तो आप देख सकते हैं कि गुरु किस प्रकार सदा उपस्थित हैं।
भक्त: हम गुरु का दर्शन कैसे कर सकते हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: दृष्टिहीन व्यक्ति! यदि आपको दिव्य दृष्टि प्राप्त है, तो गुरु दर्शन कर सकते हैं। मेरे गुरुदेव कभी मेरे नेत्रों से ओझल नहीं हुए हैं। मैं उन्हें निरंतर उपस्थित देखता हूँ। इसलिए मैं "नित्य-लीला-प्रविष्ट" कभी नहीं कह सकता हूँ। यह मेरे लिए अति वेदनापूर्ण व असहनीय है। श्रील प्रभुपाद सदैव यहाँ उपस्थित हैं।
भक्त: क्या शुद्ध भक्त का दर्शन करने के लिए स्वयं शुद्ध भक्त होना आवश्यक है?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ, निस्संदेह! इसके लिए हमें दिव्य दृष्टि की आवश्यकता है। अन्यथा आप नेत्रहीन हैं। यद्यपि दृश्य वस्तु विद्यमान है, परन्तु एक दृष्टिहीन व्यक्ति उसका दर्शन कैसे कर सकता है? किसी वस्तु के दर्शन हेतु नेत्र और प्रकाश दोनों की उपस्थिति आवश्यक है। आप दृष्टि संपन्न हो सकते हैं, परन्तु प्रकाश की अनुपस्थिति (अंधकार) में नहीं देख सकते हैं। अतः वह प्रकाश क्या है? कृपा शक्ति द्वारा ज्ञानोदय; यदि आप कृपा शक्ति से वंचित हैं, तो आप किस प्रकार दर्शन कर सकते हैं।
भक्त: अनर्थ, नेत्रों को आच्छादित करने वाले बादलों के समान हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ। अनर्थ सूर्य को आच्छादित करने वाले मेघ के समान होते हैं। अनर्थो के प्रभाव से नेत्र आच्छादित हो जाते हैं।
भक्त: क्या कोई गुरु को विभिन्न रूपों में देख सकता है? अथवा क्या गुरु स्वप्न में आते हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ, गुरु स्वप्न में आ सकते हैं। कृष्ण के भाँति उनके भी विभिन्न स्वरूप हैं। कृष्ण के अनेक अवतार हैं। इसलिए हमने अपनी पुस्तक श्रीगुरु-वंदना में समष्टि-गुरु और व्यष्टि-गुरु के बारे में विस्तृत वर्णन किया है।
भक्त: समष्टि-गुरु और व्यष्टि-गुरु कौन हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: गुरु कृष्ण-रूप हन शास्त्रेर प्रमाणे - कृष्ण ही गुरु के रूप में प्रकट होते हैं। कृष्ण एक हैं। अतः गुरु-तत्त्व भी एक है। लेकिन वे विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं। इन्हें समष्टि-गुरु कहते हैं। विशिष्ट रूप जैसे श्रील भक्तिवेदांत स्वामी, श्रील भक्तिसिद्धांत इत्यादि व्यष्टि-गुरु है।
भक्त: क्या श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती महाराज के शरीर त्यागने के पश्चात् भी श्रीगुरु रूप में उपस्थित थे?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ।
भक्त: इसका अर्थ हुआ कि गुरु सदैव उपस्थित हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हाँ।
भक्त: क्योंकि गुरु कृष्ण से अभिन्न हैं, अतः गुरु की उपाधि सरल नहीं है। तो, फिर ऐसा क्यों कहा जाता है कि कानिष्ठ या मध्यम स्तर के गुरु भी हो सकते हैं?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: वास्तव में, वे सभी गुरु हैं - कनिष्ठ-गुरु, मध्यम-गुरु और उत्तम-गुरु। आपकी योग्यता के अनुसार आपको गुरु मिलते हैं। कृष्ण जानते हैं कि आपका अधिकार क्या है, इसलिए वे आपके लिए वैसी ही व्यवस्था करते हैं।
भक्त: कुछ भक्त अब गुरु को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। उनका कहना है, "मैं केवल शास्त्र अध्ययन करूँगा।"
श्रील गौर गोविंद स्वामी: परन्तु, (बिना गुरु कृपा के) आप शास्त्र को कैसे समझ सकते हैं?
भक्त: लेकिन हमने प्रत्यक्षतः देखा है। उदहारण के लिए, रूस में कुछ भक्तों ने केवल पुस्तकें स्वीकार की हैं और अब वे जप, विग्रह पूजा तथा प्रचार कार्य कर रहे हैं।
श्रील गौर गोविंद स्वामी: मैं पहले ही दोहरा चुका हूँ, "आप शास्त्र को स्वतः नहीं समझ सकते हैं।" यद्द्यपि शास्त्र में मंत्र है व नाम अभिज्ञ हैं, लेकिन यदि आप गुरु-आश्रय के बिना जप करते हैं तो यह प्रभावहीन होगा। जब तक मंत्र सद्-गुरु, के श्रीमुख द्वारा उच्चारित नहीं होता है, तब तक यह प्रभावहीन होगा। ऐसा जप शक्तिहीन होगा।
भक्त: लेकिन उनका तर्क है कि स्मृति-शास्त्र चिरकाल से वैष्णवों के मुख से प्रवाहित हो रहा है। अतः हम भी शास्त्र का ही श्रवण कर रहे हैं।
श्रील गौर गोविंद स्वामी: यह सत्य है। शास्त्र ज्ञान श्रवण पंथ से प्रकट होता है। यह सद्-गुरु या श्री-गुरु के मुख कमल से स्फुरित होता है। यद्यपि शास्त्र उपस्थित हैं, परन्तु, यह स्वयं कभी प्रकट नहीं होगें। यह शास्त्र के प्रकटीकरण का प्रश्न है।
भक्त: अन्य लोग कहते हैं कि हम वैष्णव-आचार्यों की टीकाएं श्रवण करके समझ सकते हैं।
श्रील गौर गोविंद स्वामी: इसके लिए ही कहा गया है-
भक्त्या भागवतं ग्राह्यं
न बुद्ध्या न च टीकया
(चैतन्य-चरितामृत, मध्य-लीला २४.३१३)
"श्रीमद्भागवत को केवल भक्ति से समझा जा सकता है, स्वयं की बुद्धिमता या टीका को पढ़कर नहीं।"
आप केवल टीका पढ़कर भागवत को नहीं समझ सकते है। अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं। कोई सोच सकता है, "मैं विद्वान हूँ। मैं संस्कृत भाषा जानता हूँ इसलिए मैं संस्कृत टीकाएँ पढ़ कर भागवत समझ लूँगा।" परन्तु, ऐसा सम्भव नहीं हैं! आप केवल भक्ति से ही श्रीमद्भागवत को समझ सकते हैं। आप अपनी भौतिक विद्वत्ता, शिक्षा, बुद्धि या टीकाओं की सहायता से भागवत को नहीं समझ सकते हैं। सर्वप्रथम, आचार्यों से श्रवण करो तत्पश्चात भक्ति विकसित होगी। केवल पढ़कर आप नहीं समझ सकते हैं। ग्रंथ-अवतार आपके समक्ष कभी प्रकट नहीं होगा। इनका स्वतः पठन करके आप केवल कागज और काले अक्षर ही देख पाएंगे।
भक्त: बृहद-मृदंग-संकीर्तन क्या है? श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती कहा करते थे कि प्रिंटिंग प्रेस हमारा बृहद-मृदंग-संकीर्तन है।
श्रील गौर गोविंद स्वामी: एक पुस्तक का वितरण होने से यह अनेक लोगो तक पहुँच जाती है। पहले आप स्वयं पुस्तक पढ़ेंगे फिर आपका मित्र कहेगा, "ओह, मुझे भी इस पुस्तक को पढ़ना है।" फिर वह किसी और यह पुस्तक देगा। इस तरह यह अनेक लोगो तक पहुँच जाती है। मृदंग की ध्वनि केवल कुछ दूरी ही तय करती है, लेकिन बृहद-मृदंग (पुस्तक वितरण) की ध्वनि सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचती है। इससे आपको प्रेरणा मिलेगी। आप सोचेंगे, "इस पुस्तक का लेखक कौन है? मुझे उनसे मिलना है और उनका श्रवण करना है!"
भक्त: अतः पहले आप सुनते हैं और फिर शास्त्र में वही बात पढ़ते हैं...
श्रील गौर गोविंद स्वामी: हां, केवल कलियुग में ही पुस्तकों की आवश्यकता है। अन्य युगों में पुस्तकें नहीं थीं। लोग एक बार सुनकर कभी नहीं भूलते थे। लेकिन इस युग में, प्रवचन के बाद यदि मैं आपसे दोहराने के लिए कहुँ, तो आप कितना दोहरा पाएंगे? आप पहले ही नब्बे से पंचानबे प्रतिशत भूल चुके होंगे। अत्यधिक प्रयास के बाद केवल पाँच प्रतिशत ही आप दोहरा पाएंगे। अतः इस युग में पुस्तकों की आवश्यकता है। इसलिए व्यासदेव ने शास्त्रों को लिपिबद्ध किया। पुस्तकें आपको स्मरण रखने में मदद करती हैं, "ओह हाँ। यही बात मैंने प्रवचन में सुनी थी। अब यह पुस्तक में लिखी हुयी है।"
भक्त: श्री गुरु-वंदना पुस्तक में, आपने अमृत के इस प्रवाह को पद्म-मधु के रूप में वर्णित किया है। आपने बताया है कि यह पद्म-मधु केवल निष्ठावान श्रोता ही प्राप्त कर सकता है। तो कोई व्यक्ति जिसने गुरु के मुख कमल से हरि-कथा का निष्ठापूर्वक श्रवण किया है तथा गुरु की सेवा भी करता है, क्या वह गुरु के निकट नहीं होने पर भी, उस अमृत को प्राप्त कर सकता है?
श्रील गौर गोविंद स्वामी: आपके हृदय में लालसा होनी चाहिए। गुरु के निकट रहकर प्रत्यक्ष श्रवण करना आवश्यक है। केवल रिकार्डेड टेप सुनने से लाभ नहीं होगा। शब्द-ब्रह्म कभी भी टेप के माध्यम अवतरित नहीं होगा। सबको प्रत्यक्षतः उपस्थित होकर श्री-गुरु से श्रवण करना चाहिए।
परिशिष्ट
श्री गुरु के मुख कमल से श्रवण
कृष्ण कृपा श्रीमूर्ति श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद:
"यही रहस्य है। जब तक किसी व्यक्ति को स्वानुभवम् अर्थात आत्म-साक्षात्कार नहीं होता है, या उसका जीवन भागवतमय नहीं होता है, तब तक वह भागवत का प्रचार नहीं कर सकता है। उसका प्रचार प्रभावशाली नहीं होगा। एक ग्रामोफोन से सहायता नहीं मिलेगी। इसलिए, चैतन्य महाप्रभु के सचिव, श्रील स्वरूप दामोदर सुझाव देते हैं, भागवत पोरा गिया भागवत-स्थाने (याह, भागवत पढ़ा वैष्णवेर स्थाने), अर्थात 'यदि आप श्रीमद्भागवतम का वास्तविक अर्थ समझना चाहते हैं, तो आपको एक ऐसे व्यक्ति के संसर्ग में जाना चाहिए जिसका सम्पूर्ण जीवन भागवतमय है अर्थात वह जीवंत भागवत है।' भागवत पोरा गिया भागवत-स्थाने (याह, भागवत पढ़ा वैष्णवेर स्थाने)। अन्यथा, भागवत साक्षात्कार का कोई प्रश्न ही नहीं है।" (श्रीमद्भागवतम् १.२.३ पर व्याख्यान, रोम २७ मई १९७४)
"फिर हमारे लिए क्या आवश्यक है? नमन्तः एव अर्थात विनम्रता। स्वयं को महान दार्शनिक, धर्मशास्त्री, वैज्ञानिक मत समझो। केवल विनम्र बनो। आपका प्रश्न हो सकता है कि, "ठीक है, मैं विनम्र बन जाऊंगा। परन्तु, मैं कैसे प्रगति करूंगा?" अतः, नमन्तः एव सन्-मुखरितं भवदीय-वार्ताम्। 'भगवान के संदेश अर्थात भगवत वाणी का श्रवण करो।' 'और श्रवण किससे करना चाहिए?' सन्-मुखरितम् -'भक्तों के मुख से।' पेशेवर कथावाचको अथवा ग्रामोफोन रिकॉर्ड से नहीं, अपितु शुद्ध भक्तों के मुख कमल से श्रवण करो।" (श्रीमद्भागवतम् ६.१.२४ पर व्याख्यान से उद्धृत, शिकागो ८ जुलाई १९७५)
"…चूंकि उन्हें प्रातः काल जगने के लिए प्रशिक्षित किया गया है, यह अभ्यास आपको आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करेगा। यदि आप केवल एक ग्रामोफोन या टेप रिकॉर्ड वक्ता बन जाते हैं, तो यह प्रभावी नहीं होगा। आपको प्रत्यक्ष वक्ता होना चाहिए। आपकी जीवनशैली आध्यात्मिक रूप से आवेशित होनी चाहिए..." (कक्ष में वार्तालाप से उद्धृत, मॉरीशस ५ अक्टूबर १९७५)
"… यदि आप केवल भगवान् के विषय में श्रवण करेंगें, तो आप भगवान् को समझेंगें। इसलिए, श्रवण करना ज्यादा कठिन कार्य नहीं है। परन्तु, आपको आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त हुए वैष्णवों से ही श्रवण करना चाहिए। ... सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य-संविदः। यदि आप एक पेशेवर कथा वाचाक से सुनते हैं, तो ऐसा श्रवण प्रभावी नहीं होगा। अतः श्रवण क्रिया एक शुद्ध साधु, भक्त के मुख कमल से होनी चाहिए। जैसे शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित को कथा सुना रहे थे..." (श्रीमद्भागवतम् पर व्याख्यान से - १२ जून १९७२)
"… नियम एक ही है - व्यक्ति को भगवान् से एकाकार होने की शुष्क परिकल्पना को त्यागना होगा। इस प्रकार की अहंकारपूर्ण महत्वाकांक्षा का त्याग करके, उसे एक प्रामाणिक भक्त से (जिसकी योग्यताएँ उपरोक्त दी गई हैं) विनीत भाव से भगवद्गीता या श्रीमद्भागवतम में प्राप्त भगवान् के आदेशों को स्वीकार करे। ऐसा करने से सभी सफलताएँ प्राप्त होंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।…" (श्रीमद्भागवतम् १.५.३६ तात्पर्य)
अपने उपदेशावली में, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने कहा है:
"कृष्ण के दर्शन केवल कर्णों के माध्यम से होते हैं जब कोई शुद्ध वैष्णवों से हरि-कथा का श्रवण करता है, अन्य कोई उपाय नहीं है।" (श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद - उपदेशावली)
श्रील प्रभुपादेर उपदेशामृत में, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने कहा है:
प्रश्न 2: श्री भगवान को किस साधन से जाना जा सकता है?
श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद: श्री गुरुदेव के मुख कमल से उत्सर्जित हरि कथा का श्रद्धापूर्वक श्रवण करना होगा। श्री गुरुदेव के चरण कमलों में पूर्ण रूप से शरणागत होने के अतिरिक्त श्रीभगवान को जानने का अन्य कोई उपाय नहीं है। केवल गुरु चरणों में शरणागत व्यक्ति ही श्री भगवान को समझ सकता है। (श्रील प्रभुपादेर उपदेशामृत, श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद के साथ एक साक्षात्कार।)
मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु के कमल चरणों में बैठकर जो कुछ सुना है
"…बल्कि, हम अपने आध्यात्मिक गुरु के मुख से जो कुछ सुनते हैं, उसे हमें प्रणिपात (पूर्ण समर्पण), परिप्रश्न (निष्कपट जिज्ञासा), और सेवा के माध्यम से समझना होगा।"
"…वह दिव्य वस्तु जिसे मेरी इंद्रियाँ नहीं समझ सकतीं, केवल कर्णों के माध्यम से सुलभ है। मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु के चरण कमलों में बैठकर जो कुछ भी परम सत्य के बारे में श्रवण किया है, मेरी समझ केवल उतनी ही वास्तविक्ता तक सीमित है। अतएव, प्रणिपात अर्थात ध्यानपूर्वक श्रवण करने के अतिरिक्त परम सत्य को समझने का अन्य कोई उपाय नहीं है..." *
* श्री सच्चिदानंद मठ, कटक में श्रीमन् महाप्रभु का विग्रह स्थापित करने के अवसर पर ९ जुलाई सन् १९२७ को श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद द्वारा दिए गए व्याख्यान से उद्धृत।
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